आशुतोष कुमार सिंह
हिन्दुस्तान में इन दिनों भगवानों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी जा रही हैं. अमूमन यह देखने को मिलता रहा है कि कभी एक ही समुदाय विशेष के लोग आपस में लड़ते हैं, तो कई बार दो सम्प्रदाय आपस में लड़ते हैं. लेकिन इस बार का मामला एक सम्प्रदाय की आधी आबादी की लड़ाई का है. उसके हक़ का है. उसके अधिकारों का है. उसकी अपनी पहचान का है. उसके अपने भगवान का है. उनके इस्टदेव से उनको इसलिए मिलने से रोका जा रहा था क्योंकि वे महिला हैं, मासिक धर्म के चक्र में फंसी हुई महिला ? लेकिन इस बार की लड़ाई में उनकी जीत हुई है. इस बार उनको अपने भगवान के दर्शन-पूजन करने का अधिकार मिला है. यह मामला है कि दक्षिण भारत के केरल राज्य की. इस राज्य में एक बहुत ही प्राचीन मंदिर सबरीमाला है. इस मंदिर में भगवान अय्यप्पा विराजते हैं. उनकी पूजा सदियों से दक्षिण भारत के लोग करते आ रहे हैं. पिछले १५०० वर्षों से यह परंपरा चली आ रही थी कि इस मंदिर के भगवान के स्नान समय मासिक धर्म के दौर से गुजर रहीं महिलाएं प्रवेश नहीं कर सकती हैं. इस असमानता के खिलाफ वकीलों के एक ग्रुप ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था. देश की न्याय व्यवस्था ने न्याय सुनाते हुए कहा है कि हिन्दू परंपराओं , आस्था व श्रद्धा को महिला-पुरुष में नहीं बांटा जा सकता हैं. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार संविधान समान रूप से दोनों को देता हैं. अतः हिन्दू मान्यताओं में कोई भगवान हैं तो उसकी पूजा पुरुष-महिला समान रूप से ही करेंगे. यह मामला उस समय तूल पकड़ लिया था जब पिछले वर्ष दिसंबर में मंदिर प्रशासन ने महिलाओं की 'पवित्रता' जांच की बात करते हुए कहा था कि वे महिलाओं की रजोवृति व रजोनिवृति की जांच मशीन लगा कर करेंगे. इस पर बवाल होना ही था, हुआ भी. देश-दुनिया के लोगों ने इस तरह की फरमान की मुखालफत की. सोशल मीडिया पर पर वी 'हैप्पी टू व्लीड' का हैशटैग ट्रेंड करने लगा. महिलाओं ने अपने अधिकार को जोरदार तरीके से उठाया और अंत में उनकी जीत हुई. इस जीत को मैं सिर्फ महिलाओं की जीत नहीं मानता हूं. इसे हिन्दू समाज की भी जीत मानता हूं. हिन्दू समाजत को स्त्री -पुरूष के विभेद के साथ देखे जाने का मतलब यह हैं कि हम हिन्दुओं की आधी शक्ति की ही बात कर रहे हैं. एक समाज अपने आप को कई खंडों में विभक्त कर के बहुत समय तक वैभवशाली व आनंददायी बनाएं नहीं रख सकता हैं. उसे अपने विभेदों को सुलझाना पड़ेगा, निपटाना पडे़गा. खुशहाली की दवा ढूंढ़नी पड़ेगी. इस नज़र से देखा जाए तो शनि मंदिर में महिलाओं का प्रवेश का मामला हो या सबरीमाला मंदिर का, हमारी आधी शक्ति मजबूत हुई हैं. यहां पर ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि कोई भी लड़ाई सिर्फ लड़ने के लिए ही नहीं लड़ी जानी चाहिए. ऐसे में भगवानों के लिए लड़ना, लड़ने की पृष्ठभूमि तैयार करना अथवा होना किसी भी समुदाय विशेष के लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही तो हैं. वैसे भी सनातन धर्म एक गहरे समुद्र की तरह है. इसमें जो जितना डूबकी लगाता हैं उसी अनुपात में उसे ज्ञान रूपी मोती भी मिलते हैं. समस्या उस समय होती हैं जब हम ज्ञान तो प्राप्त करना चाहते हैं पर डूबकी लगाने से हिचकते हैं. यह हिचक भाव ही हमें सही ज्ञान से वंचित रखता हैं और समुद्र द्वारा फेंके गए निर्थक कचड़ों समेटकर हम यह मान बैठते हैं कि ज्ञानी तो हम ही हैं. कहने का मतलब यह है कि हिन्दू मतावलंबियों को खुद में सुधार करने की बहुत जरूरत है, पहले खुद को समझने की जरूरत हैं,' हिन्दू होने को' जानने की जरूरत है, इसकी गहराई को मापने की जरूरत है. देवभूमि भारत में सब भगवान हैं, सब में भगवान है. कड़-कड़ में भगवान निवास करते हैं. माना जाता है कि अभिव्यक्ति के प्रत्येक शब्द ईश्वरीय ही हैं. कहने का मतलब यह हैं कि हम जो भी कहते-बोलते हैं अपने अंदर के स्वर से ही उसे अभिव्यक्त कर पाते हैं. अतः यह स्वर ही हमारा ईश्वर है. जिनकों यह बात नहीं पता हैं अथवा जो जानकर भी इस बात को मानना नहीं चाहते हैं, ऐसे लोगों को अपनी आस्था को प्रदर्शित करने के लिए मूर्त स्वरूपों की जरूरत पड़ती है. उन्हें मंदिर अथवा देवालयों की आवश्यकता पड़ती हैं. जहां पर जाकर उन्हें इस बात का एहसास होता हैं कि उनका इस्टदेव यहीं पर विराजमान हैं. उनसे जो शिकायत करनी हैं यहीं पर की जा सकती हैं अथवा उन्हें जो भोग चढ़ानी हैं वह भी यहीं पर चढ़ाई जा सकती हैं. इस भाव के कारण ही भक्तों की यह टोली भगवान के मूर्त स्वरूप की ओर भागी चली आती है. उनकी इस दौड़ में कई बार दुर्घटनाएं भी होती हैं, भक्तों की जान तक चली जाती हैं. दअसल आस्था, भक्ति और श्रद्धा का अव्यवस्थित जमघट दुर्घटना को आमंत्रित करते ही हैं. खैर, मुझे पूर्ण विश्वास है जिस दिन खुद को हिन्दू कहने वाले लोग अपने 'हिन्दू होने को' ठीक से समझ-बूझ लेंगे, उस दिन वे अपनी परंपराओं में जमी धूलों को खुद-ब-खुद झाड़-पोंछ कर आत्मसात कर लेंगे. हमारे पास अपनी परंपराओं को सम्भाले रखने हेतु समृद्ध परंपराओं का अकूत भंडार है. जरूरत है उसे तार्किकता के साथ अपनाने की, समय की धूल को साफ करने की. अगर यह सब संभव हो गया फिर राम-कृष्ण के इस देश में राम का पुरूषार्थ भी कायम रहेगा और कृष्ण का प्रेम-संदेश भी.

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