अच्छा इंसान
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अच्छा इंसान बनना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी. एक
अच्छा इंसान ही दुनिया को रहने लायक़ बनाता है. अच्छे इंसानों की वजह से ही
दुनिय...
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डॉ. फ़िरदौस ख़ान
हर भाषा की अपनी अहमियत होती है। फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी होती है, क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं। बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है। इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है। लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं। बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग्रेजी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं। हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है। वे लोग जिनके पुरखे अंग्रेजी का 'ए' नहीं जानते थे, वे भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे। हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। दरअसल, वह तो हिन्दी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं।
अंग्रेजी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेजी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है। हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है। पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे। क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं। हमें ये बात अच्छे से समझनी होगी कि जब तक हिन्दी भाषी लोग ख़ुद हिन्दी को सम्मान नहीं देंगे, तब तक हिन्दी को वो सम्मान नहीं मिल सकता, जो उसे मिलना चाहिए।
देश को आज़ाद हुए साढ़े सात दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद अभी तक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।
हमारे देश भारत में बहुत सी भाषायें और बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने काम के लिए हिन्दी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती शामिल हैं।
ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। स्टैटिस्टा के मुताबिक़ दुनियाभर में हिन्दी भाषा तेज़ी से बढ़ रही है। साल 1900 से 2021 के दौरान इसकी रफ़्तार 175.52 फ़ीसदी रही, जो अंग्रेज़ी की रफ़्तार 380.71 फ़ीसदी के बाद सबसे ज़्यादा है। अंग्रेज़ी और मंदारिन भाषा के बाद हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। साल 1961 में ही हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई। उस वक़्त दुनियाभर में 42.7 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे। साल 2021 में यह तादाद बढ़कर 117 करोड़ हो गई। इनमें से 53 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। हालत यह है कि हिन्दी अब शीर्ष 10 कारोबारी भाषाओं में शामिल है। इतना ही नहीं दुनियाभर के 10 सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बारों में शीर्ष-6 हिन्दी के अख़बार हैं। भारत के अलावा 260 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। विदेशों में 28 हज़ार से ज़्यादा शिक्षण संस्थान हिन्दी भाषा सिखा रहे हैं। हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक माना जाता है। हिन्दी का श्ब्द भंडार भी बहुत विस्तृत है। अंग्रेज़ी में जहां 10 हज़ार शब्द हैं, वहीं हिन्दी में इसकी तादाद अढ़ाई लाख बताई जाती है। हिन्दी मुख्यतः देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन अब इसे रोमन में भी लिखा जाने लगा है। मोबाइल संदेश और इंटरनेट से हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी हिन्दी का ख़ूब चलन है। गूगल पर हिन्दी के 10 लाख करोड़ से ज़्यादा पन्ने मौजूद हैं।
देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क़ है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय या राष्ट्रभाषा भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।
संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिन्दी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।
भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाता है। मगर हिन्दी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।
ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिन्दी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिन्दी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। साल 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिन्दी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिन्दी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।
संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छोद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का इस्तेमाल किया जाना है, किनके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम-1963, राजभाषा अधिनियम-1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अंग्रेज़ी भाषा हिन्दी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिन्दी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिन्दी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिन्दी भाषा के विकास के लिए गंभीर है, तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया था, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।
हिन्दी के विकास में हिन्दी साहित्य के अलावा हिन्दी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिन्दी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिन्दी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
अधिकारियों का दावा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिन्दी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिन्दी दिवस’ के तौर पर मना लेने से हिन्दी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए।
रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है। एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है- अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे। अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनसे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हों। नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों। मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता। पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी। रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जुड़े हैं। कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है। मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए ‘मेरा दाग़िस्तान’ में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं। मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं। इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए। मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं। मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।
एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की। लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका। चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा। तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो। इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। अहम बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं।
अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं। मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है।
अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा। अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की। आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते। समझे न? समझ रहा हूं। अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?
रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया। एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद। चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक़्क़ाशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं। पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूं। दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।
किस किंवदंती के आधार पर?
एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं। पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुन्दर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिन्दे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्ता दिखा देगा। उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था। अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं। चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की।
तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?
देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ़ बूढ़ी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?
रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है। अपनी एक कविता में वह कहते हैं-
मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है
हमें भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपने दिल में यही जज़्बा पैदा करना होगा।
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)
झुकता नहीं कहीं पर, यह सर तिरे बग़ैर।
काबा-ए दिल है वीराँ, दिलबर तिरे बग़ैर।
होगा नहीं वहाँ जब, दीदार आप का,
सूना रहेगा रब का, महशर तिरे बग़ैर।
बुत में जो तू न होता, ऐ नूरे-अहमदी,
आदम में हम न रहते, दम भर तिरे बग़ैर।
मुझ में तू जल्वागर है, मेरे ही नाम से,
लेकिन अमीर दिल है, मुज़्तर तिरे बग़ैर।
हमराह तू नहीं तो, बाग़े-जिनाँ के भी,
बे-नूर होंगे सारे, मंज़र तिरे बग़ैर।
क़ायम रहेगी मस्ती, दोनों जहान में,
अर्क़े-"बहार" पी है, साग़र तिरे बग़ैर।
-डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी
5 सितम्बर 2025
सर ता पा रहमत ही रहमत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
रहबरे-राहे शरीअत,
और गुह्रे - मार्फत,
मख्ज़ने-राहे तरीकत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
मेरी क्या औकात दुन्या,
कह रही बाँगे-दुहल,
बादशाहे-दीनो-मिल्लत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
आपका हल्क़-ए मुरीदी,
देख कर आया समझ,
मम्ब-ए रुशदो-हिदायत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
जो मिला इक बार भी,
तुम से तो यह कहने लगा,
कामिले - इश्को -मुहब्बत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
गुफ्तगू-ए मार्फत सब,
से नही करते थे वह,
वाकिफे-असरारे-वहदत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
हो गये रू पोश अपने,
इश्क का गम बख्श के,
बस यही है इक शिकायत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
क्या गुज़रती है दिले-
उश्शाक़ पे मत पूछिये,
सर पे टूटा गम का परवत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
हम गुनहगारों का अब,
तक के रखा जैसे भरम,
ऐसे ही रखना इनायत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
इल्मो-फन,अक्लो-खिरद,
हुस्ने-अमल के बा वजूद,
पैकरे-अख्लाको-उलफत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
आपकी मेहमाँ नवाज़ी,
भी है विर्स-ए साबिरी,
मरहबा ख़ुल्क़े-ज़ियाफ़त,
मुरशिदे- रहमत शहा।
दीनो-दुन्या और उक़्वा,
की तुम्हीं तुम हो "बहार"
हर घङी तुम रखना शफ़क़त,
मुरशिदे- रहमत शहा।
-डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी
रूप सलोना छवि मनमोहक, जालिम अत्याचारी हो!
दीन धरम ईमान लुटैया, ज़ोरावर बलधारी हो!
दीन धरम ईमान लुटैया, ज़ोरावर बलधारी हो!
देखन में तो भोले-भाले, बैठे हो मासूम बने,
चितवन से दोनहुँ जग लूटे, धोखेबाज़ शिकारी हो!
तुम किरपालू दीन दयालू, ममता समता के सागर,
संकट मोचन नाग नथैया, मुरलीधर गिरधारी हो!
अर्चन वंदन पूजन सुमिरन, सब्रो-शुक्र महब्बत में,
शक्लो-सूरत सीरत से तुम, हैदर के परिवारी हो!
बाज़ारे-महबूबे-ख़ुदा से, सौदा ले के महशर का,
दस्ते-ख़ुदा में सौंपने वाले, अति उत्तम व्यापारी हो!
नर सेवा नारायण सेवा, में तत्पर रहते निस-दिन,
भूल के अपनी रंज मुसीबत, ऐसे पर उपकारी हो।
नाम कमाई की दौलत के, अन गिनती भण्डार भरे,
संतशिरोमणि अदभुत अनुपम सीस पे छत्तरधारी हो।
साईं के पग सीस नवा के, दास की है अरदास यही,
पहला सुख सन्तोष की दौलत, दे दो तुम भण्डारी हो।
दास "बहार" सदा कहता है, गुरुवर तुम ज्ञानी ध्यानी,
तुम त्यागी तुम अनुरागी तुम, चक्र सुदर्शन धारी हो।
रहमत सिबग़त सिबग़त रहमत ज़ात"बहार"एकहि पाये
ज़ाहिर बातिन तुम क़ुदरत के, परदों की भरमारी हो।
-डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी
06 जून 2023
ज़ाते-हक़ का है आईना मुरशिद।
मुर्तज़ा मुस्तफ़ा ख़ुदा मुरशिद।
ذاتِ حق کا ہے آئینہ مرشد۔
مرتضیٰ مصطفیٰ خدا مرشد۔
दीनो-दुन्या की हर अता मुरशिद।
मज़हरे-हक़्क़ो हक़नुमा मुरशिद।
دین و دنیا کی ہر عطا مرشد۔
مظہرِ حق و حق نما مرشد۔
मरकज़े-रुश्द ओ हिदायत हैं,
रहबरो-हादी रहनुमा मुरशिद।
مرکزِ رشد و ہدایت ہئیں،
رہبر و ہادی رہنما مرشد۔
आप को पाया साहिबे-मंज़िल,
ता ज दा रे-फ़ ना बक़ा मुरशिद।
آپ کو پایا صاحبِ منزل،
تاجدارِ فنا بقا مرشد۔
जामो-मीना-है और मयकश है,
मयकदा मय है साक़िया मुरशिद।
جام و مینا ہےاورمئکش ہے،
میکدہ مئے ہے ساقیا مرشد۔
इस्म-आज़म है नाम, चहरे से,
दोनों आलम का मुद्दआ मुरशिद।
اسم اعظم ہےنام،چہرےسے،
دونوں عالم کا مدعا مرشد۔
बरहमन साक़िया इमाम हो तुम,
कितने पाकीज़ा पारसा मुरशिद।
برہمن ساقیا امام ہو تم،
کتنے پاکیزہ پارسا مرشد۔
हों फ़ना फ़िर्रुसुल फ़ना फ़िल्लाह,
काश! कर लें मुझे फ़ना मुरशिद।
ہوں فنا فی الرسل فنافی اللہ،
کاش!کر لیں مجھے فنا مرشد۔
हाथ पकड़े रहो अक़ीदत से,
ला मकाँ का हैं रास्ता मुरशिद।
ہاتھ پکڑے رہو عقیدت سے،
لامکاں کاہئیں راستہ مرشد۔
है यदुल्लाह फ़ौक़ ऐदीहिम,
दस्त दस्ते-ख़ुदा तिरा मुरशिद।
ہے ید اللہ فوق ایدیہم،
دست دستِ خداترا مرشد۔
बुतशिकन, बुतपरस्,बुतों वाला,
एक सूरत का बुतकदा मुरशिद।
بتشکن بتپرس بتوں والا،
ایک صورت کابتکدہ مرشد۔
ताक चहरा "बहार" सुब्हो-मसा,
ला पता का हसीं पता मुरशिद।
تاک چہرہ بہآرصبح ومسا،
لا پتہ کا حسیں پتہ مرشد
-डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी
23 अप्रैल 2018
हिंदी की जय जयकार करें
हिंदी जन -मन की अभिलाषा।
यह राष्ट्र-प्रेम की परिभाषा।
भारत जिसमें प्रतिबिम्बित है।
यह ऐसी प्राणमयी भाषा।
पहचानें अपनी परंपरा ,
फिर संस्कृति का सत्कार करें।
भावों का सरस प्रबन्ध यही
अपनेपन का अनुबंध यही
जोड़े मुझको , तुमसे , उनसे
रिश्तों की मधुर सुगन्ध यही
हिंदी प्राणों की ऊर्जा है
तन से , मन से स्वीकार करें
यह विद्यापति का गान अमर
'मानस' का स्वर-संधान अमर
ब्रज की रज में लिपटा-लिपटा
यह अपना ही रसखान अमर
पहचानें जरा जायसी को
फिर भावों का सम्भार करें
वीरत्व, ओज साकार यहाँ
भूषण की दृढ़ हुंकार यहाँ
चिड़ियों से बाज लड़ाऊँगा
गुरु गोविंद की ललकार यहाँ
पहचानें स्वर की शक्ति प्रखर
दृढ़ता का ऋण स्वीकार करें
हिंदी दादी की दन्त कथा
मां की लोरी की यही प्रथा
अनुभव दुनिया का लिए हुए
यह है बाबा की रामकथा
हिंदी बहिनों की राखी है
तन-मन, प्राणों से प्यार करें
-डॉ रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'
फ़िरोज़ाबाद
डॉ. फ़िरदौस ख़ान
इस्लाम में सूफ़ियों का अहम मुक़ाम है. सूफ़ी मानते हैं कि सूफ़ी मत का स्रोत ख़ुद पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु अलैहि वसल्लम हैं. उनकी प्रकाशना के दो स्तर हैं, एक तो जगज़ाहिर क़ुरआन है, जिसे इल्मे-सफ़ीना यानी किताबी ज्ञान कहा गया है, जो सभी आमो-ख़ास के लिए है. और दूसरा इल्मे-सीना यानी गुह्य ज्ञान, जो सूफ़ियों के लिए है. उनका यह ज्ञान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद, ख़लीफ़ा अबू बक़्र, हज़रत अली, हज़रत बिलाल और पैग़म्बर के अन्य चार क़रीबी साथियों के ज़रिये एक सिलसिले में चला आ रहा है, जो मुर्शिद से मुरीद को मिलता है. पीरों और मुर्शिदों की यह रिवायत आज भी बदस्तूर जारी है. दुनियाभर में अनेक सूफ़ी हुए हैं, जिन्होंने लोगों को राहे-हक़ पर चलने का पैग़ाम दिया. इन्हीं में से एक हैं फ़ारसी के सुप्रसिद्ध कवि रूमी. वह ज़िन्दगी भर इश्क़े-इलाही में डूबे रहे. उनकी हिकायतें और बानगियां तुर्की से हिंदुस्तान तक छाई रहीं. आज भी खाड़ी देशों सहित अमेरिका और यूरोप में उनके कलाम का जलवा है. उनकी शायरी इश्क़ और फ़ना की गहराइयों में उतर जाती है. ख़ुदा से इश्क़ और इश्क़ में ख़ुद को मिटा देना ही इश्क़ की इंतहा है, ख़ुदा की इबादत है.
वे कहते हैं-
बंदगी कर, जो आशिक़ बना सकती है
बंदगी काम है जो अमल में ला देती है
बंदा क़िस्मत से आज़ाद होना चाहता है
आशिक़ अबद से आज़ादी नहीं चाहता है
बंदा चाहता है हश्र के ईनाम व ख़िलअत
दीदारे-यार है आशिक़ की सारी ख़िलअत
इश्क़ बोलने व सुनने से राज़ी होता नहीं
इश्क़ दरिया वो जिसका तला मिलता नहीं
हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब रूमी में सूफ़ी कवि रूमी की ज़िन्दगी, उनके दर्शन और उनके कलाम को शामिल किया गया है. इसके साथ ही इस किताब में सूफ़ी मत के बारे में भी संक्षिप्त मगर अहम जानकारी दी गई है. इस किताब का संपादन अभय तिवारी ने किया है. इस किताब के दो खंड हैं-रूमी की बुनियाद : सूफ़ी मत और मसनवी मानवी से काव्यांश. पहले खंड में सूफ़ी मत का ज़िक्र किया गया है. बसरा में दसवीं सदी के पूर्वार्ध में तेजस्वी लोगों के दल इख़्वानुस्सफ़ा के मुताबिक़, एक आदर्श आदमी वह है, जिसमें इस तरह की उत्तम बुद्धि और विवेक हो जैसे कि वह ईरानी मूल का हो, अरब आस्था का हो, धर्म में सीधी राह की ओर प्रेरित हनी़फ़ी (इस्लामी धर्मशास्त्र की सबसे तार्किक और उदार शाख़ा के मानने वाले) हो, शिष्टाचार में इराक़ी हो, परम्परा में यहूदी हो, सदाचार में ईसाई हो, समर्पण में सीरियाई हो, ज्ञान में यूनानी हो, दृष्टि में भारतीय हो, ज़िन्दगी जीने के ढंग में रहस्यवादी हो.
रूमी को कई नामों से जाना जाता है. अफ़ग़ानी उन्हें बलख़ी पुकारते हैं, क्योंकि उनका जन्म अफ़ग़ानिस्तान के बलख़ शहर में हुआ था. ईरान में वह मौलवी हैं, तुर्की में मौलाना और हिन्दुस्तान सहित अन्य देशों में रूमी. आज जो प्रदेश तुर्की नाम से प्रसिद्ध है, मध्यकाल में उस पर रोम के शासकों का अधिकार लम्बे वक़्त तक रहा था. लिहाज़ा पश्चिम एशिया में उसका लोकनाम रूम पड़ गया. रूम के शहर कोन्या में रिहाइश की वजह से ही मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन, मौलाना-ए-रूम या रूमी कहलाए जाने लगे. उनके सिलसिले के सूफ़ी मुरीद उन्हें ख़ुदावंदगार के नाम से भी पुकारते थे. रूमी का जन्म 1207 ईस्वी में बलख़ में हुआ था. उनके पुरखों की कड़ी पहले ख़ली़फ़ा अबू बक़्र रज़ियल्लाहु अन्हु तक जाती है. उनके पिता बहाउद्दीन वलेद न सिर्फ़ एक आलिम मुफ़्ती थे, बल्कि बड़े पहुंचे हुए सूफ़ी भी थे. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी.
इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने कुछ नहीं से सृष्टि की रचना की यानी रचना और रचनाकार दोनों अलग-अलग हैं. इस्लाम का मूल मंत्र कलमा है ला इलाह इल्लल्लाह यानी अल्लाह के सिवा दूसरा कोई माबूद नहीं है. इसी कलमे पर सब मुसलमान ईमान लाते हैं. मगर सूफ़ी ये भी मानते हैं कि ला मौजूद इल्लल्लाह यानी उसके सिवा कोई मौजूद नहीं है. इस मौजूदगी में भी दो राय हैं. एक तो वहदतुल वुजूद यानी अस्तित्व की एकता, जिसे इब्नुल अरबी ने मुकम्मल शक्ल दी और जो मानता है कि जो कुछ है सब ख़ुदा है, और काफ़ी आगे चलकर विकसित हुआ. दूसरा वहदतुल शुहूद यानी (साक्ष्य की एकता, जो मानता है कि जो भी है उस ख़ुदा से है.
इस्लाम में इस पूरी कायनात की रचना का स्रोत नूरे-मुहम्मद है. नूरुल मुहम्मदिया मत के मुताबिक़ जब कुछ नहीं था, तो वह सिर्फ़ ख़ुदा सिर्फ़ अज़ ज़ात यानी स्रोत के रूप में था. इस अवस्था के दो रूप मानते हैं- अल अमा यानी घना अंधेरा और वहदियत यानी एकत्व. इस अवस्था में ख़ुदा निरपेक्ष और निर्गुण रहता है. इसके बाद की अवस्था वहदत है, जिसे हक़ीक़तुल मुहम्मदिया भी कहा जाता है. इस अवस्था में ख़ुदा को अपनी सत्ता का बोध हो जाता है. तीसरी अवस्था वाहिदियत की है, जिसमें वह परम प्रकाश, अहं, शक्ति और इरादे के विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो जाता है. अन्य तरीक़े से इस हक़ीक़तुल मुहम्मदिया को ही नूरुल मुहम्मदिया भी कहा गया है. माना गया है कि ख़ुदा ने जब सृष्टि की इच्छा की तो अपनी ज्योति से एक ज्योति पैदा की-नूरे मुहम्मद. शेष सृष्टि का निर्माण इसी नूर से माना गया है. सभी पैग़म्बर भी इसी नूर की अभिव्यक्ति हैं. इस विधान और नवअफ़लातूनी विधान के वन, नूस और वर्ल्ड सोल के बीच काफ़ी साम्य है. वैसे तो इन दोनों से काफ़ी पूर्ववर्ती श्रीमद्भागवत में वर्णित सांख्य दर्शन के अव्यक्त, प्रधान आदि भी ऐसी ही व्यवस्था के अंग हैं, लेकिन उसमें नूरुल मुहम्मदिया या वर्ल्ड सोल जैसी कोई शय नहीं है. इसके बाद इस दिव्य ज्ञान की व्यवस्था में और भी विभाजन हैं, पांच तरह के आलम, ईश्वर का सिंहासन, उसके स्वर्ग का विस्तार आदि तमाम अंग हैं. इस विधान के दूसरे छोर पर आदमी है और उसकी ईश्वर की तरफ़ यात्रा की मुश्किलें हैं, उन्हें पहचानना और इस पथ के राही के लिए आसान करना ही इस ज्ञान का मक़सद है.
रूमी के कई क़िस्से बयान किए जाते हैं. एक बार एक क़साई की गाय रस्सी चबाकर भाग ख़डी हुई. क़साई उसे पक़डने को पीछे भागा, मगर गाय गली-गली उसे गच्चा देती रही और एक गली में जहां रूमी खड़े थे, उन्हीं के पास जाकर चुपचाप रुक गई. रूमी ने उसे पुचकारा और सहलाया. क़साई को उम्मीद थी कि रूमी उसे गाय सौंप देंगे, मगर रूमी का इरादा कुछ और था. चूंकि गाय ने उनके पास पनाह ली थी, इसलिए रूमी ने क़साई से गुज़ारिश की कि गाय को क़त्ल करने की बजाय छो़ड दिया जाए. क़साई ने सर झुकाकर इसे मान लिया. फिर रूमी बोले कि सोचे जब जानवर तक ख़ुदा के प्यार करने वालों द्वारा बचा लिए जाते हैं, तो ख़ुदा की पनाह लेने वाले इंसानों के लिए कितनी उम्मीद है. कहते हैं कि फिर वह गाय कोन्या में नहीं दिखी. एक बार किसी मुरीद ने पूछा कि क्या कोई दरवेश कभी गुनाह कर सकता है. रूमी का जवाब था कि अगर वह भूख के बग़ैर खाता है तो ज़रूर, क्योंकि भूख के बग़ैर खाना दरवेशों के लिए बड़ा संगीन गुनाह है.
किताब के दूसरे खंड में रूमी का कलाम पेश किया गया है. इश्क़े-इलाही में डूबे रूमी कहते हैं-
हर रात रूहें क़ैदे-तन से छूट जाती हैं
कहने करने की हदों से टूट जाती हैं
रूहें रिहा होती हैं इस क़फ़स से हर रात
हाकिम और क़ैदी हो जाते सभी आज़ाद
वो रात जिसमें क़ैदी क़फ़स से बे़खबर है
खोने पाने का कोई डर नहीं व ग़म नहीं
न प्यार इससे, उससे कुछ बरहम नहीं
सूफ़ियों का हाल ये है बिन सोये हरदम
वे सो चुके होते जबकि जागे हैं देखते हम
सो चुके दुनिया से ऐसे, दिन और रात में
दिखे नहीं रब का क़लम जैसे उसके हाथ में
बेशक इश्क़े-इलाही में डूबा हुआ बंदा ख़ुद को अपने महबूब के बेहद क़रीब महसूस करता है. वह इस दुनिया में रहकर भी इससे जुदा रहता है. रूमी के कलाम में इश्क़ की शिद्दत महसूस किया जा सकता है. रूमी कहते हैं-
क्योंकि ख़ुदा के साथ रूह को मिला दिया
तो ज़िक्र इसका और उसका भी मिला दिया
हर किसी के दिल में सौ मुरादें हैं ज़रूर
लेकिन इश्क़ का मज़हब ये नहीं है हुज़ूर
मदद देता है इश्क़ को रोज़ ही आफ़ताब
आफ़ताब उस चेहरे का जैसे है नक़ाब
इश्क़ के जज़्बे से लबरेज़ दिल सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने महबूब की बात करना चाहता है, उसकी बात सुनना चाहता है, उसके बारे में सुनना चाहता है और उसे बारे में ही कहना चाहता है. यही तो इश्क़ है.
बेपरवाह हो गया हूं अब सबर नहीं होता मुझे
आग पर बिठा दिया है इस सबर ने मुझे
मेरी ताक़त इस सबुरी से छिन गई है
मेरी रूदाद सबके लिए सबक़ बन गई है
मैं जुदाई में अपनी इस रूह से गया पक
ज़िंदा रहना जुदाई में बेईमानी है अब
उससे जुदाई का दर्द कब तक मारेगा मुझे
काट लो सर, इश्क नया सिर दे देगा मुझे
बस इश्क़ से ज़िंदा रहना है मज़हब मेरे लिए
इस सर व शान से ज़िंदगी शर्म है मेरे लिए
बहरहाल, ख़ूबसूरत कवर वाली यह किताब पाठकों को बेहद पसंद आएगी, क्योंकि पाठकों को जहां रूमी के कई क़िस्से पढ़ने को मिलेंगे, वहीं महान सूफ़ी कवि का रूहानी कलाम भी उनके दिलो-दिमाग़ को रौशन कर देगा.
समीक्ष्य कृति : रूमी
संपादन : अभय तिवारी
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये
डॉ. फ़िरदौस ख़ान
प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा की गिनती हिंदी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ की जाती है. होली के दिन 26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश क्र फ़र्रूख़ाबाद में जन्मी महादेवी वर्मा को आधुनिक काल की मीराबाई कहा जाता है. वह कवयित्री होने के साथ एक विशिष्ट गद्यकार भी थीं. उनके काव्य संग्रहों में नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्य गीत, दीपशिखा, यामा और सप्तपर्णा शामिल हैं. गद्य में अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी और मेरा परिवार उल्लेखनीय है. उनके विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध और निबंध में श्रृंखला की कड़ियां, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध शामिल हैं. उनके पुनर्मुद्रित संकलन में यामा, दीपगीत, नीलाम्बरा और आत्मिका शामिल हैं. गिल्लू उनका कहानी संग्रह है. उन्होंने बाल कविताएं भी लिखीं. उनकी बाल कविताओं के दो संकलन भी प्रकाशित हुए, जिनमें ठाकुर जी भोले हैं और आज ख़रीदेंगे हम ज्वाला शामिल हैं.
ग़ौरतलब है कि महादेवी वर्मा ने सात साल की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था. उनके काव्य का मूल स्वर दुख और पीड़ा है, क्योंकि उन्हें सुख के मुक़ाबले दुख ज़्यादा प्रिय रहा. ख़ास बात यह है कि उनकी रचनाओं में विषाद का वह भाव नहीं है, जो व्यक्ति को कुंठित कर देता है, बल्कि संयम और त्याग की प्रबल भावना है.
मैं नीर भरी दुख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा कभी न अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी थी कल मिट आज चली
उन्होंने ख़ुद लिखा है, मां से पूजा और आरती के समय सुने सुर, तुलसी तथा मीरा आदि के गीत मुझे गीत रचना की प्रेरणा देते थे. मां से सुनी एक करुण कथा को मैंने प्राय: सौ छंदों में लिपिबद्ध किया था. पड़ोस की एक विधवा वधु के जीवन से प्रभावित होकर मैंने विधवा, अबला शीर्षकों से शब्द चित्र लिखे थे, जो उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे. व्यक्तिगत दुख समष्टिगत गंभीर वेदना का रूप ग्रहण करने लगा. करुणा बाहुल होने के कारण बौद्ध साहित्य भी मुझे प्रिय रहा है.
उन्होंने 1955 में इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की. उन्होंने पंडित इला चंद्र जोशी की मदद से संस्था के मुखपत्र साहित्यकार के संपादक का पद संभाला. देश की आज़ादी क बाद 1952 में वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य चुनी गईं. 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया. 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि दी. इससे पहले उन्हें नीरजा के 1934 में सक्सेरिया पुरस्कार और 1942 में स्मृति की रेखाओं के लिए द्विवेदी पदक प्रदान किया गया. 1943 में उन्हें मंगला प्रसाद पुरस्कार और उत्तर प्रदेश के भारत भारती पुरस्कार से भी नवाज़ा गया. यामा नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके अलावा उन्हें साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप भी प्रदान की गई.
उन्होंने एक आम विवाहिता का जीवन नहीं जिया. 1916 में उनका विवाह बरेली के पास नवाबगंज क़स्बे के निवासी वरुण नारायण वर्मा से हुआ. महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी, इसलिए पति से उनका कोई वैमनस्य नहीं था. वह एक संन्यासिनी का जीवन गुज़ारती थीं. उन्होंने पूरी ज़िंदगी सफ़ेद कपड़े पहने. वह तख़्त सोईं. कभी श्रृंगार नहीं किया. 1966 में पति की मौत के बाद वह स्थाई रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं. 11 सितम्बर, 1987 को प्रयाग में उनका निधन हुआ. बीसवीं सदी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार रहीं महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य में धुव्र तारे की तरह प्रकाशमान हैं.
***
जन्म : 26 मार्च 1907
प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा की गिनती हिंदी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ की जाती है. होली के दिन 26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश क्र फ़र्रूख़ाबाद में जन्मी महादेवी वर्मा को आधुनिक काल की मीराबाई कहा जाता है. वह कवयित्री होने के साथ एक विशिष्ट गद्यकार भी थीं. उनके काव्य संग्रहों में नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्य गीत, दीपशिखा, यामा और सप्तपर्णा शामिल हैं. गद्य में अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी और मेरा परिवार उल्लेखनीय है. उनके विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध और निबंध में श्रृंखला की कड़ियां, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध शामिल हैं. उनके पुनर्मुद्रित संकलन में यामा, दीपगीत, नीलाम्बरा और आत्मिका शामिल हैं. गिल्लू उनका कहानी संग्रह है. उन्होंने बाल कविताएं भी लिखीं. उनकी बाल कविताओं के दो संकलन भी प्रकाशित हुए, जिनमें ठाकुर जी भोले हैं और आज ख़रीदेंगे हम ज्वाला शामिल हैं.
ग़ौरतलब है कि महादेवी वर्मा ने सात साल की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था. उनके काव्य का मूल स्वर दुख और पीड़ा है, क्योंकि उन्हें सुख के मुक़ाबले दुख ज़्यादा प्रिय रहा. ख़ास बात यह है कि उनकी रचनाओं में विषाद का वह भाव नहीं है, जो व्यक्ति को कुंठित कर देता है, बल्कि संयम और त्याग की प्रबल भावना है.
मैं नीर भरी दुख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा कभी न अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी थी कल मिट आज चली
उन्होंने ख़ुद लिखा है, मां से पूजा और आरती के समय सुने सुर, तुलसी तथा मीरा आदि के गीत मुझे गीत रचना की प्रेरणा देते थे. मां से सुनी एक करुण कथा को मैंने प्राय: सौ छंदों में लिपिबद्ध किया था. पड़ोस की एक विधवा वधु के जीवन से प्रभावित होकर मैंने विधवा, अबला शीर्षकों से शब्द चित्र लिखे थे, जो उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे. व्यक्तिगत दुख समष्टिगत गंभीर वेदना का रूप ग्रहण करने लगा. करुणा बाहुल होने के कारण बौद्ध साहित्य भी मुझे प्रिय रहा है.
उन्होंने 1955 में इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की. उन्होंने पंडित इला चंद्र जोशी की मदद से संस्था के मुखपत्र साहित्यकार के संपादक का पद संभाला. देश की आज़ादी क बाद 1952 में वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य चुनी गईं. 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया. 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि दी. इससे पहले उन्हें नीरजा के 1934 में सक्सेरिया पुरस्कार और 1942 में स्मृति की रेखाओं के लिए द्विवेदी पदक प्रदान किया गया. 1943 में उन्हें मंगला प्रसाद पुरस्कार और उत्तर प्रदेश के भारत भारती पुरस्कार से भी नवाज़ा गया. यामा नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके अलावा उन्हें साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप भी प्रदान की गई.
उन्होंने एक आम विवाहिता का जीवन नहीं जिया. 1916 में उनका विवाह बरेली के पास नवाबगंज क़स्बे के निवासी वरुण नारायण वर्मा से हुआ. महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी, इसलिए पति से उनका कोई वैमनस्य नहीं था. वह एक संन्यासिनी का जीवन गुज़ारती थीं. उन्होंने पूरी ज़िंदगी सफ़ेद कपड़े पहने. वह तख़्त सोईं. कभी श्रृंगार नहीं किया. 1966 में पति की मौत के बाद वह स्थाई रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं. 11 सितम्बर, 1987 को प्रयाग में उनका निधन हुआ. बीसवीं सदी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार रहीं महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य में धुव्र तारे की तरह प्रकाशमान हैं.
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जन्म : 26 मार्च 1907
मृत्यु : 11 सितम्बर, 1987
अगर एक पेड़ बोल सकता
तो क्या कहता वो...
क्या वो उन पक्षियों को याद करता
जिनकी चहक ने उसे गुलज़ार किया
वो उन बच्चों को याद करेंगे
जो उसकी छांह में खेले।
उन बुजुर्गों को..?
जिनकी मुट्ठी में चमकते थे स्मृतियों के जुगनू।
क्या वो उस हरी घास को याद करेगा
जो हक़ से उग आई थी उसके दामन में।
अगर एक पेड़ बोल सकता
तो क्या कहता वो...
-यूनुस ख़ान
अपने आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को समर्पित कलाम
रहमतों की बारिश...
मेरे मौला !
रहमतों की बारिश कर
हमारे आक़ा
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर
जब तक
कायनात रौशन रहे
सूरज उगता रहे
दिन चढ़ता रहे
शाम ढलती रहे
और रात आती-जाती रहे
मेरे मौला !
सलाम नाज़िल फ़रमा
हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
और आले-नबी की रूहों पर
अज़ल से अबद तक...
-फ़िरदौस ख़ान
रहमतों की बारिश...
मेरे मौला !
रहमतों की बारिश कर
हमारे आक़ा
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर
जब तक
कायनात रौशन रहे
सूरज उगता रहे
दिन चढ़ता रहे
शाम ढलती रहे
और रात आती-जाती रहे
मेरे मौला !
सलाम नाज़िल फ़रमा
हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
और आले-नबी की रूहों पर
अज़ल से अबद तक...
-फ़िरदौस ख़ान
अपने आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को समर्पित कलाम...
अक़ीदत के फूल...
मेरे प्यारे आक़ा
मेरे ख़ुदा के महबूब !
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
आपको लाखों सलाम
प्यारे आक़ा !
हर सुबह
चमेली के
महकते सफ़ेद फूल
चुनती हूं
और सोचती हूं-
ये फूल किस तरह
आपकी ख़िदमत में पेश करूं
मेरे आक़ा !
चाहती हूं
आप इन फूलों को क़ुबूल करें
क्योंकि
ये सिर्फ़ चमेली के
फूल नहीं है
ये मेरी अक़ीदत के फूल हैं
जो
आपके लिए ही खिले हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
अक़ीदत के फूल...
मेरे प्यारे आक़ा
मेरे ख़ुदा के महबूब !
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
आपको लाखों सलाम
प्यारे आक़ा !
हर सुबह
चमेली के
महकते सफ़ेद फूल
चुनती हूं
और सोचती हूं-
ये फूल किस तरह
आपकी ख़िदमत में पेश करूं
मेरे आक़ा !
चाहती हूं
आप इन फूलों को क़ुबूल करें
क्योंकि
ये सिर्फ़ चमेली के
फूल नहीं है
ये मेरी अक़ीदत के फूल हैं
जो
आपके लिए ही खिले हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
बा-हज़ाराँ इज़्तिराब ओ सद-हज़ाराँ इश्तियाक़
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है
बार-बार उठना उसी जानिब निगाह-ए-शौक़ का
और तिरा ग़ुर्फ़े से वो आँखें लड़ाना याद है
तुझ से कुछ मिलते ही वो बेबाक हो जाना मिरा
और तिरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है
खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ'तन
और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है
जानकर सोता तुझे वो क़स्द-ए-पा-बोसी मिरा
और तिरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है
तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़-राह-ए-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो कुछ तुम को भी वो कार-ख़ाना याद है
ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
आज तक नज़रों में है वो सोहबत-ए-राज़-ओ-नियाज़
अपना जाना याद है तेरा बुलाना याद है
मीठी मीठी छेड़ कर बातें निराली प्यार की
ज़िक्र दुश्मन का वो बातों में उड़ाना याद है
देखना मुझ को जो बरगश्ता तो सौ सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है
चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है
शौक़ में मेहंदी के वो बे-दस्त-ओ-पा होना तिरा
और मिरा वो छेड़ना वो गुदगुदाना याद है
बावजूद-ए-इद्दिया-ए-इत्तिक़ा 'हसरत' मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो फ़साना याद है
-हसरत मोहानी
इंद्रेश कुमार
लेखनी विचारों को स्थायित्व प्रदान करती है. इस मार्ग से ज्ञान जन साधारण के मन में घर कर लेता है. अच्छा और बुरा दोनों समान रूप से समाज व मनुष्य के सामने आता रहता है और उसके जीवन में घटता भी रहता है. दोनों में से ही सीखने को मिलता है, आगे बढ़ने का अवसर मिलता है. परंतु निर्भर करता है सीखने वाले के दृष्टिकोण पर ‘आधा गिलास ख़ाली कि आधा गिलास भरा’, ‘बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोई’. अच्छे में से तो अच्छा सीखने को मिलता ही है, परंतु बुरे में से भी अच्छा सीखना बहुत कठिन है. प्रस्तुत पुस्तक ‘गंगा जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ जब समाज में जाति, पंथ, दल, भाषा के नाम पर द्वेष फैल रहा हो, सभ्यताओं के नाम पर टकराव बढ रहा हो, संसाधनों पर क़ब्ज़े की ख़ूनी स्पर्धा हो, ऐसे समय पर प्रकाश स्तंभ के रूप में समाधान का मार्ग दिखाने का अच्छा प्रयास है.
इस्लाम में पांच दीनी फ़र्ज़ बताए गए हैं-(1) तौहीद, (2) नमाज़, (3) रोज़ा, (4) ज़कात और (5) हज. परंतु इसी के साथ-साथ एक और भी अत्यंत सुंदर नसीहत दी गई है ‘हुब्बुल वतनी निफसुल ईमान’ अर्थात् वतन (राष्ट्र) से प्यार करना, उसकी रक्षा करना एवं उसके विकास और भाईचारे के लिए काम करना, यह उसका फर्ज़ है. इस संदेश के अनुसार मुसलमान को दोनों यानि मज़हबी एवं वतनी फ़र्ज़ में खरा उतरना चाहिए. हज के लिए मक्का शरीफ़ जाएंगे, परंतु ज़िंदाबाद सऊदी अरब, ईरान, सूडान की नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की बोलेंगे. सर झुकेगा हिंदुस्तान पर, कटेगा भी हिंदुस्तान के लिए.
इसी प्रकार से इस्लाम में अन्य अनेक महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं जैसे ‘लकुम दीनुकुम बलियदीन’ अर्थात् तेरा दीन तेरा, मेरा दीन मेरा, एक-दूसरे के दीन में दख़ल नहीं देंगे, एक-दूसरे के दीन की इज़्ज़त करेंगे. सर्वपंथ समभाव यानी समन्वय यानी आपसी बंधुत्व का बहुत ही ख़ूबसूरत मार्ग है. इसीलिए ऊपरवाले को ‘रब-उल-आलमीन’ कहा गया है न कि ‘रब-उल-मुसलमीन’. उसका सांझा नाम ‘ऊपरवाला’ है. संपूर्ण विश्व के सभी पंथों के लोग हाथ व नज़र ऊपर उठाकर प्रार्थना (दुआ) करते हैं. ‘ऊपरवाले’ को अपनी-अपनी मातृभाषा में पुकारना यानी याद करना. वह तो अंतर्यामी है. वह तो सभी भाषाएं एवं बोलियां जानता है. वह तो गूंगे की, पत्थर की, कीट-पतंग की भी सुनता है, जो कि आदमी (मनुष्य) नहीं जानता है. अंग्रेज़ी-लेटिन में उसे God, अरबी में अल्लाह, तुर्की में तारक, फ़ारसी में ख़ुदा, उर्दू में रब, गुरुमुखी में वाहे गुरु, हिंदी-संस्कृत-असमिया-मणिपुरी-कश्मीरी-तमिल-गुजराती-बंगला-मराठी-नेपाली-भोजपुरी-अवधी आदि में भी पुकारते हैं भगवान, ईश्वर, परमात्मा, प्रभु आदि. ऊपरवाला एक है, नाम अनेक हैं. गंतव्य व मंतव्य एक है, मार्ग व पंथ अनेक हैं. भारतीय संस्कृति का यही पावन संदेश है. अरबी भाषा में ‘अल्लाह-हु-अकबर’ को अंग्रेज़ी में God is Great, हिन्दी में ‘भगवान (ईश्वर) महान है’ कहेंगे. इसी प्रकार से संस्कृत के ‘वंदे मातरम्’ को अंग्रेज़ी में Salute to Motherland और उर्दू में मादरे-वतन ज़िंदाबाद कहेंगे. इसी प्रकार से अरबी में ‘ला इलाह इल्लल्लाह’ को संस्कृत में ‘खल्विंदम इदम सर्व ब्रह्म’ एवं हिंदी में कहेंगे प्रभु सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है और वह एक ही है, उर्दू में कहेंगे कि ख़ुदा ही सब कुछ है, ख़ुदा से ही सब कुछ है.
हज़रत मुहम्मद साहब ने बुलंद आवाज़ में कहा है कि मेरे से पूर्व ख़ुदा ने एक लाख 24 हज़ार पैग़म्बर भेजे हैं. वे अलग-अलग समय पर, अलग-अलग प्रकार के हालात में, अलग-अलग धरती (देश) पर आए हैं. उनकी उम्मतें भी हैं, किताबें भी हैं. अनेक उम्मतें आज भी हैं. इस हदीस की रौशनी में एक प्रश्न खड़ा होता है कि वे कौन हैं? कु़रान शरीफ़ में 25 पैग़म्बरों का वर्णन मिलता है, जिसमें से दो पैग़म्बर ‘आदम और नूह’ भारत आए हैं, जिन्हें पहला एवं जल महाप्रलय वाला मनु कहा व माना जाता है. मुसलमान उम्मत तो पैग़म्बर साहब की हैं, परंतु प्रत्येक पैग़म्बर का सम्मान करना सच्चे मुसलमान का फ़र्ज़ बनता है. इसलिए गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
अर्थात् जब-जब मानवता (धर्म) नष्ट होती है, दुष्टों के अत्याचार बढते हैं, तब मैं समय-समय पर धर्म (सज्जनता) की स्थापना हेतु आता हूं.
एक बात स्वयं रसूल साहब कहते हैं कि मुझे पूर्व से यानी हिमालय से यानी हिंदुस्तान से ठंडी हवाएं आती हैं, यानी सुकून (शांति) मिलता है. भारत में भारतीय संस्कृति व इस्लाम के जीवन मूल्यों को अपनी ज़िंदगी में उतारकर कट्टरता एवं विदेशी बादशाहों से जूझने वाले संतों व फ़क़ीरों की एक लंबी श्रृंखला है, जो मानवता एवं राष्ट्रीयता का पावन संदेश देते रहे हैं. बहुत दिनों से इच्छा थी कि ऐसे श्रेष्ठ भारतीय मुस्लिम विद्वानों की वाणी एवं जीवन समाज के सामने आए, ताकि आतंक, मज़हबी कट्टरता, नफ़रत, अपराध, अनपढ़ता आदि बुराइयों एवं कमियों से मुस्लिम समाज बाहर निकलकर सच्ची राष्ट्रीयता के मार्ग पर तेज़ गति व दृढ़ता से आगे बढ़ सके. कहते हैं ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’. इन संतों व फ़क़ीरों ने तो राम व कृष्ण को केंद्र मान सच्ची इंसानियत की राह दिखाई है. किसी शायर ने कहा है-
मुश्किलें हैं, मुश्किलों से घबराना क्या
दीवारों में ही तो दरवाज़े निकाले जाते हैं
शेख़ नज़ीर ने तो दरगाह और मंदिर के बीच खड़े होकर कहा-
जब आंखों में हो ख़ुदाई, तो पत्थर भी ख़ुदा नज़र आया
जब आंखें ही पथराईं, तो ख़ुदा भी पत्थर नज़र आया
इस नेक, ख़ुशबू एवं ख़ूबसूरती भरे काम को पूर्ण करने के लिए मेरे सामने थी मेरी छोटी बहन एवं बेटी सरीखी फ़िरदौस ख़ान. जब मैंने अपनी इच्छा व्यक्त की, तो उसने कहा कि भैया यह तो ऊपरवाले ने आपके द्वारा नेक बनो और नेक करो का हुकुम दिया है, मैं इस कार्य को अवश्य संपन्न करूंगी. ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ पुस्तक में ऐसे ही 55 संतों व फ़क़ीरों की वाणी एवं जीवन प्रकाशित किया गया है. लेखिका चिन्तक है, सुधारवादी है, परिश्रमी है, निर्भय होकर सच्चाई के नेक मार्ग पर चलने की हिम्मत रखती है. विभिन्न समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में नानाविध विषयों पर उसके लेख छपते रहते हैं. ज़िंदगी में यह पुस्तक लेखिका को एवं समाज को ठीक मिशन के साथ मंज़िल की ओर बढ़ने का अवसर प्रदान करेगी. सफ़लताओं की शुभकामनाओं के साथ मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा उस पर उसकी कृपा सदैव बरसती रहे.
भारत के ऋषि, मुनियों अर्थात् वैज्ञानिकों एवं विद्वानों ने वैश्विक स्तर पर बंधुत्व बना रहे इसके लिए हंजारों, लाखों वर्ष पूर्व एक सिध्दांत यानि सूत्र दिया गया था ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यानि World is one family यानी ‘विश्व एक परिवार है’. परिवार का भाव एवं व्यवहार ही अधिकतम समस्याओं के समाधान का उपाय है. भारत वर्ष में समय-समय पर अनेक पंथ (मत) जन्मते रहे और आज भी जन्म रहे हैं. इन सब पंथों के मानने वालों का एक-दूसरे पंथ में आवागमन कभी भी टकराव एवं देश के प्रति, पूर्वजों के प्रति अश्रध्दा का विषय नहीं बना. जब इस्लाम जो कि भारत के बाहर से आया और धीरे-धीरे भारी संख्या में भारतीय समाज अलग-अलग कारणों से इस्लाम में आ गया, तो कुछ बादशाहों एवं कट्टरपंथियों द्वारा इस आड़ में अरबी साम्राज्य के विस्तार को भारत में स्थापित करने के प्रयत्न भी किए जाने लगे, जबकि सत्य यह है कि 99 प्रतिशत मुस्लिमों के पूर्वज हिंदू ही हैं. उन्होंने मज़हब बदला है न कि देश एवं पूर्वज और न ही उनसे विरासत में मिली संस्कृति (तहज़ीब) बदली है. इसलिए भारत के प्राय: सभी मुस्लिम एवं हिंदुओं के पुरखे सांझे हैं यानी समान पूर्वजों की संतति है. इसी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को भारत में एक और नया नाम मिला ‘गंगा जमुनी तहज़ीब’. गंगा और यमुना दोनों नदियां भारतीय एवं भारतीयता का प्रतीक हैं, इनका मिलन पवित्र संगम कहलाता है, जहां नफ़रत, द्वेष, कट्टरता, हिंसा, विदेशियत नष्ट हो जाती है. मन एवं बुध्दि को शांति, बंधुत्व, शील, ममता, पवित्रता से ओत-प्रोत करती है. आज हिंदुस्तान के अधिकांश लोग इसी जीवन को जी ना चाहते हैं. ख़ुशहाल एवं शक्तिशाली हिंदुस्तान बनाना व देखना चाहते हैं.
मुझे विश्वास है कि प्रकाश स्तंभ जैसी यह पुस्तक ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ सभी देशवासियों को इस सच्ची राह पर चलने की हिम्मत प्रदान करेगी.
-इंद्रेश कुमार
(लेखक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक हैं. साथ ही हिमालय परिवार, राष्ट्रवादी मुस्लिम आंदोलन, भारत तिब्बत सहयोग मंच, समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा मंच आदि के मार्गदर्शक एवं संयोजक हैं)
किताब का नाम : गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत
लेखिका : फ़िरदौस ख़ान
पेज : 172
क़ीमत : 200 रुपये
प्रकाशक
ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह)
205 -सी, चावड़ी बाज़ार
दिल्ली-110006
प्रभात प्रकाशन
4/19, आसफ़ अली रोड
दरियागंज
नई दिल्ली-110002
फ़ोन : 011 2328 9555
लेखनी विचारों को स्थायित्व प्रदान करती है. इस मार्ग से ज्ञान जन साधारण के मन में घर कर लेता है. अच्छा और बुरा दोनों समान रूप से समाज व मनुष्य के सामने आता रहता है और उसके जीवन में घटता भी रहता है. दोनों में से ही सीखने को मिलता है, आगे बढ़ने का अवसर मिलता है. परंतु निर्भर करता है सीखने वाले के दृष्टिकोण पर ‘आधा गिलास ख़ाली कि आधा गिलास भरा’, ‘बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोई’. अच्छे में से तो अच्छा सीखने को मिलता ही है, परंतु बुरे में से भी अच्छा सीखना बहुत कठिन है. प्रस्तुत पुस्तक ‘गंगा जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ जब समाज में जाति, पंथ, दल, भाषा के नाम पर द्वेष फैल रहा हो, सभ्यताओं के नाम पर टकराव बढ रहा हो, संसाधनों पर क़ब्ज़े की ख़ूनी स्पर्धा हो, ऐसे समय पर प्रकाश स्तंभ के रूप में समाधान का मार्ग दिखाने का अच्छा प्रयास है.
इस्लाम में पांच दीनी फ़र्ज़ बताए गए हैं-(1) तौहीद, (2) नमाज़, (3) रोज़ा, (4) ज़कात और (5) हज. परंतु इसी के साथ-साथ एक और भी अत्यंत सुंदर नसीहत दी गई है ‘हुब्बुल वतनी निफसुल ईमान’ अर्थात् वतन (राष्ट्र) से प्यार करना, उसकी रक्षा करना एवं उसके विकास और भाईचारे के लिए काम करना, यह उसका फर्ज़ है. इस संदेश के अनुसार मुसलमान को दोनों यानि मज़हबी एवं वतनी फ़र्ज़ में खरा उतरना चाहिए. हज के लिए मक्का शरीफ़ जाएंगे, परंतु ज़िंदाबाद सऊदी अरब, ईरान, सूडान की नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की बोलेंगे. सर झुकेगा हिंदुस्तान पर, कटेगा भी हिंदुस्तान के लिए.
इसी प्रकार से इस्लाम में अन्य अनेक महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं जैसे ‘लकुम दीनुकुम बलियदीन’ अर्थात् तेरा दीन तेरा, मेरा दीन मेरा, एक-दूसरे के दीन में दख़ल नहीं देंगे, एक-दूसरे के दीन की इज़्ज़त करेंगे. सर्वपंथ समभाव यानी समन्वय यानी आपसी बंधुत्व का बहुत ही ख़ूबसूरत मार्ग है. इसीलिए ऊपरवाले को ‘रब-उल-आलमीन’ कहा गया है न कि ‘रब-उल-मुसलमीन’. उसका सांझा नाम ‘ऊपरवाला’ है. संपूर्ण विश्व के सभी पंथों के लोग हाथ व नज़र ऊपर उठाकर प्रार्थना (दुआ) करते हैं. ‘ऊपरवाले’ को अपनी-अपनी मातृभाषा में पुकारना यानी याद करना. वह तो अंतर्यामी है. वह तो सभी भाषाएं एवं बोलियां जानता है. वह तो गूंगे की, पत्थर की, कीट-पतंग की भी सुनता है, जो कि आदमी (मनुष्य) नहीं जानता है. अंग्रेज़ी-लेटिन में उसे God, अरबी में अल्लाह, तुर्की में तारक, फ़ारसी में ख़ुदा, उर्दू में रब, गुरुमुखी में वाहे गुरु, हिंदी-संस्कृत-असमिया-मणिपुरी-कश्मीरी-तमिल-गुजराती-बंगला-मराठी-नेपाली-भोजपुरी-अवधी आदि में भी पुकारते हैं भगवान, ईश्वर, परमात्मा, प्रभु आदि. ऊपरवाला एक है, नाम अनेक हैं. गंतव्य व मंतव्य एक है, मार्ग व पंथ अनेक हैं. भारतीय संस्कृति का यही पावन संदेश है. अरबी भाषा में ‘अल्लाह-हु-अकबर’ को अंग्रेज़ी में God is Great, हिन्दी में ‘भगवान (ईश्वर) महान है’ कहेंगे. इसी प्रकार से संस्कृत के ‘वंदे मातरम्’ को अंग्रेज़ी में Salute to Motherland और उर्दू में मादरे-वतन ज़िंदाबाद कहेंगे. इसी प्रकार से अरबी में ‘ला इलाह इल्लल्लाह’ को संस्कृत में ‘खल्विंदम इदम सर्व ब्रह्म’ एवं हिंदी में कहेंगे प्रभु सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है और वह एक ही है, उर्दू में कहेंगे कि ख़ुदा ही सब कुछ है, ख़ुदा से ही सब कुछ है.
हज़रत मुहम्मद साहब ने बुलंद आवाज़ में कहा है कि मेरे से पूर्व ख़ुदा ने एक लाख 24 हज़ार पैग़म्बर भेजे हैं. वे अलग-अलग समय पर, अलग-अलग प्रकार के हालात में, अलग-अलग धरती (देश) पर आए हैं. उनकी उम्मतें भी हैं, किताबें भी हैं. अनेक उम्मतें आज भी हैं. इस हदीस की रौशनी में एक प्रश्न खड़ा होता है कि वे कौन हैं? कु़रान शरीफ़ में 25 पैग़म्बरों का वर्णन मिलता है, जिसमें से दो पैग़म्बर ‘आदम और नूह’ भारत आए हैं, जिन्हें पहला एवं जल महाप्रलय वाला मनु कहा व माना जाता है. मुसलमान उम्मत तो पैग़म्बर साहब की हैं, परंतु प्रत्येक पैग़म्बर का सम्मान करना सच्चे मुसलमान का फ़र्ज़ बनता है. इसलिए गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
अर्थात् जब-जब मानवता (धर्म) नष्ट होती है, दुष्टों के अत्याचार बढते हैं, तब मैं समय-समय पर धर्म (सज्जनता) की स्थापना हेतु आता हूं.
एक बात स्वयं रसूल साहब कहते हैं कि मुझे पूर्व से यानी हिमालय से यानी हिंदुस्तान से ठंडी हवाएं आती हैं, यानी सुकून (शांति) मिलता है. भारत में भारतीय संस्कृति व इस्लाम के जीवन मूल्यों को अपनी ज़िंदगी में उतारकर कट्टरता एवं विदेशी बादशाहों से जूझने वाले संतों व फ़क़ीरों की एक लंबी श्रृंखला है, जो मानवता एवं राष्ट्रीयता का पावन संदेश देते रहे हैं. बहुत दिनों से इच्छा थी कि ऐसे श्रेष्ठ भारतीय मुस्लिम विद्वानों की वाणी एवं जीवन समाज के सामने आए, ताकि आतंक, मज़हबी कट्टरता, नफ़रत, अपराध, अनपढ़ता आदि बुराइयों एवं कमियों से मुस्लिम समाज बाहर निकलकर सच्ची राष्ट्रीयता के मार्ग पर तेज़ गति व दृढ़ता से आगे बढ़ सके. कहते हैं ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’. इन संतों व फ़क़ीरों ने तो राम व कृष्ण को केंद्र मान सच्ची इंसानियत की राह दिखाई है. किसी शायर ने कहा है-
मुश्किलें हैं, मुश्किलों से घबराना क्या
दीवारों में ही तो दरवाज़े निकाले जाते हैं
शेख़ नज़ीर ने तो दरगाह और मंदिर के बीच खड़े होकर कहा-
जब आंखों में हो ख़ुदाई, तो पत्थर भी ख़ुदा नज़र आया
जब आंखें ही पथराईं, तो ख़ुदा भी पत्थर नज़र आया
इस नेक, ख़ुशबू एवं ख़ूबसूरती भरे काम को पूर्ण करने के लिए मेरे सामने थी मेरी छोटी बहन एवं बेटी सरीखी फ़िरदौस ख़ान. जब मैंने अपनी इच्छा व्यक्त की, तो उसने कहा कि भैया यह तो ऊपरवाले ने आपके द्वारा नेक बनो और नेक करो का हुकुम दिया है, मैं इस कार्य को अवश्य संपन्न करूंगी. ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ पुस्तक में ऐसे ही 55 संतों व फ़क़ीरों की वाणी एवं जीवन प्रकाशित किया गया है. लेखिका चिन्तक है, सुधारवादी है, परिश्रमी है, निर्भय होकर सच्चाई के नेक मार्ग पर चलने की हिम्मत रखती है. विभिन्न समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में नानाविध विषयों पर उसके लेख छपते रहते हैं. ज़िंदगी में यह पुस्तक लेखिका को एवं समाज को ठीक मिशन के साथ मंज़िल की ओर बढ़ने का अवसर प्रदान करेगी. सफ़लताओं की शुभकामनाओं के साथ मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा उस पर उसकी कृपा सदैव बरसती रहे.
भारत के ऋषि, मुनियों अर्थात् वैज्ञानिकों एवं विद्वानों ने वैश्विक स्तर पर बंधुत्व बना रहे इसके लिए हंजारों, लाखों वर्ष पूर्व एक सिध्दांत यानि सूत्र दिया गया था ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यानि World is one family यानी ‘विश्व एक परिवार है’. परिवार का भाव एवं व्यवहार ही अधिकतम समस्याओं के समाधान का उपाय है. भारत वर्ष में समय-समय पर अनेक पंथ (मत) जन्मते रहे और आज भी जन्म रहे हैं. इन सब पंथों के मानने वालों का एक-दूसरे पंथ में आवागमन कभी भी टकराव एवं देश के प्रति, पूर्वजों के प्रति अश्रध्दा का विषय नहीं बना. जब इस्लाम जो कि भारत के बाहर से आया और धीरे-धीरे भारी संख्या में भारतीय समाज अलग-अलग कारणों से इस्लाम में आ गया, तो कुछ बादशाहों एवं कट्टरपंथियों द्वारा इस आड़ में अरबी साम्राज्य के विस्तार को भारत में स्थापित करने के प्रयत्न भी किए जाने लगे, जबकि सत्य यह है कि 99 प्रतिशत मुस्लिमों के पूर्वज हिंदू ही हैं. उन्होंने मज़हब बदला है न कि देश एवं पूर्वज और न ही उनसे विरासत में मिली संस्कृति (तहज़ीब) बदली है. इसलिए भारत के प्राय: सभी मुस्लिम एवं हिंदुओं के पुरखे सांझे हैं यानी समान पूर्वजों की संतति है. इसी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को भारत में एक और नया नाम मिला ‘गंगा जमुनी तहज़ीब’. गंगा और यमुना दोनों नदियां भारतीय एवं भारतीयता का प्रतीक हैं, इनका मिलन पवित्र संगम कहलाता है, जहां नफ़रत, द्वेष, कट्टरता, हिंसा, विदेशियत नष्ट हो जाती है. मन एवं बुध्दि को शांति, बंधुत्व, शील, ममता, पवित्रता से ओत-प्रोत करती है. आज हिंदुस्तान के अधिकांश लोग इसी जीवन को जी ना चाहते हैं. ख़ुशहाल एवं शक्तिशाली हिंदुस्तान बनाना व देखना चाहते हैं.
मुझे विश्वास है कि प्रकाश स्तंभ जैसी यह पुस्तक ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ सभी देशवासियों को इस सच्ची राह पर चलने की हिम्मत प्रदान करेगी.
-इंद्रेश कुमार
(लेखक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक हैं. साथ ही हिमालय परिवार, राष्ट्रवादी मुस्लिम आंदोलन, भारत तिब्बत सहयोग मंच, समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा मंच आदि के मार्गदर्शक एवं संयोजक हैं)
किताब का नाम : गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत
लेखिका : फ़िरदौस ख़ान
पेज : 172
क़ीमत : 200 रुपये
प्रकाशक
ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह)
205 -सी, चावड़ी बाज़ार
दिल्ली-110006
प्रभात प्रकाशन
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नई दिल्ली-110002
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कागज की नौका पर चढ़ कर
निकला सागर-सन्तरण-हेतु
घाटों से काम न चल पाया
गढ़ लिए नए आचरण-सेतु
दानवी-द्वंद्व में अपराजित
केवल अपनों से हारा हूँ
कितनी सदियाँ बीतीं मुझको
सागर-मंथन करते-करते
रीते हैं अनगिन सुधा-कलश
यह खालीपन भरते-भरते
मन से हूँ एक प्रबुद्ध-यती
तन से बिल्कुल आवारा हूँ
- डॉ. रामसनेहीलाल शार्मा यायावर
माँ की खिदमत, नन्हें बच्चों से मोहब्बत थी मुझे।
कौन कहता है खुदा की बंदगी करते नहीं।।
गूंगे-बहरे हो गए हैं रहनुमा इस दौर के।
है अंधेरा ही अंधेरा रोशनी करते नहीं।।
है अंधेरा ही अंधेरा रोशनी करते नहीं।।
मुस्कुरा कर मीठी बातों से बनाते काम हैं।
हाँ, सयाने लोग खुलकर दुश्मनी करते नहीं।।
ये तो मेरा दिल ही जाने है किसी से क्या कहें।
याद न आती तो 'तन्हा' शायरी करते नहीं।।
-सलीम तन्हा
शायर भोपाल के दैनिक अक्षर सम्राट में सम्पादक हैं.
मोबाइल : 7692918269
सहमी हुई निग़ाहों की बेचारग़ी भी देख |
लाचार-सी साँसों में ज़रा ज़िन्दगी भी देख ||
लाचार-सी साँसों में ज़रा ज़िन्दगी भी देख ||
सब कुछ है तेरे पास मगर चैन नहीं है
बेचैनियों को मारती दिल की खुशी भी देख ||
सज कर संवर कर लग रहा है खूबसूरत तू
लेकिन नदी की लहर-सी यह सादगी भी देख ||
चढ़ती हुई यह रात और खा़मोश हवायें
ऊमस बहुत है छत पे मगर चाँदनी भी देख ||
-कैलाश मनहर
स्वतन्त्रता के इस पावन पर्व पर एक गीत देश की बलिवेदी पर प्राणों की आहुति देने वाले शहीदों के नाम
सौ-सौ बार नमन
आन देश की रखी दे दिए भले रक्त के कण
वीर शहीदों का अभिनन्दन सौ-सौ बार नमन
मातृभूमि की आजादी को दी अपनी काया
कब जीवन से प्यार किया ,कब व्यापी जग-माया?
पैरोँ में बिजलियाँ बाँध लीं, अंतर में ज्वाला
रक्त तुम्हारा भारत माँ के माथे का चुम्बन
कदम उठे तो भूधर काँपा ,सिंधु थरथराया
विजय-तिलक करने माथे पर सूर्य उतर आया
दुष्ट दु:शासन काँपा घिग्घी बँधी अँधेरे की
धरती पर ज्यों महाकाल का हुआ प्रबल गर्जन
कभी कहा हुंकार कि 'दूँगी प्राण नहीं झाँसी
कभी चूमकर हँसते-हँसते अपना ली फाँसी
कभी किसी डायर को यम का मार्ग दिखाया था
कभी शत्रु की छाती पर चेतक हय का नर्तन
विषधर ने फन फैलाया तो उसे कुचल डाला
मातृभूमि की ओर बढ़ा सो हाथ कतर डाला
तुमने चट्टानों के उर पर विजयकथा लिख दी
वीर शिवा के वंशज तुमको अगणित बार नमन
मन्दिर'मस्जिद,गुरुद्वारों से फिर हुंकार उठी
खेतो -खलिहानों , ठारों से फिर ललकार उठी
चौपालों , चौबारों, गलियों , पौरों,द्वारों पर
भारत की जय-जयकारों का हुआ प्रबल गर्जन
यह इतिहास लिखेगा तेरी गौरव-गाथाएँ
कल-कल कर जयघोष करेंगीं बहती सरिताएँ
अमरपुत्र तू अजर-अमर है मौत न मारेगी
फिर आएगा इसी धरा पर लिए जन्म नूतन
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'
फ़िरदौस ख़ान
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी यानी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. जन्म स्थान या अपने देश को मातृभूमि कहा जाता है. भारत और नेपाल में भूमि को मां के रूप में माना जाता है. यूरोपीय देशों में मातृभूमि को पितृ भूमि कहते हैं. दुनिया के कई देशों में मातृ भूमि को गृह भूमि भी कहा जाता है. इंसान ही नहीं, पशु-पक्षियों और पशुओं को भी अपनी जगह से प्यार होता है, फिर इंसान की तो बात ही क्या है. हम ख़ुशनसीब हैं कि आज हम आज़ाद देश में रह रहे हैं. देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत क़ुर्बानियां दी हैं. उस वक़्त देश प्रेम के गीतों ने लोगों में जोश भरने का काम किया. बच्चों से लेकर नौजवानों, महिलाओं और बुज़ुर्गों तक की ज़ुबान पर देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर गीत किसी मंत्र की तरह रहते थे. क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ने तो अवाम में फ़िरंगियों की बंदूक़ों और तोपों का सामने करने की हिम्मत पैदा कर दी थी.
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...
देश प्रेम के गीतों का ज़िक्र मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के बिना अधूरा है. उनके गीत सारे जहां से अच्छा के बग़ैर हमारा कोई भी राष्ट्रीय पर्व पूरा नहीं होता. हर मौक़े पर यह गीत गाया और बजाया जाता है. देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर यह गीत दिलों में जोश भर देता है.
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा
यूनान, मिस्र, रोमा, सब मिट गए जहां से
अब तक मगर है बाक़ी, नामो-निशां हमारा...
जयशंकर प्रसाद का गीत यह अरुण देश हमारा, भारत के नैसर्गिक सौंदर्य का बहुत ही मनोहरी तरीक़े से चित्रण करता है.
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जा पहुंच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा...
हिन्दी फ़िल्मों में भी देश प्रेम के गीतों ने लोगों में राष्ट्र प्रेम की गंगा प्रवाहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आज़ादी से पहले इन गीतों ने हिन्दुस्तानियों में ग़ुलामी की जंज़ीरों को तोड़कर मुल्क को आज़ाद कराने का जज़्बा पैदा किया और आज़ादी के बाद देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार करने में अहम किरदार अदा किया है. फ़िल्मों का ज़िक्र किया जाए तो देश प्रेम के गीत रचने में कवि प्रदीप आगे रहे. उन्होंने 1962 की भारत-चीन जंग के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए ‘ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी’ गीत लिखा. लता मंगेशकर द्वारा गाये इस गीत का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में 26 जनवरी, 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान में सीधा प्रसारण किया गया था. गीत सुनकर जवाहरलाल नेहरू की आंखें भर आई थीं. साल 1943 बनी फिल्म क़िस्मत के गीत ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है’ ने उन्हें अमर कर दिया. इस गीत से ग़ुस्साई तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ़्तारी के आदेश दिए थे, जिसकी वजह से प्रदीप को भूमिगत होना पड़ा था. उनके लिखे फ़िल्म जागृति (1954) के गीत ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तानकी’ और ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ आज भी लोग गुनगुना उठते हैं. शकील बदायूंनी का लिखा फ़िल्म सन ऑफ़ इंडिया का गीत ‘नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं’ बच्चों में बेहद लोकप्रिय है. कैफ़ी आज़मी के लिखे और मोहम्मद रफ़ी के गाये फ़िल्म हक़ीक़त के गीत ‘कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ को सुनकर आंखें नम हो जाती हैं और शहीदों के लिए दिल श्रद्धा से भर जाता है. फ़िल्म लीडर का शकील बदायूंनी का लिखा और मोहम्मद रफ़ी का गाया और नौशाद के संगीत से सजा गीत ‘अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’ बेहद लोकप्रिय हुआ. प्रेम धवन द्वारा रचित फ़िल्म हम हिन्दुस्तानी का गीत ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नये दौर में लिखेंगे, मिलकर नई कहानी’ आज भी इतना ही मीठा लगता है. उनका फ़िल्म क़ाबुली वाला का गीत भी रोम-रोम में देश प्रेम का जज़्बा भर देता है.
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल क़ुर्बान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान...
राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित फ़िल्म सिकंदर-ए-आज़म का गीत भारत देश के गौरवशाली इतिहास का मनोहारी बखान करता है.
जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा
जहां सत्य अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा...
इसी तरह गुलशन बावरा द्वारा रचित फ़िल्म उपकार का गीत देश के प्राकृतिक खनिजों के भंडारों और खेतीबाड़ी और जनमानस से जुड़ी भावनाओं को बख़ूबी प्रदर्शित करता है.
मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती
मेरी देश की धरती
बैलों के गले में जब घुंघरू
जीवन का राग सुनाते हैं
ग़म कोसों दूर हो जाता है
जब ख़ुशियों के कमल मुस्काते हैं...
इसके अलावा फ़िल्म अब दिल्ली दूर नहीं, अमन, अमर शहीद, अपना घर, अपना देश, अनोखा, आंखें, आदमी और इंसान, आंदोलन, आर्मी, इंसानियत, ऊंची हवेली, एक ही रास्ता, क्लर्क, क्रांति, कुंदन, गोल्ड मेडल, गंगा जमुना, गंगा तेरा पानी अमृत, गंगा मान रही बलिदान, गंवार, चंद्रशेखर आज़ाद, चलो सिपाही चलो, चार दिल चार रास्ते, छोटे बाबू, जय चित्तौ़ड, जय भारत, जल परी, जियो और जीने दो, जिस देश में गंगा बहती है, जीवन संग्राम, जुर्म और सज़ा, जौहर इन कश्मीर, जौहर महमूद इन गोवा, ठाकुर दिलेर सिंह, डाकू और महात्मा, तलाक़, तूफ़ान और दीया, दीदी, दीप जलता रहे, देशप्रेमी, धर्मपुत्र, धरती की गोद में, धूल का फूल, नई इमारत, नई मां, नवरंग, नया दौर, नया संसार, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, प्यासा, परदेस, पूरब और पश्चिम, प्रेम पुजारी, पैग़ाम, फ़रिश्ता और क़ातिल, अंगारे, फ़ौजी, बड़ा भाई, बंदिनी, बाज़ार, बालक, बापू की अमर कहानी, बैजू बावरा, भारत के शहीद, मदर इंडिया, माटी मेरे देश की, मां बाप, मासूम, मेरा देश मेरा धर्म, जीने दो, रानी रूपमति, लंबे हाथ, शहीद, आबरू, वीर छत्रसाल, दुर्गादास, शहीदे-आज़म भगत सिंह, समाज को बदल डालो, सम्राट पृथ्वीराज चौहान, हम एक हैं, कर्मा, हिमालय से ऊंचा, नाम और बॉर्डर आदि फ़िल्मों के देश प्रेम के गीत भी लोगों में जोश भरते हैं. मगर अफ़सोस कि अमूमन ये गीत स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या फिर गांधी जयंती जैसे मौक़ों पर ही सुनने को मिलते हैं, ख़ासकर ऑल इंडिया रेडियो पर.
बहरहाल, यह हमारे देश की ख़ासियत है कि जब राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवय या इसी तरह के अन्य दिवस आते हैं तो रेडियो पर देश प्रेम के गीत सुनाई देने लगते हैं. बाक़ी दिनों में इन गीतों को सहेजकर रख दिया जाता है. शहीदों की याद और देश प्रेम को कुछ विशेष दिनों तक ही सीमित करके रख दिया गया है. इन्हीं ख़ास दिनों में शहीदों को याद करके उनके प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है. कवि जगदम्बा प्रसाद मिश्र हितैषी के शब्दों में यही कहा जा सकता है-
शहीदों की चिताओं लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा…
फ़िरदौस ख़ान
सुप्रसिद्ध कवि एवं गीतकार डॉ. रामनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ द्वारा लिखित ‘नवगीत कोश’ पढ़ने का मौक़ा मिला। इसे पढ़कर लगा कि अगर इसे पढ़ा नहीं होता, तो कितना कुछ जानने और समझने से रह जाता। कितना कुछ ऐसा छूट जाता, जिसका मलाल रहता। किताबों की भीड़ में बहुत-सी किताबें ऐसी होती हैं, जो सबसे अलग नज़र आती हैं। ये वो किताबें होती हैं, जिनसे सीखने को बहुत कुछ मिलता है, जो किसी शिक्षक की तरह हमें किसी विषय विशेष की विस्तृत जानकारी मुहैया करवाती हैं। ऐसी किताबें संग्रहणीय होती हैं, जो वर्तमान ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ज्ञान की थाती होती हैं। यह भी एक ऐसी ही किताब है।
इस ‘नवगीत कोश’ को आगरा के निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है। इसमें पाँच खंड हैं। प्रथम खंड में प्रस्तावना है, जिसमें गीत, नवगीत की प्रामाणिक भूमिका, इतिहास, संवेदना संसार और शिल्प पर प्रामाणिक चर्चा है। द्वितीय खंड में 700 एकल और 100 समवेत नवगीत संग्रहों का परिचय है। तृतीय खंड में 297 नवगीतकारों का संक्षिप्त परिचय है। इसमें पाँच प्रवासी भी हैं। चतुर्थ खंड में नवगीत के समीक्षा सम्बन्धी 103 प्रकाशित ग्रंथों, 73 अप्रकाशित शोध ग्रंथों और 58 पत्रिकाओं का परिचय है। पंचम खंड में 29 नवगीतकारों और समीक्षकों का साक्षात्कार है, जिनमें स्वयं डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ सहित अनूप अशेष, डॉ. आलमगीर अली, डॉ. इन्दीवर, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, गणेश गम्भीर, जगदीश ‘पंकज’, देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, नचिकेता, पारसनाथ गोवर्धन, डॉ. पार्वती जे. गोसाईं, पूर्णिमा वर्मन, भारतेन्दु मिश्र, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव, महेश उपाध्याय, डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा, रमेश गौतम, राधेश्याम बन्धु, विनोद निगम, वीरेन्द्र आस्तिक, वेद प्रकाश शर्मा ‘अमिताभ’, डॉ. वेद प्रकाश शर्मा ‘वेद’, डॉ. श्रीराम परिहार, संजीव वर्मा ‘सलिल’, सोम ठाकुर, हरिशंकर सक्सेना, हरीश निगम और हृदयेश्वर शामिल हैं। साक्षात्कार में ऐसे सवाल पूछे गए हैं, जो साहित्य प्रेमियों की जिज्ञासा को तृप्त करते हैं। सभी नवगीतकारों ने अपने-अपने अंदाज़ में जवाब दिए हैं। इनसे बहुत कुछ जानने, समझने और सीखने को मिलता है।
इस ‘नवगीत’ को तैयार करने में डॉ. यायावर ने अपनी ज़िन्दगी के तीन अनमोल साल ख़र्च किए हैं। इसमें उनकी मेहनत, उनकी लगन और उनका समर्पण सबकुछ ही तो झलकता है। उन्होंने गीत के शब्दार्थ, मीमांसा और परिभाषा का बहुत ही सहजता से वर्णन किया है। जो व्यक्ति साहित्य से सम्बन्ध नहीं रखता या जिसे नवगीत के विषय में बुनियादी जानकारी भी नहीं है, वह भी इसे पढ़कर नवगीत के विषय में जान जाएगा कि नवगीत क्या है।
उनकी भाषा शैली और उनके शब्दों का चयन इतना सुन्दर है कि वह पाठक को ऐसे बहा ले जाता है, जैसे नदी किसी नाव को अपनी अविरल धारा के साथ बहा ले जाती है। पाठक बस उसमें बहता चला जाता है। कहीं रुकने का उसका मन ही नहीं करता। पढ़ते-पढ़ते कब किताब मुकम्मल हो गई, पता ही नहीं चलता। बानगी देखें- गीत हृदय की वर्णमयी झंकार या दूसरे शब्दों में यह हृदय-हिमालय से फूट पड़ने वाली वह अविरल स्रोतास्विनी है, जो भावाच्छ्वास के ताप से पिघलकर अनायास फूट पड़ती है। यह काव्य की आदि विधा है। सृष्टि के जन्म के साथ ही गीत जन्मा, क्योंकि सृष्टा ने प्रकृति के कण-कण में गीत की अस्मिता भर दी है। ऋतुओं का क्रमिक परिवर्तन, सूर्य का निश्चित समय पर उदयास्त, पवन का गतिमय संचालन, कल-कल बढ़ती सरिताओं का गतिमय गायन, झरनों का उद्वेगमय निपतन, दिवा रात्रि का क्रमश: आवागमन, पृथ्वी द्वारा सूर्य का और चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का लययुक्त परिभ्रमण, तरु शिखरों पर पक्षियों का संगीतमय कलरव, कोमल किसलयों की मर्मर ध्वनि, कभी क्रुद्ध प्रकृति द्वारा निर्देशित विध्वंस रचती झंझाओं का भैरव नर्तन, मधुऋतु में पुष्पों की मधुर मुस्कान, उपवन के भ्रमरों की लयबद्ध गुनगुनाहट, पावस की अँधेरी रात में झींगुरों की झंकार, मयूर की केका ध्वनि के साथ किया गया मोहक नृत्य, वर्षा के बादलों की घुमड़न और बरसी बूँदों का शीतल स्पर्श, शिशिर में ओस की बूँदों का मुक्ताभासी सौन्दर्य, पतझड़ में पियराते पत्तों का गिरना, कृषक बाला का अकृत्रिम गायन, शरद पूर्णिमा में चन्द्रमा की निष्कलुष स्वच्छ चाँदनी का अछोर विस्तार और श्रम से सँवरती-बिखरती ज़िन्दगी का स्वेद आदि सबमें एक गीत है। प्रकृति में और जीवन में जहाँ भी लय है, संगीत है गुनगुनाहट है, झंकार है, वहाँ-वहाँ गीत उपस्थित है। गीत अनुभूति और संगीत की लाड़ली सन्तान है। सत्य, शिव और सौन्दर्य का लयबद्ध संयोजन है, जीवन-राग का स्वरबद्ध गायन है। सम्भवत: एक गीत में कहा गया है-
धरती, अम्बर, फूल पाँखुरी
आँसू, पीड़ा, दर्द, बाँसुरी
मौल, ऋतुगंधा, केसर
सबके भीतर एक गीत है
पीपल, बरगद, चीड़ों के वन
सूरज, चन्दा, ऋतु परिवर्तन
फुनगी पर इतराती चिड़िया
दूब भरे कोमल तुषार कन
जलता जेठ भीगता सावन
सबके भीतर एक गीत है
रात अकेली चन्दा प्रहरी
अरुणोदय की किरण अकेली
फैली दूर तलक हरियाली
उमड़ी हुई घटायें गहरी
मुखर फूल शरमाती कलियाँ
मादक ऋतुपति, सूखा पतझर
सबके भीतर एक गीत है
पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला प्रथम गीतकार माने जाते हैं। डॉ. यायावर उनकी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। नवगीत लेखन के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। वे नवगीतकारों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनका मानना है कि नवगीत का भविष्य उज्ज्वल है। नयी, युवा पीढ़ी अपनी ताज़गी भरी रचनाधर्मी ऊर्जा के साथ उससे जुड़ रही है। अब वह अन्तर्जाल के द्वारा भारत के बाहर भी लोकप्रिय हो रहा है। इसलिए जब तक मानव है, उसमें संवेदयें हैं, जीवन में जटिलतायें हैं और मानव में अभिव्यक्ति की ललक है, तब तक नवगीत रहेगा। सम्भव है आने वाला कल किसी और परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव करे, तो वह होगा, परन्तु गीत रहेगा। वह मानव का कालजयी सहचर है।
डॉ. यायावर को काव्य की यह पुण्य विधा अपने पिता स्वर्गीय पंडित रामप्रसाद शर्मा से विरासत में मिली है। वे स्वतंत्रता सेनानी और लोकगायक थे। पहले वे भजन और फिर लोक महाकाव्य ढोला के द्वारा जन-जागरण करते रहे। इसलिइ उन्हें बचपन से ही संगीत और लोकसंस्कृति को क़रीब से जानने का मौक़ा मिला। उन्होंने सातवीं कक्षा में ही पहला बालगीत लिख लिया था।
बहरहाल, डॉ. यायावर की यह पुस्तक साहित्य के छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है। पुस्तक का आवरण भी आकर्षक है। किताब का मूल्य भी वाजिब है। डॉ. यायावर ने पाठकों की सुविधा के लिए इसका मूल्य कम रखवाया है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पाठक इसे ख़रीद सकें।
पुस्तक का नाम : नवगीत कोश
लेखक : डॉ. रामसनेही लाल शर्मा
प्रकाशक : निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा
पृष्ठ : 640
मूल्य : 500 रुपये
सुप्रसिद्ध कवि एवं गीतकार डॉ. रामनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ द्वारा लिखित ‘नवगीत कोश’ पढ़ने का मौक़ा मिला। इसे पढ़कर लगा कि अगर इसे पढ़ा नहीं होता, तो कितना कुछ जानने और समझने से रह जाता। कितना कुछ ऐसा छूट जाता, जिसका मलाल रहता। किताबों की भीड़ में बहुत-सी किताबें ऐसी होती हैं, जो सबसे अलग नज़र आती हैं। ये वो किताबें होती हैं, जिनसे सीखने को बहुत कुछ मिलता है, जो किसी शिक्षक की तरह हमें किसी विषय विशेष की विस्तृत जानकारी मुहैया करवाती हैं। ऐसी किताबें संग्रहणीय होती हैं, जो वर्तमान ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ज्ञान की थाती होती हैं। यह भी एक ऐसी ही किताब है।
इस ‘नवगीत कोश’ को आगरा के निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है। इसमें पाँच खंड हैं। प्रथम खंड में प्रस्तावना है, जिसमें गीत, नवगीत की प्रामाणिक भूमिका, इतिहास, संवेदना संसार और शिल्प पर प्रामाणिक चर्चा है। द्वितीय खंड में 700 एकल और 100 समवेत नवगीत संग्रहों का परिचय है। तृतीय खंड में 297 नवगीतकारों का संक्षिप्त परिचय है। इसमें पाँच प्रवासी भी हैं। चतुर्थ खंड में नवगीत के समीक्षा सम्बन्धी 103 प्रकाशित ग्रंथों, 73 अप्रकाशित शोध ग्रंथों और 58 पत्रिकाओं का परिचय है। पंचम खंड में 29 नवगीतकारों और समीक्षकों का साक्षात्कार है, जिनमें स्वयं डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ सहित अनूप अशेष, डॉ. आलमगीर अली, डॉ. इन्दीवर, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, गणेश गम्भीर, जगदीश ‘पंकज’, देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, नचिकेता, पारसनाथ गोवर्धन, डॉ. पार्वती जे. गोसाईं, पूर्णिमा वर्मन, भारतेन्दु मिश्र, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव, महेश उपाध्याय, डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा, रमेश गौतम, राधेश्याम बन्धु, विनोद निगम, वीरेन्द्र आस्तिक, वेद प्रकाश शर्मा ‘अमिताभ’, डॉ. वेद प्रकाश शर्मा ‘वेद’, डॉ. श्रीराम परिहार, संजीव वर्मा ‘सलिल’, सोम ठाकुर, हरिशंकर सक्सेना, हरीश निगम और हृदयेश्वर शामिल हैं। साक्षात्कार में ऐसे सवाल पूछे गए हैं, जो साहित्य प्रेमियों की जिज्ञासा को तृप्त करते हैं। सभी नवगीतकारों ने अपने-अपने अंदाज़ में जवाब दिए हैं। इनसे बहुत कुछ जानने, समझने और सीखने को मिलता है।
इस ‘नवगीत’ को तैयार करने में डॉ. यायावर ने अपनी ज़िन्दगी के तीन अनमोल साल ख़र्च किए हैं। इसमें उनकी मेहनत, उनकी लगन और उनका समर्पण सबकुछ ही तो झलकता है। उन्होंने गीत के शब्दार्थ, मीमांसा और परिभाषा का बहुत ही सहजता से वर्णन किया है। जो व्यक्ति साहित्य से सम्बन्ध नहीं रखता या जिसे नवगीत के विषय में बुनियादी जानकारी भी नहीं है, वह भी इसे पढ़कर नवगीत के विषय में जान जाएगा कि नवगीत क्या है।
उनकी भाषा शैली और उनके शब्दों का चयन इतना सुन्दर है कि वह पाठक को ऐसे बहा ले जाता है, जैसे नदी किसी नाव को अपनी अविरल धारा के साथ बहा ले जाती है। पाठक बस उसमें बहता चला जाता है। कहीं रुकने का उसका मन ही नहीं करता। पढ़ते-पढ़ते कब किताब मुकम्मल हो गई, पता ही नहीं चलता। बानगी देखें- गीत हृदय की वर्णमयी झंकार या दूसरे शब्दों में यह हृदय-हिमालय से फूट पड़ने वाली वह अविरल स्रोतास्विनी है, जो भावाच्छ्वास के ताप से पिघलकर अनायास फूट पड़ती है। यह काव्य की आदि विधा है। सृष्टि के जन्म के साथ ही गीत जन्मा, क्योंकि सृष्टा ने प्रकृति के कण-कण में गीत की अस्मिता भर दी है। ऋतुओं का क्रमिक परिवर्तन, सूर्य का निश्चित समय पर उदयास्त, पवन का गतिमय संचालन, कल-कल बढ़ती सरिताओं का गतिमय गायन, झरनों का उद्वेगमय निपतन, दिवा रात्रि का क्रमश: आवागमन, पृथ्वी द्वारा सूर्य का और चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का लययुक्त परिभ्रमण, तरु शिखरों पर पक्षियों का संगीतमय कलरव, कोमल किसलयों की मर्मर ध्वनि, कभी क्रुद्ध प्रकृति द्वारा निर्देशित विध्वंस रचती झंझाओं का भैरव नर्तन, मधुऋतु में पुष्पों की मधुर मुस्कान, उपवन के भ्रमरों की लयबद्ध गुनगुनाहट, पावस की अँधेरी रात में झींगुरों की झंकार, मयूर की केका ध्वनि के साथ किया गया मोहक नृत्य, वर्षा के बादलों की घुमड़न और बरसी बूँदों का शीतल स्पर्श, शिशिर में ओस की बूँदों का मुक्ताभासी सौन्दर्य, पतझड़ में पियराते पत्तों का गिरना, कृषक बाला का अकृत्रिम गायन, शरद पूर्णिमा में चन्द्रमा की निष्कलुष स्वच्छ चाँदनी का अछोर विस्तार और श्रम से सँवरती-बिखरती ज़िन्दगी का स्वेद आदि सबमें एक गीत है। प्रकृति में और जीवन में जहाँ भी लय है, संगीत है गुनगुनाहट है, झंकार है, वहाँ-वहाँ गीत उपस्थित है। गीत अनुभूति और संगीत की लाड़ली सन्तान है। सत्य, शिव और सौन्दर्य का लयबद्ध संयोजन है, जीवन-राग का स्वरबद्ध गायन है। सम्भवत: एक गीत में कहा गया है-
धरती, अम्बर, फूल पाँखुरी
आँसू, पीड़ा, दर्द, बाँसुरी
मौल, ऋतुगंधा, केसर
सबके भीतर एक गीत है
पीपल, बरगद, चीड़ों के वन
सूरज, चन्दा, ऋतु परिवर्तन
फुनगी पर इतराती चिड़िया
दूब भरे कोमल तुषार कन
जलता जेठ भीगता सावन
सबके भीतर एक गीत है
रात अकेली चन्दा प्रहरी
अरुणोदय की किरण अकेली
फैली दूर तलक हरियाली
उमड़ी हुई घटायें गहरी
मुखर फूल शरमाती कलियाँ
मादक ऋतुपति, सूखा पतझर
सबके भीतर एक गीत है
पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला प्रथम गीतकार माने जाते हैं। डॉ. यायावर उनकी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। नवगीत लेखन के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। वे नवगीतकारों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनका मानना है कि नवगीत का भविष्य उज्ज्वल है। नयी, युवा पीढ़ी अपनी ताज़गी भरी रचनाधर्मी ऊर्जा के साथ उससे जुड़ रही है। अब वह अन्तर्जाल के द्वारा भारत के बाहर भी लोकप्रिय हो रहा है। इसलिए जब तक मानव है, उसमें संवेदयें हैं, जीवन में जटिलतायें हैं और मानव में अभिव्यक्ति की ललक है, तब तक नवगीत रहेगा। सम्भव है आने वाला कल किसी और परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव करे, तो वह होगा, परन्तु गीत रहेगा। वह मानव का कालजयी सहचर है।
डॉ. यायावर को काव्य की यह पुण्य विधा अपने पिता स्वर्गीय पंडित रामप्रसाद शर्मा से विरासत में मिली है। वे स्वतंत्रता सेनानी और लोकगायक थे। पहले वे भजन और फिर लोक महाकाव्य ढोला के द्वारा जन-जागरण करते रहे। इसलिइ उन्हें बचपन से ही संगीत और लोकसंस्कृति को क़रीब से जानने का मौक़ा मिला। उन्होंने सातवीं कक्षा में ही पहला बालगीत लिख लिया था।
बहरहाल, डॉ. यायावर की यह पुस्तक साहित्य के छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है। पुस्तक का आवरण भी आकर्षक है। किताब का मूल्य भी वाजिब है। डॉ. यायावर ने पाठकों की सुविधा के लिए इसका मूल्य कम रखवाया है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पाठक इसे ख़रीद सकें।
पुस्तक का नाम : नवगीत कोश
लेखक : डॉ. रामसनेही लाल शर्मा
प्रकाशक : निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा
पृष्ठ : 640
मूल्य : 500 रुपये
बहुत कम लोग जानते हैं कि सिने जगत की मशहूर अभिनेत्री व ट्रेजडी क्वीन के नाम से विख्यात मीना कुमारी शायरा भी थीं. मीना कुमारी का असली नाम महजबीं बानो था. एक अगस्त, 1932 को मुंबई में जन्मी मीना कुमारी के पिता अली बक़्श पारसी रंगमंच के जाने-माने कलाकार थे. उन्होंने कई फ़िल्मों में संगीत भी दिया था. उनकी मां इक़बाल बानो मशहूर नृत्यांगना थीं. उनका असली नाम प्रभावती देवी था. उनका संबंध टैगोर परिवार से था यानी मीना कुमारी की नानी रवींद्र नाथ टैगोर की भतीजी थीं, लेकिन अली बक़्श से विवाह के लिए प्रभावती ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था. मीना कुमारी ने छह साल की उम्र में एक फ़िल्म में बतौर बाल कलाकार काम किया था. 1952 में प्रदर्शित विजय भट्ट की लोकप्रिय फ़िल्म बैजू बावरा से वह मीना कुमारी के रूप में जानी गईं. 1953 तक मीना कुमारी की तीन हिट फ़िल्में आ चुकी थीं, जिनमें दायरा, दो बीघा ज़मीन एवं परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिए एक नया दौर शुरू हुआ. इसमें उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को ख़ासा प्रभावित किया था. इसके बाद उन्हें ऐसी फ़िल्में मिलने लगीं, जिनसे वह ट्रेजडी क्वीन के रूप में मशहूर हो गईं. उनकी ज़िंदगी परेशानियों के दौर से ग़ुजर रही थी. उन्हें मशहूर फ़िल्मकार कमाल अमरोही के रूप में एक हमदर्द इंसान मिला. उन्होंने कमाल से प्रभावित होकर उनसे विवाह कर लिया, लेकिन उनकी शादी कामयाब नहीं रही और दस साल के वैवाहिक जीवन के बाद 1964 में वह कमाल अमरोही से अलग हो गईं. कहा यह भी गया कि औलाद न होने की वजह से उनके रिश्ते में दरार पड़ने लगी थी.
1966 में बनी फ़िल्म फूल और पत्थर के नायक धर्मेंद्र से मीना कुमारी की नज़दीकियां बढ़ने लगी थीं. मीना कुमारी उस दौर की कामयाब अभिनेत्री थीं, जबकि धर्मेंद्र का करियर ठीक से नहीं चल रहा था. लिहाज़ा धर्मेंद्र ने मीना कुमारी का सहारा लेकर ख़ुद को आगे बढ़ाया. उनके क़िस्से पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे, जिसका असर उनकी शादीशुदा ज़िंदगी पर पड़ा. अमरोहा में एक मुशायरे के दौरान किसी युवक ने मीना कुमारी पर कटाक्ष करते हुए एक ऐसा शेअर पढ़ा, जिस पर मुशायरे की सदारत कर रहे कमाल अमरोही भड़क गए.
कमाल अमरोही ने मीना कुमारी की कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें पाकीज़ा भी शामिल है. पाकीज़ा के निर्माण में सत्रह साल लगे थे, जिसकी वजह मीना कुमारी से उनका अलगाव था. यह कला के प्रति मीना कुमारी का समर्पण ही था कि उन्होंने बीमारी की हालत में भी इस फ़िल्म को पूरा किया. पाकीज़ा में पहले धर्मेंद्र को लिया गया था, लेकिन कमाल अमरोही ने धर्मेंद्र को फ़िल्म से बाहर कर उनकी जगह राजकुमार को ले लिया. 1956 में शुरू हुई पाकीज़ा 4 फ़रवरी, 1972 को रिलीज़ हुई और उसी साल 31 मार्च को मीना कुमारी चल बसीं. फ़िल्म हिट रही, कमाल अमरोही अमर हो गए, लेकिन मीना कुमारी ग़ुरबत में मरीं. अस्पताल का बिल उनके प्रशंसक एक डॉक्टर ने चुकाया. मीना कुमारी ज़िंदगी भर सुर्ख़ियों और विवादों में रहीं. कभी शराब पीने की आदत को लेकर, तो कभी धर्मेंद्र के साथ संबंधों को लेकर. मीना कुमारी ने अपने अकेलेपन में शराब और शायरी को अपना साथी बना लिया था. वह नज़्में लिखती थीं, जो उनकी मौत के बाद नाज़ नाम से प्रकाशित हुईं :-
मेरे महबूब
जब दोपहर को
समुंदर की लहरें
मेरे दिल की धड़कनों से हमआहंग होकर उठती हैं तो
आफ़ताब की हयात आफ़री शुआओं से मुझे
तेरी जुदाई को बर्दाश्त करने की क़ुव्वत मिलती है…
मीना कुमारी की ग़ज़लों में मुहब्बत है, शोख़ी है. वह कहती हैं-
रूह का चेहरा किताबी होगा
जिस्म का रंग अनाबी होगा
शरबती रंग से लिखूं आंखें
और अहसास शराबी होगा
चश्मे-पैमाने से टपका आंसू
कोई बेचारा सवाबी होगा...
धर्मेंद्र ने भी करियर की बुलंदियों पर पहुंचने के बाद मीना को अकेला छोड़ दिया. कभी मुड़कर भी उनकी तरफ़ नहीं देखा. मीना उम्र भर मुहब्बत पाने के लिए तरसती रह गईं :-
मुहब्बत
बहार की फूलों की तरह मुझे
अपने जिस्म के रोएं-रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है, जिसके
रेशमी बादबान
तने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके
आहिस्ता-आहिस्ता दूर-दूर
पुरसुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम जज़ीरों
की तऱफ लिए जा रहे हों,
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह-रहकर चमकते दिखाई देते हैं,
हमारी गुफ़्तगू की ज़ुबान
वही है जो
दरख्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है,
ये घने जंगल
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आंसू छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत…
ज़िन्दगी में मुहब्बत हो, तो ज़िन्दगी सवाब होती है. और जब न हो, तो उसकी तलाश होती है... और इसी तलाश में इंसान उम्रभर भटकता रहता है. अपनी एक ग़ज़ल में मीना कुमारी उम्र भर मुहब्बत को तरसती हुई औरत की तड़प बयां करते हुए कहती हैं-
ज़र्रे-ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे
एक-एक बुत को ख़ुदा उसने बनाया होगा
प्यास जलते हुए कांटों की बुझाई होगी
रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा...
कमाल अमरोही से निकाह करके भी उनका अकेलापन दूर नहीं हुआ और वह शराब में डूब गईं. एक बार जब दादा मुनि अशोक कुमार उनके लिए दवा लेकर पहुंचे तो उन्होंने कहा, दवा खाकर भी मैं जीऊंगी नहीं, यह जानती हूं मैं. इसलिए कुछ तंबाक़ू खा लेने दो, शराब के कुछ घूंट गले के नीचे उतर जाने दो. मीना कुमारी का यह जवाब सुनकर दादा मुनि कांप उठे. मीना कुमारी की उदासी उनकी नज़्मों में भी उतर आई थी-
दिन गुज़रता नहीं
रात काटे से भी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसलसुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती
अकेलेपन के अंधेरे में दूर-दूर तलक
यह एक ख़ौफ़ जी पे धुआं बनके छाया है
फिसल के आंख से यह क्षण पिघल न जाए कहीं
पलक-पलक ने जिसे राह से उठाया है
शाम का उदास सन्नाटा
धुंधलका देख बढ़ जाता है
नहीं मालूम यह धुआं क्यों है
दिल तो ख़ुश है कि जलता जाता है
तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आंखों की तरन्नुम को चुरा लाई है
किसकी आग़ोश की ठंडक पे है डाका डाला
किसकी बांहों से तू शबनम उठा लाई है…
बचपन से जवानी तक या यूं कहें कि ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे तक उन्होंने दुश्वारियों का सामना किया-
आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता,
जब ज़ुल्फ़ की कालिख में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता,
हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टुकड़े
हर शख्स की क़िस्मत में ईनाम नहीं होता,
बहते हुए आंसू ने आंख से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता,
दिन डूबे या डूबे बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता…
मीना कुमारी की ज़िंदगी एक सच्चे प्रेमी की तलाश में ही गुज़र गई. अकेलेपन का दर्द उनकी रचनाओं में समाया हुआ है-
चांद तन्हा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा,
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुंआ तन्हा,
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा,
हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी
दोनों चलते रहे कहां तन्हा,
जलती-बुझती सी रोशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा,
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा…