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-फ़िरदौस ख़ान
हिंदी फ़िल्में हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं. ये मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम होने के साथ-साथ विभिन्न दौर के सामाजिक परिवेश को भी ब़खूबी पेश करती हैं. ये ज़िन्दगी के कई रंगों को अपने में समेटे रहती हैं. ऐसी ही एक फिल्म है  'कभी-कभी'.  27 फ़रवरी, 1976 को प्रदर्शित इस फ़िल्म का निर्देशन यश चोपड़ा ने किया था. रूमानियत और सुमधुर गीतों से सजी यह फ़िल्म काफ़ी रही थी. सागर सरहदी की लिखी कहानी पर आधारित फ़िल्म की पटकथा पामेला चोपड़ा और यश चोपड़ा ने लिखी. फ़िल्म में अभिताभ बच्चन, शशिकपूर, वहीदा रहमान, राखी गुलज़ार, नीतू सिंह, ऋषि कपूर और परीक्षित साहनी साहनी की यादगार भूमिकायें थीं. कहा जाता है कि यह फ़िल्म राखी को ध्यान में रख कर ही बनी थी, लेकिन इसी बीच राखी ने गुलज़ार से विवाह कर लिया. गुलज़ार नहीं चाहते थे कि राखी फ़िल्मों में काम करें. मगर आख़िर में यश चोपड़ा के समझाने पर वह मान गए. इस फ़िल्म के लिए ख़्य्याम को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार मिला था. 'कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है'... गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का साहिर लुधियानवी और सर्वश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार मुकेश को मिला था. यह गीत उस साल रेडियो सीलोन पर आने वाले प्रोग्राम में शीर्ष पर रहा था. इसके अलावा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए अमिताभ, अभिनेत्री के लिए राखी, सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री के लिए वहीदा रहमान और सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता के लिए शशि कपूर और सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए सागर सरहदी को नामांकित किया गया था.

दरअसल, हिंदी फ़िल्में हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं. ये मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम होने के साथ-साथ विभिन्न दौर के सामाजिक परिवेश को भी ब़खूबी पेश करती हैं. पिछले दिनों राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रहलाद अग्रवाल की किताब रेशमी ख्वाबों की धूप-छांव पढ़ी. इसमें फ़िल्म निर्देशक यश चोपड़ा की फ़िल्मों के विभिन्न पहलुओं को इतने रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि पाठक ख़ुद को इन फ़िल्मों के किरदारों के बेहद क़रीब पाता है. इसमें यश चोपड़ा की 1959 में आई फ़िल्म 'धूल का फूल' से लेकर 2004 में आई फ़िल्म 'वीर ज़ारा' तक के बारे में दिलचस्प जानकारी दी गई है. यश चोपड़ा ने हिंदी सिनेमा में निर्देशकों की तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है. जब उनकी पहली फ़िल्म 'धूल का फूल' प्रदर्शित हुई, तब महमूद, बिमल राय, राजकपूर, गुरुदत्त, विजय आनंद आदि का दौर था. 1973 में जब उन्होंने दाग़ के साथ यशराज फ़िल्म फिल्म्स की शुरुआत की, तब व्यापारिक परिदृश्य में मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, मनोज कुमार, श्याम बेनेगल, गुलज़ार, बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, गोविंद निहलानी और सई परांजपे आदि फिल्मकारों की बहुआयामी पीढ़ी थी, जो हिंदी सिनेमा को एक नया मोड़ देने की कोशिश कर रही थी.

अब वह सूरज बड़जात्या, करण जौहर, संजय लीला भंसाली, राम गोपाल वर्मा और आशुतोष गोवारिकर की पीढ़ी के साथ सृजनरत हैं. वह दर्शकों को रेशमी ख़्वाबों की दुनिया में ले जाते हैं. उनके प्रेम संबंध तर्क की सीमाओं से बाहर खड़े हैं. उनका कौशल यह है कि वह इस अतार्किकता को ग्राह्य बना देते हैं. वह समाज में हाशिये पर पड़े रिश्तों को गहन मानवीय संवेदना और जिजीविषा की अप्रतिम ऊर्जा से संचारित कर देते हैं. वह अपनी पहली फ़िल्म 'धूल का फूल' से लेकर 'वीर ज़ारा' तक अनाम रिश्तों की मादकता से अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे हैं. यश चोपड़ा संपूर्ण मानवीय चेतना के मुक़ाबले प्रेम की अनन्ता को अपने समूचे सिनेमा में स्थापित करते हैं. उन्होंने अपने लंबे निर्देशकीय रचनाकाल में विभिन्न भावभूमिकाओं पर आधारित कथानकों पर फ़िल्में बनाईं, तब भी वह मूल रूप से मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनके बीच गुंथी संवेदनाओं को उकेरने वाले फ़िल्मकार सबसे पहले हैं.

1976 में प्रदर्शित फ़िल्म 'कभी-कभी' यश चोपड़ा की शहद से मीठी फ़िल्म है. कहा गया कि इसके नायक के व्यक्तित्व का आधार साहिर लुधियानवी थे. यही बात गुरुदत्त की कालजयी कृति प्यासा के लिए भी कही गई थी, पर इन दोनों ही संदर्भों में सच्चाई यह है कि दोनों फ़िल्मों के नायक साहिर की तरह कवि और शायर थे. वे भी अपने प्यार को पाने में नाकाम रहे थे. इसके आगे साहिर की निजी ज़िंदगी और इन फ़िल्मों का शायद ही कोई संबंध हो. चूंकि इन दोनों फ़िल्मों के गीत भी साहिर ने ही लिखे थे और इनमें उनकी पहले से लिखी नज़्मों का बहुत ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया गया था, इसलिए इस तरह की संभावनाएं खोज लेना आम बात थी. साहिर का अस्तित्व सिर्फ़ सिनेमा में ही नहीं था, बल्कि वह उर्दू अदब की एक बड़ी शख्सियत थे. साहिर ज़िंदगी भर अविवाहित रहे और उन्होंने अपना दबदबा फ़िल्मी दुनिया में क़ायम रखा. उनका नाम जिस फ़िल्म से जुड़ता था, उसमें वह सर्वोपरि होते थे. वह सिनेमा स्टार की तरह रहे, कवि या शायर की तरह नहीं. साहिर ने कभी घुटने नहीं टेके, न कविता में और न सिनेमा के ऐर्श्व के बीच. पीढ़ियों को लांघने वाली इस प्रेमकथा में यश चोपड़ा ने अमिताभ बच्चन को उनकी स्थापित छवि एंग्री यंगमैन के बिल्कुल विरुद्ध एक संवेदनशील प्रेमी में तब्दील कर दिया था, उसे आमजन के बीच स्वीकार्य भी बना दिया था. 1975 से 1992 तक इस तरह की भूमिका में कोई अन्य निर्देशक जनमानस के बीच अमिताभ बच्चन को स्वीकार्य नहीं बना सका. यश चोपड़ा ख़ुद भी यह सिर्फ़ एक ही बार कर सके. अमिताभ और रेखा के अविस्मरणीय प्रणय दृश्यों के बावजूद सिलसिला को वह सहज लोकप्रिता नहीं मिली, जो कभी-कभी के हिस्से आई थी. सिलसिला का दिल को छू लेने वाला मधुर संगीत लोकप्रिय और श्रेष्ठ होने के बाद भी उस तरह जन-जन तक मन की हूक बनकर नहीं घुला-मिला, जैसे कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है...

फ़िल्म 'दिल' की कहानी में कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसे नया कहा जा सके. कॉलेज में लड़का-लड़की मिलते हैं, प्रेम होता है, शेर-ओ-शायरी चलती है, फिर लड़की के मां-बाप उसकी शादी कहीं और कर देते हैं. प्रेमी-प्रेमिका की अलग-अलग शादियां हो जाती हैं और उनके बच्चे आपस में प्यार करने लगते हैं. फ़िल्म की पूरी ताक़त उसके शुरुआती दस मिनट हैं. अगर उन्हें निकाल दिया जाए तो पूरी फ़िल्म नीरस हो जाएगी. इन दस मिनटों के सृजन में साहिर लुधियानवी, लता-मुकेश और खय्याम, अमिताभ बच्चन और राखी, यश चोपड़ा और सागर सरहदी के साथ ही सिनेमैटोग्राफर केजी की अप्रतिम प्रतिभाओं के समायोजन का कमाल देखा जा सकता है. नदी की कलकल धारा की तरह बहते हुए हंसते-खिलखिलाते-गुनगुनाते-मुस्कराते और मौन बनकर भी गूंजते दस मिनट ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के बीच से गुज़रता नायक और सुबह, दोपहर, शाम, रात को एक-दूसरे से मिलते और बाहर निकलते नज़ारे और गुनगुनाहटों में फूटता हुआ स्वर:-
कल नई कोपलें फूटेंगी
कल नए फूल मुस्कराएंगे
और नई घास के नए फ़र्श पर
नये पांव इठलाएंगे
वो मेरे बीच नहीं आए
मैं उनके बीच में क्यूं आऊं
उनकी सुबहों और शामों का
मैं एक भी लम्हा क्यूं पाऊं
मैं पल दो पल का शायर हूं
पल दो पल मेरी कहानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है
पल दो पल मेरी जवानी है...
इन गुनगुनाहटों में डूबा नायक अब कॉलेज की सोशल गैदरिंग के मंच पर पहुंच कर गीत गा रहा है. अमिताभ बच्चन की आवाज़ अब मुकेश की आवाज़ में घुल-मिल गई है. सामने नायिका बैठी हुई है और वाहवाहियों के बीच गीत जारी है.

नायिका नायक के गीत पर मुग्ध है और उससे ऑटोग्राफ मांगती है. नायक हतप्रभ है. शायद इसलिए कि ऐसा अवसर उसकी ज़िंदगी में पहली बार आया है कि कोई उससे ऑटोग्राफ मांगे. जब वह ऑटोग्राफ देते हुए उसका नाम पूछता है तो नायिका कहती है कि उसका नाम पूजा है. नायक का जवाब होता है, तो मुझे पुजारी समझिए. इसी तरह विवाह के बाद नायिका का पति भी कहता है कि क मेरा पुजारी नहीं हो सकता? नायिका के लिए एक नहीं, दो मुक़ाम हैं, जहां वह ईश्वरी पवित्रता का रूप रखती है. प्रेमी और पति दोनों के लिए वह पवित्रता और अपनत्व की पराकाष्ठा है. नायक आरंभ में कहता है:-
हम किए जाएंगे चुपचाप तुम्हारी पूजा
कोई कल दे के न दे हमको हमारी पूजा...

वे लगातार मिलते हैं और अनगिनत ख़्वाब बुन डालते हैं. प्रेमियों का इरादा है कि वे कभी नहीं बिछड़ेंगे. ज़िंदगी भर ऐसे ही हसीन मंज़र रहेंगे. इसी ख्वाहिश के बीच यह गीत गूंजता है:-

कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है...
के जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिये 
तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं 
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिये 
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
के ये बदन ये निगाहें मेरी अमानत हैं
ये गेसुओं की घनी छांव हैं मेरी ख़ातिर
ये होंठ और ये बाहें मेरी अमानत हैं
कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
कभी-कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
के जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूं ही 
उठेगी मेरी तरफ़ प्यार की नज़र यूं ही 
मैं जानता हूं के तू ग़ैर है मगर यूं ही
कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
कभी-कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
के जैसे बजती हैं शहनाइयां सी राहों में
सुहाग रात है घूंघट उठा रहा हूं मैं 
सिमट रही है तू शरमा के मेरी बाहों में
कभी-कभी मेरे दिल में,ख़्याल आता है...

इसके बाद हम देखते हैं कि राखी और शशि कपूर की शादी हो रही है और नायक दूर एक पेड़ से टिका हुआ दोनों हाथ अपनी जेब में डाले मानो आसमान से सवाल-जवाब कर रहा है. यह बिछड़ना उसका ख़ुद का चुना हुआ है. उसने तो लड़की के मां-बाप के सामने एक बार भी अपना पक्ष तक नहीं रखना चाहा. वह प्रेमिका से ही नहीं, उस काव्यात्मकता से भी दूर हो गया है, जो उसके जीवन का आधार थी. हम यह भी देखते हैं कि फ़िज़ां में शादी की ख़ुशियों के गीत गूंज रहे हैं:-
सुर्ख़ जोड़े की यह जगमगाहट
शोख़ बिंदिया की यह झिलमिलाहट
चूड़ियों का यह रंगीन तराना
धडकनों का यह सपना सुहाना
जागा-जागा कजरे का जादू
धीमी-धीमी सी गजरे की ख़ुशबू...
यह काव्यात्मकता ही पूरी फ़िल्म महक का आधार है. यह एक ऐसी फ़िल्म है, जिसे बार-बार देखने को जी चाहता है...


फ़िरदौस ख़ान
बहुमुखी संगीत प्रतिभा के धनी मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर, 1924 को पंजाब के अमृतसर ज़िले के गांव मजीठा में हुआ. संगीत प्रेमियों के लिए यह गांव किसी तीर्थ से कम नहीं है. मोहम्मद रफ़ी के चाहने वाले दुनिया भर में हैं. भले ही मोहम्मद रफ़ी साहब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ रहती दुनिया तक क़ायम रहेगी. साची प्रकाशन द्वारा प्रकाशित विनोद विप्लव की किताब मोहम्मद रफ़ी की सुर यात्रा मेरी आवाज़ सुनो मोहम्मद रफ़ी साहब के जीवन और उनके गीतों पर केंद्रित है. लेखक का कहना है कि मोहम्मद रफ़ी के विविध आयामी गायन एवं व्यक्तित्व को किसी पुस्तक में समेटना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव है, फिर भी अगर संगीत प्रेमियों को इस पुस्तक को पढ़कर मोहम्मद रफ़ी के बारे में जानने की प्यास थोड़ी-सी भी बुझ जाए तो मैं अपनी मेहनत सफल समझूंगा. इस लिहाज़ से यह एक बेहतरीन किताब कही जा सकती है.

मोहम्मद ऱफी के पिता का नाम हाजी अली मोहम्मद और माता का नाम अल्लारखी था. उनके पिता ख़ानसामा थे. रफ़ी के बड़े भाई मोहम्मद दीन की हजामत की दुकान थी, जहां उनके बचपन का काफ़ी वक़्त गुज़रा. वह जब क़रीब सात साल के थे, तभी उनके बड़े भाई ने इकतारा बजाते और गीत गाते चल रहे एक फ़क़ीर के पीछे-पीछे उन्हें गाते देखा. यह बात जब उनके पिता तक पहुंची तो उन्हें काफ़ी डांट पड़ी. कहा जाता है कि उस फ़क़ीर ने रफ़ी को आशीर्वाद दिया था कि वह आगे चलकर ख़ूब नाम कमाएगा. एक दिन दुकान पर आए कुछ लोगों ने ऱफी को फ़क़ीर के गीत को गाते सुना. वह उस गीत को इस क़दर सधे हुए सुर में गा रहे थे कि वे लोग हैरान रह गए. ऱफी के बड़े भाई ने उनकी प्रतिभा को पहचाना. 1935 में उनके पिता रोज़गार के सिलसिले में लाहौर आ गए. यहां उनके भाई ने उन्हें गायक उस्ताद उस्मान ख़ान अब्दुल वहीद ख़ान की शार्गिदी में सौंप दिया. बाद में रफ़ी ने पंडित जीवन लाल और उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां जैसे शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों से भी संगीत सीखा.

मोहम्मद रफ़ी उस वक़्त के मशहूर गायक और अभिनेता कुंदन लाल सहगल के दीवाने से और उनके जैसा ही बनना चाहते थे. वह छोटे-मोटे जलसों में सहगल के गीत गाते थे. क़रीब 15 साल की उम्र में उनकी मुलाक़ात सहगल से हुई. हुआ यूं कि एक दिन लाहौर के एक समारोह में सहगल गाने वाले थे. रफ़ी भी अपने भाई के साथ वहां पहुंच गए. संयोग से माइक ख़राब हो गया और लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. व्यवस्थापक परेशान थे कि लोगों को कैसे ख़ामोश कराया जाए. उसी वक़्त रफ़ी के बड़े भाई व्यवस्थापक के पास गए और उनसे अनुरोध किया कि माइक ठीक होने तक रफ़ी को गाने का मौक़ा दिया जाए. मजबूरन व्यवस्थापक मान गए. रफ़ी ने गाना शुरू किया, लोग शांत हो गए. इतने में सहगल भी वहां पहुंच गए. उन्होंने रफ़ी को आशीर्वाद देते हुए कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि एक दिन तुम्हारी आवाज़ दूर-दूर तक फैलेगी. बाद में रफ़ी को संगीतकार फ़िरोज़ निज़ामी के मार्गदर्शन में लाहौर रेडियो में गाने का मौक़ा मिला. उन्हें कामयाबी मिली और वह लाहौर फ़िल्म उद्योग में अपनी जगह बनाने की कोशिश करने लगे. उस दौरान उनकी रिश्ते में बड़ी बहन लगने वाली बशीरन से उनकी शादी हो गई. उस वक़्त के मशहूर संगीतकार श्याम सुंदर और फ़िल्म निर्माता अभिनेता नासिर ख़ान से रफ़ी की मुलाक़ात हुई. उन्होंने उनके गाने सुने और उन्हें बंबई आने का न्यौता दिया. ऱफी के पिता संगीत को इस्लाम विरोधी मानते थे, इसलिए बड़ी मुश्किल से वह संगीत को पेशा बनाने पर राज़ी हुए. रफ़ी अपने भाई के साथ बंबई पहुंचे. अपने वादे के मुताबिक़ श्याम सुंदर ने रफ़ी को पंजाबी फ़िल्म गुलबलोच में ज़ीनत के साथ गाने का मौक़ा दिया. यह 1944 की बात है. इस तरह रफ़ी ने गुलबलोच के सोनियेनी, हीरिएनी तेरी याद ने बहुत सताया गीत के ज़रिये पार्श्वगायन के क्षेत्र में क़दम रखा. रफ़ी ने नौशाद साहब से भी मुलाक़ात की. नौशाद ने फ़िल्म शाहजहां के एक गीत में उन्हें सहगल के साथ गाने का मौक़ा दिया. रफ़ी को सिर्फ़ दो पंक्तियां गानी थीं-मेरे सपनों की रानी, रूही, रूही रूही. इसके बाद नौशाद ने 1946 में उनसे फ़िल्म अनमोल घड़ी का गीत तेरा खिलौना टूटा बालक, तेरा खिलौना टूटा रिकॉर्ड कराया. फिर 1947 में फ़िरोज़ निज़ामी ने रफ़ी को फ़िल्म जुगनूं का युगल गीत नूरजहां के साथ गाने का मौक़ा दिया. बोल थे- यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है. यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म मेला का एक गीत ये ज़िंदगी के मेले गवाया. इस फ़िल्म के बाक़ी गीत मुकेश से गवाये गए, लेकिन रफ़ी का गीत अमर हो गया. यह गीत हिंदी सिनेमा के बेहद लोकप्रिय गीतों में से एक है. इस बीच रफ़ी संगीतकारों की पहली जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम के संपर्क में आए. इस जोड़ी ने अपनी शुरुआती फ़िल्मों प्यार की जीत, बड़ी बहन और मीना बाज़ार में रफ़ी की आवाज़ का भरपूर इस्तेमाल किया. इसके बाद तो नौशाद को भी फ़िल्म दिल्लगी में नायक की भूमिका निभा रहे श्याम कुमार के लिए रफ़ी की आवाज़ का ही इस्तेमाल करना पड़ा. इसके बाद फ़िल्म चांदनी रात में भी उन्होंने रफ़ी को मौक़ा दिया. बैजू बावरा संगीत इतिहास की सिरमौर फ़िल्म मानी जाती है. इस फ़िल्म ने रफ़ी को कामयाबी के आसमान तक पहुंचा दिया. इस फ़िल्म में प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खां साहब और डी वी पलुस्कर ने भी गीत गाये थे. फ़िल्म के पोस्टरों में भी इन्हीं गायकों के नाम प्रचारित किए गए, लेकिन जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो मोहम्मद रफ़ी के गाये गीत तू गंगा की मौज और ओ दुनिया के रखवाले हर तरफ़ गूंजने लगे. रफ़ी ने अपने समकालीन गायकों तलत महमूद, मुकेश और सहगल के रहते अपने लिए जगह बनाई. रफ़ी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने तक़रीबन 26 हज़ार गाने गाये, लेकिन उनके तक़रीबन पांच हज़ार गानों के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें ग़ैर फ़िल्मी गीत भी शामिल हैं. देश विभाजन के बाद जब नूरजहां, फ़िरोज़ निज़ामी और निसार वाज्मी जैसी कई हस्तियां पाकिस्तान चली गईं, लेकिन वह हिंदुस्तान में ही रहे. इतना ही नहीं, उन्होंने सभी गायकों के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा देशप्रेम के गीत गाये. रफ़ी ने जनवरी, 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के एक माह बाद गांधी जी को श्रद्धांजलि देने के लिए हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन में राजेंद्र कृष्ण रचित सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी गीत गाया तो पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखों में आंसू आ गए थे. भारत-पाक युद्ध के वक़्त भी रफ़ी ने जोशीले गीत गाये. यह सब पाकिस्तानी सरकार को पसंद नहीं था. शायद इसलिए दुनिया भर में अपने कार्यक्रम करने वाले रफ़ी पाकिस्तान में शो पेश नहीं कर पाए. ऱफी किसी भी तरह के गीत गाने की योग्यता रखते थे. संगीतकार जानते थे कि आवाज़ को तीसरे सप्तक तक उठाने का काम केवल ऱफी ही कर सकते थे. मोहम्मद रफ़ी ने संगीत के उस शिखर को हासिल किया, जहां तक कोई दूसरा गायक नहीं पहुंच पाया. उनकी आवाज़ के आयामों की कोई सीमा नहीं थी. मद्धिम अष्टम स्वर वाले गीत हों या बुलंद आवाज़ वाले याहू शैली के गीत, वह हर तरह के गीत गाने में माहिर थे. उन्होंने भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली, दशभक्ति गीत, दर्दभरे तराने, जोशीले गीत, हर उम्र, हर वर्ग और हर रुचि के लोगों को अपनी आवाज़ के जादू में बांधा. उनकी असीमित गायन क्षमता का आलम यह था कि उन्होंने रागिनी, बाग़ी, शहज़ादा और शरारत जैसी फ़िल्मों में अभिनेता-गायक किशोर कुमार पर फ़िल्माये गीत गाये.

वह 1955 से 1965 के दौरान अपने करियर के शिखर पर थे. यह वह व़क्त था, जिसे हिंदी फ़िल्म संगीत का स्वर्ण युग कहा जा सकता है. उनकी आवाज़ के जादू को शब्दों में बयां करना नामुमकिन है. उनकी आवाज़ में सुरों को महसूस किया जा सकता है. उन्होंने अपने 35 साल के फ़िल्म संगीत के करियर में नौशाद, सचिन देव बर्मन, सी रामचंद्र, रोशन, शंकर-जयकिशन, मदन मोहन, ओ पी नैयर, चित्रगुप्त, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सलिल चौधरी, रवींद्र जैन, इक़बाल क़ुरैशी, हुस्नलाल, श्याम सुंदर, फ़िरोज़ निज़ामी, हंसलाल, भगतराम, आदि नारायण राव, हंसराज बहल, ग़ुलाम हैदर, बाबुल, जी एस कोहली, वसंत देसाई, एस एन त्रिपाठी, सज्जाद हुसैन, सरदार मलिक, पंडित रविशंकर, उस्ताद अल्ला रखा, ए आर क़ुरैशी, लच्छीराम, दत्ताराम, एन दत्ता, सी अर्जुन, रामलाल, सपन जगमोहन, श्याम जी-घनश्यामजी, गणेश, सोनिक-ओमी, शंभू सेन, पांडुरंग दीक्षित, वनराज भाटिया, जुगलकिशोर-तलक, उषा खन्ना, बप्पी लाह़िडी, राम-लक्ष्मण, रवि, राहुल देव बर्मन और अनु मलिक जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर संगीत का जादू बिखेरा.

रफ़ी साहब ने 31 जुलाई, 1980 को आख़िरी सांस ली. उन्हें दिल का दौरा पड़ा था. जिस रोज़ उन्हें जुहू के क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया, उस दिन बारिश भी बहुत हो रही थी. उनके चाहने वालों ने उन्हें नम आंखों से विदाई दी. लग रहा था मानो ऱफी साहब कह रहे हों-
हां, तुम मुझे यूं भुला न पाओगे
जब कभी भी सुनोगे गीते मेरे
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे…


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपने सशक्त अभिनय के ज़रिये उन्होंने कामयाबी की जो बुलंदियां हासिल कीं, वह हर किसी को नसीब नहीं हो पाती हैं. 29 दिसंबर, 1942 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे राजेश खन्ना का असली नाम जतिन खन्ना था. उन्हें बचपन से ही अभिनय का शौक़ था. फ़िल्मों में उनके आने का क़िस्सा बेहद रोचक है. युनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फ़िल्मफ़ेयर के बैनर तले 1965 में नए अभिनेता की खोज के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई. इसमें दस हज़ार लड़कों में से आठ लड़के फ़ाइनल मुक़ाबले तक पहुंचे, जिनमें एक राजेश खन्ना भी थे. आख़िर में कामयाबी का सेहरा राजेश खन्ना के सिर बंधा. अगले साल ही उन्हें फ़िल्म आख़िरी ख़त में काम करने का मौक़ा मिल गया. इसके बाद उन्होंने राज़, बहारों के सपने, औरत के रूप आदि कई फिल्में कीं, लेकिन कामयाबी उन्हें 1969 में आई फ़िल्म आराधना से मिली. इसके बाद एक के बाद एक 14 सुपरहिट फ़िल्में देकर उन्होंने हिंदी फिल्मों के पहले सुपरस्टार के तौर पर अपनी पहचान क़ायम कर ली. राजेश खन्ना ने फ़िल्म आनंद में एक कैंसर मरीज़ के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसमें मरते वक़्त आनंद कहता है-बाबू मोशाय, आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं. इस फ़ि में राजेश खन्ना द्वारा पहने गए गुरु कुर्ते ख़ूब मशहूर हुए. लड़के उन जैसे बाल रखने लगे.

उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उस ज़माने में अभिभावकों ने अपने बेटों के नाम राजेश रखे. फ़िल्म जगत में उन्हें प्यार से काका कहा जाता था. जब वह सुपरस्टार थे, तब एक कहावत बड़ी मशहूर थी-ऊपर आक़ा और नीचे काका. कहा जाता है कि अपने संघर्ष के दौर में भी वह महंगी गाड़ियों में निर्माताओं से मिलने जाया करते थे. वह रूमानी अभिनेता के तौर पर मशहूर हुए. उनकी आंखें झपकाने और गर्दन टेढ़ी करने की अदा के लोग दीवाने थे, ख़ासकर ल़डकियां तो उन पर जान छिड़कती थीं. राजेश खन्ना लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय हुए. लड़कियों ने उन्हें ख़ून से ख़त लिखे, उनकी तस्वीरों के साथ ब्याह रचाए, अपने हाथ पर उनका नाम गुदवा लिया. कहा जाता है कि कई लड़कियां तो अपने तकिये के नीचे उनकी तस्वीर रखा करती थीं. कहीं राजेश खन्ना की सफ़ेद रंग की कार रुकती थी, तो लड़कियां कार को चूमकर गुलाबी कर देती थीं. निर्माता-निर्देशक उनके घर के बाहर कतार लगाए खड़े रहते थे और मुंहमांगी क़ीमत पर उन्हें अपनी फ़िल्मों में लेना चाहते थे.

राजेश खन्ना ने तक़रीबन 163 फ़िल्मों में काम किया. इनमें से 128 फ़िल्मों में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई, जबकि अन्य फ़िल्मों में भी उनका किरदार बेहद अहम रहा. उन्होंने 22 फ़िल्मों में दोहरी भूमिकाएं कीं. उन्हें तीन बार फ़िल्म फ़ेयर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाज़ा गया. ये पुरस्कार उन्हें फ़िल्म सच्चा झूठा (1971),  आनंद (1972) और अविष्कार (1975) में शानदार अभिनय करने के लिए दिए गए. उन्हें 2005 में फ़िल्मफ़ेयर के लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. उनकी फ़िल्मों में बहारों के सपने, आराधना, दो रास्ते, बंधन, सफ़र, कटी पतंग, आन मिलो सजना, आनंद, सच्चा झूठा, दुश्मन, अंदाज़, हाथी मेरे साथी, अमर प्रेम, दिल दौलत दुनिया, जोरू का ग़ुलाम, मालिक, शहज़ादा, बावर्ची, अपना देश, मेरे जीवन साथी, अनुराग, दाग़, नमक हराम, अविष्कार, अजनबी, प्रेम नगर, हमशक्ल, रोटी, आप की क़सम, प्रेम कहानी, महा चोर, महबूबा, त्याग, पलकों की छांव में, आशिक़ हूं बहारों का, छलिया बाबू, कर्म, अनुरोध, नौकरी, भोला भाला, जनता हवलदार, मुक़ाबला, अमर दीप, प्रेम बंधन, थोड़ी सी बेवफ़ाई, आंचल,  फिर वही रात, बंदिश, क़ुदरत, दर्द, धनवान, अशांति, जानवर, धर्म कांटा, सुराग़, राजपूत, नादान, सौतन अगर तुम न होते, अवतार, नया क़दम, आज का एमएलए राम अवतार, मक़सद, धर्म और क़ानून, आवाज़, आशा ज्योति, ऊंचे लोग, नया बकरा, मास्टर जी, दुर्गा, बेवफ़ाई, बाबू, हम दोनों, अलग-अलग, ज़माना, आख़िर क्यों, निशान, शत्रु, नसीहत, अंगारे, अनोखा रिश्ता, अमृत गोरा, आवारा, बाप, अवाम, नज़राना, विजय, पाप का अंत, मैं तेरा दुश्मन, स्वर्ग, रुपये दस करोड़, आ अब लौट चलें, प्यार ज़िंदगी है और क्या दिल ने कहा आदि शामिल हैं.

राजेश खन्ना नब्बे के दशक में राजीव गांधी के कहने पर सियासत में आ गए. उन्होंने 1991 में नई दिल्ली से कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा. उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को कड़ी चुनौती दी थी, लेकिन मामूली अंतर से हार गए. आडवाणी ने यह सीट छोड़ दी और अपनी दूसरी सीट गांधीनगर से अपना प्रतिनिधित्व बनाए रखा. सीट ख़ाली होने पर उपचुनाव में वह एक बार फिर खड़े हुए और भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे फ़िल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा को भारी मतों से शिकस्त दी. उन्होंने 1996 में तीसरी बार इसी सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन भाजपा नेता जगमोहन से हार गए. इसके बाद हर बार चुनाव के मौक़े पर वह कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार के लिए दिल्ली आते रहे. उन्होंने 1994 में एक बार फिर ख़ुदाई फ़िल्म से परदे पर वापसी की, लेकिन उन्हें ख़ास कामयाबी नहीं मिल पाई. इसके अलावा अपने बैनर तले उन्होंने जय शिव शंकर नामक फ़िल्म शुरू की थी, जिसमें उन्होंने पत्नी डिम्पल को साइन किया. फ़िल्म आधी बनने के बाद रुक गई और आज तक रिली नहीं हुई. कभी अक्षय कुमार भी इस फ़िल्म में काम मांगने के लिए राजेश खन्ना के पास गए थे, लेकिन राजेश खन्ना से उनकी मुलाक़ात नहीं हो पाई. बाद में वह राजेश खन्ना के दामाद बने.

राजेश खन्ना की कामयाबी में संगीतकार आरडी बर्मन और गायक किशोर का अहम योगदान रहा. उनके बनाए और राजेश पर फ़िल्माये ज़्यादातर गीत हिट हुए. किशोर कुमार ने 91 फ़िल्मों में राजेश खन्ना को आवाज़ दी, तो आरडी बर्मन ने उनकी 40 फ़िल्मों को संगीत से सजाया. राजेश खन्ना अपनी फ़िल्मों के संगीत को लेकर हमेशा सजग रहते थे. वह गाने की रिकॉर्डिंग के वक़्त स्टुडियो में रहना पसंद करते थे. मुमताज़ और शर्मिला टैगोर के साथ उनकी जो़ड़ी को बहुत पसंद किया गया. आशा पारेख और वहीदा रहमान के साथ भी उन्होंने काम किया. एक दौर ऐसा भी आया जब ज़ंजीर और शोले जैसी फ़िल्में हिट होने लगीं. दर्शक रूमानियत की बजाय एक्शन फ़िल्मों को ज़्यादा पसंद करने लगे तो राजेश खन्ना की फ़िल्में पहले जैसी कामयाबी से महरूम हो गईं. कुछ लोगों का यह भी मानना रहा कि राजेश खन्ना अपनी सुपर स्टार वाली इमेज से कभी बाहर नहीं आ पाए. वह हर वक़्त ऐसे लोगों से घिरे रहने लगे, जो उनकी तारीफ़ करते नहीं थकते थे. अपने अहंकार की वजह से उन्होंने कई अच्छी फ़िल्में ठुकरा दीं, जो बाद में अमिताभ बच्चन की झोली में चली गईं. उनकी आदत की वजह से मनमोहन देसाई, शक्ति सामंत, ऋषिकेश मुखर्जी और यश चोपड़ा ने उन्हें छोड़कर अमिताभ बच्चन को अपनी फ़िल्मों में लेना शुरू कर दिया.

राजेश खन्ना की निजी ज़िंदगी में भी काफ़ी उतार-च़ढाव आए. उन्होंने पहले अभिनेत्री अंजू महेन्द्रू से प्रेम किया, लेकिन उनका यह रिश्ता ज़्यादा वक़्त तक नहीं टिक पाया. बाद में अंजू ने क्रिकेट खिलाड़ी गैरी सोबर्स से सगाई कर ली. इसके बाद 1973 में उन्होंने डिम्पल कपा़ड़िया से प्रेम विवाह किया. डिम्पल और राजेश में ज़्यादा अच्छा रिश्ता नहीं रहा. बाद में दोनों अलग-अलग रहने लगे. उनकी दो बेटियां हैं टि्‌वंकल और रिंकी. मगर अलग होने के बावजूद डिम्पल से हमेशा राजेश खन्ना का साथ दिया. आख़िरी वक़्त में भी डिम्पल उनके साथ रहीं. टीना मुनीम भी राजेश खन्ना की ज़िंदगी में आईं. एक ज़माने में राजेश खन्ना ने कहा था कि वह और टीना एक ही टूथब्रश का इस्तेमाल करते हैं. वह अपनी हर फ़िल्म में टीना मुनीम को लेना चाहते थे. उन्होंने टीना मुनीम के साथ कई फ़िल्में कीं.

राजशे खन्ना ने अमृतसर के कूचा पीपल वाला की तिवाड़ियां गली में स्थित अपने पैतृक घर को मंदिर के नाम कर दिया था. उनके माता-पिता की मौत के बाद कई साल तक इस मकान में उनके चाचा भगत किशोर चंद खन्ना भी रहे, उनकी मौत के बाद से यह मकान ख़ाली पड़ा था. यहां के लोग आज भी राजेश खन्ना को बहुत याद करते हैं. राजेश खन्ना पिछले काफ़ी दिनों से बीमार चल रहे थे. 18 जुलाई,  2012 को उन्होंने आख़िरी सांस ली. राजेश खन्ना का कहना था कि वह अपनी ज़िंदगी से बेहद ख़ुश हैं. दोबारा मौक़ा मिला तो वह फिर राजेश खन्ना बनना चाहेंगे और वही ग़लतियां दोहराएंगे, जो उन्होंने की हैं. उनकी मौत से उनके प्रशंसकों को बेहद तकलीफ़ पहुंची. हिन्दुस्तान ही नहीं पाकिस्तान और अन्य देशों के बाशिंदों ने भी अपने-अपने तरीक़े से उन्हें श्रद्घांजलि अर्पित की.


फ़िरदौस ख़ान
एक ज़माने से देश के कोने-कोने से युवा हिन्दी सिनेमा में छा जाने का ख़्वाब लिए मुंबई आते रहे हैं. इनमें से कई खु़शक़िस्मत तो सिनेमा के आसमान पर रौशन सितारा बनकर चमकने लगते हैं, तो कई नाकामी के अंधेरे में खो जाते हैं. लेकिन युवाओं के मुंबई आने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है. एक ऐसे ही युवा थे संजीव कुमार, जो फ़िल्मों में नायक बनने का ख़्वाब देखा करते थे. और इसी ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह चल पड़े एक ऐसी राह पर, जहां उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना था. मगर अपने ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह मुश्किल से मुश्किल इम्तिहान देने को तैयार थे. उनकी इसी लगन और मेहनत ने उन्हें हिन्दी  सिनेमा का ऐसा अभिनेता बना दिया, जो ख़ुद ही अपनी मिसाल है.

संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई, 1938 को मुंबई में हुआ था. उनका असली नाम हरि भाई ज़रीवाला था. उनका पैतृक निवास सूरत में था. बाद में उनका परिवार मुंबई आ गया. उन्हें बचपन से फ़िल्मों का काफ़ी शौक़ था. वह फ़िल्मों में नायक बनना चाहते थे. अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने रंगमंच का सहारा लिया. इसके बाद उन्होंने फ़िल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाख़िला ले लिया और यहां उन्होंने अभिनय की बारीकियां सीखीं. उनकी क़िस्मत अच्छी थी कि उन्हें 1960 में फ़िल्मालय बैनर की फ़िल्म हम हिंदुस्तानी में काम करने क मौक़ा मिल गया. फ़िल्म में उनका किरदार तो छोटा-सा था, वह भी सिर्फ़ दो मिनट का, लेकिन इसने उन्हें अभिनेता बनने की राह दे दी.

1965 में बनी फ़िल्म निशान में उन्हें बतौर मुख्य अभिनेता काम करने का सुनहरा मौक़ा मिला. यह उनकी ख़ासियत थी कि उन्होंने कभी किसी भूमिका को छोटा नहीं समझा. उन्हें जो किरदार मिलता, उसे वह ख़ुशी से क़ुबूल कर लेते. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म शिकार में उन्हें पुलिस अफ़सर की भूमिका मिली. इस फ़िल्म में मुख्य अभिनेता धर्मेंद्र थे, लेकिन संजीव कुमार ने शानदार अभिनय से आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. इस फ़िल्म के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर अवॊर्ड मिला. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म संघर्ष में छोटी भूमिका होने के बावजूद वह छा गए. इस फ़िल्म में उनके सामने महान अभिनेता दिलीप कुमार भी थे, जो उनकी अभिनय प्रतिभा के क़ायल हो गए थे. उन्होंने फ़िल आशीर्वाद, राजा और रंक और अनोखी रात जैसी फ़िल्मों में अपने दमदार अभिनय की छाप छोड़ी. 1970 में प्रदर्शित फ़िल्म खिलौना भी बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म ने संजीव कुमार को बतौर अभिनेता स्थापित कर दिया. इसी साल प्रदर्शित फ़िल्म दस्तक में सशक्त अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़े गए. फिर 1972 में प्रदर्शित फ़िल्म कोशिश में उन्होंने गूंगे बहरे का किरदार निभाकर यह साबित कर दिया कि वह किसी भी तरह की भूमिका में जान डाल सकते हैं. इस फ़िल्म को संजीव कुमार की महत्वपूर्ण फ़िल्मों में शुमार किया जाता है. फ़िल्म शोले में ठाकुर के चरित्र को उन्होंने अमर बना दिया.

उन्होंने 1974 में प्रदर्शित फ़िल्म नया दिन नई रात में नौ किरदार निभाए. इसमें उन्होंने विकलांग, नेत्रहीन, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, हिजड़े, डाकू, जवान और प्रोफ़ेसर का किरदार निभाकर अभिनय और विविधता के नए आयाम पेश किए. उन्होंने फ़िल्म आंधी में होटल कारोबारी का किरदार निभाया, जिसकी पत्नी राजनीति के लिए पति का घर छोड़कर अपने पिता के पास चली जाती है. इसमें उनकी पत्नी की भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी. इस फ़िल्म के लिए संजीव कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अगले ही साल 1977 में उन्हें फ़िल्म अर्जुन पंडित के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला.

उनकी अन्य फ़िल्मों में पति पत्नी, स्मगलर, बादल, हुस्न और इश्क़, साथी, संघर्ष, गौरी, सत्यकाम, सच्चाई, ज्योति, जीने की राह, इंसाफ़ का मंदिर, ग़ुस्ताख़ी माफ़, धरती कहे पुकार के, चंदा और बिजली, बंधन, प्रिया, मां का आंचल, इंसान और शैतान, गुनाह और क़ानून, देवी, दस्तक, बचपन, पारस, मन मंदिर, कंगन, एक पहेली, अनुभव, सुबह और शाम, सीता और गीता, सबसे बड़ा सुख, रिवाज, परिचय, सूरज और चंदा, मनचली, दूर नहीं मंज़िल, अनामिका, अग्नि रेखा, अनहोनी, शानदार, ईमान, दावत, चौकीदार, अर्चना, मनोरंजन, हवलदार, आपकी क़सम, कुंआरा बाप, उलझन, आनंद, धोती लोटा और चौपाटी, अपने रंग हज़ार, अपने दुश्मन, आक्रमण, फ़रार, मौसम, दो लड़कियां, ज़िंदगी, विश्वासघात, पापी, दिल और पत्थर, धूप छांव, अपनापन, अंगारे, आलाप, ईमान धर्म, यही है ज़िंदगी, शतरंज के खिलाड़ी, मुक्ति, तुम्हारे लिए, तृष्णा डॊक्टर, स्वर्ग नर्क, सावन के गीत, पति पत्नी और वो, मुक़द्दर, देवता, त्रिशूल, मान अपमान, जानी दुश्मन, घर की लाज, बॊम्बे एट नाइट, हमारे तुम्हारे, गृह प्रवेश, काला पत्थर, टक्कर, स्वयंवर, पत्थर से टक्कर, बेरहम, अब्दुल्ला, ज्योति बने जवाला, हम पांच कृष्ण, सिलसिला, वक़्त की दीवार, लेडीज़ टेलर, चेहरे पे चेहरा, बीवी ओ बीवी, इतनी सी बात, दासी, विधाता, सिंदूर बने ज्वाला, श्रीमान श्रीमती, नमकीन, लोग क्या कहेंगे, खु़द्दार, अय्याश, हथकड़ी, सुराग़, सवाल, अंगूर, हीरो और यादगार शामिल हैं. उन्होंने पंजाबी फ़िल्म फ़ौजी चाचा में भी काम किया. कई फ़िल्में उनकी मौत के बाद प्रदर्शित हुईं, जिनमें बद और बदनाम, पाखंडी, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, लाखों की बात, ज़बरदस्त, राम तेरे कितने नाम, बात बन जाए, हाथों की लकीरें, लव एंड गॊड, कांच की दीवर, क़त्ल, प्रोफ़ेसर की पड़ौसन और राही शामिल हैं. संजीव कुमार के दौर में हिंदी सिनेमा में दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और शम्मी कपूर जैसे अभिनेताओं का बोलबाला था. इन अभिनेताओं के बीच संजीव कुमार ने अपनी अलग पहचान क़ायम की. उन्होंने अभिनेता और सहायक अभिनेता के तौर पर कई यादगार भूमिकाएं कीं.

वह आजीवन अविवाहित रहे. हालांकि कई अभिनेत्रियों के साथ उनके प्रसंग सुर्ख़ियों में रहे. कहा जाता है कि पहले उनका रुझान सुलक्षणा पंडित की तरफ़ हुआ, लेकिन प्यार परवान नहीं चढ़ पाया. इसके बाद उन्होंने हेमा मालिनी से विवाह करना चाहा, लेकिन वह अभिनेता धर्मेंद्र को पसंद करती थीं, इसलिए यहां भी बात नहीं बन पाई. हेमा मालिनी ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर पहले से शादीशुदा धर्मेंद्र से शादी कर ली. धर्मेंद्र ने भी इस विवाह के लिए इस्लाम क़ुबूल किया था. यह कहना ग़लत न होगा कि ज़िंदगी में प्यार क़िस्मत से ही मिलता है. अपना अकेलापन दूर करने के लिए संजीव कुमार ने अपने भतीजे को गोद ले लिया. संजीव कुमार के परिवाए में कहा जाता था कि उनके परिवार में बड़े बेटे के दस साल का होने पर पिता की मौत हो जाती है, क्योंकि उनके दादा, पिता और भाई के साथ ऐसा हो चुका था. उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. जैसे ही उनका भतीजा दस साल का हुआ 6 नवंबर, 1985 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई. यह महज़ इत्तेफ़ाक़ था या कुछ और. ज़िंदगी के कुछ रहस्य ऐसे होते हैं, जो कभी सामने नहीं आ पाते.

बहरहाल, अपने अभिनय के ज़रिये संजीव कुमार खु़द को अमर कर गए. जब भी हिन्दी सिनेमा और दमदार अभिनय की बात छिड़ेगी, उनका नाम ज़रूर लिया जाएगा. 
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)
साभार : आवाज़ 


फ़िरदौस ख़ान
ख़ूबसूरत और मिलनसार प्रिया राजवंश की ज़िंदगी की कहानी किसी परी कथा से कम नहीं है. पहाड़ों की ख़ूबसूरती के बीच पली-बढ़ी एक लड़की कैसे लंदन पहुंचती है और फिर वापस हिंदुस्तान आकर फ़िल्मों में नायिका बन जाती है. एक ऐसी नायिका जिसने फ़िल्में तो बहुत कम कीं, इतनी कम कि उन्हें अंगुलियों पर गिना जा सकता है, लेकिन अपने ख़ूबसूरत अंदाज़ और दिलकश आवाज़ से उसने सबका दिल जीत लिया.

प्रिया राजवंश का जन्म 1937 में नैसर्गिक सौंदर्य के शहर शिमला में हुआ था. उनका बचपन का नाम वीरा था. उनके पिता सुंदर सिंह वन विभाग में कंजरवेटर थे. प्रिया राजवंश ने शिमला में ही पढ़ाई की. इसी दौरान उन्होंने कई अंग्रेज़ी नाटकों में हिस्सा लिया. जब उनके पिता संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ़ से ब्रिटेन गए, तो प्रिया राजवंश ने लंदन की प्रतिष्ठित संस्था रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स में दाख़िला ले लिया. सौभाग्य से उन्हें फ़िल्मों में भी काम करने का मौक़ा मिल गया. हुआ यूं कि लंदन के एक फोटोग्राफर ने उनकी तस्वीर खींची. चेतन आनंद ने अपने एक दोस्त के घर यह तस्वीर देखी तो वह प्रिया राजवंश की ख़ूबसूरती के क़ायल हो गए. उन दिनों चेतन आनंद को अपनी फ़िल्म के लिए नए चेहरे की तलाश थी. 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने देश पर हमला कर दिया था. हिंदुस्तानी फ़ौज को भारी नुक़सान हुआ था और फ़ौज को पीछे हटना पड़ा. इस थीम पर चेतन आनंद हक़ीक़त नाम से फ़िल्म बनाना चाहते थे. उन्होंने प्रिया राजवंश से संपर्क किया और उन्हें फ़िल्म की नायिका के लिए चुन लिया गया. 1964 में बनी इस फ़िल्म के निर्माण के दौरान प्रिया राजवंश ने चेतन आनंद की हर स्तर पर मदद की. संवाद लेखन से लेकर पटकथा लेखन, निर्देशन, अभिनय और संपादन तक में उनका दख़ल रहा. चेतन आनंद उन दिनों अपनी पत्नी उमा से अलग हो चुके थे. इसी दौरान प्रिया राजवंश और चेतन आनंद एक दूसरे के क़रीब आ गए और फिर ज़िंदगी भर साथ रहे. प्रिया राजवंश उम्र में चेतन आनंद से तक़रीबन 22 साल छोटी थीं, लेकिन उम्र का फ़ासला उनके बीच कभी नहीं आया.
प्रिया राजवंश ने बहुत कम फ़िल्मों में काम किया. फ़िल्म हक़ीक़त के बाद 1970 में उनकी फ़िल्म हीर रांझा आई. 1973 में हिंदुस्तान की क़सम और हंसते ज़ख्म, 1977 में साहेब बहादुर, 1981 में क़ुदरत और 1985 में हाथों की लकीरें आई. प्रिया राजवंश ने सिर्फ़ चेतन आनंद की फ़िल्मों में ही काम किया और चेतन ने भी हक़ीक़त के बाद प्रिया राजवंश को ही अपनी हर फ़िल्म में नायिका बनाया. उन्हें फ़िल्मों के बहुत से प्रस्ताव मिलते थे, लेकिन वह इंकार कर देती थीं. उनकी खुशी तो सिर्फ़ और सिर्फ़ चेतन आनंद के साथ थी. हालांकि दोनों ने विवाह नहीं किया था, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में उन्हें पति-पत्नी ही माना जाता था. चेतन आनंद के साथ अपनी छोटी सी दुनिया में वह बहुत सुखी थीं. कहा जाता है कि हीर रांझा प्रिया राजवंश को केंद्र में रखकर ही बनाई गई थी. इस फ़िल्म की ख़ासियत यह है कि इसके सारे संवाद पद्य यानी काव्य रूप में हैं, जिन्हें कैफ़ी आज़मी ने लिखा था. इसे काव्य फ़िल्म कहना ग़लत न होगा. इसके गीत भी कैफ़ी आज़मी ने ही लिखे थे. प्रिया राजवंश पर फ़िल्माया गया गीत-मिलो न तुम तो, हम घबराएं, मिलो तो आंख चुराएं, हमें क्या हो गया है…बहुत मशहूर हुआ. इसी तरह फ़िल्म हंसते जख्म का कैफ़ी आज़मी का लिखा और मदन मोहन के संगीत से सजा गीत-बेताब दिल की तमन्ना यही है…आज भी लोग गुनगुना उठते हैं.

अंग्रेज़ी के लेखक आरके नारायण के उपन्यास गाइड पर आधारित फ़िल्म गाइड बनाने के वक़्त पहला विवाद नायिका को लेकर ही हुआ था. देव आनंद माला सिन्हा को नायिका रोज़ी की भूमिका के लिए लेना चाहते थे, लेकिन चेतन की पसंद प्रिया राजवंश थीं. विजय आनंद का मानना था कि रोज़ी की भूमिका वहीदा रहमान से बेहतर कोई और अभिनेत्री नहीं निभा सकती, लेकिन वहीदा रहमान राज खोसला के साथ काम नहीं करती थीं. दरअसल, हुआ यह था कि देव आनंद गाइड के निर्देशन के लिए पहले ही राज खोसला से बात कर चुके थे. अब उन्हें राज खोसला और वहीदा रहमान में से किसी एक को चुनना था. चेतन आनंद और विजय आनंद ने वहीदा का समर्थन किया और फिर चेतन आनंद की सलाह पर निर्देशन की ज़िम्मेदारी विजय आनंद को सौंप दी गई. वहीदा रहमान ने कमाल का अभिनय किया और फ़िल्म मील का पत्थर साबित हुई.

प्रिया राजवंश की ज़िंदगी में अकेलापन और परेशानियां उस वक़्त आईं, जब 6 फ़रवरी, 1997 को चेतन आनंद का देहांत हो गया. प्रिया राजवंश अकेली रह गईं. वह जिस बंगले में रहती थीं, उसकी क़ीमत दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. चेतन के बेटे केतन आनंद और विवेक आनंद प्रिया राजवंश को इस बंगले से निकाल देना चाहते थे, लेकिन जब वे इसमें कामयाब नहीं हो पाए तो उन्होंने नौकरानी माला चौधरी और अशोक स्वामी के साथ मिलकर 27 मार्च, 2000 को प्रिया राजवंश का बेहरहमी से क़त्ल कर दिया. मुंबई की एक अदालत ने प्रिया राजवंश हत्याकांड में 31 जुलाई, 2002 को केतन आनंद और विवेक आनंद तथा उनके सहयोगियों नौकरानी माला चौधरी और अशोक स्वामी को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई.

कुछ अरसा पहले चेतन आनंद की ज़िंदगी पर आधारित उनकी पत्नी उमा और बेटे केतन आनंद की एक किताब आई थी. इस किताब में ज़िंदगीभर चेतन आनंद के साथ रहने वाली प्रिया राजवंश का ज़िक्र नहीं के बराबर है. दरअसल, चेतन आनंद ने अपने लिए अलग एक बंगला बनवाया था, जिसमें वह प्रिया राजवंश के साथ रहा करते थे. यही बंगला बाद में प्रिया राजवंश की मौत की वजह बना यानी एक बंगले के लालच ने प्रिया राजवंश से उनकी ज़िंदगी छीन ली. वह अपने घर में मृत पाई गई थीं. उनके हत्यारों को तो अदालत ने सज़ा दे दी, लेकिन उनके प्रशंसक शायद ही उनके क़ातिलों को कभी मा़फ़ कर पाएं. अपनी फ़िल्मों की बदौलत वह हमेशा हमारे बीच रहेंगी, मुस्कराती और चहकती हुई.


फ़िरदौस ख़ान
भारतीय सिनेमा में कई ऐसी हस्तियां हुई हैं, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. इन्हीं में से एक हैं गुलज़ार. गीतकार से लेकर, पटकथा लेखन, संवाद लेखन और फिल्म निर्देशन तक के अपने लंबे स़फर में उन्होंने शानदार कामयाबी हासिल की. मृदुभाषी और सादगी पसंद गुलज़ार का व्यक्तित्व उनके लेखन में सा़फ झलकता है. आज वह जिस मुक़ाम पर हैं, उस तक पहुंचने के लिए उन्हें संघर्ष के कई पड़ावों को पार करना प़डा.

गुलज़ार का असली नाम संपूर्ण सिंह कालरा है. उनका जन्म 18 अगस्त, 1936 को पाकिस्तान के झेलम ज़िले के दीना में हुआ. उन्होंने देश के विभाजन की त्रासदी को झेला. उनके परिवार को हिंदुस्तान आना प़डा. उनका बचपन दिल्ली की सब्ज़ी मंडी में बीता. उनके परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी. उनके आठ भाई-बहन थे. उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने से इंकार कर दिया, लेकिन वह पढ़ना चाहते थे. पढ़ाई का ख़र्च निकालने के लिए उन्होंने पेट्रोल पंप पर नौकरी कर ली. इसी दौरान उन्होंने अपने ख्यालात और अपने जज़्बात को शब्दों में ढालना भी शुरू कर दिया. उन्होंने कई भाषाएं सीखीं, जिनमें उर्दू, फ़ारसी और बांग्ला शामिल थी. फिर उन्होंने अनुवाद का काम शुरू कर दिया. वह रवींद्रनाथ ठाकुर और शरत चंद्र की रचनाओं का उर्दू अनुवाद करने लगे. बाद में वह मुंबई चले आए. उनका यहां शायरों, साहित्यकारों और नाटककारों की महफ़िल में उठना-बैठना शुरू हो गया. एक दिन वह गीतकार शैलेंद्र के पास गए और उनसे काम के सिलसिले में बातचीत की. उन दिनों संगीतकार सचिनदेव बर्मन फ़िल्म बंदिनी के गीतों को सुरबद्ध कर रहे थे. शैलेंद्र की सिफ़ारिश पर सचिन दा ने गुलज़ार को एक गीत लिखने को कहा. गुलज़ार ने उन्हें गीत लिखकर दिया, जिसके बोल थे-मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे. सचिन दा को गीत बहुत पसंद आया. उन्होंने अपनी आवाज़ में गाकर बिमल राय को सुनाया. गुलज़ार के बांग्ला ज्ञान से मुतासिर होकर बिमल राय ने उनके सामने अपने होम प्रोडक्शन में स्थायी तौर पर काम करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्होंने इसे विनम्रता से अस्वीकार कर दिया. गुलज़ार की मंज़िल इससे आगे थी, बहुत आगे. उन्हें महज़ एक गीतकार बनकर रहना मंज़ूर नहीं था. उन्होंने आगे चलकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा भी किया.

हुआ यूं कि बिमल राय की मौत के बाद संगीतकार हेमंत कुमार ने उनकी यूनिट के काफ़ी लोगों को अपने प्रोडक्शन में नौकरी पर रख लिया. गुलज़ार ने हेमंत कुमार की फिल्म बीवी और मकान, राहगीर और ख़ामोशी के लिए गीत लिखे थे. ऋषिकेश मुखर्जी ने बिमल राय की फिल्म का संपादन और सह-निर्देशन किया था. वह भी स्वतंत्र फ़िल्म निर्देशक बन गए और आशीर्वाद फ़िल्म के संवाद के साथ-साथ गीत भी गुलज़ार को ही लिखने पड़े, क्योंकि उन दिनों शैलेंद्र के पास बहुत काम था. गुलज़ार ने बिमल दा के साथ आनंद, गुड्‌डी, बावर्ची और नमक हराम जैसी कामयाब फ़िल्मों में काम किया. गुलज़ार के फ़िल्म निर्माता एनसी सिप्पी से भी अच्छे रिश्ते बन गए. नतीजतन, सिप्पी-गुलज़ार ने मिलकर कई बेहतरीन फ़िल्में बनाईं. गुलज़ार के मीना कुमारी से भी अच्छे रिश्ते थे. मीना कुमारी ने मौत से पहले अपनी तमाम नज़्में उन्हें सौंप दी थीं, जिन्हें बाद में उन्होंने शाया कराया. जब गुलज़ार स्वतंत्र फिल्म निर्देशक बने तो उन्होंने फ़िल्म मेरे अपने की मुख्य भूमिका मीना को ही थी. 1971 में बनी यह फ़िल्म मीना कुमारी की मौत के बाद रिलीज़ हुई थी. इसके बाद गुलज़ार ने एक से बढ़कर एक कई फ़िल्में बनाईं. बतौर निर्देशक गुलज़ार ने 1971 में मेरे अपने, 1972 में परिचय और कोशिश, 1973 में अचानक, 1974 में ख़ुशबू, 1975 में आंधी, 1976 में मौसम, 1977 में किनारा, 1978 में किताब, 1980 में अंगूर, 1981 में नमकीन और मीरा, 1986 में इजाज़त, 1990 में लेकिन, 1993 में लिबास, 1996 में माचिस और 1999 में हु तू तू बनाई. उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को बख़ूबी पेश किया, भले ही वह रंग दुख का हो या फिर इंद्रधनुषी सपनों को समेटे ख़ुशियों का रंग हो. फ़िल्म आंधी में इंदिरा गांधी की झलक मिलती है. इसलिए इसे इंदिरा गांधी की ज़िंदगी पर आधारित बताया जाता है.


आपातकाल के दौरान इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया. यह फ़िल्म आपातकाल के बाद ही रिलीज़ हो सकी. दरअसल, कमलेश्वर द्वारा लिखी गई इस फ़िल्म की नायिका की ज़िंदगी इंदिरा गांधी की ज़िंदगी से मिलती जुलती है. नायिका आरती एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ की बेटी है. वह होटल व्यवसायी जेके से प्रेम करती है. उसके पिता अपनी आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा की वजह से बेटी को भी इसी राह पर ले जाना चाहते हैं. आरती और जेके की शादी हो जाती है, लेकिन पिता के दबाव और अपनी महत्वकांक्षा की वजह से वह सियासत में आ जाती है. वह पति का घर छोड़कर पिता के पास लौट आती है. बरसों बाद दोनों फिर मिलते हैं. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि दोनों को फिर से अलग होना पड़ता है. गुलज़ार ने छोटे पर्दे के दर्शकों के लिए 1988 में मिर्ज़ा ग़ालिब और 1993 में किरदार नामक टीवी धारावाहिक बनाए, जिन्हें बहुत पसंद किया गया. इसके अलावा उन्हें 1983 में आरडी बर्मन और आशा भोसले के साथ दिल पड़ोसी है नामक एलबम निकाली. इसके बाद 1999 में जगजीत सिंह की आवाज़ में मरासिम, 2001 में ग़ुलाम अली की आवाज़ में विसाल और फिर 2003 में आबिदा सिंग्स कबीर एल्बम निकाली. फ़िल्म मौसम में दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन जैसे गीत लिखने वाले गुलज़ार आज भी कजरारे-कजरारे जैसे गीत लिख रहे हैं, जिन पर क़दम ख़ुद ब ख़ुद थिरकने लगते हैं. गुलज़ार त्रिवेणी छंद के सृजक हैं. उनके दो त्रिवेणी संग्रह त्रिवेणी और पुखराज नाम से प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी अन्य कृतियों में चौरस रात, एक बूंद चांद, रावी पार, रात चांद और मैं, रात पश्मीने की, ख़राशें, कुछ और नज़्में, छैंया-छैंया, मेरा कुछ सामान और यार जुलाहे शामिल हैं. गुलज़ार को 2002 में साहित्य अकादमी अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 2004 में उन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा गया. इसके अलावा उन्हें पांच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 19 फिल्म फेयर पुरस्कारों सहित अन्य कई और पुरस्कार भी मिल चुके हैं. गुलज़ार की निजी ज़िंदगी में कई उतार- चढ़ाव आए. 1973 में उन्होंने अभिनेत्री राखी से शादी की. वह नहीं चाहते थे कि राखी फ़िल्मों में काम करें. उनका रिश्ता लंबे अरसे तक नहीं चला. जब उनकी बेटी मेघना डेढ़ साल की थी, तभी वे अलग हो गए. मगर उन्होंने तलाक़ नहीं लिया. गुलज़ार मानते हैं कि कोई भी रिश्ता न तो कभी ख़त्म होता है, और न मरता है. शायद इसलिए ही उनका रिश्ता आज भी क़ायम है. वह कहते हैं:-
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते…

राखी ने अपनी ज़िंदगी का ख़ालीपन भरने के लिए फ़िल्मों में काम शुरू कर दिया और गुलज़ार अपने काम में मसरूफ़ हो गए. गुलज़ार मानते हैं कि ज़िंदगी बरसों से नहीं, बल्कि लम्हों से बनती है. इसलिए इंसान को अपनी ज़िंदगी के हर लम्हे को भरपूर जीना चाहिए. उन्हें अपने अकेलेपन से भी कभी कोई शिकवा नहीं रहा. वह कहते हैं:-
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो…


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा की प्रतिभाशाली अभिनेत्री नूतन को अभिनय विरासत में मिला था. उनकी मां शोभना सामर्थ हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री थीं. नूतन भी अपने अद्भुत अभिनय के लिए जानी जाती हैं. उनकी सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, सरस्वती चंद्र और मिलन आदि फ़िल्मों ने उन्हें भारतीय सिनेमा की महान अभिनेत्रियों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया. नूतन का जन्म 4 जून, 1936 को मुंबई में हुआ था. उनके पिता का नाम कुमारसेन सामर्थ था. घर में फ़िल्मी माहौल था. वह अपनी मां के साथ शूटिंग पर जाती थीं. रफ़्ता-रफ़्ता उनका रुझान भी फ़िल्मों की तरफ़ हो गया. वह भी बड़ी होकर अपनी मां की तरह ही मशहूर अभिनेत्री बनना चाहती थीं. उन्होंने बतौर बाल कलाकार 1950 में फ़िल्म नल दमयंती से अपने करियर की शुरुआत की. इसके साथ ही उन्होंने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. उनकी क़िस्मत के सितारे बुलंदी पर थे. नतीजतन, उन्हें मिस इंडिया का ख़िताब मिला. मगर फ़िल्मी दुनिया ने उन्हें कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी. उनकी मां शोभना सामर्थ भी उन्हें अभिनेत्री बनाना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने अपने दोस्त मोतीलाल से बात की. मोतीलाल की सिफ़ारिश पर नूतन को फ़िल्म हमारी बेटी में काम करने का मौक़ा मिल गया. इस फ़िल्म का निर्देशन शोभना सामर्थ ने किया था. इसके बाद नूतन ने फ़िल्म हमलोग, शीशम, नगीना, पर्बत, लैला मजनूं और शबाब में अभिनय किया, लेकिन इससे उन्हें वह कामयाबी नहीं मिली, जिसकी उन्हें उम्मीद थी.

फिर 1950 में उनकी फ़िल्म सीमा प्रदर्शित हुई. फ़िल्म बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म के लिए जहां नूतन ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर हासिल किया, वहीं हिंदी सिनेमा में अपने लिए एक ख़ास मुक़ाम भी बना लिया. यह फ़िल्म उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शुमार की जाती है. वह हर तरह की भूमिकाएं बड़ी सहजता से कर लेती थीं. 1956 में प्रदर्शित फ़िल्म बारिश में उन्होंने काफ़ी बोल्ड सीन दिए. इसके बाद 1957 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल्ली का ठग में उन्होंने स्विमिंग कॉस्ट्यूम पहनकर सबको चौंका दिया. इसकी वजह से उनकी बहुत आलोचना हुई. इससे वह थो़डी परेशान भी हुईं, मगर वह जानती थीं कि अभिनय क्षमता के दम पर ही वह इस फ़िल्मी दुनिया में टिकी हुई हैं. उन्होंने अपना अभिनय सफ़र जारी रखा. फिर 1958 में उनकी फ़िल्म सोने की चिड़िया प्रदर्शित हुई. फ़िल्म बेहद कामयाब रही और नूतन हिंदी सिनेमा में छा गईं. अगले ही साल 1959 में प्रदर्शित उनकी फ़िल्म सुजाता में उनके मार्मिक अभिनय ने उनकी बोल्ड अभिनेत्री की छवि को बदल दिया. सुजाता में उन्होंने अछूत कन्या का किरदार निभाया. इसके लिए भी उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया. 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शामिल है. नूतन ने इस फ़िल्म में जितना सशक्त अभिनय किया है, वैसा अभिनय किसी और फ़िल्म में देखने को नहीं मिला. यह हिंदी सिनेमा की उन सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक है, जिसके बिना हिंदी सिनेमा का इतिहास अधूरा है. इस फ़िल्म के लिए भी नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला. ऐसा नहीं है कि नूतन ने सिर्फ़ संजीदा अभिनय ही किया है. उन्होंने रूमानी और हंसमुख किरदार भी निभाए हैं. फ़िल्म छलिया और सूरत में उनके निभाए किरदार इस बात का सबूत हैं कि वह किसी भी तरह की भूमिका को ब़खूबी निभा सकती थीं.

1967 में प्रदर्शित फ़िल्म मिलन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह फ़िल्म पूर्व जन्म की कहानी पर आधारित थी. 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म सरस्वती चंद्र की कामयाबी ने उन्हें फ़िल्म दुनिया की बुलंदी पर पहुंचा दिया. इसके बाद 1973 में आई फ़िल्म सौदागार में भी उन्होंने यादगार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. सुधेंदु रॉय द्वारा निर्देशित फ़िल्म में नायक की भूमिका अमिताभ बच्चन ने निभाई थी.

सत्तर के दशक तक नूतन का फ़िल्मी करियर चढ़ाव पर रहा, जबकि अस्सी के दशक में उन्होंने चरित्र भूमिकाएं निभानी शुरू कर दीं. ख़ास बात यह रही कि उनके अभिनय का जलवा बरक़रार रहा. फ़िल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की और मेरी जंग में सशक्त अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला. फ़िल्म कर्मा में भी उनके अभिनय को सराहा गया. इस फ़िल्म में उनके साथ अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे. उन्होंने अपने वक़्त के तक़रीबन सभी नामी अभिनेताओं के साथ काम किया. फ़िल्म अना़डी में उनके नायक राज कपूर थे तो फ़िल्म बंदिनी में अशोक कुमार. फ़िल्म पेइंग गेस्ट में देवानंद उनके नायक बने.

हिंदी सिनेमा में कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंची नूतन कभी मां से मुक़ाबला नहीं करना चाहती थीं. यही वजह थी कि उन्होंने फ़िल्म रामराज्य के रीमेक में सीता की भूमिका निभाने से साफ़ इंकार कर दिया था. प्रकाश पिक्चर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म राम राज्य में उनकी मां ने सीता की भूमिका निभाई थी. निर्देशक विजय भट्ट इस फ़िल्म का रीमेक बनाना चाहते थे. उस वक़्त वह शोभना सामार्थ को नायिका सीता की भूमिका में नहीं ले सकते थे, क्योंकि वह उम्र की ढलान पर थीं. वह चाहते थे कि कोई कुशल अभिनेत्री इस किरदार को निभाए. विजय भट्ट को लगा कि नूतन सीता की भूमिका बेहतर तरीक़े से निभा सकती हैं. उन्होंने नूतन से मुलाक़ात की और अपना प्रस्ताव रखा, लेकिन नूतन ने इसे नामंज़ूर कर दिया. वह मानती थीं कि चूंकि पहली फ़िल्म में उनकी मां ने सीता की भूमिका निभाई है, इसलिए उनके लिए यह किरदार सही नहीं रहेगा, क्योंकि लोग दोनों के अभिनय की तुलना करने लगेंगे और ऐसा करना मुनासिब नहीं होगा. आख़िरकार बीना राय को सीता की भूमिका दी गई. मगर फ़िल्म फ्लॉप हो गई.

उनकी फ़िल्मों में हमारी बेटी, नगीना, हमलोग, शीशम, पर्बत, लैला मजनूं, शबाब, सीमा, हीर, बारिश, पेइंग गेस्ट, ज़िंदगी या तूफ़ान, चंदन, दिल्ली का ठग, कभी अंधेरा कभी उजाला, सोने की चिड़िया, आख़िरी दाव, अना़डी, कन्हैया, सुजाता, बसंत, छबीली, छलिया, मंज़िल, सूरत और सीरत, बंदिनी, दिल ही तो है, तेरे घर के सामने, चांदी की दीवार, रिश्ते नाते, छोटा भाई, दिल ने फिर याद किया, दुल्हन एक रात की, लाट साहब, मिलन, गौरी, सरस्वती चंद्र, भाई बहन, मां और ममता, देवी, महाराजा, यादगार, अनुराग, ग्रहण, सौदागर, एक बाप छह बेटे, मैं तुलसी तेरे आंगन की, साजन बिना सुहागन, साजन की सहेली, जियो और जीने दो, रिश्ता काग़ज़ का, यह कैसा फ़र्ज़, युद्ध, पैसा ये पैसा, मेरी जंग, सजना साथ निभाना, कर्मा, नाम, मैं तेरे लिए, क़ानून अपना अपना, मुजरिम, नसीबवाला और इंसानियत आदि शामिल है.

नूतन सादगी और सौंदर्य का अद्भुत संगम थीं. उन्होंने 19 अक्टूबर, 1959 को लेफ्टिनेंट कमांडर रजनीश बहल से विवाह कर लिया. उनके बेटे मोहनीश बहल भी अभिनेता हैं और हिंदी फ़िल्मों में काम करते हैं. नूतन की बहन तनुजा और भतीजी काजोल भी हिंदी सिनेमा की मशहूर अभिनेत्रियों में शामिल हैं. 21 फ़रवरी, 1991 को कैंसर से नूतन की मौत हो गई. मीना कुमारी की तरह नूतन को भी साहित्य में दिलचस्पी थी. वह कविताएं भी लिखा करती थीं. भले ही आज वह हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन अपने सशक्त अभिनय के लिए वह हमेशा याद की जाएंगी.

स्टार न्यूज़ एजेंसी की सम्पादक फ़िरदौस ख़ान की सुप्रसिद्ध अभिनेता राकेश श्रीवास्तव जी से ख़ास बातचीत   
कोई लौटा दे मेरे बचपन के दिन  
सुप्रसिद्ध अभिनेता राकेश श्रीवास्तव ने साल 1990 में 'एक लड़का एक लड़की' से हिन्दी सिनेमा में अपना डेब्यू किया था. वे सब टीवी के सीरियल 'लापतागंज' के लल्लन जी के नाम से मशहूर हैं. उन्होंने लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादमी से ड्रामाटिक आर्ट में डिप्लोमा किया है. वे कई नाटकों और धारावाहिकों में काम कर मुम्बई आए और फिर यहीं के होकर रह गए. वे कहते हैं- 
बचपन से ही फ़ितरत है मुस्कुराने की 
हंसने की और लोगों को हंसाने की

शायद इसीलिए अब वे अपने अभिनय से लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं. जब उनसे गर्मियों की छुट्टियों के बारे में पूछा गया तो उनके चेहरे पर रौनक़ आ गई. बचपन होता ही ऐसा है कि इंसान उसे कभी भूल नहीं पाता. बचपन की यादें सबसे ख़ूबसूरत होती हैं. बचपन में पढ़ाई और खेल के सिवा कोई दूसरा काम भी तो नहीं होता. वे कहते हैं कि आपने बचपन याद दिला दिया. गर्मियों की छुट्टियों के दिन बच्चों के लिए ख़ुशियों के दिन होते हैं. सभी बच्चे छुट्टियों के इस मौसम का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं. मैं भी बचपन में गर्मी की छुट्टियों का बेसब्री से इंतज़ार करता था. मेरे पापा रिज़र्व बैंक में कार्यरत थे. अत: तीन-चार साल के बाद अलग-अलग प्रदेश की राजधानी में स्थानान्तरण हुआ करता था. 

वे कहते हैं कि हर गर्मी की छुट्टियों में अपने ददिहाल बाबा-दादी से मिलने गोरखपुर जाया करते थे. मैं अपने दादा जी को बाबा कहता था. जब पापा की नियुक्ति पटना में थी तब हम पानी के जहाज़ से गंगा पार कर महेन्द्रू घाट से सोनपुर जाया करते थे. बचपन में जहाज़ से गंगा पार करने का जो आनन्द मानस पटल पर छपा है, वो याद करके मन रोमांच से भर जाता है. दूर तक पानी ही पानी नज़र आता था. ऊपर नीला अम्बर और नीचे नीला पानी. नीले आसमान के अक्स से पानी नीला दिखाई देता था. आसमान पर जब सफ़ेद बादल होते तो उसके सौन्दर्य में चार चाँद लग जाते थे. मैं कभी आसमान को देखता, तो कभी नदी के बहते पानी को. इस तरह जहाज़ कब घाट पर पहुंच जाता था, पता ही नहीं चलता था.    

उन्हें बचपन से ही खाने-पीने का बहुत शौक़ था. वे कहते हैं कि बचपन से ही मैं बहुत चटोरा था. सोनपुर पहुंचते ही खाजा खाने के लिए लालायित रहता था. ये मैदे की बहुत ही स्वादिष्ट मिठाई है. गोरखपुर पहुंचने पर बाबा-दादी, चाचा-चाची, बहन सीमा की आंखों में ख़ुशी देखकर हम रास्ते की सारी थकान भूल जाया करते थे. शाम को बाबा घोष कम्पनी चौराहा ले जाया करते और दालमोठ, समोसा और इमरती खिलाते. कभी-कभार घंटाघर रबड़ी-खुरचन खिलाने ले जाते. सुबह-सुबह ही सारे रिश्तेदार मिलने आ जाते थे और हम उनके बच्चों संग घर में ही हुड़दंग मचाया करते थे. मेरी बुआ और दादी के हाथ का बना मिर्च का अचार, इमली की पीड़िया के बारे में सोचकर आज भी मुंह में पानी आ जाता है.

वे ज़िन्दगी के हर पल को जी लेने में यक़ीन रखते हैं. वे कहते हैं कि गर्मियों की छुट्टियों में हम दिन भर खेलते. कभी रिश्तेदारों के बच्चों के साथ, तो कभी मोहल्ले के बच्चों के साथ. बड़े लू के कारण दोपहर में घर से बाहर निकलने से मना करते, लेकिन हमें खेल के आगे कुछ दिखाई ही कहां देता था. बड़ों की नज़र बचाते हुए हम बाहर भाग जाते. हमें न गर्मी का अहसास होता था और न ही लू लगने की कोई फ़िक्र थी. हम तो अपनी छुट्टियों को भरपूर जी लेना चाहते थे और जीते भी थे. 


वे सफ़र में भी ख़ूब चटोरबाज़ी किया करते थे. वे बताते हैं कि  चार साल बाद पापा का स्थानान्तरण अहमदाबाद में हो गया. वहां से छुट्टियों में जब गोरखपुर जाते, तो हम चटोरे ट्रेन में संडीला के लड्डू, खुर्जा का खुरचन, उरई के गुलाब जामुन का आनन्द लेते हुए गोरखपुर पहुंचते और फिर वही हुड़दंग करते. बाबा-दादी के प्यार, आशीर्वाद और ख़ुशियों का भंडार भरकर हम अहमदाबाद आते और फिर से गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार करते थे.
 
अपनी शरारतों की वजह से वे कई मुसीबतें उठा चुके हैं, लेकिन फिर भी शरारत करने से पीछे नहीं रहे. वे बचपन का एक ऐसा ही वाक़िया सुनाते हुए कहते हैं कि बचपन में सब कुछ आसानी से मिलने में मज़ा नहीं आता है. बाबा के घर के सामने एक अमरूद का बाग़ीचा था. माली से बचकर चुपके से घुसते और अमरूद के पेड़ की पतली टहनियों पर चढ़कर गर्मी के मौसम में अमरूद खोजते और भद्द से गिरते. हमारे गिरने की आवाज़ सुनकर माली दौड़कर आता और हमें ख़ूब दौड़ाता तो हम गिरते पड़ते भागते. एक बार भागते हुए बंदर के बच्चे से टकरा गए. बंदर को बहुत ग़ुस्सा आया और उसने दौड़ाकर मेरे पिछवाड़े काट लिया. इसके बाद पेट में चौदह सुइयां लगीं. इसके दर्द का अहसास आज भी है. आज भी सुई के डर से कुत्ते, बिल्ली और बंदर को देखते ही दूर भागता हूं.

दरअसल बचपन की ये खट्टी-मीठी यादें ज़िन्दगी में बहुत बड़ा सहारा हुआ करती हैं. जब कभी मन उदास हो और कुछ अच्छा न लगे, तो बचपन से जुड़ी चीज़ें देखकर, बचपन की बातें याद करके चेहरे पर मुस्कान आ ही जाती है. राकेश श्रीवास्तव कहते हैं- 
मन के
गुल्लक में 
भर लो
इतना प्यार,
ख़ुशियां
न 
मांगनी पड़े
उधार...


वे यह भी कहते हैं-
उदास
देखो जो
किसी को,
मुस्कान का 
उपहार दो,
जीवन उनका 
निखार दो...


वे कहते हैं कि प्रेम से बढ़कर दुनिया में कुछ भी नहीं है. वे कहते हैं-
सम्मान 
प्यार
व्यवहार,
जीवन के 
सुन्दर 
उपहार,
बांटोगे 
तो मिलेगा 
बार-बार...


वे कहते हैं कि गर्मी की छुट्टियों में पूरे परिवार का मिलन अगली पीढ़ी के संबंध को और मज़बूत करता है. एक ही फूल वाली थाली में बचपन से हमारा और सीमा का साथ-साथ खाना भाई-बहन के बंधन को और प्रगाढ़ करता गया. वे कहते हैं-
कोई लौटा दे मेरा बीता हुआ बचपन 
वो प्यार, ख़ुशियां, अपनापन के क्षण 
वो गर्मी की छुट्टियों का प्यारा मौसम 
फिर से जी लेंगे निराला सा बचपन 



फ़िरदौस ख़ान
मशहूर शायर एवं गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरारुल हसन ख़ान था. उनका जन्म एक अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद में हुआ था. उनके पिता पुलिस विभाग में उपनिरीक्षक थे. मजरूह ने दरसे-निज़ामी का कोर्स किया. इसके बाद उन्होंने लखनऊ के तकमील उल तिब कॉलेज से यूनानी पद्धति की डॉक्टरी की डिग्री हासिल की. फिर वह हकीम के तौर पर काम करने लगे, मगर उन्हें यह काम रास नहीं आया, क्योंकि बचपन से ही उनकी दिलचस्पी शेरो-शायरी में थी. जब भी मौक़ा मिलता, वह मुशायरों में शिरकत करते. उन्होंने अपना तख़ल्लुस मजरूह रख लिया. शायरी से उन्हें ख़ासी शोहरत मिली. वह मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से विख्यात हुए.

उन्होंने अपना हकीमी का काम छोड़ दिया. एक मुशायरे में उनकी मुलाक़ात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई. 1945 में वह एक मुशायरे में शिरकत करने मुंबई गए, जहां उनकी मुलाक़ात फ़िल्म निर्माता ए आर कारदार से हुई. कारदार उनकी शायरी पर फ़िदा थे. उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फ़िल्म में गीत लिखने की पेशकश की, लेकिन मजरूह ने इससे इंकार कर दिया, क्योंकि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखने को अच्छा नहीं मानते थे. जब मजरूह ने जिगर मुरादाबादी को यह बात बताई, तो उन्होंने सलाह दी कि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखें, इससे उन्हें शोहरत के साथ-साथ दौलत भी हासिल होगी. मजरूह सुल्तानपुरी को जिगर मुरादाबादी की बात पसंद आ गई और फिर उन्होंने फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया. मशहूर संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा. मजरूह ने उस धुन पर गेसू बिखराए, बादल आए झूम के, गीत लिखा. इससे नौशाद ख़ासे प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें अपनी नई फ़िल्म शाहजहां के लिए गीत लिखने की पेशकश कर दी. मजरूह ने हर दौर के संगीतकारों के साथ काम किया. वह वामपंथी विचारधारा से ख़ासे प्रभावित थे. वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन से भी जुड़ गए थे. उन्होंने 1940 के दशक में मुंबई में एक नज़्म माज़-ए-साथी जाने न पाए, पढ़ी थी. तत्कालीन सरकार ने इसे सत्ता विरोधी क़रार दिया था. सरकार की तरफ़ से उन्हें माफ़ी मांगने को कहा गया, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया. नतीजतन, उन्हें डेढ़ साल मुंबई की ऑर्थर रोड जेल में बिताने पड़े. उनका कहना था-
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया

मजरूह भले ही फ़िल्मों के लिए गीत लिखते रहे, लेकिन उनका पहला प्यार ग़ज़ल ही रही-
मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहां
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने

उन्होंने शायरी को महज़ मोहब्बत के जज़्बे तक सीमित न रखकर उसमें ज़िंदगी की जद्दोजहद को भी शामिल किया. उन्होंने ज़िंदगी को आम आदमी की नज़र से भी देखा और एक दार्शनिक के नज़रिये से भी. जेल में रहने के दौरान 1949 में लिखा उनका फ़िल्मी गीत-एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल… ज़िंदगी की सच्चाई को बयान करता है. बक़ौल बेकल उत्साही, मजरूह एक ऐसे शायर थे, जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था. उन्हें एक हद तक प्रयोगवादी शायर और गीतकार भी कहा जा सकता है. उन्होंने अवध के लोकगीतों का रस भी अपनी रचनाओं में घोला था. इससे पहले शायरी की किसी और रचना में ऐसा नहीं देखा गया था. उन्होंने फ़िल्मी गीतों को साहित्य की बुलंदियों पर पहुंचाने में अहम किरदार निभाया. 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म ऊंचे लोग का यह गीत इस बात की तस्दीक करता है-
एक परी कुछ शाद सी, नाशाद-सी
बैठी हुई शबनम में तेरी याद की
भीग रही होगी कहीं कली-सी गुलज़ार की
जाग दिल-ए-दीवाना

1993 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया. यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले गीतकार थे. इसके अलावा 1965 में वह फ़िल्म दोस्ती में अपने गीत-चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे… के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए. मजरूह सुल्तानपुरी ने चार दशकों से भी ज़्यादा अरसे तक क़रीब तीन सौ फ़िल्मों के लिए तक़रीबन चार हज़ार गीत लिखे. मजरूह ने 24 मई, 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें अमर बना दिया.



फ़िरदौस ख़ान
बहुत कम लोग जानते हैं कि सिने जगत की मशहूर अभिनेत्री व ट्रेजडी क्वीन के नाम से विख्यात मीना कुमारी शायरा भी थीं. मीना कुमारी का असली नाम महजबीं बानो था. एक अगस्त, 1932 को मुंबई में जन्मी मीना कुमारी के पिता अली बक़्श पारसी रंगमंच के जाने-माने कलाकार थे. उन्होंने कई फ़िल्मों में संगीत भी दिया था. उनकी मां इक़बाल बानो मशहूर नृत्यांगना थीं. उनका असली नाम प्रभावती देवी था. उनका संबंध टैगोर परिवार से था यानी मीना कुमारी की नानी रवींद्र नाथ टैगोर की भतीजी थीं, लेकिन अली बक़्श से विवाह के लिए प्रभावती ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था. मीना कुमारी ने छह साल की उम्र में एक फ़िल्म में बतौर बाल कलाकार काम किया था. 1952 में प्रदर्शित विजय भट्ट की लोकप्रिय फ़िल्म बैजू बावरा से वह मीना कुमारी के रूप में जानी गईं. 1953 तक मीना कुमारी की तीन हिट फ़िल्में आ चुकी थीं, जिनमें दायरा, दो बीघा ज़मीन एवं परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिए एक नया दौर शुरू हुआ. इसमें उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को ख़ासा प्रभावित किया था. इसके बाद उन्हें ऐसी फ़िल्में मिलने लगीं, जिनसे वह ट्रेजडी क्वीन के रूप में मशहूर हो गईं. उनकी ज़िंदगी परेशानियों के दौर से ग़ुजर रही थी. उन्हें मशहूर फ़िल्मकार कमाल अमरोही के रूप में एक हमदर्द इंसान मिला. उन्होंने कमाल से प्रभावित होकर उनसे विवाह कर लिया, लेकिन उनकी शादी कामयाब नहीं रही और दस साल के वैवाहिक जीवन के बाद 1964 में वह कमाल अमरोही से अलग हो गईं. कहा यह भी गया कि औलाद न होने की वजह से उनके रिश्ते में दरार पड़ने लगी थी.
1966 में बनी फ़िल्म फूल और पत्थर के नायक धर्मेंद्र से मीना कुमारी की नज़दीकियां बढ़ने लगी थीं. मीना कुमारी उस दौर की कामयाब अभिनेत्री थीं, जबकि धर्मेंद्र का करियर ठीक से नहीं चल रहा था. लिहाज़ा धर्मेंद्र ने मीना कुमारी का सहारा लेकर ख़ुद को आगे बढ़ाया. उनके क़िस्से पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे, जिसका असर उनकी शादीशुदा ज़िंदगी पर पड़ा. अमरोहा में एक मुशायरे के दौरान किसी युवक ने मीना कुमारी पर कटाक्ष करते हुए एक ऐसा शेअर पढ़ा, जिस पर मुशायरे की सदारत कर रहे कमाल अमरोही भड़क गए.

कमाल अमरोही ने मीना कुमारी की कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें पाकीज़ा भी शामिल है. पाकीज़ा के निर्माण में सत्रह साल लगे थे, जिसकी वजह मीना कुमारी से उनका अलगाव था. यह कला के प्रति मीना कुमारी का समर्पण ही था कि उन्होंने बीमारी की हालत में भी इस फ़िल्म को पूरा किया. पाकीज़ा में पहले धर्मेंद्र को लिया गया था, लेकिन कमाल अमरोही ने धर्मेंद्र को फ़िल्म से बाहर कर उनकी जगह राजकुमार को ले लिया. 1956 में शुरू हुई पाकीज़ा 4 फ़रवरी, 1972 को रिलीज़ हुई और उसी साल 31 मार्च को मीना कुमारी चल बसीं. फ़िल्म हिट रही, कमाल अमरोही अमर हो गए, लेकिन मीना कुमारी ग़ुरबत में मरीं. अस्पताल का बिल उनके प्रशंसक एक डॉक्टर ने चुकाया. मीना कुमारी ज़िंदगी भर सुर्ख़ियों और विवादों में रहीं. कभी शराब पीने की आदत को लेकर, तो कभी धर्मेंद्र के साथ संबंधों को लेकर. मीना कुमारी ने अपने अकेलेपन में शराब और शायरी को अपना साथी बना लिया था. वह नज़्में लिखती थीं, जो उनकी मौत के बाद नाज़ नाम से प्रकाशित हुईं :-
मेरे महबूब
जब दोपहर को
समुंदर की लहरें
मेरे दिल की धड़कनों से हमआहंग होकर उठती हैं तो
आफ़ताब की हयात आफ़री शुआओं से मुझे
तेरी जुदाई को बर्दाश्त करने की क़ुव्वत मिलती है…

मीना कुमारी की ग़ज़लों में मुहब्बत है, शोख़ी है. वह कहती हैं-
रूह का चेहरा किताबी होगा
जिस्म का रंग अनाबी होगा
शरबती रंग से लिखूं आंखें
और अहसास शराबी होगा
चश्मे-पैमाने से टपका आंसू
कोई बेचारा सवाबी होगा...

धर्मेंद्र ने भी करियर की बुलंदियों पर पहुंचने के बाद मीना को अकेला छोड़ दिया. कभी मुड़कर भी उनकी तरफ़ नहीं देखा. मीना उम्र भर मुहब्बत पाने के लिए तरसती रह गईं :-
मुहब्बत
बहार की फूलों की तरह मुझे
अपने जिस्म के रोएं-रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है, जिसके
रेशमी बादबान
तने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके
आहिस्ता-आहिस्ता दूर-दूर
पुरसुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम जज़ीरों
की तऱफ लिए जा रहे हों,
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह-रहकर चमकते दिखाई देते हैं,
हमारी गुफ़्तगू की ज़ुबान
वही है जो
दरख्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है,
ये घने जंगल
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आंसू छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत…

ज़िन्दगी में मुहब्बत हो, तो ज़िन्दगी सवाब होती है. और जब न हो, तो उसकी तलाश होती है... और इसी तलाश में इंसान उम्रभर भटकता रहता है. अपनी एक ग़ज़ल में मीना कुमारी उम्र भर मुहब्बत को तरसती हुई औरत की तड़प बयां करते हुए कहती हैं-
ज़र्रे-ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे
एक-एक बुत को ख़ुदा उसने बनाया होगा
प्यास जलते हुए कांटों की बुझाई होगी
रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा...

कमाल अमरोही से निकाह करके भी उनका अकेलापन दूर नहीं हुआ और वह शराब में डूब गईं. एक बार जब दादा मुनि अशोक कुमार उनके लिए दवा लेकर पहुंचे तो उन्होंने कहा, दवा खाकर भी मैं जीऊंगी नहीं, यह जानती हूं मैं. इसलिए कुछ तंबाक़ू खा लेने दो, शराब के कुछ घूंट गले के नीचे उतर जाने दो. मीना कुमारी का यह जवाब सुनकर दादा मुनि कांप उठे. मीना कुमारी की उदासी उनकी नज़्मों में भी उतर आई थी-
दिन गुज़रता नहीं
रात काटे से भी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसलसुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती
अकेलेपन के अंधेरे में दूर-दूर तलक
यह एक ख़ौफ़ जी पे धुआं बनके छाया है
फिसल के आंख से यह क्षण पिघल न जाए कहीं
पलक-पलक ने जिसे राह से उठाया है
शाम का उदास सन्नाटा
धुंधलका देख बढ़ जाता है
नहीं मालूम यह धुआं क्यों है
दिल तो ख़ुश है कि जलता जाता है
तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आंखों की तरन्नुम को चुरा लाई है
किसकी आग़ोश की ठंडक पे है डाका डाला
किसकी बांहों से तू शबनम उठा लाई है…

बचपन से जवानी तक या यूं कहें कि ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे तक उन्होंने दुश्वारियों का सामना किया-
आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता,
जब ज़ुल्फ़ की कालिख में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता,
हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टुकड़े
हर शख्स की क़िस्मत में ईनाम नहीं होता,
बहते हुए आंसू ने आंख से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता,
दिन डूबे या डूबे बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता…

मीना कुमारी की ज़िंदगी एक सच्चे प्रेमी की तलाश में ही गुज़र गई. अकेलेपन का दर्द उनकी रचनाओं में समाया हुआ है-
चांद तन्हा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा,
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुंआ तन्हा,
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा,
हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी
दोनों चलते रहे कहां तन्हा,
जलती-बुझती सी रोशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा,
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा…


फ़िरदौस ख़ान
ऑल इंडिया रेडियो से हमारा दिल का या यूं कहें कि रूह का रिश्ता है। ये हमारी ज़िन्दगी का एक अटूट हिस्सा है।  रेडियो सुनते हुए हम बड़े हुये। बाद में रेडियो से जुड़ना हुआ। यह हमारी ख़ुशनसीबी थी। ऑल इंडिया रेडियो पर हमारा पहला कार्यक्रम 21 दिसम्बर 1996 को प्रसारित हुआ था। इसकी रिकॉर्डिंग 15 दिसम्बर को हुई थी। कार्यक्रम का नाम था उर्दू कविता पाठ। इसमें हमने अपनी ग़ज़लें पेश की थीं। उस दिन घर में सब कितने ख़ुश थे। पापा की ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। रेडियो से हमारी न जाने कितनी ख़ूबसूरत यादें वाबस्ता हैं। दिन और रात के न जाने कितने पहर रेडियो पर दिलकश नग़में सुनते हुए ही बीते। ऑल इंडिया रोडियो की उर्दू सर्विस का तो जवाब ही नहीं। मख़मली उर्दू ज़बान सीधे दिल की गहराई में उतर जाती थी। घर से दूर रहने पर, अपनों से दूर रहने पर यही आवाज़ घर की याद दिलाती थी, क्योंकि हमारी मादरी ज़बान भी तो उर्दू ही है। हमें आज भी रेडियो से उतना ही लगाव है, जितना पहले हुआ करता था। रेडियो हमारे दादा जान और पापा को भी बहुत पसंद था। शायद रेडियो से यह लगाव हमें विरासत में मिला है।  
हम ही नहीं, लाखों-करोड़ों लोगों की पसंद रहा है रेडियो। ये उस वक़्त शुरू हुआ था, जब मनोरंजन के कोई ख़ास साधन नहीं थे। रेडियो का इतिहास सौ साल से भी ज़्यादा पुराना है। दुनिया में रेडियो प्रसारण की शुरुआत भी बहुत ही दिलचस्प है। वह 24 दिसम्बर 1906 की एक ख़ूबसूरत शाम थी, जब कनाडा के वैज्ञानिक रेगिनाल्ड फ़ेसेंडेन ने वॉयलिन बजाया था। उस वक़्त अटलांटिक महासागर के जहाज़ों के रेडियो ऑपरेटरों ने वॉयलिन के उस दिलकश संगीत को सुना। इसके बाद उसी शाम फ़ेसेंडेन ने एक गाना भी गाया और पवित्र बाइबल की कुछ आयतें भी पढ़ी थीं। इससे पहले मारकोनी ने साल 1900 में लन्दन से अमेरिका बेतार संदेश भेजा था। इस तरह व्यक्तिगत रेडियो संदेश भेजने की शुरुआत हुई थी। पहले रेडियो का इस्तेमाल सिर्फ़ नौसेना ही किया करती थी, बाक़ी लोगों के लिए इसका इस्तेमाल करने पर सख़्त पाबंदी थी। साल 1918 में ली द फ़ोरेस्ट ने न्यूयॉर्क के हाईब्रिज में रेडियो स्टेशन शुरू किया। यह दुनिया का पहला रेडियो स्टेशन था, लेकिन इसे ग़ैर क़ानूनी क़रार देकर बंद करवा दिया गया। फिर उन्होंने 1919 में सैन फ़्रांसिस्को में एक और रेडियो स्टेशन शुरू किया, लेकिन यह भी ग़ैर क़ानूनी ही था। दुनिया में क़ानूनी तौर पर रेडियो स्टेशन शुरू करने का श्रेय फ़्रैंक कॉनार्ड को जाता है। 
हमारे देश में रेडियो भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन संचालित सार्वजनिक क्षेत्र की आकाशवाणी प्रसारण सेवा है। देश में रेडियो प्रसारण की शुरुआत 1920 की दहाई में हुई थी। प्राइवेट इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कम्पनी लिमिटेड को दो रेडियो स्टेशन संचालित करने के लिए अधिकृत किया गया था। इस तरह 23 जुलाई 1927 को बॉम्बे स्टेशन शुरू हुआ। फिर उसी साल 26 अगस्त 1927 को कलकत्ता स्टेशन शुरू किया गया। इसके बाद 1 मार्च 1930 को सरकार ने इन्हें अपने नियंत्रण में लेकर इनका राष्ट्रीयकरण किया और दो साल के लिए प्रायोगिक आधार पर भारतीय प्रसारण सेवा की शुरुआत हुई। कुछ वक़्त बाद मई 1936 में स्थायी रूप से ऑल इंडिया रेडियो क़ायम हुआ। फिर साल 1957 में इसे आकाशवाणी का नाम दिया गया।
क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सरकार ने साल 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत में भारत में भी रेडियो के लाइसेंस रद्द करके सभी ट्रांसमीटर्स को सरकार के पास जमा करने का आदेश दे दिया। बॉम्बे टेक्निकल इंस्टीट्यूट बायकुला के प्राचार्य नरीमन प्रिंटर ने जब यह ख़बर सुनी, तो उन्होंने अपने रेडियो ट्रांसमीटर को बचाने का फ़ैसला किया। उन्होंने ट्रांसमीटर को खोलकर उसके पुर्ज़े अलग-अलग कर दिए। फिर उन्होंने उन पुर्ज़ों को अलग-अलग महफ़ूज़ जगह पर छुपा दिया। उस वक़्त देश में स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहा था। महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ का नारा दिया था। ब्रिटिश हुकूमत ने 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी और उनके साथियों को गिरफ़्तार कर लिया और प्रेस पर पाबंदी लगा दी। ऐसे में कांग्रेस नेताओं को रेडियो की ज़रूरत महसूस हुई। उन्होंने नरीमन प्रिंटर से रेडियो स्टेशन शुरू करने का अनुरोध किया। इस पर उन्होंने अपने ट्रांसमीटर के पुर्ज़ों को इकट्ठा किया। उन्होंने माइक और अन्य ज़रूरत का सामान ख़रीदा। फिर 27 अगस्त 1942 को मुम्बई में नेशनल कांग्रेस रेडियो का प्रसारण शुरू हुआ। अपने पहले प्रसारण में उद्घोषक उषा मेहता ने कहा था- “41 दशमलव 78 मीटर पर एक अनजान जगह से यह नेशनल कांग्रेस रेडियो है।” ब्रिटिश सिपाहियों से बचने के लिए ट्रांसमीटर को सात अलग-अलग जगहों पर ले जाया गया, लेकिन इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ। आख़िरकार 12 नवम्बर 1942 को नरीमन प्रिंटर और उषा मेहता को गिरफ़्तार कर लिया गया। इस तरह नेशनल कांग्रेस रेडियो बंद हो गया।
आकाशवाणी द्वारा अपनी स्थापना के वक़्त से ही कुछ परम्पराओं का पालन किया जा रहा है। मसलन आकाशवाणी के हर केन्द्र पर प्रसारण शुरू होने से पहले इसकी संकेत धुन बजाई जाती है। फिर वन्दे मातरम् का गायन होता है। इसके बाद उद्घोषक स्टेशन का नाम बताता है। केन्द्र की फ़्रीक्वेंसी बताई जाती है। देसी महीने की तारीख़ और साल बताया जाता है। इसके साथ ही अंग्रेज़ी तारीख़ भी बताई जाती है, दिन बताया जाता है। फिर वक़्त बताया जाता है। लोग इससे अपनी घड़ियां मिलाते हैं। रेडियो की यह ख़ासियत है कि इसके सभी कार्यक्रम अपने तय वक़्त पर ही शुरू होते हैं। इसके बाद मंगल ध्वनि बजाई जाती है, जो भारत रत्न बिस्मिल्लाह ख़ान ने बनाई थी।  
आकाशवाणी बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का पालन करती है। यह सबके हित की बात करती है, सबके सुख की बात करती है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन इसके सिद्धांत हैं। आकाशवाणी का विज़न भी यही है- राष्ट्रीय लोक प्रसारक के रूप में, आकाशवाणी अद्यतन तकनीक के इस्तेमाल से मज़बूत इलेक्ट्रॉनिक रेडियो प्रसारण मीडिया द्वारा सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित कर सभी वर्गों के लोगों को सशक्त बनाने के लिए वचनबद्ध है। इसके मिशन के तहत सूचना, शिक्षा और मनोरंजन द्वारा एकता, राष्ट्रीय अखंडता, प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और साम्प्रदायिक सद्भावना को मज़बूत करना, देश और विदेश के सभी लोगों तक एकरूपता से संदेश और सूचना पहुंचाने के लिए सशक्त इलेक्ट्रॉनिक वायरलेस संचार माध्यम का विकास करना, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व की जीवन शैली और सामाजिक आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण घटनाओं और परिवर्तनों को शामिल करते हुए पक्षपात रहित अद्यतन, वस्तुनिष्ठ, व्यापक और संतुलित समाचार प्रसारित करना, प्रसारण कार्यक्रम की विषय-वस्तु और सिग्नल गुणवत्ता में अंतर्राष्ट्रीय मानकों को हासिल करना, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और वैश्विक सद्भावना को प्रोत्साहन देना है।     
 
आकाशवाणी समाचारों के लिए जानी जाती है। यहां से सिर्फ़ और सिर्फ़ सच्चे समाचार ही प्रसारित होते हैं। यहां झूठ का कोई काम नहीं है। आकाशवाणी और सच एक दूसरे के पर्याय हैं। देश के हर क्षेत्र में आकाशवाणी केन्द्र हैं। 
आकाशवाणी ने लेह जैसे दुर्गम क्षेत्रों में भी अपने केन्द्र स्थापित किए हुए हैं, जहां रौशनी तक नहीं पहुंचती। 
आकाशवाणी ने देश को दिग्गज कलाकार दिए हैं। अमीन सयानी, कब्बन मिर्ज़ा, सुनील दत्त और स्मिता पाटिल को भला कौन नहीं जानता। समाचार वाचक देवकीनन्दन पांडे और विनोद कश्यप भी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। देश के सुप्रसिद्ध कलाकार और साहित्यकार इससे जुड़े रहे हैं। आकाशवाणी ने एक कीर्तिमान स्थापित किया है। आकाशवाणी ने न कभी आवाज़ से समझौता किया और न ही उच्चारण से। क़ाबिले- ग़ौर है कि इन्हीं सख़्त नियमों की वजह से अमिताभ बच्चन का आकाशवाणी में चयन नहीं हो पाया था। 
आकाशवाणी की कई सेवाएं हैं, जिनमें समाचार के अलावा विविध भारती भी है, जो आकाशवाणी की एक प्रमुख प्रसारण सेवा है। श्रोताओं में यह बहुत लोकप्रिय है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यह सबसे ज़्यादा सुनी जाने वाली सेवा है। इस पर हिन्दी फ़िल्मों के गाने बजाये जाते हैं। इसकी शुरुआत 3 अक्टूबर 1957 को हुई थी। विविध भारती की शुरुआत की कहानी भी बहुत ही दिलचस्प है। पचास की दहाई में श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की विदेश सेवा यानी रेडियो सीलोन हिन्दी फ़िल्मों के गाने बजाती थी। लोग इसके दीवाने थी। उस वक़्त आकाशवाणी के तत्कावलीन महानिदेशक गिरिजाकुमार माथुर ने भी आकाशवाणी पर ऐसे ही कार्यक्रम की परिकल्पना की। उन्होंने पंडित नरेंद्र शर्मा, गोपालदास और केशव पंडित व अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर विविध भारती सेवा शुरू की। इस पर बजाया गया पहला गीत पंडित नरेंद्र शर्मा ने लिखा था और इसके संगीतकार थे अनिल विश्वािस। इसे प्रसार गीत कहा गया और इसके बोल थे- नाच मयूरा नाच। इसे सुप्रसिद्ध गायक मन्ना  डे ने अपनी आवाज़ से सजाया था। विविध भारती की पहली उद्घोषणा शील कुमार ने की थी। बाद में अमीन सयानी इससे जुड़ गए और उनके वक़्त में इसने कामयाबी के परचम फहराये और इसका जलवा तो आज भी बरक़रार है। शुरुआत में इसका प्रसारण सिर्फ़ दो केन्द्रों बम्बई और मद्रास से होता था। बाद में आकाशवाणी के दूसरे केन्द्रों ने भी इसका प्रसारण शुरू कर दिया। अब तो देश के सभी केन्दों पर कम से कम एक घंटा विविध भारती का प्रसारण अनिवार्य कर दिया गया है। यह आकाशवाणी की विज्ञापन प्रसारण सेवा भी है। एफ़एम पर तो दिनभर विविध भारती का ही प्रसारण होता है।      
विविध भारती के अलावा ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस भी बहुत लोकप्रिय है। यह विदेश प्रसारण सेवा प्रभाग के तहत आती है। यह प्रभाग 1 अक्टूबर 1939 से कार्यरत है। हिन्दुस्तान के अलावा पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में भी इसे ख़ूब सुना और पसंद किया जाता है। विदेश प्रसारण सेवा प्रभाग अनेक विदेशी भाषा सेवाओं में दुनियाभर में फैले विदेशी श्रोताओं के लिए समाचार और अन्य कार्यक्रम तैयार करता है। इसकी पहुंच तक़रीबन 108 देशों तक है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय की दिसम्बर 2011 को जारी एक विज्ञप्ति के मुताबिक़ आकाशवाणी नेटवर्क में 406 ट्रांसमीटर और 261 प्रसारण केन्द्र हैं। इन ट्रांसमीटर्स में 146 मीडियम वेव, 54 शॉर्ट वेव और 203 एफ़एम हैं। आकाशवाणी देश में 99.14 फ़ीसद आबादी और 91.80 फ़ीसद इलाक़े को कवर करती है। आकाशवाणी घरेलू सेवाओं में 146 बोलियों और 24 भाषाओं में काम करती है। इसकी चार स्तरीय सेवाएं हैं- राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, स्थानीय और विदेश सेवा। विदेश सेवा में आकाशवाणी 27 भाषाएं कवर करती है, जिनमें 11 भारतीय और 16 विदेशी भाषाएं शामिल हैं। आकाशवाणी द्वारा 27 भाषाओं में 58 बुलेटिन प्रसारित किए जाते हैं। आकाशवाणी की 44 क्षेत्रीय समाचार इकाई, 32 अपलिंक भूकेंद्र, 40 विज्ञापन प्रसारण सेवा केन्द्र और केन्द्रीय स्तर पर एक आकाशवाणी संसाधन केन्द्र है। आकाशवाणी के पास डीटीएच रेडियो सेवाएं हैं, जिनमें 21 चैनल हैं। आकाशवाणी प्रसारण में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मानकों का पालन करती है।
रेडियो ने अपनी शुरुआत से कई अच्छे और बुरे दौर देखे हैं। 23 मार्च 2020 को प्रसार भारती ने एक कार्यालयीन ज्ञापन जारी करके विदेश प्रसारण सेवा प्रभाग को ग़ैर ज़रूरी सेवा बताया और इसकी तमाम सेवाएं और सभी ट्रांसमीटर्स रद्द कर दिए, जिनसे विदेशी भाषा सेवाएं प्रसारित की जातीं थीं। हालांकि उसी साल जून में कुछ भाषा सेवाएं दोबारा शुरू कर दी गईं, लेकिन इसकी वजह से कई सेवाएं बुरी तरह प्रभावित हुई हैं।   
रेडियो मनोरंजन का बहुत ही सस्ता और सुगम साधन है। आज भी खेत-खलिहानों, गांव-देहात में, क़स्बों में दुकानों और कारख़ानों में रेडियो को सुना जा सकता है। अपने घर-परिवार से दूर फ़ौजी भाइयों के लिए तो यह बहुत ज़रूरी साधन है। देश की सरहदों पर जहां दूर-दूर तक चिड़िया का बच्चा भी नज़र नहीं आता, ऐसी वीरान जगहों पर रेडियो उनका साथ निभाता है। रेडियो के ज़रिये जहां उन्हें देश-विदेश की ख़बरें मिल जाती हैं, वहीं गीत-संगीत उनका मनोरंजन करता है। फ़ौजी भाइयों की पसंद के फ़िल्मी गीतों का कार्यक्रम जयमाला और नाटिकाओं व झलकियों का कार्यक्रम हवामहल भी ख़ूब पसंद किया जाता है। पिटारा में रोज़ अलग-अलग कार्यक्रम पेश किए जाते हैं जैसे चिकित्सकों से बातचीत पर आधारित कार्यक्रम सेहतनामा, हैलो फ़रमाइश, फ़िल्मी सितारों से मुलाक़ात का कार्यक्रम’ सेल्युपलाइड के सितारे’, संगीत की दुनिया की हस्तियों से जुड़ा कार्यक्रम ‘सरगम के सितारे’ आदि। पिटारा में लोकप्रिय कार्यक्रम ‘बाईस्कोकप की बातें’ भी प्रसारित होती रही हैं। विविध भारती के कार्यक्रम ‘उजाले उनकी यादों के’ में फ़िल्मी हस्तियों से बातचीत की जाती है, उनकी ज़िन्दगी के कुछ अनछुये पहलुओं पर गुफ़्तगू की जाती है। श्रोता छायागीत, गीत गाता चल, गाता रहे मेरा दिल, गीत गुंजन, कुछ बातें कुछ गीत, रंगोली, रंग तरंग, संगीत सरिता, आज के मेहमान और आज के फ़नकार आदि कार्यक्रमों का भी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। इसके अलावा महिलाओं के लिए चूल्हाय-चौका और सोलह श्रृंगार जैसे कार्यक्रम भी लोकप्रिय रहे हैं। रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री भी ख़ूब सुनी जाती है।  
ग़ौरतलब है कि हर साल 13 फ़रवरी को विश्व रेडियो दिवस मनाया जाता है। साल 2010 में स्पेन रेडियो अकादमी ने 13 फ़रवरी को विश्व रेडियो दिवस मनाने के लिए प्रस्ताव रखा था, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र रेडियो की शुरुआत 13 फ़रवरी 1946 को हुई थी। साल 2011 में यूनेस्को के सदस्य देशों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और 13 फ़रवरी को विश्व रेडियो दिवस मनाने का ऐलान किया गया। फिर साल 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी इसे स्वीकार कर लिया। फिर उसी साल 13 फ़रवरी को पहली बार यूनेस्को ने विश्व रेडियो दिवस मनाया। इस दिन को मनाने का मक़सद दुनिया भर के लोगों को रेडियो की आवश्यकता और महत्व के प्रति जागरूक करना है। 
आज भले ही टेलीविज़न और सोशल मीडिया का ज़माना है। इसके बावजूद रेडियो ने अपना वजूद क़ायम रखा है। अब डीटीएच के ज़रिये टीवी पर भी रेडियो को सुना जा सकता है। इतना ही नहीं, सोशल मीडिया पर भी रेडियो को सुना जा सकता है। ख़ास बात तो यह भी है कि रेडियो के कार्यक्रम जब चाहे सोशल मीडिया पर सुने जा सकते हैं। अब तो निजी एफ़एम चैनलों की भी बाढ़ आई हुई है। बहरहाल, रेडियो का जलवा आज भी बरक़रार है। 
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री स्मिता पाटिल को उनकी जीवंत और यादगार भूमिकाओं के लिए जाना जाता है. उन्होंने पहली ही फ़िल्म से अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था, लेकिन ज़िंदगी ने उन्हें ज़्यादा वक़्त नहीं दिया. स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर, 1955 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था. उनके पिता शिवाजीराव पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे. उनकी माता सामाजिक कार्यकर्ता थीं. उनकी शुरुआती शिक्षा मराठी माध्यम के एक स्कूल से हुई थी. कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह मराठी टेलीविजन में बतौर समाचार वाचिका काम करने लगीं. ख़ूबसूरत आंखों वाली सांवली सलोनी स्मिता पाटिल का हिंदी सिनेमा में आने का वाक़िया बेहद रोचक है. एक दिन प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल ने उन्हें टीवी पर समाचार पढ़ते हुए देखा. वह स्मिता के नैसर्गिक सौंदर्य और समाचार वाचन से प्रभावित हुए बिना न रह सके. उन दिनों वह अपनी फ़िल्म चरणदास चोर बनाने की तैयारी कर रहे थे. स्मिता पाटिल में उन्हें एक उभरती अभिनेत्री दिखाई दी. उन्होंने स्मिता पाटिल से मुलाक़ात कर उन्हें अपनी फ़िल्म में एक छोटा-सा किरदार निभाने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने क़ुबूल कर लिया. हालांकि यह एक बाल फ़िल्म थी. फ़िल्म में न केवल स्मिता पाटिल के अभिनय की बेहद सराहना हुई, बल्कि इस फ़िल्म ने समानांतर सिनेमा को स्मिता के रूप में एक नया सितारा दे दिया. और फिर यहीं से उनका अभिनय का सफ़र शुरू हो गया, जो उनकी मौत तक जारी रहा. श्याम बेनेगल ने एक बार कहा था, मैंने पहली नज़र में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में ग़ज़ब की स्क्रीन उपस्थिति है और जिसका इस्तेमाल रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है.

1975 स्मिता ने श्याम बेनेगल की फ़िल्म निशांत में काम किया. इसके बाद 1977 में उनकी भूमिका और मंथन जैसी कामयाब फ़िल्में प्रदर्शित हुईं. 1978 में उन्हें फ़िल्म भूमिका में सशक्त अभिनय करने के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इस फ़िल्म में उन्होंने 30-40 के दशक में मराठी रंगमच से जुड़ी अभिनेत्री हंसा वाडेकर की निजी ज़िंदगी को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसी साल यानी 1978 में ही उन्हें मराठी फ़िल्म जॅत रे जॅत के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 1981 में उन्हें फ़िल्म चक्र के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर और नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड दिया गया. 1980 में प्रदर्शित इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल ने झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला का किरदार निभाया था. स्मिता पाटिल ने समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यवसायिक सिनेमा में भी अपनी अभिनय प्रतिभा के जलवे बिखेरे. जहां उनकी बाज़ार, भीगी पलकें, अर्थ, अर्ध सत्य और मंडी जैसी कलात्मक फ़िल्में सराही गईं, वहीं दर्द का रिश्ता, आख़िर क्यों, ग़ुलामी, अमृत और नज़राना, नमक हलाल और शक्ति जैसी व्यवसायिक फ़िल्में भी लोकप्रिय हुईं. 1985 में आई उनकी फ़िल्म मिर्च-मसाला ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई. सौराष्ट्र की आज़ादी से पहले की पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म उस दौर की सामंतवादी व्यवस्था के बीच पिसती एक महिला के संघर्ष को दर्शाती है. दुग्ध क्रांति पर बनी उनकी फ़िल्म मंथन के कुछ दृश्य आज भी टेलीविजन पर देखने को मिल जाते हैं.  इस फ़िल्म के निर्माण के लिए गुजरात के तक़रीबन पांच लाख किसानों ने अपनी मज़दूरी में से दो-दो रुपये फ़िल्म निर्माताओं को दिए थे. स्मिता पाटिल की दूसरी फ़िल्मों की तरह यह भी कामयाब साबित हुई. स्मिता पाटिल ने महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे के साथ भी काम किया. उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेली़फ़िल्म सद्‌गति में दमदार अभिनय कर इसे ऐतिहासिक बना दिया. स्मिता पाटिल को भारतीय सिनेमा में उनके  योगदान के लिए 1985 में पदमश्री से सम्मानित किया गया.

उन्होंने शादीशुदा अभिनेता राज बब्बर से प्रेम विवाह किया. उनके लिए राज बब्बर ने अपनी पत्नी नादिरा ज़हीर को छोड़ दिया था. स्मिता पाटिल अपनी नई ज़िंदगी से बहुत ख़ुश थीं, लेकिन क़िस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था. बहुत कम उम्र में वह इस दुनिया को छोड़ गईं. बेटे प्रतीक को जन्म देने के कुछ दिनों बाद 13 दिसंबर, 1986 को उनकी मौत हो गई. उनकी मौत के बाद 1988 में फ़िल्म वारिस प्रदर्शित हुई, जो उनकी यादगार फ़िल्मों में से एक है. अभिनेत्री रेखा ने इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल के लिए डबिंग की थी.

हिंदी सिनेमा में स्मिता पाटिल की प्रतिद्वंद्विता शबाना आज़मी से थी. स्मिता पाटिल की तरह शबाना आज़मी भी श्याम बेनेगल की ही खोज थीं. स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी के बीच मुक़ाबले की बातें काफ़ी चर्चित हुईं. फ़िल्म अर्थ और मंडी में दोनों अभिनेत्रियों ने साथ-साथ काम किया. दोनों फ़िल्मों की समीक्षकों ने ज़्यादा सराहना की. स्मिता पाटिल का मानना था कि उनकी भूमिका में काफ़ी बदलाव किया गया था. इसके बाद ही उन्होंने व्यवसायिक फ़िल्मों का रुख़ कर लिया. शुरू में उन्हें काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने ख़ुद को वक़्त के हिसाब से ढाल लिया. नतीजतन, उनकी व्यवसायिक फ़िल्में भी बेहद कामयाब रहीं. स्मिता पाटिल के साथ शक्ति और नमक हलाल जैसी फ़िल्मों में करने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन का कहना है कि स्मिता जी कमर्शियल फ़िल्में करने से हिचकिचाती थीं. वह नाचने-गाने में असहज महसूस करती थीं. जब भी वह इस तरह की कोई फ़िल्म करती थीं ख़ुद को पूरी तरह से निर्देशक के हाथों में सौप देती थीं. अमिताभ बच्चन उनकी महानता और सादगी के भी क़ायल रहे हैं. बक़ौल अमिताभ बच्चन, शक्ति की शूटिंग के दौरान हम फ़िल्म के कुछ हिस्से चेन्नई में फ़िल्मा रहे थे. स्मिता जी मेरे पास आईं और बोलीं, नमक हलाल करने के बाद लोग मुझे पहचानने लगे हैं. मुझे लगता है कि यह स्मिता जी की महानता थी, जो वह यह बात कह रही थीं, क्योंकि वह तो हिंदी सिनेमा का एक जाना माना नाम थीं.

स्मिता पाटिल की सादगी ही उन्हें ख़ास बनाती थी. स्मिता पाटिल के साथ फ़िल्म गमन में काम करने वाले नाना पाटेकर कहते हैं कि मैं और स्मिता एक दूसरे से काफ़ी हंसी-मज़ाक़ किया करते थे. मैं उसे काली-कलूटी कहकर चिड़ाता था, तो वह मुझे कहती थी कि ये काला रंग ही तो उसकी ख़ासियत है, तभी तो लोग उसे प्यार करते हैं. फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट स्मिता पाटिल का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि स्मिता पाटिल सुंदर और साहसी थीं. उनके ललाट पर ही शायद दुर्भाग्य लिखा था. मैं इसे खुलेआम स्वीकार करना चाहता हूं कि उनके आकस्मिक निधन से मैं कभी उबर नहीं पाया. नियति का खेल देखें कि वह मां बनीं. उन्होंने एक शिशु को जन्म दिया. एक जीवन देने के साथ ही वह मौत की आग़ोश में चली गईं. ग़म और कुछ नहीं के बीच मैं ग़म को अपनाना चाहूंगी, स्मिता पाटिल ने मेरी आत्मकथात्मक फ़िल्म अर्थ की कहानी सुनने के बाद मुझे यह नोट भेजा था. उसमें उन्हें एक पागल अभिनेत्री की भूमिका निभानी थी. तमाम विकल्पों के बीच उन्होंने उस फ़िल्म के लिए हां की थी. उसकी एक ही वजह थी कि उस किरदार से उन्हें सहानुभूति हुई थी. सहानुभूति की वजह यही हो सकती है कि उन दिनों वह स्वयं शादीशुदा राज बब्बर के साथ ख़तरनाक रिश्ते को जी रही थीं. अपने पास प्रेमी को रखने की चाह और एक घर तो़ड़ने के अपराध की भावना के बीच वह झूल रही थीं. इस भूमिका में इतना विषाद है कि इसे निभाने से मुझे राहत मिलेगी, अर्थ का पहला दृश्य करने के बाद उन्होंने कहा था. हम लोग एक पंचसितारा होटल के कमरे में उस दृश्य की शूटिंग कर रहे थे. इस दृश्य में वह अपने दुर्भाग्य और अवैध संबंध का रोना रो रही थीं. अर्थ का सेट उनके लिए आईना था, जिसमें वह अपने दर्दनाक वर्तमान की झलक देख रही थीं. वह हर दिन सुबह खेल के मैदान में जा रहे बच्चे के उत्साह के साथ सेट पर आती थीं और पिछले दिन अपने प्रेमी के साथ गुज़रे अनुभव और पीड़ा को कैमरे के सामने उतार देती थीं. प्रकृति ने उन्हें अकेलेपन का क़ीमती उपहार दिया था. इस अकेलेपन ने ही उनकी कला को जन्म दिया था. वह प्राय: कहा करती थीं, इस इंडस्ट्री में हर व्यक्ति अकेला है. एक रात मैं थोड़ी देर से घर लौटा तो मेरी बीवी ने बताया कि लिविंग रूम में कोई मेरा इंतज़ार कर रहा है. कमरे में दाख़िल होने के बाद मैंने देखा कि स्मिता पाटिल मेरी तरफ़ पीठ किए खड़ी थीं और बड़े ग़ौर से अपनी हथेली निहार रही थीं. वह रो रही थीं. उन्होंने अपनी हथेली मेरी तरफ़ ब़ढाते हुए कहा, क्या आपने मेरी हथेली में जीवनरेखा देखी है? यह बहुत छोटी है. मैं ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहूंगी. उसके बाद उन्होंने जो बात कहीं, वह मैं अपनी अंतिम सांस तक नहीं भूल सकता. उन्होंने आगे कहा कि महेश, मरने का डर सबसे बड़ा डर नहीं होता. जीने का डर मरने से बड़ा होता है. वह मेरे सामने रात भर पत्तों की तरह कांपती रहीं. शायद अपनी मौत के बारे में सोच कर वह घबरा रही थीं. सुबह होने पर वह अपने घर लौटीं. सुबह की नीम रोशनी में पूरी तरह से टूटी हुई, लड़खड़ाते क़दमों से अपनी कार की तरफ़ जाती उनकी छवि आज भी मेरे दिमाग़ में कौंधती है. वह बहुत सुंदर दिख रही थीं. मुझे यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं है कि अर्थ में जो भावनात्मक उबाल मैं दिखा पाया था, वह स्मिता की निजी ज़िंदगी के ईंधन के बिना मुमकिन नहीं होता.

हिंदी के अलावा मराठी, गुजराती, तेलुगू, बांग्ला, कन्ऩड और मलयालम फ़िल्मों में भी काम किया. उनकी हिंदी फ़िल्मों में चरणदास चोर, निशांत, मंथन, कोंद्रा, भूमिका, गमन, द नक्सलिटाइस, आक्रोश, सद्‌गति, अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है, चक्र, तजुर्बा, भीगी पलकें, बाज़ार, दिल-ए-नादान, नमक हलाल, बदले की आग, शक्ति, सुबह, मंडी, अर्थ, चटपटी, घुंघरू, दर्द का रिश्ता, हादसा, क़यामत, अर्धसत्य, पेट प्यार और पाप, शपथ, क़ानून मेरी मुट्ठी में, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, गिद्ध, तरंग, फ़रिश्ता, शराबी, आनंद और आनंद, आज की आवाज़, रावण, क़सम पैदा करने वाले की, जवाब,  आख़िर क्यों, हम दो हमारे दो, ग़ुलामी,  मेरा घर मेरे बच्चे, अंगारे, कांच की दीवार, दिलवाला, आपके साथ, अमृत, तीसरा किनारा, अनोखा रिश्ता, दहलीज़, सूत्रधार, नज़राना, शेर शिवाजी, देवशिशु, इंसानियत के दुश्मन, मिर्च मसाला, डांस डांस, राही, अवाम, ठिकाना, आकर्षण, हम फ़रिश्ते नहीं, वारिस, गलियों का बादशाह और सितम आदि शामिल हैं.

भले ही आज स्मिता पाटिल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी फ़िल्मों के ज़रिये वह हमेशा अपने प्रशंसकों के बीच रहेंगी. बहरहाल, इस साल के शुरू में अभिनेता और कांग्रेस सांसद राज बब्बर ने कहा था कि अब वह ए बुक ऑफ पैन नामक किताब लिखने वाले हैं, जिसमें वह अपने और स्मिता पाटिल के प्रेम के बारे में भी लिखेंगे.


वीर विनोद छाबड़ा
वो एक करिश्मा है. निर्देशक की नायिका है. उसे मालूम है कि किस गहराई और ऊंचाई के स्तर पर कब और कैसे परफार्म करना है. बात जब स्टाईल, सेक्सी और आकर्षक दिखने और अपनी मौजूदगी की अहसास कराने की होती है तो सिर्फ और सिर्फ उसी का ही नाम याद आता है. शून्य से शिखर तक की यात्रा उसने अकेले और अपने बूते की है. जब कभी वो राह भटकी है तो पुनः खुद को खोजा है. पुरुष बन कर पुरुषों वाले काम पुरुष से भी बेहतर ढंग से किये हैं. उसकी तुलना हालीवुड की लीजेंड ग्रेटा गोर्बा से होती है. अगर संक्षेप में हालीवुड की मर्लिन मुनरो सेक्स है तो बालीवुड की वो चमत्कार है. उसके नाम के बाद महान की सूची बंद हो जाती है. इस तरह की जब कहीं वार्ता हो रही हो तो यकीन जानिए यह सिर्फ और सिर्फ रेखा की बात हो रही होती है, जो आज ज़िंदगी के 70वें बरस में कदम रख रही है. 
ये फिल्मी दुनिया भी विचित्र है. किस्मत मेहरबान हो तो बंदा पल भर में कहां से कहां पहुंच जाए. अपढ़ भी हेडमास्टर. लेकिन रेखा को महज किस्मत ने फर्श से अर्श तक नहीं पहुंचाया. इसमें उनकी अपनी भी मेहनत शामिल है. किसी ने कल्पना नहीं की थी कि मोहन सहगल की ‘सावन भादों’(1970) की वो पच्चासी झटके वाली थुलथुली और भोंदू रेखा, जिसको नाक तक पोंछने की तमीज नहीं है, एक दिन किवदंती बन जायेगी.  इसकी वजह सिर्फ यह है कि रेखा बचपन से अब तक की जिंदगी में बेशुमार पतझड़ों से गुज़री है और कई अग्नि परीक्षाओं की भट्टी में पकी है. न जाने कितनी बार ज़हर पीया है. यह सब उसने आत्मसात करके मंथन किया है. इससे आगे अब शायद कुछ बचा भी नहीं है. 
मुज़फ्फर अली जब ‘उमराव जान’ (1981) की तवायफ़ की तलाश कर रहे थे तो उन्हें सुंझाव दिया गया कि ‘मुकद्दर का सिकंदर’ और ‘सुहाग’ की रेखा को देखें.   और मुज़फ्फर की तलाश पूरी हो गयी. रेखा उमराव की जान बन गयी. इसके लिये सर्वश्रेष्ठ नायिका का राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला. एक इतिहासकार का कथन था कि गो उसने इतिहास में दर्ज उमराव जान को देखा तो नहीं है, लेकिन रेखा को देख कर दावे से कह सकता हूं कि उमराव जान ऐसी ही रही होगी. 
परदे की दुनिया से बाहर रेखा लव अफेयर्स के लिये कई बरस तक खासी चर्चा में रही. विनोद मेहरा, किरन कुमार, जीतेंद्र और आखिर में अमिताभ बच्चन से उसके करीबी रिश्तों को लेकर गप्पोड़ियों की दुनिया चटखारे लेती रही. लेकिन कहीं न कहीं सच तो था, बिना आग के धुआं नहीं उठता.  बताते हैं कि जया बच्चन से मिली फटकार के बाद रेखा मान गयी कि वो किसी का घर उजाड़ कर और किसी पत्नी का दिल तोड़ कर कतई अपना घर नहीं बसायेगी. इस प्रेम कथा की गिनती फिल्म इंडस्ट्री की टाप प्रेम कथाओं में होती है. इस चर्चित कथा का दि एंड भी खासा ड्रामाई रहा. यश चोपड़ा ने ‘सिलसिला में इसे एक खूबसूरत मोड़ देकर दफ़न कर दिया.  
रेखा को अनेक संस्थाओं ने लाईफटाईम एवार्डों से नवाज़ा. भारत सरकार ने 2010 में पदमश्री दी. और 2012 में जब राज्यसभा की सदस्य बनाया था तो इसी सदन में जया बच्चन पहले से मौजूद थीं. 'सिलसिला' की यादें ताज़ा हो आयीं थीं.      
रेखा ने लगभग 150 फिल्में की हैं. उम्र बढ़ी है लेकिन उमंगे अभी जवां हैं. पिछले दिनों उन्हें इंडियन आईडल के एक एपिसोड में देखा गया. वो फिटनेस की भी एक जीवित चर्चित मिसाल हैं. आज की पीढ़ी पूछती है वो क्या खाती हैं? कहां है वो चक्की? क्या पीती हैं? कौन सा योगासन करती हैं? किस मोहल्ले में है वो जिम जिसमें वो जाती हैं. 
दो राय नहीं है कि रेखा की अब तक की फिल्मी यात्रा किसी महाकथा से कम नहीं है. इस पर एक कालजई बायोपिक भी बन सकती है. 
हालाँकि पिछले काफ़ी वक़्त से रेखा की कोई फिल्म नहीं आयी है. बस टीवी इवेंट्स में नज़र आयीं. फ़िल्म जाने क्यों मुझे लगता कि रेखा का सर्वश्रेष्ठ अभी देखना बाकी है. ऐसा इसलिये कि ‘मदर इंडिया’ की नरगिस और ‘साहब बीवी और गुलाम’ की मीना कुमारी जैसे कालजई किरदार तो उन्होंने अभी किये ही नहीं हैं. किरदार तो बहुत हैं. मुज़फ्फर अली जैसे कैलिबर के किसी डायरेक्टर को ये पहल करनी चाहिए.  


वीर विनोद छाबड़ा 
वहीदा रहमान को फ़िल्मी दुनिया के सबसे ऊँचे सम्मान से दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाज़ा गया है. ये बहुत अच्छी बात है. लेकिन 85 साल में उम्र में इस अवार्ड के मिलना थोड़ा विलंब है. बहरहाल, देर आये दुरुस्त आये. 

पचास और साठ के सालों में मीना कुमारी और नूतन के साथ-साथ वहीदा रहमान की प्रतिभा की बहुत क़द्र थी. उसके नैन-नक्श बहुत आकर्षक थे जैसे किसी शिल्पकार ने गढ़े हों. लेकिन उसकी विशेषता थी, बिना शब्दों के चेहरे के भावों से बात कहना और सादगी.  क्रिएटिव डायरेक्टर्स की पहली पसंद.  3 फरवरी, 1938 को तमिलनाडु के चिंगलपेट में जन्मी वहीदा का कैरीयर भारत नाट्यम की डांसर के रूप में शुरू हुआ. पिता बड़े सरकारी मुलाज़िम थे. कभी दकियानूस नहीं रहे. बेटियों को पूरी आज़ादी थी. वहीदा और बड़ी बहन ज़ाहिदा ने भरतनाट्यम सीखने की इच्छा ज़ाहिर की. उनके समाज में विरोध हुआ. मगर संगीत धर्म, जाति या समुदाय की हदों को नहीं मानता. आज़ादी के बाद पहले गवर्नर-जनरल सी.राजगोपालाचारी के सामने दोनों बहनों ने नृत्य की प्रस्तुति दी. राजा जी ने बहुत सराहा. लेकिन बड़ी ख़बर बनी, दो मुस्लिम बालिकाओं ने नृत्य किया. 

वहीदा अभी बालिका ही थी, जब पिता गुज़र गए. परिवार आर्थिक संकट से घिर गया. तब स्टेज पर दोनों बहनें नृत्य करने लगीं. तमिल और तेलगु फ़िल्मों में भी उनके नृत्य रखे गए. लेकिन असली पहचान तब बनी जब हैदराबाद में एक स्टेज प्रोग्राम में निर्माता-निर्देशक-अभिनेता गुरुदत्त ने वहीदा को देखा.  एक्सप्रेसिव चेहरा, मेड फॉर एक्टिंग, किरदार कोई भी हो. पारखी गुरुदत्त को वहीदा पसंद आ गयी. उन्हें 'सीआईडी' (1956) के लिए एक वैम्प की ज़रूरत थी. वहीदा ने सुना तो बिदक गयीं, वैम्प से कैरीयर की शुरुआत कोई अच्छा शगुन तो नहीं है. मां ने भी मना कर दिया, बम्बई बहुत दूर है. वहां की भाषा और संस्कृति भी अलग है. लेकिन उन्हें समझाया गया, कोई परेशानी नहीं होगी. रहने का बंदोबस्त हो जाएगा. ऊपर से आर्थिक संकट भी मंडरा रहा था. वहीदा परिवार संग चली बंबई चली आई. तब वहीदा सोलह साल की थी. लेकिन शूटिंग के दौरान डायरेक्टर राजखोसला से वहीदा की चिक-चिक हो गयी. विलेन को रिझाने और भटकाने वाला एक गाना फिल्माया जाना था. इसके लिए जिस्म का खुलासा करने वाला परिधान पहनना ज़रूरी था. लेकिन वहीदा ने साफ मना कर दिया, वो ऐसा परिधान नहीं पहनेगी.  राजखोसला बिगड़ गए. फ़िल्मों में करने क्या आई हो? बात गुरुदत्त तक पहुंची.  गुरू ने वहीदा का पक्ष लिया.  वैम्प दिखने के लिए बदन दिखाना ज़रूरी नहीं, चेहरे के एक्सप्रेशन ही काफ़ी हैं. तब फ़िल्माया गया - कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना...उस दौर का सबसे हॉटेस्ट गाना.  यहां ये ज़िक्र भी ज़रूरी है कि राजखोसला-वहीदा की बरसों चली खुन्नस 1984 में 'सनी' के साथ ख़त्म हुई. इसमें शर्मीला टैगोर भी थीं. सीआईडी के कड़वे अनुभव के बाद वहीदा जो भी फिल्म करती उसके कॉन्ट्रैक्ट में एक धारा ये ज़रूर जुड़ी रहने लगी कि परिधान उनकी पसंद के होंगे. 

सीआईडी सुपरहिट हुई. हीरो देवानंद की नायिका हालांकि शकीला थी, लेकिन चर्चा वहीदा की ज़्यादा हुई. गुरुदत्त ने 'प्यासा' (1957) में वहीदा को वेश्या गुलाबो के रोल के लिए कास्ट किया, फिर निगेटिव रोल. वहीदा को आपत्ति हुई. गुरुदत्त ने इसकी अहमियत को समझाया. जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बनी नहीं...क्लासिक में शुमार हुई ये फिल्म.  एक बार फिर नायिका माला सिन्हा से ज़्यादा चर्चे वहीदा के हुए. मोहब्बत अंधी होती है. जाने कब गुरुदत्त के दिल में बस गयी वहीदा. अगली फिल्म 'कागज़ के फूल' में वहीदा के लिए नायिका का रोल. भारतीय सिनेमा की पहली सिनेमास्कोप फिल्म.  क्रिटिक्स ने बहुत सराहा मगर दर्शकों ने नकार दिया. उधर वहीदा को लेकर गुरुदत्त के घर में भी तबाही मच गयी. गायिका पत्नी गीतादत्त ने घर छोड़ दिया.  क़सम खाई कि अब वहीदा को प्लेबैक को नहीं देंगी.  'चौदहवीं का चाँद' और 'साहिब बीवी और गुलाम' में वहीदा के लिए गीता ने आवाज़ नहीं दी. इस बीच वहीदा भी गुरुदत्त की ज़िंदगी से निकल गयी. प्रण किया कि किसी का घर तोड़ कर अपना घर नहीं बसाउंगी. उन्होंने ये आख़िरी दो फ़िल्में गुरुदत्त का आभार व्यक्त करने के लिए कीं. व्यथित गुरुदत्त ज़्यादा जी नहीं पाए. नींद की गोलियां के ओवरडोज़ से उनकी मृत्यु हो गयी. वैसे आम ख्याल था कि ये आत्महत्या थी.  

वहीदा का नाम भले गुरुदत्त कैंप से जुड़ा रहा लेकिन इससे अलग भी उन्होंने अपना मुक़ाम बनाया, जब सत्यजीत रे ने उन्हें 'अभिजान' में लिया.  देवानंद की वो फेवरिट रहीं. सीआईडी के बाद सोलवां सावन, काला बाज़ार, बात एक रात की, रूप की रानी चोरों का राजा और प्रेमपुजारी.  देव की 'गाइड' के रोज़ी के किरदार को वहीदा अपनी ऊंचाई मानती हैं. हालांकि ये नायक प्रधान फिल्म थी, लेकिन इसके बावजूद वहीदा ने अपनी छाप छोड़ी.  उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला.  राम माहेश्वरी की 'नीलकमल' में दो हीरो थे, राजकुमार और मनोज कुमार.  मगर वहीदा उनसे फिर आगे निकल गयी. एक और फिल्मफेयर अवार्ड मिला.  सुनील दत्त उनके पुराने मित्र रहे. 'मुझे जीने दो' की तवायफ़ चमेली जान बनीं वो. रात भी है कुछ भीगी भीगी...नदी नारे न जाऊं शाम पइयां पडूं...तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ...बरसों बाद सुनील दत्त ने 'रेशमा और शेरा' (1971) की रेशमा के लिए वहीदा को फिर याद किया. वहीदा ने यादगार परफॉरमेंस दी. बेस्ट एक्ट्रेस का नेशनल अवार्ड मिला उन्हें.  इस फिल्म के साथ एक दिलचस्प किस्सा जुड़ा है. शूटिंग राजस्थान के किसी रेतीले इलाके में चल रही थी. नरगिस को शक़ हुआ कि उनके पति और वहीदा का अफेयर है. वो चुपचाप वहां पहुंच गयीं.  छापा मारना ही समझिये.  लेकिन वहां सब कुछ सामान्य पाया.  इधर वहीदा सब समझ गयीं.  उन्होंने नरगिस को आश्वासन दिया, आपके पति को आपसे कोई नहीं छीन सकता.  दत्त साहब के साथ 'आम्रपाली' भी वहीदा के हिस्से में आयी होती, अगर परिधानों पर उनका प्रोड्यूसर एफसी मेहरा से समझौता हो गया होता. 

राजकपूर के साथ वहीदा की 'एक दिल सौ अफ़साने' किसी को याद नहीं होगी.  लेकिन 'तीसरी कसम' की हीराबाई ज़रूर याद होगी. पान खाएं सैंया हमारो...दिलीप कुमार के साथ वहीदा की चार फ़िल्में आयीं, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, आदमी और अस्सी के सालों में यश चोपड़ा की 'मशाल'. अब जहाँ दिलीप कुमार हों, वहां नायिका का कोई ख़ास काम नहीं होता.  लेकिन वहीदा के हिस्से में जितना भी आया, उसे खूब निभाया. 

वहीदा भले ही प्रतिभा का पर्याय रही हों, और खूबसूरत भी, लेकिन ग्लैमर का पर्याय कभी नहीं रहीं. राजेंद्र कुमार के साथ 'पालकी' में वो पर्दे में ही रहीं. मगर फिर भी खूबसूरत दिखने के मामले में गज़ब ढा दिया. उन्होंने राजेंद्र के साथ बाद में 'धरती' और 'शतरंज' भी कीं. इसमें उन्हें ग्लैमर गर्ल के रूप में पेश करने की कोशिश की गई, मगर बात बनी नहीं.  दरअसल, एक बार जो इमेज बन गयी तो उसे तोड़ना मुश्किल होता है. 
   
कलर फिल्मों के युग में ब्लैक एंड वाईट 'ख़ामोशी' (1970) की नर्स राधा को भुलाया जाना मुश्किल है, जो मानसिक रोगी राजेश खन्ना का ईलाज करते हुए खुद ही रोगी हो गयी. वहीदा को इस किरदार से बेहद संतोष मिला.  लेकिन अफ़सोस कि कोई अवार्ड नहीं मिला.  सिर्फ़ बेस्ट एक्ट्रेस के नॉमिनेशन से संतोष करना पड़ा. 1973 में राजेंद्र सिंह बेदी की 'फागुन' में वहीदा ने जया भादुड़ी की मां का रोल क्या अदा किया कि उन पर 'मां' ठप्पा ही लग गया. फिर 35 साल की उम्र भी हो चली थी. अदालत, त्रिशूल और कभी कभी में अमिताभ बच्चन की मां-पत्नी बनीं. 

इसी बीच वहीदा की ज़िंदगी में बिज़नेसमैन कमलजीत उर्फ़ शशि रेखी का पुनः आगमन हुआ. ये वही कमलजीत थे जो 1965 में बनी 'शगुन' में वहीदा के  हीरो थे. बताया जाता है शशि को वहीदा बहुत पसंद थीं. फिल्म में पैसा उन्होंने ही लगाया था. मगर बुरी तरह फ्लॉप हुई थी. लेकिन शशि और वहीदा की दोस्ती परवान चढ़ गयी थी. शशि ने प्रपोज़ भी किया, लेकिन वहीदा नहीं मानीं थीं. अभी तो उनका कैरीयर उठान पर था. दस साल बाद शशि ने फिर प्रोपोज़ किया तो वहीदा मना नहीं कर पायी.  उनकी उम्र भी 35 साल हो चुकी थी. उन्हें एक साथी की ज़रूरत थी. और शशि से अच्छा साथी हो ही नहीं सकता था जो पिछले दस साल से उनकी 'हां' का ही इंतज़ार कर रहा था. लेकिन उनका वैवाहिक जीवन 25 साल ही चला. शशि का लम्बी बीमारी के बाद 2000 में निधन हो गया. वहीदा तनहा हो गयी. बंगलौर से मुंबई लौट आयीं. 

वहीदा की दूसरी इंनिग की कुछ यादगार फ़िल्में हैं, नमक हलाल, नमकीन, धर्मकांटा, महान, कुली, सनी, चांदनी, लम्हे, मशाल, रंग दे बसंती, ओम जय जगदीश, वाटर, और दिल्ली-6. अब फ़िल्मों में वहीदा नज़र नहीं आती हैं. नंदा उनकी बहुत अच्छी सहेली थीं. दोनों 'कालाबाज़ार' में साथ-साथ रहीं। लेकिन आठ साल पहले नंदा गुज़र गयीं.  वहीदा अब 85 साल पार कर चुकी हैं. एक बेटा और एक बेटी, दोनों सेटल हैं. सौ से ज्यादा फ़िल्में कर चुकी वहीदा के टैलेंट को भारत सरकार ने 2011 में पद्मभूषण देकर सम्मानित किया है और अब दादा साहेब फाल्के अवार्ड से. 

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  • सूफ़ियाना बसंत पंचमी... - *फ़िरदौस ख़ान* सूफ़ियों के लिए बंसत पंचमी का दिन बहुत ख़ास होता है... हमारे पीर की ख़ानकाह में बसंत पंचमी मनाई गई... बसंत का साफ़ा बांधे मुरीदों ने बसंत के गीत ...
  • ग़ुज़ारिश : ज़रूरतमंदों को गोश्त पहुंचाएं - ईद-उल-अज़हा का त्यौहार आ रहा है. जो लोग साहिबे-हैसियत हैं, वो बक़रीद पर क़्रुर्बानी करते हैं. तीन दिन तक एक ही घर में कई-कई क़ुर्बानियां होती हैं. इन घरों म...
  • Rahul Gandhi in Berkeley, California - *Firdaus Khan* The Congress vice president Rahul Gandhi delivering a speech at Institute of International Studies at UC Berkeley, California on Monday. He...
  • میرے محبوب - بزرگروں سے سناہے کہ شاعروں کی بخشش نہیں ہوتی وجہ، وہ اپنے محبوب کو خدا بنا دیتے ہیں اور اسلام میں اللہ کے برابر کسی کو رکھنا شِرک یعنی ایسا گناہ مانا جات...
  • देश सेवा... - नागरिक सुरक्षा विभाग में बतौर पोस्ट वार्डन काम करने का सौभाग्य मिला... वो भी क्या दिन थे... जय हिन्द बक़ौल कंवल डिबाइवी रश्क-ए-फ़िरदौस है तेरा रंगीं चमन त...
  • 25 सूरह अल फ़ुरक़ान - सूरह अल फ़ुरक़ान मक्का में नाज़िल हुई और इसकी 77 आयतें हैं. *अल्लाह के नाम से शुरू, जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है*1. वह अल्लाह बड़ा ही बाबरकत है, जिसने हक़ ...
  • ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ - ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਕਿਤੋਂ ਕਬੱਰਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬੋਲ ਤੇ ਅੱਜ ਕਿਤਾਬੇ-ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਕੋਈ ਅਗਲਾ ਵਰਕਾ ਫੋਲ ਇਕ ਰੋਈ ਸੀ ਧੀ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਤੂੰ ਲਿਖ ਲਿਖ ਮਾਰੇ ਵੈਨ ਅੱਜ ਲੱਖਾਂ ਧੀਆਂ ਰੋਂਦੀਆਂ ਤ...

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इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं