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डॉ. फ़िरदौस ख़ान
इस्लाम में सूफ़ियों का अहम मुक़ाम है. सूफ़ी मानते हैं कि सूफ़ी मत का स्रोत ख़ुद पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु अलैहि वसल्लम हैं. उनकी प्रकाशना के दो स्तर हैं, एक तो जगज़ाहिर क़ुरआन है, जिसे इल्मे-सफ़ीना यानी किताबी ज्ञान कहा गया है, जो सभी आमो-ख़ास के लिए है. और दूसरा इल्मे-सीना यानी गुह्य ज्ञान, जो सूफ़ियों के लिए है. उनका यह ज्ञान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद, ख़लीफ़ा अबू बक़्र, हज़रत अली, हज़रत बिलाल और पैग़म्बर के अन्य चार क़रीबी साथियों के ज़रिये एक सिलसिले में चला आ रहा है, जो मुर्शिद से मुरीद को मिलता है. पीरों और मुर्शिदों की यह रिवायत आज भी बदस्तूर जारी है. दुनियाभर में अनेक सूफ़ी हुए हैं, जिन्होंने लोगों को राहे-हक़ पर चलने का पैग़ाम दिया. इन्हीं में से एक हैं फ़ारसी के सुप्रसिद्ध कवि रूमी. वह ज़िन्दगी भर इश्क़े-इलाही में डूबे रहे. उनकी हिकायतें और बानगियां तुर्की से हिंदुस्तान तक छाई रहीं. आज भी खाड़ी देशों सहित अमेरिका और यूरोप में उनके कलाम का जलवा है. उनकी शायरी इश्क़ और फ़ना की गहराइयों में उतर जाती है. ख़ुदा से इश्क़ और इश्क़ में ख़ुद को मिटा देना ही इश्क़ की इंतहा है, ख़ुदा की इबादत है.
वे कहते हैं-
बंदगी कर, जो आशिक़ बना सकती है
बंदगी काम है जो अमल में ला देती है
बंदा क़िस्मत से आज़ाद होना चाहता है
आशिक़ अबद से आज़ादी नहीं चाहता है
बंदा चाहता है हश्र के ईनाम व ख़िलअत
दीदारे-यार है आशिक़ की सारी ख़िलअत
इश्क़ बोलने व सुनने से राज़ी होता नहीं
इश्क़ दरिया वो जिसका तला मिलता नहीं
हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब रूमी में सूफ़ी कवि रूमी की ज़िन्दगी, उनके दर्शन और उनके कलाम को शामिल किया गया है. इसके साथ ही इस किताब में सूफ़ी मत के बारे में भी संक्षिप्त मगर अहम जानकारी दी गई है. इस किताब का संपादन अभय तिवारी ने किया है. इस किताब के दो खंड हैं-रूमी की बुनियाद : सूफ़ी मत और मसनवी मानवी से काव्यांश. पहले खंड में सूफ़ी मत का ज़िक्र किया गया है. बसरा में दसवीं सदी के पूर्वार्ध में तेजस्वी लोगों के दल इख़्वानुस्सफ़ा के मुताबिक़, एक आदर्श आदमी वह है, जिसमें इस तरह की उत्तम बुद्धि और विवेक हो जैसे कि वह ईरानी मूल का हो, अरब आस्था का हो, धर्म में सीधी राह की ओर प्रेरित हनी़फ़ी (इस्लामी धर्मशास्त्र की सबसे तार्किक और उदार शाख़ा के मानने वाले) हो, शिष्टाचार में इराक़ी हो, परम्परा में यहूदी हो, सदाचार में ईसाई हो, समर्पण में सीरियाई हो, ज्ञान में यूनानी हो, दृष्टि में भारतीय हो, ज़िन्दगी जीने के ढंग में रहस्यवादी हो. 
रूमी को कई नामों से जाना जाता है. अफ़ग़ानी उन्हें बलख़ी पुकारते हैं, क्योंकि उनका जन्म अफ़ग़ानिस्तान के बलख़ शहर में हुआ था. ईरान में वह मौलवी हैं, तुर्की में मौलाना और हिन्दुस्तान सहित अन्य देशों में रूमी. आज जो प्रदेश तुर्की नाम से प्रसिद्ध है, मध्यकाल में उस पर रोम के शासकों का अधिकार लम्बे वक़्त तक रहा था. लिहाज़ा पश्चिम एशिया में उसका लोकनाम रूम पड़ गया. रूम के शहर कोन्या में रिहाइश की वजह से ही मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन, मौलाना-ए-रूम या रूमी कहलाए जाने लगे. उनके सिलसिले के सूफ़ी मुरीद उन्हें ख़ुदावंदगार के नाम से भी पुकारते थे. रूमी का जन्म 1207 ईस्वी में बलख़ में हुआ था. उनके पुरखों की कड़ी पहले ख़ली़फ़ा अबू बक़्र रज़ियल्लाहु अन्हु तक जाती है. उनके पिता बहाउद्दीन वलेद न सिर्फ़ एक आलिम मुफ़्ती थे, बल्कि बड़े पहुंचे हुए सूफ़ी भी थे. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी.
इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने कुछ नहीं से सृष्टि की रचना की यानी रचना और रचनाकार दोनों अलग-अलग हैं. इस्लाम का मूल मंत्र कलमा है ला इलाह इल्लल्लाह यानी अल्लाह के सिवा दूसरा कोई माबूद नहीं है. इसी कलमे पर सब मुसलमान ईमान लाते हैं. मगर सूफ़ी ये भी मानते हैं कि ला मौजूद इल्लल्लाह यानी उसके सिवा कोई मौजूद नहीं है. इस मौजूदगी में भी दो राय हैं. एक तो वहदतुल वुजूद यानी अस्तित्व की एकता, जिसे इब्नुल अरबी ने मुकम्मल शक्ल दी और जो मानता है कि जो कुछ है सब ख़ुदा है, और काफ़ी आगे चलकर विकसित हुआ. दूसरा वहदतुल शुहूद यानी (साक्ष्य की एकता, जो मानता है कि जो भी है उस ख़ुदा से है. 
इस्लाम में इस पूरी कायनात की रचना का स्रोत नूरे-मुहम्मद है. नूरुल मुहम्मदिया मत के मुताबिक़ जब कुछ नहीं था, तो वह सिर्फ़ ख़ुदा सिर्फ़ अज़ ज़ात यानी स्रोत के रूप में था. इस अवस्था के दो रूप मानते हैं- अल अमा यानी घना अंधेरा और वहदियत यानी एकत्व. इस अवस्था में ख़ुदा निरपेक्ष और निर्गुण रहता है. इसके बाद की अवस्था वहदत है, जिसे हक़ीक़तुल मुहम्मदिया भी कहा जाता है. इस अवस्था में ख़ुदा को अपनी सत्ता का बोध हो जाता है. तीसरी अवस्था वाहिदियत की है, जिसमें वह परम प्रकाश, अहं, शक्ति और इरादे के विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो जाता है. अन्य तरीक़े से इस हक़ीक़तुल मुहम्मदिया को ही नूरुल मुहम्मदिया भी कहा गया है. माना गया है कि ख़ुदा ने जब सृष्टि की इच्छा की तो अपनी ज्योति से एक ज्योति पैदा की-नूरे मुहम्मद. शेष सृष्टि का निर्माण इसी नूर से माना गया है. सभी पैग़म्बर भी इसी नूर की अभिव्यक्ति हैं. इस विधान और नवअफ़लातूनी विधान के वन, नूस और वर्ल्ड सोल के बीच काफ़ी साम्य है. वैसे तो इन दोनों से काफ़ी पूर्ववर्ती श्रीमद्भागवत में वर्णित सांख्य दर्शन के अव्यक्त, प्रधान आदि भी ऐसी ही व्यवस्था के अंग हैं, लेकिन उसमें नूरुल मुहम्मदिया या वर्ल्ड सोल जैसी कोई शय नहीं है. इसके बाद इस दिव्य ज्ञान की व्यवस्था में और भी विभाजन हैं, पांच तरह के आलम, ईश्वर का सिंहासन, उसके स्वर्ग का विस्तार आदि तमाम अंग हैं. इस विधान के दूसरे छोर पर आदमी है और उसकी ईश्वर की तरफ़ यात्रा की मुश्किलें हैं, उन्हें पहचानना और इस पथ के राही के लिए आसान करना ही इस ज्ञान का मक़सद है.
रूमी के कई क़िस्से बयान किए जाते हैं. एक बार एक क़साई की गाय रस्सी चबाकर भाग ख़डी हुई. क़साई उसे पक़डने को पीछे भागा, मगर गाय गली-गली उसे गच्चा देती रही और एक गली में जहां रूमी खड़े थे, उन्हीं के पास जाकर चुपचाप रुक गई. रूमी ने उसे पुचकारा और सहलाया. क़साई को उम्मीद थी कि रूमी उसे गाय सौंप देंगे, मगर रूमी का इरादा कुछ और था. चूंकि गाय ने उनके पास पनाह ली थी, इसलिए रूमी ने क़साई से गुज़ारिश की कि गाय को क़त्ल करने की बजाय छो़ड दिया जाए. क़साई ने सर झुकाकर इसे मान लिया. फिर रूमी बोले कि सोचे जब जानवर तक ख़ुदा के प्यार करने वालों द्वारा बचा लिए जाते हैं, तो ख़ुदा की पनाह लेने वाले इंसानों के लिए कितनी उम्मीद है. कहते हैं कि फिर वह गाय कोन्या में नहीं दिखी. एक बार किसी मुरीद ने पूछा कि क्या कोई दरवेश कभी गुनाह कर सकता है. रूमी का जवाब था कि अगर वह भूख के बग़ैर खाता है तो ज़रूर, क्योंकि भूख के बग़ैर खाना दरवेशों के लिए बड़ा संगीन गुनाह है.
किताब के दूसरे खंड में रूमी का कलाम पेश किया गया है. इश्क़े-इलाही में डूबे रूमी कहते हैं-
हर रात रूहें क़ैदे-तन से छूट जाती हैं
कहने करने की हदों से टूट जाती हैं
रूहें रिहा होती हैं इस क़फ़स से हर रात
हाकिम और क़ैदी हो जाते सभी आज़ाद
वो रात जिसमें क़ैदी क़फ़स से बे़खबर है
खोने पाने का कोई डर नहीं व ग़म नहीं
न प्यार इससे, उससे कुछ बरहम नहीं
सूफ़ियों का हाल ये है बिन सोये हरदम
वे सो चुके होते जबकि जागे हैं देखते हम
सो चुके दुनिया से ऐसे, दिन और रात में
दिखे नहीं रब का क़लम जैसे उसके हाथ में

बेशक इश्क़े-इलाही में डूबा हुआ बंदा ख़ुद को अपने महबूब के बेहद क़रीब महसूस करता है. वह इस दुनिया में रहकर भी इससे जुदा रहता है. रूमी के कलाम में इश्क़ की शिद्दत महसूस किया जा सकता है. रूमी कहते हैं-
क्योंकि ख़ुदा के साथ रूह को मिला दिया
तो ज़िक्र इसका और उसका भी मिला दिया
हर किसी के दिल में सौ मुरादें हैं ज़रूर
लेकिन इश्क़ का मज़हब ये नहीं है हुज़ूर
मदद देता है इश्क़ को रोज़ ही आफ़ताब
आफ़ताब उस चेहरे का जैसे है नक़ाब

इश्क़ के जज़्बे से लबरेज़ दिल सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने महबूब की बात करना चाहता है, उसकी बात सुनना चाहता है, उसके बारे में सुनना चाहता है और उसे बारे में ही कहना चाहता है. यही तो इश्क़ है.
बेपरवाह हो गया हूं अब सबर नहीं होता मुझे
आग पर बिठा दिया है इस सबर ने मुझे
मेरी ताक़त इस सबुरी से छिन गई है
मेरी रूदाद सबके लिए सबक़ बन गई है
मैं जुदाई में अपनी इस रूह से गया पक
ज़िंदा रहना जुदाई में बेईमानी है अब
उससे जुदाई का दर्द कब तक मारेगा मुझे
काट लो सर, इश्क नया सिर दे देगा मुझे
बस इश्क़ से ज़िंदा रहना है मज़हब मेरे लिए
इस सर व शान से ज़िंदगी शर्म है मेरे लिए

बहरहाल, ख़ूबसूरत कवर वाली यह किताब पाठकों को बेहद पसंद आएगी, क्योंकि पाठकों को जहां रूमी के कई क़िस्से पढ़ने को मिलेंगे, वहीं महान सूफ़ी कवि का रूहानी कलाम भी उनके दिलो-दिमाग़ को रौशन कर देगा.

समीक्ष्य कृति : रूमी 
संपादन : अभय तिवारी
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये
 



डॉ. फ़िरदौस ख़ान 
बात उन दिनों की है जब हम हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. हर रोज़ सुबह फ़ज्र की नमाज़ के बाद रियाज़ शुरू होता था. सबसे पहले संगीत की देवी मां सरस्वती की वन्दना करनी होती थी. फिर. क़रीब दो घंटे तक सुरों की साधना. इस दौरान दिल को जो सुकून मिलता था. उसे शब्दों में बयां करना बहुत मुश्किल है.

इसके बाद कॉलेज जाना और कॉलेज से ऑफ़िस. ऑफ़िस के बाद फिर गुरु जी के पास जाना. संध्या, सरस्वती की वन्दना के साथ शुरू होती और फिर वही सुरों की साधना का सिलसिला जारी रहता. हमारे गुरु जी, संगीत के प्रति बहुत ही समर्पित थे. वो जितने संगीत के प्रति समर्पित थे उतना ही अपने शिष्यों के प्रति भी स्नेह रखते थे. उनकी पत्नी भी बहुत अच्छे स्वभाव की गृहिणी थीं. गुरु जी के बेटे और बेटी हम सबके साथ ही शिक्षा ग्रहण करते थे. कुल मिलाकर बहुत ही पारिवारिक माहौल था.

हमारा बी.ए फ़ाइनल का संगीत का इम्तिहान था. एक राग के गायन के वक़्त हम कुछ भूल गए. हमारे नोट्स की कॉपी हमारे ही कॉलेज के एक सहपाठी के पास थी, जो उसने अभी तक लौटाई नहीं थी. अगली सुबह इम्तिहान था. हम बहुत परेशान थे कि क्या करें. इसी कशमकश में हमने गुरु जी के घर जाने का फ़ैसला किया. शाम को क़रीब सात बजे हम गुरु जी के घर गए.

वहां का मंज़र देखकर पैरों तले की ज़मीन निकल गई. घर के बाहर सड़क पर वहां शामियाना लगा था. दरी पर बैठी बहुत-सी औरतें रो रही थीं. हम अन्दर गए, आंटी (गुरु जी की पत्नी को हम आंटी कहते हैं) ने बताया कि गुरु जी के बड़े भाई की सड़क हादसे में मौत हो गई है. और वो दाह संस्कार के लिए शमशान गए हैं. हम उन्हें सांत्वना देकर वापस आ गए.


रात के क़रीब डेढ़ बजे गुरु जी हमारे घर आए. मोटर साइकिल उनका बेटा चला रहा था और गुरु जी पीछे तबले थामे बैठे थे.

अम्मी ने हमें नींद से जगाया. हम कभी भी रात को जागकर पढ़ाई नहीं करते थे, बल्कि सुबह जल्दी उठकर पढ़ना ही हमें पसंद था .हम बैठक में आए.

गुरु जी ने कहा - तुम्हारी आंटी ने बताया था की तुम्हें कुछ पूछना था. कल तुम्हारा इम्तिहान भी है. मैंने सोचा- हो सकता है, तुम्हें कोई ताल भी पूछनी हो इसलिए तबले भी ले आया. गुरु जी ने हमें क़रीब एक घंटे तक शिक्षा दी.

गुरु जी अपने भाई के दाह संस्कार के बाद सीधे हमारे पास ही आ गए थे. ऐसे गुरु पर भला किसको नाज़ नहीं होगा, जिन्होंने ऐसे नाज़ुक वक़्त में भी अपनी शिष्या के प्रति अपने दायित्व को निभाया हो.

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काको लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय।।

हमारे गुरु जी गुरु-शिष्य परंपरा की जीवंत मिसाल हैं.
गुरु जी को हमारा शत-शत नमन और गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं.

अपने आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को समर्पित कलाम
रहमतों की बारिश...
मेरे मौला !
रहमतों की बारिश कर
हमारे आक़ा
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर
जब तक
कायनात रौशन रहे
सूरज उगता रहे
दिन चढ़ता रहे
शाम ढलती रहे
और रात आती-जाती रहे
मेरे मौला !
सलाम नाज़िल फ़रमा
हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
और आले-नबी की रूहों पर
अज़ल से अबद तक...
-फ़िरदौस ख़ान

अपने आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को समर्पित कलाम...
अक़ीदत के फूल...
मेरे प्यारे आक़ा
मेरे ख़ुदा के महबूब !
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
आपको लाखों सलाम
प्यारे आक़ा !
हर सुबह
चमेली के
महकते सफ़ेद फूल
चुनती हूं
और सोचती हूं-
ये फूल किस तरह
आपकी ख़िदमत में पेश करूं

मेरे आक़ा !
चाहती हूं
आप इन फूलों को क़ुबूल करें
क्योंकि
ये सिर्फ़ चमेली के
फूल नहीं है
ये मेरी अक़ीदत के फूल हैं
जो
आपके लिए ही खिले हैं...
-फ़िरदौस ख़ान


डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी  
रसूले-करीमص अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मेरे पास कटा फटा दरूद मत भेजो।
इस हदीसे-मुबारक का मतलब कि तुम कटा फटा यानी कटा उसे कहते हैं, जिसमें रसूले करीम की आल यानी अहले बैत शामिल न हों, तो वह कटा फटा दरूद है। 
फटा दरूद का मतलब है कि जिसमें आल की आल यानी अहले बैत की औलादे-इमामीन न शामिल हों तो यह फटा दरूद है। 
अब दरूद पढ़ने में यह तरीक़ा अपनायें, बाद में  आप दरूद शरीफ़ में "व आलिही" लफ़्ज़ ज़रूर शामिल करें। ज़हनी तौर से आले रसूल की औलाद भी हज़रते मेहदी अलैहिस्सलाम तक शामिल रहें। तब आपका मुकम्मल दरूद शरीफ़ का पढ़ना ही पढ़ना होगा।

प्रैक्टिकल और थ्योरिकल दरूद का पढ़ना
प्रैक्टिकल और थ्योरिकल दरूद पढ़ने का मतलब है कि दरूद पाक का पढ़ना और अमल करना दोनों ही शामिल हैं, जैसे क़ुरआन पाक की तिलावत करना और उस पर अमल करना। दोनों ही काम अलग हैं, क़ुरआन पाक और दरूद शरीफ़ की रोज़ाना तिलावत तो करते हो और अमल नहीं करते हो, तो क़ुरआन पाक की उस तिलावत का क्या फ़ायदा है। 
जैसे आप पढ़ रहे हैं "इन्नल्लाह मा अस्साबिरीन।" हम जब इस आयत को पढ़ रहे हैं और सब्र बिलकुल नहीं  कर रहे हैं, तो पढ़ने से कुछ हासिल नहीं है। जिस तरह पानी-पानी कहने से प्यास नहीं बुझती है, जब तक पानी पिएंगे नहीं।
ठीक इसी तरह से हम दरूद शरीफ़ तो पढ़ते हैं, मगर अहले बैत को नहीं मानते हैं या अहले के मक़ाबिल दीगर शख़्सियात को पेश करते हो। और हाँ दरूद शरीफ़ भले ही न पढ़ो, मगर अहले बैते अतहार से मुहब्बत करो जैसा कि हक़ और हुक्मे-ख़ुदा है, तो आपने प्रैक्टिकल ही कर के थ्योरी भी कर ली, मगर थ्योरी पढ़ने से प्रैक्टिकल नहीं कर पाओगे।

अहले बैत से पीराने तरीक़त तक
अहले बैत से पीराने तरीक़त तक का मतलब यह है कि हर सिलसिला रूहानी चिश्ती, क़ादरी. सुहरवर्दी और नक़्शबंदी अल्लाह के हबीब और आपकी औलाद के इमामीन से जुड़ा हुआ है, यानी आपके अहले बैत से जुड़ा हुआ है। अब आप अगर किसी भी मुरशिद (इमाम) से रूहानी फ़ायदा पाते हैं, यानी मुरीद होते हैं तो औलादे रसूल की ग़ुलामी में आ जाते हैं। तो अब आप मुरशिदाने-हक़ (इमामीन) से मुहब्बत और हुस्ने-सुलूक करते हो, तो यह अमल अहले बैत तक पहुंचाता है, मगर इस शर्त के साथ के पंजतन पाक की मुहब्बत हमारे लिये मुवद्दत की सूरत में ही होनी चाहिए। लिहाज़ा आप अगर रसूले करीम से मुहब्बत तो करते हो मगर फूल, फल, पत्ती और शाख़ से मुहब्बत नहीं करते हैं, तो तुम्हें यह लाज़मी है कि उस दरख़्त से बे पनाह मुहब्बत के साथ अहले बैत से भी वैसी ही मुहब्बत होनी चाहिए, जैसी रसूले करीम से करते हो, तो आपका दरूद पाक पढ़ना कामियाब है, वरना नहीं। अहले बैत को मानना और मुहब्बत करना वसीले (निस्बत) के ज़रिये पंजतन पाक और अल्लाह तक पहुंचता है। इसके अलावा कोई दूसरा चारा ही नहीं है, जो अहले बैत की मुहब्बत और "अलीयुन वलीउल्लाह" की गवाही का गवाह बन सके।

इंद्रेश कुमार
लेखनी विचारों को स्थायित्व प्रदान करती है. इस मार्ग से ज्ञान जन साधारण के मन में घर कर लेता है. अच्छा और बुरा दोनों समान रूप से समाज व मनुष्य के सामने आता रहता है और उसके जीवन में घटता भी रहता है. दोनों में से ही सीखने को मिलता है, आगे बढ़ने का अवसर मिलता है. परंतु निर्भर करता है सीखने वाले के दृष्टिकोण पर ‘आधा गिलास ख़ाली कि आधा गिलास भरा’, ‘बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोई’. अच्छे में से तो अच्छा सीखने को मिलता ही है, परंतु बुरे में से भी अच्छा सीखना बहुत कठिन है. प्रस्तुत पुस्तक ‘गंगा जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ जब समाज में जाति, पंथ, दल, भाषा के नाम पर द्वेष फैल रहा हो, सभ्यताओं के नाम पर टकराव बढ रहा हो, संसाधनों पर क़ब्ज़े की ख़ूनी स्पर्धा हो, ऐसे समय पर प्रकाश स्तंभ के रूप में समाधान का मार्ग दिखाने का अच्छा प्रयास है.

इस्लाम में पांच दीनी फ़र्ज़ बताए गए हैं-(1) तौहीद, (2) नमाज़, (3) रोज़ा, (4) ज़कात और (5) हज. परंतु इसी के साथ-साथ एक और भी अत्यंत सुंदर नसीहत दी गई है ‘हुब्बुल वतनी निफसुल ईमान’ अर्थात् वतन (राष्ट्र) से प्यार करना, उसकी रक्षा करना एवं उसके विकास और भाईचारे के लिए काम करना, यह उसका फर्ज़ है. इस संदेश के अनुसार मुसलमान को दोनों यानि मज़हबी एवं वतनी फ़र्ज़ में खरा उतरना चाहिए. हज के लिए मक्का शरीफ़ जाएंगे, परंतु ज़िंदाबाद सऊदी अरब, ईरान, सूडान की नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की बोलेंगे. सर झुकेगा हिंदुस्तान पर, कटेगा भी हिंदुस्तान के लिए.

इसी प्रकार से इस्लाम में अन्य अनेक महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं जैसे ‘लकुम दीनुकुम बलियदीन’ अर्थात् तेरा दीन तेरा, मेरा दीन मेरा, एक-दूसरे के दीन में दख़ल नहीं देंगे, एक-दूसरे के दीन की इज़्ज़त करेंगे. सर्वपंथ समभाव यानी समन्वय यानी आपसी बंधुत्व का बहुत ही ख़ूबसूरत मार्ग है. इसीलिए ऊपरवाले को ‘रब-उल-आलमीन’ कहा गया है न कि ‘रब-उल-मुसलमीन’. उसका सांझा नाम ‘ऊपरवाला’ है. संपूर्ण विश्व के सभी पंथों के लोग हाथ व नज़र ऊपर उठाकर प्रार्थना (दुआ) करते हैं. ‘ऊपरवाले’ को अपनी-अपनी मातृभाषा में पुकारना यानी याद करना. वह तो अंतर्यामी है. वह तो सभी भाषाएं एवं बोलियां जानता है. वह तो गूंगे की, पत्थर की, कीट-पतंग की भी सुनता है, जो कि आदमी (मनुष्य) नहीं जानता है. अंग्रेज़ी-लेटिन में उसे God, अरबी में अल्लाह, तुर्की में तारक, फ़ारसी में ख़ुदा, उर्दू में रब, गुरुमुखी में वाहे गुरु, हिंदी-संस्कृत-असमिया-मणिपुरी-कश्मीरी-तमिल-गुजराती-बंगला-मराठी-नेपाली-भोजपुरी-अवधी आदि में भी पुकारते हैं भगवान, ईश्वर, परमात्मा, प्रभु आदि. ऊपरवाला एक है, नाम अनेक हैं. गंतव्य व मंतव्य एक है, मार्ग व पंथ अनेक हैं. भारतीय संस्कृति का यही पावन संदेश है. अरबी भाषा में ‘अल्लाह-हु-अकबर’ को अंग्रेज़ी में God is Great, हिन्दी में ‘भगवान (ईश्वर) महान है’ कहेंगे. इसी प्रकार से संस्कृत के ‘वंदे मातरम्’ को अंग्रेज़ी में Salute to Motherland और उर्दू में मादरे-वतन ज़िंदाबाद कहेंगे. इसी प्रकार से अरबी में ‘ला इलाह इल्लल्लाह’ को संस्कृत में ‘खल्विंदम इदम सर्व ब्रह्म’ एवं हिंदी में कहेंगे प्रभु सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है और वह एक ही है, उर्दू में कहेंगे कि ख़ुदा ही सब कुछ है, ख़ुदा से ही सब कुछ है.

हज़रत मुहम्मद साहब ने बुलंद आवाज़ में कहा है कि मेरे से पूर्व ख़ुदा ने एक लाख 24 हज़ार पैग़म्बर भेजे हैं. वे अलग-अलग समय पर, अलग-अलग प्रकार के हालात में, अलग-अलग धरती (देश) पर आए हैं. उनकी उम्मतें भी हैं, किताबें भी हैं. अनेक उम्मतें आज भी हैं. इस हदीस की रौशनी में एक प्रश्न खड़ा होता है कि वे कौन हैं? कु़रान शरीफ़ में 25 पैग़म्बरों का वर्णन मिलता है, जिसमें से दो पैग़म्बर ‘आदम और नूह’ भारत आए हैं, जिन्हें पहला एवं जल महाप्रलय वाला मनु कहा व माना जाता है. मुसलमान उम्मत तो पैग़म्बर साहब की हैं, परंतु प्रत्येक पैग़म्बर का सम्मान करना सच्चे मुसलमान का फ़र्ज़ बनता है. इसलिए गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥

अर्थात् जब-जब मानवता (धर्म) नष्ट होती है, दुष्टों के अत्याचार बढते हैं, तब मैं समय-समय पर धर्म (सज्जनता) की स्थापना हेतु आता हूं.

एक बात स्वयं रसूल साहब कहते हैं कि मुझे पूर्व से यानी हिमालय से यानी हिंदुस्तान से ठंडी हवाएं आती हैं, यानी सुकून (शांति) मिलता है. भारत में भारतीय संस्कृति व इस्लाम के जीवन मूल्यों को अपनी ज़िंदगी में उतारकर कट्टरता एवं विदेशी बादशाहों से जूझने वाले संतों व फ़क़ीरों की एक लंबी श्रृंखला है, जो मानवता एवं राष्ट्रीयता का पावन संदेश देते रहे हैं. बहुत दिनों से इच्छा थी कि ऐसे श्रेष्ठ भारतीय मुस्लिम विद्वानों की वाणी एवं जीवन समाज के सामने आए, ताकि आतंक, मज़हबी कट्टरता, नफ़रत, अपराध, अनपढ़ता आदि बुराइयों एवं कमियों से मुस्लिम समाज बाहर निकलकर सच्ची राष्ट्रीयता के मार्ग पर तेज़ गति व दृढ़ता से आगे बढ़ सके. कहते हैं ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’. इन संतों व फ़क़ीरों ने तो राम व कृष्ण को केंद्र मान सच्ची इंसानियत की राह दिखाई है. किसी शायर ने कहा है-
मुश्किलें हैं, मुश्किलों से घबराना क्या
दीवारों में ही तो दरवाज़े निकाले जाते हैं

शेख़ नज़ीर ने तो दरगाह और मंदिर के बीच खड़े होकर कहा-
जब आंखों में हो ख़ुदाई, तो पत्थर भी ख़ुदा नज़र आया
जब आंखें ही पथराईं, तो ख़ुदा भी पत्थर नज़र आया

इस नेक, ख़ुशबू एवं ख़ूबसूरती भरे काम को पूर्ण करने के लिए मेरे सामने थी मेरी छोटी बहन एवं बेटी सरीखी फ़िरदौस ख़ान. जब मैंने अपनी इच्छा व्यक्त की, तो उसने कहा कि भैया यह तो ऊपरवाले ने आपके द्वारा नेक बनो और नेक करो का हुकुम दिया है, मैं इस कार्य को अवश्य संपन्न करूंगी. ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ पुस्तक में ऐसे ही 55 संतों व फ़क़ीरों की वाणी एवं जीवन प्रकाशित किया गया है. लेखिका चिन्तक है, सुधारवादी है, परिश्रमी है, निर्भय होकर सच्चाई के नेक मार्ग पर चलने की हिम्मत रखती है. विभिन्न समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में नानाविध विषयों पर उसके लेख छपते रहते हैं. ज़िंदगी में यह पुस्तक लेखिका को एवं समाज को ठीक मिशन के साथ मंज़िल की ओर बढ़ने का अवसर प्रदान करेगी. सफ़लताओं की शुभकामनाओं के साथ मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा उस पर उसकी कृपा सदैव बरसती रहे.

भारत के ऋषि, मुनियों अर्थात् वैज्ञानिकों एवं विद्वानों ने वैश्विक स्तर पर बंधुत्व बना रहे इसके लिए हंजारों, लाखों वर्ष पूर्व एक सिध्दांत यानि सूत्र दिया गया था ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यानि World is one family यानी ‘विश्व एक परिवार है’. परिवार का भाव एवं व्यवहार ही अधिकतम समस्याओं के समाधान का उपाय है. भारत वर्ष में समय-समय पर अनेक पंथ (मत) जन्मते रहे और आज भी जन्म रहे हैं. इन सब पंथों के मानने वालों का एक-दूसरे पंथ में आवागमन कभी भी टकराव एवं देश के प्रति, पूर्वजों के प्रति अश्रध्दा का विषय नहीं बना. जब इस्लाम जो कि भारत के बाहर से आया और धीरे-धीरे भारी संख्या में भारतीय समाज अलग-अलग कारणों से इस्लाम में आ गया, तो कुछ बादशाहों एवं कट्टरपंथियों द्वारा इस आड़ में अरबी साम्राज्य के विस्तार को भारत में स्थापित करने के प्रयत्न भी किए जाने लगे, जबकि सत्य यह है कि 99 प्रतिशत मुस्लिमों के पूर्वज हिंदू ही हैं. उन्होंने मज़हब बदला है न कि देश एवं पूर्वज और न ही उनसे विरासत में मिली संस्कृति (तहज़ीब) बदली है. इसलिए भारत के प्राय: सभी मुस्लिम एवं हिंदुओं के पुरखे सांझे हैं यानी समान पूर्वजों की संतति है. इसी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को भारत में एक और नया नाम मिला ‘गंगा जमुनी तहज़ीब’. गंगा और यमुना दोनों नदियां भारतीय एवं भारतीयता का प्रतीक हैं, इनका मिलन पवित्र संगम कहलाता है, जहां नफ़रत, द्वेष, कट्टरता, हिंसा, विदेशियत नष्ट हो जाती है. मन एवं बुध्दि को शांति, बंधुत्व, शील, ममता, पवित्रता से ओत-प्रोत करती है. आज हिंदुस्तान के अधिकांश लोग इसी जीवन को जी ना चाहते हैं. ख़ुशहाल एवं शक्तिशाली हिंदुस्तान बनाना व देखना चाहते हैं.

मुझे विश्वास है कि प्रकाश स्तंभ जैसी यह पुस्तक ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ सभी देशवासियों को इस सच्ची राह पर चलने की हिम्मत प्रदान करेगी.
-इंद्रेश कुमार

(लेखक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक हैं. साथ ही हिमालय परिवार, राष्ट्रवादी मुस्लिम आंदोलन, भारत तिब्बत सहयोग मंच, समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा मंच आदि के मार्गदर्शक एवं संयोजक हैं)


किताब का नाम : गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत
लेखिका : फ़िरदौस ख़ान
पेज : 172
क़ीमत : 200 रुपये

प्रकाशक
ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह)
205 -सी, चावड़ी बाज़ार
दिल्ली-110006

प्रभात प्रकाशन
 4/19, आसफ़ अली रोड
दरियागंज
नई दिल्ली-110002
फ़ोन : 011 2328 9555


डॉ. फ़िरदौस ख़ान 

क़ुरआन में कुल 15 सजदे हैं. क़ुरआन करीम की तिलावत करते हुए जैसे ही सजदे की आयत आए, तो फ़ौरन सजदा कर लेना चाहिए. सजदे का अफ़ज़ल तरीक़ा यही है. अगर तिलावत करते हुए सजदा न किया हो, तो पारा या क़ुरआन करीम मुकम्मल होने पर भी सजदा किया जा सकता है.     
पहला सजदा- पारा 9 में 7वीं सूरह अल आराफ़ की आयत 206 में है.
दूसरा सजदा- पारा 13 में 13वीं सूरह अर रअद की आयत 15 में है .
तीसरा सजदा- पारा 14 में 16 वीं सूरह नहल की आयत 50 में है. 
चौथा सजदा- पारा 15 में 17वीं सूरह बनी इस्राईल की आयत 109 में है.
पांचवां सजदा- पारा 16 में 19वीं सूरह मरियम की आयत 58 में है.
छठा सजदा- पारा 17 में 22वीं सूरह अल हज की आयत 18 में है.
सातवां सजदा- पारा 17 में 22वीं सूरह अल हज की आयत 77 में है.
आठवां सजदा- पारा 19 में 25वीं सूरह अल फ़ुरक़ान की आयत 60 में है.
नौवां सजदा- पारा 19 में 27वीं सूरह अन नम्ल की आयत 26 में है. 
दसवां सजदा- पारा 21 में 32वीं सूरह अस सजदा की आयत 15 में है.
ग्यारहवां सजदा- पारा 23 में 38वीं सूरह सुआद की आयत 24 में है.
बारहवां सजदा- पारा 24 में 41वीं सूरह हा मीम की आयत 38 में है.
तेरहवां सजदा- पारा 24 में 53वीं सूरह अन नज्म की आयत 62 में है. 
चौदहवां सजदा- पारा 30 में 84वीं सूरह अल इंशिक़ाक़ की आयत 21 में है.
पन्द्रहवां सजदा- पारा 30 में 96वीं सूरह अल अलक़ की आयत 19 में है. 

सजदा कैसे करें 
सजदे के लिए सीधे खड़े हो जाएं. फिर अल्लाहु अकबर कहते हुए सजदे में चले जाएं और तीन बार सुब्हाना रब्बी यल आला पढ़ें और  फिर अल्लाहु अकबर कहते हुए सीधे खड़े हो जाएं. 


डॉ. फ़िरदौस ख़ान

तीज-त्यौहार हमारी तहज़ीब और रिवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. ये ख़ुशियों के ख़ज़ाने हैं. ये हमें ख़ुशी के मौक़े फ़राहम करते हैं. हमें ख़ुश होने के बहाने देते हैं. ये हमारी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा हैं. इन तीज-त्यौहारों से किसी भी देश और समाज की संस्कृति व सभ्यता का पता चलता है. मगर बदलते वक़्त के साथ-साथ तीज-त्यौहार भी पीछे छूट रहे हैं या यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि ख़त्म होते जा रहे हैं. लेकिन आज भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो अपनी रिवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. अगर मुस्लिम त्यौहारों की बात करें, तो सिर्फ़ दो ही त्यौहारों के नाम लिए जाते हैं. एक है ईद उल फ़ित्र, जो माहे रमज़ान के ख़त्म होने के बाद शव्वाल की पहली तारीख़ को मनाई आती है. इसे मीठी ईद भी कहा जाता है. और दूसरा त्यौहार है ईद उल अज़हा, जिसे बक़रीद के नाम से भी जाना जाता है. ये ईद हज की ख़ुशी में मनाई जाती है और तीन दिन तक लोग क़ुर्बानी करते हैं. अहले-हदीस चार दिन क़ुर्बानी करते हैं. इन त्यौहारों के अलावा भी कई त्यौहार हैं, जिन्हें कुछ लोग पूरी अक़ीदत के साथ मनाते हैं. ऐसा ही एक त्यौहार है आख़िरी चहशंबा या आख़िरी चहार शंबा.

आख़िरी चहशंबा क्या है 
हिजरी कैलेंडर के दूसरे महीने के आख़िरी बुध को आख़िरी चहशंबा मनाया जाता है. माना जाता है कि सफ़र के महीने में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तबीयत नासाज़ हो गई थी. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को बुख़ार हो गया था और सिर में भी दर्द था. इस माह के आख़िरी बुध को आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सेहतयाब हुए और ग़ुस्ल किया. फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने परवरदिगार की इबादत की, खाना खाया और सैर के लिए चले गए. इस दिन ख़ास नफ़िल नमाज़ें भी पढ़ी जाती हैं. माहे सफ़र के आख़िरी बुध को ‘सैर बुध’ के नाम से भी जाना जाता है.

इस रोज़ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चाहने वाले लोगों ने अपने काम बंद रखे. उन्होंने भी ग़ुस्ल किया और अच्छे-अच्छे कपड़े पहने. उनके घरों में लज़ीज़ खाने पकाये गए. मीठे पकवान भी पकाये गए. उन्होंने शीरनी तक़सीम की. वे लोग भी अपने घरवालों के साथ तफ़रीह के लिए गए. कहने का मतलब यह है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सेहतयाब होने की ख़ुशी में आपके चाहने वालों ने ख़ुशियां मनाई थीं और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. 

क़ाबिले ग़ौर बात ये भी है कि इस त्यौहार की शुरुआत अरब की सरज़मीन में हुई थी, लेकिन अब वहां इस त्यौहार को मनाने के बारे में कोई जानकारी मुहैया नहीं है. लेकिन हिन्दुस्तान के बहुत से इलाक़ों में ये त्यौहार हर्षोल्लास से मनाया जाता है. ये इस देश की मिट्टी का असर है, यहां की आबोहवा का असर है कि यहां वह त्यौहार भी मनाए जाते हैं, जो अरब से लुप्त हो चुके हैं, ख़त्म हो चुके हैं. 

दरअसल भारत तीज-त्यौहारों का देश है. यहां अमूमन हर महीने कोई न कोई त्यौहार आता रहता है. बहुत से त्यौहारों का ताल्लुक़ मज़हब से है, तो बहुत से त्यौहारों का नाता लोक जीवन से है. आख़िरी चहशंबा का ताल्लुक़ भले ही मज़हब से न हो, लेकिन इसका नाता अक़ीदत से ज़रूर है. ये मुहब्बत का त्यौहार है. ये प्यारे आक़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत से वाबस्ता त्यौहार है. और महबूब से वाबस्ता हर चीज़ से मुहब्बत हुआ करती है. 

हिन्दुस्तान के अलावा ये त्यौहार पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी मनाया जाता है, क्योंकि ये दोनों देश भी कभी हिन्दुस्तान का ही हिस्सा हुआ करते थे. बांग्लादेश में इस दिन एक वैकल्पिक मुस्लिम अवकाश है. मुसलमान इस दिन छुट्टी लेते हैं और इस त्यौहार को ख़ुशी-ख़ुशी मनाते हैं. 


कुछ जगहों पर इस दिन शीशे की सफ़ेद प्लेटों पर ज़ाफ़रान से क़ुरआन करीम की आयतें लिखने की रिवायत है. इसे सात सलाम के नाम से जाना जाता है. फिर इस प्लेट में पानी डालते हैं. जब प्लेट पर लिखी सब आयतें पानी में घुल जाती हैं, तो इस पानी को तावीज़ की सूरत में पी लिया जाता है. बुज़ुर्ग बताते हैं कि मुग़ल बादशाहों के दौर में ये त्यौहार ख़ूब हर्षोल्लास से मनाया जाता था. 

इसके बरअक्स बहुत से लोग मानते हैं कि सफ़र के आख़िरी चहार शंबा को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मर्ज़ का आग़ाज़ हुआ था और इस दिन आसमान से बहुत सी बलायें ज़मीन पर उतरती हैं.  
  
मशहूर मौरिख़ इब्ने साद फ़रमाते हैं कि चहार शंबा 28 सफ़र को रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मर्ज़ का आग़ाज़ हुआ था. 
(तबक़ात इब्ने साद 206) 

मुहम्मद इदरीस कंधालवी तहरीर फ़रमाते हैं कि माहे सफ़र के आख़िरी अशरा में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक बार रात में उठे और फ़रमाया कि मुझे हुक्म हुआ है कि अहले बक़ी यानी मदीना मुनव्वरा के क़ब्रिस्तान के लिए अस्तग़फ़ार करूं. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम वहां से वापस तशरीफ़ लाए तो मिज़ाज नासाज़ हो गए. सिर में दर्द और बुख़ार की शिद्दत पैदा हो गई. ये उम्म-उल-मोमिनीन हज़रत मैमूना रज़ियल्लाहु अन्हु की बारी का दिन था और बुध का रोज़ था. 
(सीरत अल मुस्तफ़ा 3/157 )

मुहम्मद शफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि 28 सफ़र हिजरी चहार शंबा की रात में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़ब्रिस्तान बक़ी में तशरीफ़ ले गए और अहले क़बूर के लिए मग़फ़िरत की दुआ की. वहां से तशरीफ़ लाए, तो सिर में दर्द, फिर बुख़ार हो गया. ये बुख़ार सहीह रिवायत के मुताबिक़ 13 रोज़ तक मुसलसल रहा और इसी हालत में वफ़ात हो गई.
(सीरत-ए- ख़ातिमुल अम्बिया 141)      

बरेली मकतबा फ़िक्र के अहमद रज़ा ख़ान का फ़तवा है कि आख़िरी चहार शंबा की कोई असल नहीं है और न ही सेहतयाबी रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का कोई सबूत है, बल्कि मर्ज़ अक़दस जिसमें वफ़ात हुई, उसकी इब्तिदा इसी दिन से बताई जाती है.   
(अहकाम-ए-शरीअत 3/183)   

बरेली मकतबा फ़िक्र के आलमे-दीन मौलाना अमजद फ़रमाते हैं कि माहे सफ़र के आख़िरी चहार शंबा हिन्दुस्तान में बहुत मनाया जाता है. लोग अपने कारोबार बंद कर देते हैं और सैर व तफ़रीह को जाते हैं. पूरियां पकती हैं और नहाते- धोते हैं, ख़ुशियां मनाते हैं और कहते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस रोज़ ग़ुस्ले सेहत फ़रमाया था और बैरूने मदीने सैर के लिए तशरीफ़ ले गए थे. ये सब बातें बेअसल हैं, बल्कि उन दिनों में रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मर्ज़ शिद्दत के साथ था. लोग जो बातें बताते हैं, वे सब ख़िलाफ़े-वाक़ा हैं.    

बहरहाल, मुसलमानों के मुख़्तलिफ़ फ़िरक़ों की मुख़्तलिफ़ बातें हैं और सब अपनी-अपनी अक़ीदत के हिसाब से ज़िन्दगी बसर करते हैं. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यहां बसने वाले बहुत से मुसलमानों के रीति-रिवाजों में हिन्दुस्तानी तहजीब की झलक मिलती है. उनके त्यौहारों पर भी इसका साफ़ असर देखा जा सकता है. शायद इसी को गंगा-जमुनी तहज़ीब कहा जाता है. 
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
साभार आवाज़ 
तस्वीर गूगल 


सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने दोनों नवासों हसन अलैहिस्सलाम और हुसैन अलैहिस्सलाम के बारे में यह प्रसिद्ध वाक्य फ़रमायाः
_اَلْحَسَنُ وَ الْحُسَیْنُ سَیِّدا شَبابِ أَهْلِ الْجَنَّةِ _
हसन और हुसैन स्वर्ग के जवानों के सरदार हैं। (1)

एक दूसरी हदीस में आया है किः कुछ लोग पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ एक मेहमानी में गये, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस सारे लोगों से आगे आगे चल रहे थे। आपने रास्ते में हुसैन अलैहिस्सलाम को देखा। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने चाहा कि आपकी गोद में उठा लें, लेकिन हुसैन अलैहिस्सलाम एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ भाग जाते थे, पैग़म्बर यह देखकर मुस्कुराए, और आपको गोद में उठा लिया, एक हाथ को आपके सर के पीछे और दूसरे हाथ को ठुड्डी के नीचे लगाया और अपने पवित्र होठों को हुसैन के होठों पर रखा और चूमा फिर फ़रमायाः
«حُسَینٌ مِنّی وَ أَنَا مِنْ حُسَین أَحَبَّ اللهُ مَنْ أَحَبَّ حُسَیناً»؛
हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से हूँ जो भी हुसैन को दोस्त रखता है, ईश्वर उसको दोस्त रखता है। (2)

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पत्नी और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम
शिया और सुन्नी रिवायतों में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम की पत्नी श्रीमती उम्मे सलमा कहती हैं:
एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम आराम कर रहे थे कि मैंने देखा इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने प्रवेश किया, और पैग़म्बर के सीने पर बैठ गये, पैगम़्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः शाबाश मेरी आखों के नूर, शाबाश मेरे दिल के टुकड़े, जब हुसैन अलैहिस्सलाम को पैग़म्बर के सीने पर बैठे बहुत देर हो गई तो मैंने स्वंय से कहा कि शायद पैगम़्बर को परेशानी हो रही हो, और मैं आगे बढ़ी ताकि हुसैन को आपके सीने से उतार दूँ।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः उम्मे सलमा जब तक मेरा हुसैन स्वंय जब तक चाहता है उसे मेरे सीने पर बैठने दो और जान लो कि जो भी एक बाल के बराबर भी मेरे हुसैन को दुख दे वह ऐसा ही है जैसे उसने मुझे दुख दिया हो।
उम्मे सलमा कहती है: मैं घर से बाहर चली गई, और जब वापस आई और पैग़म्बर के कमरे में पहुँची मैंने देखा कि पैग़म्बर रो रहे हैं, मुझे बहुत आश्चर्य हुआ! और मैंने कहा हे अल्लाह के रसूल ईश्वर कभी आपको न रुलाए, आप क्यों दुखी हैं? मैंने देखा कि पैग़म्बर के हाथ में कोई चीज़ है, और उसको देख रहें हैं और रो रहे हैं। मैं आगे गईं तो देखा एक मुट्ठी ख़ाक़ आपके हाथ में है।
मैंने प्रश्न किया हे अल्लाह के रसूल यह कौन सी ख़ाक है जिसने आपको इतना दुखी कर दिया। पैग़म्बर ने फ़रमायाः
हे उम्मे सलमा, अभी जिब्रईल मुझ पर उतरे और कहा कि यह कर्बला की मिट्टी है, और यह मिट्टी वहां की है जहां आपका बेटा हुसैन दफ़्न होगा।
हे उम्मे सलमा, इस मिट्टी को लो और एक शीशी में रख दो, जब भी देखों कि इस ख़ाक का रंग ख़ून हो गया है, तब समझ जाना कि मेरा बेटा हुसैन शहीद कर दिया गया है।
उम्मे सलमा कहती हैं: मैंने उस ख़ाक को पैग़म्बर से ले लिया जिसमें से एक अजीब तरह की सुगंध आ रही थी, जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कर्बला की तरफ़ यात्रा आरम्भ की तो मैं बहुत परेशान थी, और हर दिन उस ख़ाक को देखती थी, यहां तक कि एक दिन मैंने देखा कि पूरी ख़ाक ख़ून में बदल गई है, और मैं समझ गई इमाम हुसैन शहीद कर दिये गये हैं। इसलिये मैंने रोना शुरू कर दिया और उस दिन रात तक हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोती रही, उस दिन मैंने खाना नहीं खाया, यहां तक की रात हो गई और मैं दुख के साथ सो गई।
मैंने स्वप्न में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देख कि वह आये हैं लेकिन आपका सर और चेहरा मिट्टी से अटा है! मैंने आपके चेहरे से मिट्टी और ख़ाक को साफ करना आरम्भ कर दिया और कहने लगी, हे अल्लाह के रसूल मैं आप पर क़ुरबान, यह मिट्टी और ख़ाक कहा की ह जो आप पर लगी है?
पैग़म्बर ने फ़रमायाः हे उम्मे सलमा अभी अभी में ने अपने हुसैन को दफ़्न किया है
 (3)

हज़रते फ़ातेमा ज़हरा सलाम उल्लाह अलैहा और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से रिवायत है कि क़यामत के दिन हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम प्रकाश के एक गुंबद में बैठी होंगी। उसी समय, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम महशर में आएंगे, इस हालत में कि उनका कटा सर उनके हाथ में होगा, फ़ातेमा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस दृश्य को देखकर चीख़ कर रोती हैं और गिर जाती है, और सारे नबी और दूसरे लोग इस दृश्य को देख कर रोने लगते हैं फिर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के हत्यारों आएंगे और उन पर मुक़द्दमा चलेगा और फिर उनको भयानक अज़ाब दिया जाएगा.... (4)

हज़रत अली अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम
एक दिन हज़रत अली अलैहिस्सलाम कर्बला की तरफ़ से गुज़रे और फ़रमायाः
قال على (عليه السلام): هذا... مصارع عشاق شهداء لا يسبقهم من كان قبلهم و لا يلحقهم من كان بعدهم.
यह आशिक़ों की क़त्लगाह और शहीदों के शहीद होने का स्थान पर वह शहीद जिनके बराबर ना पिछले शहीद हो सकते हैं और ना आने वाले शहीद हो सकेंगे। (5)

इमाम हुसैन और रोना
امام حسين عليه السلام: أنَا قَتيلُ العَبَرَةِ لايَذكُرُني مُؤمِنٌ إلاّ استَعبَرَ؛
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः मैं आँसुओं का मारा हूँ, जो भी मोमिन मुझे याद करे, उसके आँसू जारी हो जाएंगे। (6)

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर गिरया
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम जिन्होंने स्वंय कर्बला के मैदान में हुसैन और उनके वफ़ादार साधियों पर होने वाले भयानक अत्याचारों और मसाएब को देखा था, आशूरा की घटना के बाद आप जब तक जीवित रहे आपने कभी भी इस दिल दहला देने वाली घटना को नहीं भुलाया, और सदैव इन शहीदों पर रोते रहते थे और जब भी आप पानी पीने चलते तो पानी को देखते ही आपकी आँखों से आँसू जारी हो जाते, जब लोगों ने आपसे इसका कारण पूछा तो आप फ़रमाते थे मैं कैसे न रोऊँ जब कि यज़ीदियों ने पानी के जानवरों और दरिंदों पर तो खोल रखा था लेकिन मेरे पिता पर बंद कर दिया और उनको प्यासा शहीद कर दिया। इमाम कहते हैं जब भी में फ़ातेमा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बेटे की शहादत को याद करता हूँ मुझे रोना आ जाता है। जब लोग आपको सात्वना देते थे तो आप फ़रमाते थे-
«كيف لا أبكي؟ و قد منع أبى من الماء الذى كان مطلقا للسباع والوحوش».
मैं केसे न रोऊँ जब कि मेरे पिता पर पानी बंद किया गया जब कि जानवर और दरिंदे वही पानी पी रहे थे।(7)
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अपने पिता पर इतना रोए कि उनको इतिहास के पाँच रोने वालों में रखा गया और जब भी आप से इतना अधिक रोने के बारे में पूछ जाता तो आप कर्बला के मसाएब को याद करते और फ़रमातेः मुझे ग़ल्त न कहो, याक़ूब ने अपना एक बेटा खोया था इतना रोए थे कि ग़म से उनकी आखें सफेद हो गईं थी, जब कि उनको विश्वास था कि उनका बेटे जीवित है जब कि मैंने अपनी आँखों से देखा कि आधे दिन में मेरे परिवार के चौदह लोगों का गला काट दिया गया, फिर भी तुम कहते हो कि मैं उनके ग़म को दिल से निकाल दूँ?! (8)

आप न केवल यह कि स्वयं इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ग़म में आँसू बहाया करते थे बल्कि मोमिनों को भी आप पर रोने और अज़ादारी करने के लिये कहा करते थे-
«ايما مؤمن دمعت عيناه لقتل الحسين حتى تسيل على خده بواه الله بها فى الجنة غرفا يسكنها احقابا».
हर मोमिन जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत पर इतना रोए कि आँसू उसके गाल पर बहने लगें तो ईश्वस उसके लिये स्वर्ग में कमरे बनाता है जिसमें वह सदैव रहेगा।(9)

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं:
أنَا ابنُ مَنَ بَكَت عَلَيهِ مَلائِكَةُ السَّماءِ أنَا ابنُ مَن ناحَتْ عَلَيهِ الجِنُّ فِي الأرضِ و الطِّيرُ فِي الهَواءِ؛
मैं उसका बेटा हूँ जिस पर आसमान के फ़रिश्तों ने आँसू बहाए। मैं उसका बेटा हूँ जिस पर जिन्नातों ने ज़मीन पर और पक्षियों ने हवा में आँसू बहाए। (10)

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम
इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर आँसू बहाते थे और जो भी घर में होता था उसको भी रोने का आदेश दिया करते थे। (11)

और आपके घर में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मजलिस और अज़ादारी हुआ करती थी और उपस्थित होने वाले इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मुसीबतों पर एक दूसरे के सामने शोक प्रकट किया करते थे।

इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं:
كان ابى اذا دخل شهر المحرم لا يرى ضاحكا و كانت الكابة تغلب عليه حتى يمضى منه عشرة ايام، فاذا كان اليوم العاشر كان ذلك اليوم يوم مصيبته و حزنه و بكائه...
मेरे पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की रीत यह थी कि जब भी मोहर्रम आता था हमेशा दुखी रहते थे यहां तक कि आशूरा के दस दिन पूरे हो जाए, आशूरा का दिन उनके रोने और मातम का दिन था... और आप फ़रमाते थे-
 «هو اليوم الذى قتل فيه الحسين. (12)

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः
إن بَكَيتَ عَلَى الحُسَينِ حَتّى تَصيرَ دُموعُكَ عَلى خدَّيكَ غَفَرَاللّه ُ لَكَ كُلَّ ذَنبٍ أذنَبتَهُ
अगर तुम हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोओ, इस प्रकार कि तुम्हारे आँसू तुम्हारे गालों पर जारी हो जाएं, तो ईश्वर तुम्हारे सारे पापों को क्षमा कर देता है। (13)

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः मोहर्रम वह महीना है कि जिसमें जाहेलीयत के ज़माने में लोग युद्ध को वर्जित समझते थे, लेकिन शत्रुओं ने इस महीने में हमारा रक्त बहाया और हमारे सम्मान को ठेस पहुँचाई, और हमारी संतान को बंदी बनाया और हमारे ख़ैमों में आग लगाई, हमारी सम्पत्ति लूटी और हमारे हक़ में पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सम्मान का ख़याल नहीं किया। (14)

«ان يوم الحسين اقرح جفوننا و أسبل دموعنا و أذل عزيزنا بأرض كربلا.... على مثل الحسين (عليه السلام) فليبك الباكون، فان البكاء عليه يحط الذنوب العظام.»
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की हत्या ने हमारे आँसुओं को जारी कर दिया और हमारी आँखों की पलकों को घायल कर दिया और कर्बला में हमारे सम्मानित का अपमान किया.... रोने वालों को हुसैन पर रोना चाहिये, उन पर रोना बड़े पापों को समाप्त कर देता है। (15)

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने रय्यान बिन शबीब से फ़रमायाः
«ان كنت باكيا لشى‏ ء فابك للحسين بن على فانه ذبح كما يذبح الكبش و قتل معه من أهل بيته ثمانية عشر رجلا ما لهم فى الارض شبيهون...».
अगर किसी चीज़ पर रोना चाहो तो हुसैन अलैहिस्सलाम पर गिरया करो क्योंकि उनकी गर्दन को भेड़ की गर्दन की तरह काट दिया और उनके साथ उनके अहलेबैत (परिवार वाले) के अट्ठारह मर्द शहीद हुए जिनके जैसा दुनिया में कोई नहीं था।
फिर इबने शबीब से फ़रमायाः अगर चाहते हो कि स्वर्ग में हमारे साथ ऊँटे दर्जे पर रहो, तो दुखी रहो हमारे दुख में और प्रसन्न रहों हमारी ख़ुशी में। (16)

इमाम महदी अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम
इमाम महदी अलैहिस्सलाम पवित्र ज़ियारते नाहिया में फ़रमाते हैं:
 لأَندُبَنَّكَ صَباحا و مَساءً و لأَبكِيَنَّ عَلَيكَ بَدَلَ الدُّمُوعِ دَما؛
मैं हर सुबह शाम आप पर रोता हूँ और आपकी मुसीबत पर आँसू की जगह ख़ून रोता हूँ। (17)

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोने के बारे में आने वाली बहुत सी रिवायतों से पता चलता है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर इस संसार की सारी चीज़ें रोती हैं
ज़मीन रोती है आसमान रोता है
ग़मे हुसैन में सारा जहान रोता है।

स्रोत  
(1)    सुनने तिरमिज़ी, जिल्द 5, पेज 426
(2)    सुनने तिरमिज़ी, जिल्द 5, पेज 424, अलइरशाद शेख़ मुफ़ीद, जिल्द 2, पेज 127
(3)    तोहफ़तुज़्ज़ाएर, मरहूम मजलिसी, पेज 168
(4)    सवाबुल आमाल, जलाउल उयून के हवाले से जिल्द 1, पेज 227
(5)    अबसारुल ऐन फ़ी अनसारिल हुसैन, पेज 22, बिहरुल अनवार जिल्द 44, पेज 298
(6)    बिहारुल अनवार जिल्द 44, पेज 284
(7)    बिहारुल अनवार जिल्द 46, पेज 108
(8)    अमाली शेख़ सदूक़, मजलिस 29, पेज 121
(9)    तफ़्सीरे क़ुम्मी पेज 616
(10)    मनाक़िबे आले अबी तालिब, जिल्द 3 पेज 305
(11)    वसाएलुश्शिया जिल्द 10, पेज 398
(12)    बिहारुल अनवार जिल्द 44, पेज 293
(13)    बिहारुल अनवार जिल्द 44, पेज 286
(14)    बिहारुल अनवार जिल्द 44, पेज 283
(15)    अमाली शेख़ सदूक़, जिल्द 1, पेज 225
(16)    वसाएलुश्शिया जिल्द 14, पेज 502
(17)    बिहारुल अनवार जिल्द 101, पेज 238

साभार 


जमशेद क़मर सिद्दीक़ी 
मुसलमानों में एक नया 'बुद्धिजीवी' वर्ग पैदा हो गया है जिसे मुसलमानों की हर मकामी रवायत 'जहालत' लगती है। इनकी खुद की कुल तालीम बस इतनी है कि इन्होंने इर्तगुल गाज़ी के सारे सीज़न देखे हैं और मोहल्ले के लड़कों के साथ गश्त लगाई है। इन्हें लगता  है कि ताज़िये के साथ निकलती भीड़, अलम उठाते हुए नौजवान, अशरे पर होने वाले मातम, मज़ारों पर होने वाली कव्वाली, मोहल्लों में होने वाली करतबबाज़ी - ये सब जहालत है। बस ये एक बड़े तालीमयाफ़्ता हैं, बाकी सब जाहिल। 

असल बात ये है कि इन्हें मालूम ही नहीं कि ये मज़हब नहीं मआशरी अमल हैं। एक खित्ते का स्थानीयता का रंग है, लोकल हिस्ट्री का कनेक्शन है जो बाप दादा सदियों से करते आए हैं। उसका एक कॉनटेक्स्ट है। हिंदुस्तान सैकड़ों तहज़ीबों से मिलकर बना एक मुल्क है। यहां हर चार कोस पर मज़हब के साथ नई तरह की आंचलिकता जुड़ी है। आप एक ही रंग की तहज़ीब हर जगह नहीं पा सकते। अगर आप के लिहाज़ से सफेद कुर्ता पायजामे पर काली सदरी पहनकर मस्जिद तक जाना और लौट आने के अलावा सब कुछ 'जहालत' है तो जाहिल आप हैं। जिसे नहीं पता मज़हब और माशरत के बीच का फर्क। ये वो मुल्क है जहां समाज और मज़हब इतने गुंधे हुए हैं कि हर कल्चर एक दूसरे के थोड़े थोड़े रंग सजाए है। मुसलमानों की शादियों में दुल्हन हिंदू संस्कृति में शुभ माने जाने वाला लाल जोड़ा पहनती है और हिंदुओं की शादी में दूल्हा मुसलमानों के बीच मोहज़्ज़ब मानी जाने वाली शेरवानी। इसी देश में में उन ब्रह्मणों के वंशज मौजूद हैं जो कर्बला में इमाम हुसैन के साथ जंग लड़े और इसी देश में वो सूफी भी हैं जिन्होंने खुदा को अपना महबूब कह दिया और आज उनकी मज़ारों की लोग ज़ियारत करते हैं। 

लखनऊ में किन्नरों का समाज भी अपना ताज़िया निकालता है। सफेद कपड़ों में किन्नर कर्बला की जंग को याद करते हुए गाते-बजाते निकलते हैं बीसियों साल से। छोट छोटे मुहल्लों के चौराहों पर लोग कर्बला में इमाम हुसैन को मिले दर्द को याद करते हुए करतबबाज़ी करते हैं, इन स्टंट के ज़रिये वो अपनी जान जोखिम में डालते हैं उस डर को महसूस करते हैं जो यज़ीद की भारी-भरकम फौज का सामना करने  पहले एक बार लश्कर के दिल में आया होगा। ये उस ज़मीन की तहज़ीब हैं जिसने मज़हब को सिर्फ़ किताब से नहीं, हज़ारों सालों की तहज़ीब के रंग में जिया है।लेकिन अफ़सोस ये है कि आज तारिक मसूद को सुनकर नौजवान हुआ मुसलमान इसे फितना कहकर न सिर्फ खारिज करता है, उन्हें मिटाने पर भी आमादा है। इन्हें लगता है कि मज़हब महज़ एक क्लीन कट, मिनिमलिस्ट आइडिया है जिसमें लोकल कल्चर की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इनकी समझ में धर्म का रिश्ता ज़मीन से नहीं, सिर्फ़ स्क्रीन से है। इनके इस्लाम का मरकज़ किताबें नहीं, क्लिपिंग्सौ हैं। ये सोचते हैं कि अगर कोई मज़ार पर चादर चढ़ा रहा है, या कोई बच्चा अलम को माथा टेक रहा है, तो वह जाहिल है।

हक़ीक़त ये है कि ये रस्में, ये रवायतें, ये लोक-तहज़ीब — ये सब मिलकर ही तो हिंदुस्तानी इस्लाम को मुकम्मल बनाती हैं। सिर्फ़ अरबी पहनावा, या टीवी वाले तुर्की किरदार देखकर किसी तहज़ीब को “शुद्ध” नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इस मुल्क में इस्लाम सिर्फ़ मदीना से नहीं आया — वो यहां के खेतों, खलिहानों, बाज़ारों, फकीरों, दरवेशों, दस्तकारों और बाप-दादाओं की नसीहतों के ज़रिए फैला है।

जो लोग इन रवायतों को जहालत कहते हैं, उन्हें दरअसल अपने वजूद की जड़ों से डर लगता है। उन्हें हर वो चीज़ खटकती है जो इस्लाम को इस ज़मीन का बनाती है। ये दरअसल ‘सांस्कृतिक हीनभावना’ है — जो अपने भीतर की परंपराओं से भागती है, और बाहर की चमक को असली मान लेती है।

इसलिए याद रखिए मज़हब और माशरत का रिश्ता गहरा है। इसे अपनी पीढ़ियों और शिजरों की रौशनी में समझिये। ये हमारा लोकल कल्चर है जो हर दस मील पर बदलता है, इसका रंग, ज़ंबान अंदाज़ और तरीका सब बदलता है। ये अच्छी बुरी जैसी भी हैं हमारी जड़े हैं और जो इसे जहालत कहे वो खुद जाहिल है।
(लेखक आजतक रेडियो से जुड़े हैं)

 

لعن الله من قتل الإمام الحسين علیہ السلام وأصحابه في كربلاء، ولعن الله كل لاعن من بغض و العداوت لی الإمام الحسين علیہ السلام وأهل بيت النبي صلی اللہ علیہ وسلم .

***

 ترجمہ :- خدا ان پر لعنت کرے ان پر، جنہوں نے کربلا میں امام حسین علیہ السلام اور ان کے ساتھیوں کو قتل کیا، اور خدا کی لعنت ہو ان پر اور  تمام لعنت کرنے والوں کی لعنت، جو لوگ امام حسین علیہ السلام  اور آل اے پاک اے رسول صلی اللہ علیہ وسلم کے لیے دل میں بغض اور عداوت رکھتے ہیں اور ان کی مخالفت کرتے ہیں۔

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तर्जुमा : अल्लाह की लानत हो उन पर, जिन्होंने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों को कर्बला में क़त्ल किया था. और अल्लाह की लानत हो उन पर, और तमाम लानत करने वालों की लानत हो उन पर, जो लोग हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और तमाम आले पाक-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से बुग़्ज़ रखते हैं और उनकी मुख़ालिेफ़त करते हैं.

-अयूब अली ख़ान 


फ़िरदौस ख़ान
मुहर्रम का महीना शुरू हो चुका है. इस महीने के साथ ही हिजरी कैलेंडर के नये साल 1445 का भी आग़ाज़ हो गया है. मुहर्रम का महीना कर्बला का वाक़िया याद दिलाता है. मुहर्रम की दस तारीख़ को ताज़िये निकाले जाते हैं. हिन्दुस्तान में ताज़िये निकालने की बहुत पुरानी रिवायत है. यहां ताज़ियादारी किसने और कब शुरू की, इस बारे में पुख़्ता जानकारी नहीं मिलती. शिया समुदाय के बहुत से लोगों का मानना है कि हिन्दुस्तान में मुग़ल बादशाह बाबर ने ताज़ियादारी शुरू की थी.     
   
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रंजन ज़ैदी का कहना है कि हिन्दुस्तान में ताज़िये निकालने की शुरुआत मुग़ल बादशाह बाबर ने की थी. कहा जाता है कि बाबर की बीवी माहम बेगम बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. कर्बला के शहीदों के लिए उनके दिल में बहुत ही अक़ीदत थी. वे हर साल मुहर्रम के महीने में कर्बला जाया करती थीं. एक बार वे बहुत बीमार हो गईं. बीमारी की वजह से वे इतनी कमज़ोर हो गईं कि उनके लिए सफ़र करना मुनासिब नहीं था. मुहर्रम का महीना आने वाला था. अब सवाल यह था कि वे कर्बला कैसे जाएं. उस वक़्त आज की तरह यातायात के सुगम साधन नहीं थे. ऊंटों और घोड़ों पर लोग सफ़र करते थे. उस दौर में तांगे और बैल गाड़ियां होती थीं. कहने का मतलब यह है कि सफ़र में बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ता था. ऐसी हालत में किसी बीमार के लिए लम्बा सफ़र करना किसी भी सूरत में आसान नहीं था.

बादशाह बाबर ने माहम बेगम की हालत देखी, तो उन्होंने सोचा कि क्यों न कर्बला को यहीं लाया जाए. ऐसा करना नामुमकिन था. बादशाह ने अपने वज़ीरों से सलाह मशविरा किया. फिर कारीगरों को हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े जैसा ताज़िया बनाने का हुक्म दिया गया. बादशाह के हुक्म पर ताज़िया बनकर तैयार हो गया. फिर मुहर्रम में स्याह लिबास पहना गया, मजलिसें हुईं, नोहे पढ़े गए और तबर्रुक तक़सीम किया गया. मुहर्रम की दस तारीख़ को जुलूस के साथ ताज़िया निकाला गया और फिर उसे दफ़न कर दिया गया. इसके बाद हर साल ऐसा ही होने लगा. चूंकि यह रिवायत मुग़ल बादशाह बाबर ने शुरू की थी, इसलिए अवाम भी इसमें शिरकत करती थी. एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर बदस्तूर जारी रहा. 

जब शेर ख़ां यानी शेरशाह से जंग हारने के बाद हुमायूं हिन्दुस्तान से चले गए और कई बरसों तक ख़ानाबदोश जैसी ज़िन्दगी बसर की. फिर जब वे ईरान के बादशाह की मदद मिलने के बाद वापस हिन्दुस्तान आए, तो उनके साथ वहां से बहुत से शिया भी आए. हुमायूं के क़रीबी बैरम ख़ां भी शिया थे. हुमायूं के दौर में भी ताज़िया निकालने का सिलसिला जारी रहा है. बादशाह अकबर के ज़माने में भी मुहर्रम में ताज़िये निकाले जाते थे. फिर बादशाह जहांगीर का दौर आया. जहांगीर की बेगम मेहरुन्निसा यानी नूरजहां शिया थीं. उनके पिता मिर्ज़ा ग़ियास बेग और मां अस्मत बेगम हुमायूं के साथ ही हिन्दुस्तान आए थे. उनके वक़्त में भी कर्बला के शहीदों की याद में मजलिसें होती थीं और ताज़िये निकाले जाते थे. यह रिवायत आज भी जारी है. 

प्रख्यात विद्वान व इतिहासकार प्रोफ़ेसर जाफ़र रज़ा अपनी किताब ‘इस्लाम के धार्मिक आयाम हुसैनी क्रान्ति के परिपक्ष्य में’ लिखते हैं- “यह निश्चित है कि हज़रत अली के ख़िलाफ़त काल (656-661 ईस्वी) में विशेषकर सिन्धी जाठों में ‘शीआने-ग़ुलात’ ने भारत में पैग़म्बर के परिवारजनों के अनुरूप वातावरण बना रखा था. यहां तक कि कहा जाता है कि सिन्ध के दत्त, जो अरब में निवास करते थे, कर्बला के संग्राम में इमाम हुसैन का सहयोग करते हुए शहीद भी हुए. बाद में बनी उमैया के शासन काल में दत्त जाति के बचे-खुचे लोगों को अरब से ईरान में ढकेल दिया गया. यदि हज़रत अली के दास वंशज गौरी शासकों ने उमैया वंशज ख़लीफ़ाओं के अत्याचार से बचते हुए इस्लामी पैग़म्बर के परिवारजनों के प्रेम को अपने सीने में लगाए रखा था. इस तथ्य के ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं कि सिन्धी मुस्लिम उलेमा पैग़म्बर के परिवारजनों के इमामों विशेषकर इमाम मुहम्मद बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़ की सेवा में होने का गौरव रखते थे तो यह किस प्रकार संभव है कि वे इमाम हुसैन की अज़ादारी में सम्मिलित न हुए हों. इसी प्रकार सिन्ध तथा पंजाब के क्षेत्रों में शीआ सम्प्रदाय की नई बस्तियों का बसना, सिन्ध के प्रशासक का बनी फ़ातमा की हुकूमत क़ायम करने में अपनी जानों का क़ुर्बान करना, पंजाब और सिन्धवासियों की नई बस्तियों के प्रतिष्ठित लोगों का फ़ातिमी वंशज मिस्री शासकों से प्रत्यक्ष रूप में संबंध स्थापित करना, वह भी इस सीमा तक कि अपने सभी कार्यों में फ़ातिमीन ख़लीफ़ाओं की अनुमति प्राप्त करते थे. मिस्र के फ़ातिमीन ख़लीफ़ा अन्य शीओं के समान अज़ादारी के प्रति असाधारण अभिरुचि रखते थे. फिर इस्माईलियों के धर्म प्रचार संबंधी गतिविधियां जो मुहर्रम के दस दिनों में अपने सत्संगों में इमाम हुसैन और उनके संबंधियों के त्याग एवं बलिदान की घटनाएं निश्चित रूप से वर्णन करते होंगे. खेद है कि इन तथ्यों की ओर हमारे इतिहासकारों ने ध्यान नहीं दिया, जिनसे भारत में अज़ादारी के प्रारम्भिक चिह्न धुंधला गए. भारत-आर्य संयुक्त संस्कृति एवं सभ्यता के इन परम महत्वपूर्ण पृष्ठों पर समय की धूल की मोटी परत चढ़ गई. वरना जन प्रियता के कारण कुछेक प्रारम्भिक चिह्न बिखरे हुए मिलते हैं, जिनके आधार पर इमाम हुसैन की याद मनाने के विषय में जानकारी प्राप्त होती है.”

लोकगीतों में भी कर्बला के वाक़िये का ज़िक्र मिलता है. लोकगीत रचने वालों और लोक गायकों ने भी ऐतिहासिक घटनाओं को ज़िन्दा रखने में अपना अहम किरदार अदा किया है. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “भारत में इमाम हुसैन की याद मनाने के प्रारम्भिक चिह्न सरायकी भाषा के मरसियो के रूप में सुरक्षित हैं, जिनको सिन्धी और सरायकी क्षेत्रों में चारण जाति के लोग गाकर सुनने वालों से पुरस्कार प्राप्त करते हैं. भारत में इमाम हुसैन की अद्वितीय शहीदी बयान करने वालों में पहला नाम मिन्हाज सिराज जुज़जानी है, जो अपने बारे में लिखता है कि वह मई 1231 को ग्वालियर पहुंचा, जहां सुल्तान शम्सउद्दीन अल्तुतमिश (मृ. 1236 ईस्वी) घेरा डाले हुए था. यह घेरा बढ़ता ही गया. सुल्तान ने जुज़जानी को सैनिकों की धार्मिक दीक्षा के कार्य पर नियुक्त किया, जिसका दायित्व उसने सात माह तक निर्धारित किया. रमज़ान के पूरे महीने में, हफ़्ते में तीन बार, ज़िलहिज्जा माह के प्रारम्भिक दस दिनों तक और पहली मुहर्रम से दसवीं मुहर्रम तक. जुज़जानी इन धर्म प्रचार वक्तव्यों को ‘तज़कीर’ कहता है. स्पष्ट है कि रमज़ान में तज़कीर का विषय आत्म संयम और ऋषत्व रहा होगा. ज़िलहिज्जा में हज़रत इब्राहीम की क़ुर्बानी बयान की गई होगी, जिस पर मुसलमान त्यौहार मनाते हैं परन्तु पहली मुहर्रम से दस मुहर्रम तक उसके वक्तव्यों का विषय इमाम हुसैन की अद्वितीय शहादत के अलावा कोई और कुछ नहीं हो सकता. यह विषय सैनिकों में त्याग एवं बलिदान की भावना जाग्रत करने के लिए सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुआ होगा. “

हिन्दुस्तान में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद मनाने में सूफ़ियों का भी अहम किरदार रहा है. सूफ़ियों की ख़ानकाहों में आज भी कर्बला के शहीदों को याद किया जाता है. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “उत्तरी भारत में इमाम हुसैन की याद मनाने का क्रम प्रसिद्ध सूफ़ी संत ख़्वाजा सैयद मुहम्मद अशरफ़ जहांगीर शमनानी द्वारा अलम निकालने से प्रारम्भ होता है. उन्होंने मुहर्रम के मौक़े पर इमाम हुसैन का अलम निकाला और उसकी छाया में बैठे. उनका दस्तूर था कि सब्ज़वार (ईरान) के समान अलम तैयार कराते थे. एक थैली के साथ उस अलम को पास-पड़ौस के उत्कृष्ट सैयदों और धर्मभीरू जनों के पास भेजते थे. अधिकांश यह दायित्व अपने उत्तराधिकारी शाह सैयद अली क़लन्दर के माध्यम से सम्पन्न कराते थे. सूफ़ी संत शाह समनानी 1380 ईस्वी में भारत पधारे थे. इस प्रकार अलम निकालने का क्रम उसी के आसपास प्रारम्भ हुआ होगा. उनके वक्तव्यों में लिखित है कि मुहर्रम के दस दिनों में अच्छा वस्त्र धारण नहीं करते थे. किसी आनन्दमय आयोजन में भाग नहीं लेते थे. आठवीं तथा दसवीं मुहर्रम के बीच की तिथियों में विश्राम करना त्याग देते थे. तीस वर्षों तक चाहे यात्रा में हों या कहीं भी हों, इमाम हुसैन का ग़म मनाना कभी नहीं भूलते थे.”
                                         
सूफ़ियों के दिलों में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अहले बैत के लिए बेहद अक़ीदत रही है. वे इस बेपनाह मुहब्बत को ईमान की अलामत मानते हैं. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते हुए ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं-
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीने-पनाह हुसैन
सर दाद न दाद दस्त, दर दस्ते-यज़ीद
हक़्क़ा कि बिना-ए-लाइलाह अस्त हुसैन
यानी 
शाह भी हुसैन हैं और बादशाह भी हुसैन हैं
दीन भी हुसैन हैं और दीने पनाह भी हुसैन हैं 
सर दे दिया, पर यज़ीद के हाथ में अपना हाथ नहीं दिया 
हक़ीक़त यही है कि लाइलाहा की बुनियाद हुसैन हैं.     

बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां ने भी अज़ादारी को ख़ूब तरग़ीब दी. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “मलका नूरजहां (मौत 1665 ईस्वी) जो जहांगीर के पर्दे में शहनशाहे-ज़मन थीं, ने वहां इमाम हुसैन की अज़ादारी को प्रोत्साहित करने हेतु एक शाही फ़रमान जारी किया था, जिसमें अज़ादारी और ताज़ियादारी की विशेष चर्चा है तथा उसने कई गांव बतौर माफ़ी ख़्वाजा अजमेरी की दरगाह से सम्बद्ध किए थे, ताकि वहां अज़ादारी और ताज़ियादारी अधिक सुचारू रूप से विकसित हो सके.

ख़्वाजा अजमेरी की सूफ़ी-पीठ के ही प्रख्यात संत ख़्वाजा बन्दा नवाज़ गेसूदराज़ (मौत 1442 ईस्वी) के ‘समाअ’ में इमाम हुसैन का ग़म मनाने की चर्चा मिलती है. यह घटना 10 मुहर्रम 803 हिजरी (31 अगस्त, 1400 ईस्वी) की है अर्थात उस समय तक वे देहली में ही निवास करते थे, दकन नहीं पधारे थे. घटना यूं बताई जाती है कि 10 मुहर्रम को उनके जमअतख़ाने पर श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या एकत्र हुई, क़व्वाल आए तथा सितार के तारों को छेड़ना प्रारम्भ किया, कुछ श्रद्धालु संगीत का आनन्द ले रहे थे कि ख़्वाजा ने सम्बोधित किया- आज प्रत्येक व्यक्ति को दस मुहर्रम की याद मनानी है. आज की समाअ इमाम हुसैन की स्मृति में होगी तथा लोगों को उनके दुखमय वृत्तांत को सुनकर रुदन करना होगा. उन्होंने पुन: कहा कि दुख के अवसरों पर सूफ़ी समाअ की सभाएं करते हैं, श्रद्धालुओं को अपने धर्मगुरुओं का ही अनुसरण करना चाहिए.”  
         
उसी दौर से चिश्तिया सिलसिले व अन्य सूफ़ियों की ख़ानकाहों में मुहर्रम के दिनों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों का ग़म मनाया जाता है. इस दौरान मर्सिया पढ़ा जाता है और तबर्रुक तक़सीम किया जाता है. मुरीद अपने घरों से खाने पकवाकर लाते हैं और नियाज़ के बाद इसे तक़सीम करते हैं. इस दौरान शिया लोग अलम निकालते हैं. 
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
साभार आवाज़  
तस्वीर गूगल से साभार 


फ़िरदौस ख़ान
देशभर के शिया बहुल शहरों में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों की याद में मातमी जुलूस निकाला जाता है. अज़ादारी का यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है.  

अमूमन सभी जगह ईद उल ज़ुहा के फ़ौरन बाद से ही मुहर्रम के मातमी जुलूस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. अलम बनाए जाते है, ताज़िये बनाए जाते हैं, तुर्बतें बनाई जाती हैं, मेहंदी की चौकी बनाई जाती है. इमामबाड़ों की साफ़-सफ़ाई का काम शुरू हो जाता है. उन पर रंग-रोग़न किया जाता है. अज़ाख़ाने तैयार किए जाते हैं. इन पर स्याह परचम फहराये जाते हैं, जो ग़म की अलामत हैं. मुहर्रम का चांद नज़र आते ही इमामबाड़ों में नौबत बजाई जाती है और मुहर्रम की अज़ादारी का ऐलान कर दिया जाता है. इसके बाद मुहर्रम के दस दिनों तक लोग सिर्फ़ स्याह लिबास ही पहननते हैं. 

कश्मीर में मुहर्रम पर श्रीनगर और बड़गाम समेत घाटी के कई इलाक़ों में मातमी जुलूस निकाले जाते हैं. इस दौरान श्रीनगर की डल झील में नौका पर मातमी जुलूस निकाला जाता है. जुलूस में शामिल शिया मर्सिया और नौहा पढ़ते हुए हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के अन्य शहीदों की याद में मातम करते हैं. लोगों के हाथ में परचम होते हैं. यह जुलूस इमामबाड़े में जाकर ख़त्म होता है.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का मातमी जुलूस विश्व प्रसिद्ध है. यहां मुहर्रम की पहली तारीख़ से मातमी जुलूस निकाला जाता है. सुबह से ही जुलूस के रूट की साफ़-सफ़ाई हो जाती है. सड़कों के दोनों तरफ़ चूने से क़तारें बना दी जाती हैं. इस मातमी जुलूस में अलम निकलते हैं और एक सजा हुआ घोड़ा भी होता है. इस दौरान जंगी धुन बजाई जाती है और लोग मर्सिया और नौहा पढ़ते हैं. वे अपने सीनों पर ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारते हुए ‘या हुसैन-या हुसैन’ की आवाज़ बुलंद करते हुए चलते हैं. ऐसा लगता है कि वक़्त ठहर गया है. सब कुछ बदला-बदला महसूस होता है. आंखों के सामने कर्बला का मंज़र आ जाता है. रूह कांप उठती है. दिल भर आता है और आंखों से आंसू बहने लगते हैं. दुनिया फ़ानी लगने लगती है. दिल कहता है कि बस आख़िरत ही सच है, बाक़ी सब पानी का एक बुलबुला है.  

मातमी जुलूस शहर के बहुत से मुहल्लों से होकर गुज़रता है. इस दौरान शहर के सभी इमामबाड़ों में हाज़िरी दी जाती है. जुलूस जहां से भी गुज़रता हैं, वहां के लोग भी इसमें शामिल होते जाते हैं. जुलूस को देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है. घरों की छतों पर औरतें खड़ी होती हैं. जिन घरों से जुलूस नज़र आता है, उन घरों में न जाने कहां-कहां से औरतें आती हैं. लोग उन्हें अपने घरों की छतों से जुलूस देखने की इजाज़त दे देते हैं. इस दौरान प्रशासन द्वारा सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम किए जाते हैं. जुलूस के रूट पर जगह-जगह पुलिसकर्मी तैनात रहते हैं. 

मुहर्रम में रात में इमामबाड़ों में मजलिसें होती हैं. अज़ाख़ानों में मिम्बर पर बैठे शियागुरु कर्बला का वाक़िया बयान करते हैं. इस दौरान मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं. लोग ज़ारो-क़तार रोते हैं. इसके बाद तबर्रुक तक़सीम किया जाता है, जिसमें ज़र्दा, बिरयानी, मीठी रोटी, जलेबियां, लड्डू, बिस्किट वग़ैरह होते हैं.

मुहर्रम की आठ तारीख़ का मातमी जुलूस बहुत बड़ा होता है. इसमें ऊंट और घोड़े भी शामिल होते हैं. इसमें बहुत से अलम और अज़ादारी की चीज़ें होती हैं. इस दिन लोग छुरियों, तलवारों और ज़ंजीरों से मातम करते हैं. वे ख़ुद को इतना ज़ख़्मी कर लेते हैं कि अपने ही ख़ून में सराबोर हो जाते हैं. बड़े तो बड़े बच्चे भी इस मामले में पीछे नहीं रहते. बहुत से लोग इतने ज़ख़्मी हो जाते हैं कि वे ग़श खाकर गिर पड़ते हैं. उन्हें अपना होश तक नहीं रहता. इस नज़ारे को देखकर दिल दहल जाता है. 

इस दिन के जुलूस में एक अम्मारी होता है, जो कर्बला की जंग के वक़्त मौजूद औरतों की याद में निकाला जाता है. मुहर्रम के मातमी जुलूस में मेहंदी भी निकलती है. हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बेटे क़ासिम की एक दिन पहले ही शादी हुई थी. इसलिए उनकी याद में एक चौकी पर सजाकर मेहंदी निकाली जाती है. गया की मेहंदी बहुत मशहूर है. पटना के मातमी जुलूस में चलने वाला दुलदुल बहुत प्रसिद्ध है. इसे ख़ूब सजाया जाता है.

मातमी जुलूस में मश्क भी निकाली जाती है. कहा जाता है कि हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की प्यारी बेटी सुकैना प्यास से तड़प रही थीं, तो हज़रत अब्बास उनके लिए पानी लेने गए. इस दौरान यज़ीद के सिपाहियों ने उन्हें शहीद कर दिया. मातमी जुलूस में एक गहवारा भी होता है, जो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के छह माह के मासूम बेटे अली असग़र की याद दिलाता है. भूखे-प्यासे मासूम बच्चे को तीन नोक वाला तीर मारकर शहीद कर दिया गया था. 

नौ तारीख़ के मातमी जुलूस में भी बहुत ज़्यादा अलम होते हैं. इस दिन मातमी जुलूस में लोग मर्सिये और नौहे पढ़ते हुए बहुत रोते हैं. हालत यह होती है कि बहुत से लोग बेहोश हो जाते हैं. दस तारीख़ के जुलूस में ताज़िया और तुर्बतें निकाली जाती हैं, जो कर्बला के शहीदों की याद दिलाती हैं. ताज़िया हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े का प्रतीक है. ताज़िये में दो तुर्बतें होती हैं. सब्ज़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है, जबकि सुर्ख़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है. इस दिन खाने ख़ासकर हलीम, बिरयानी, ज़र्दा और शर्बत की सबीलें लगाई जाती हैं. खाने में वेज बिरयानी भी शामिल होती है.  

हैदराबाद में भी मुहर्रम में मातमी जुलूस निकाला जाता है. लखनऊ और हैदराबाद में नवाबों ने मातमी जुलूस को तरग़ीब दी. अमरोहा की बात करें तो यहां तक़रीबन 490 साल से मातमी जुलूस निकाला जा रहा है. हैदराबाद और लखनऊ के बाद अमरोहा ही देश का ऐसा शहर है, जहां मातमी जुलूस में सबसे ज़्यादा लोग शिरकत करते हैं. मातमी जुलूस में शामिल होने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं. दरअसल अमरोहा में शियाओं की अच्छी ख़ासी आबादी है. ज़्यादातर शिया पढ़े-लिखे और साहिबे हैसियत हैं. यहां के बहुत से शिया विदेशों में बस गए हैं, जिनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अफ़्रीका, नाइजीरिया, डेनमार्क, न्यूज़ीलैंड, संयुक्त राज्य अमीरात और अरब आदि देश शामिल हैं. विदेशों में बसने वाले शिया मुहर्रम में अमरोहा आ जाते हैं. इसी तरह देश-विदेश के शिया मुहर्रम में अपने-अपने क़स्बों और शहरों में लौट आते हैं. 
 
मन्नतें 
मुहर्रम की आठ और नौ तारीख़ की रात में औरतें इमामबाड़ों में जाती हैं और वहां रखे अलम को छूकर अल्लाह तआला से हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के शहीदों के सदक़े में दुआएं मांगती हैं. जिन औरतों के बच्चे नहीं होते हैं, वे गोद भर जाने पर चांदी की ज़ंजीर या चांदी का कड़ा अलम को छुआकर अपने बच्चों को पहना देती हैं. जिनके बच्चे बीमार रहते हैं, वे भी मन्नतें मांगती हैं. वे जितने साल की मन्नत मांगती हैं, उतने बरस तक वे इमामबाड़े में अपने बच्चों को लेकर आती हैं और तबर्रुक भी तक़सीम करती हैं. 
क़ाबिले ग़ौर यह भी है कि शियाओं के अलावा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से मुहब्बत करने वाले सुन्नी भी मुहर्रम में दस दिनों का एहतराम करते हैं. वे नियाज़ नज़र करते हैं. सूफ़ियों की ख़ानकाहों में भी मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं.
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
साभार आवाज़ 
तस्वीर गूगल से साभार 



फ़िरदौस ख़ान
देशभर के शिया बहुल शहरों में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों की याद में मातमी जुलूस निकाला जाता है. यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है.  

उत्तर प्रदेश के अमरोहा की बात करें तो यहां तक़रीबन 490 साल से मातमी जुलूस निकाला जा रहा है. हैदराबाद और लखनऊ के बाद अमरोहा ही देश का ऐसा शहर है, जहां मातमी जुलूस में सबसे ज़्यादा लोग शिरकत करते हैं. मातमी जुलूस में शामिल होने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं. दरअसल अमरोहा में शियाओं की अच्छी ख़ासी आबादी है. ज़्यादातर शिया पढ़े-लिखे और साहिबे हैसियत हैं. यहां के बहुत से शिया विदेशों में बस गए हैं, जिनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अफ़्रीका, नाइजीरिया, डेनमार्क, न्यूज़ीलैंड, संयुक्त राज्य अमीरात और अरब आदि देश शामिल हैं. विदेशों में बसने वाले शिया मुहर्रम में अमरोहा आ जाते हैं. इसके अलावा अमरोहा के जो शिया देश के अन्य शहरों में रहते हैं, वे भी मुहर्रम में अपने घरों को लौट आते हैं. 

ईद उल ज़ुहा के फ़ौरन बाद से ही मुहर्रम के मातमी जुलूस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. अलम बनाए जाते है, ताज़िये बनाए जाते हैं, तुर्बतें बनाई जाती हैं, मेहंदी की चौकी बनाई जाती है. इमामबाड़ों की साफ़-सफ़ाई का काम शुरू हो जाता है. उन पर रंग-रोग़न किया जाता है. अज़ाख़ाने तैयार किए जाते हैं. इन पर स्याह परचम फहराये जाते हैं, जो ग़म की अलामत हैं. मुहर्रम का चांद नज़र आते ही इमामबाड़ों में नौबत बजाई जाती है और मुहर्रम की अज़ादारी का ऐलान कर दिया जाता है. इसके बाद मुहर्रम के दस दिनों तक लोग सिर्फ़ स्याह लिबास ही पहननते हैं. 

अमरोहा में मुहर्रम की तीन तारीख़ से मातमी जुलूस निकलना शुरू होता है. इसलिए सुबह से ही जुलूस के रूट की साफ़-सफ़ाई हो जाती है. सड़कों के दोनों तरफ़ चूने से क़तारें बना दी जाती हैं. इस मातमी जुलूस में अलम निकलते हैं और एक सजा हुआ घोड़ा भी होता है. इस दौरान जंगी धुन बजाई जाती है और लोग मर्सिया और नौहा पढ़ते हैं. वे अपने सीनों पर ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारते हुए ‘या हुसैन-या हुसैन’ की आवाज़ बुलंद करते हुए चलते हैं. ऐसा लगता है कि वक़्त ठहर गया है. सब कुछ बदला-बदला महसूस होता है. आंखों के सामने कर्बला का मंज़र आ जाता है. रूह कांप उठती है. दिल भर आता है और आंखों से आंसू बहने लगते हैं. दुनिया फ़ानी लगने लगती है. दिल कहता है कि बस आख़िरत ही सच है, बाक़ी सब पानी का एक बुलबुला है.  

मातमी जुलूस शहर के बहुत से मुहल्लों से होकर गुज़रता है. इस दौरान शहर के सभी इमामबाड़ों में हाज़िरी दी जाती है. जुलूस जहां से भी गुज़रता हैं, वहां के लोग भी इसमें शामिल होते जाते हैं. जुलूस को देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है. घरों की छतों पर औरतें खड़ी होती हैं. जिन घरों से जुलूस नज़र आता है, उन घरों में न जाने कहां-कहां से औरतें आती हैं. लोग उन्हें अपने घरों की छतों से जुलूस देखने की इजाज़त दे देते हैं. इस दौरान प्रशासन द्वारा सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम किए जाते हैं. जुलूस के रूट पर जगह-जगह पुलिसकर्मी तैनात रहते हैं. 

मुहर्रम में रात में इमामबाड़ों में मजलिसें होती हैं. अज़ाख़ानों में मिम्बर पर बैठे शियागुरु कर्बला का वाक़िया बयान करते हैं. इस दौरान मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं. लोग ज़ारो-क़तार रोते हैं. इसके बाद तबर्रुक तक़सीम किया जाता है, जिसमें ज़र्दा, बिरयानी, मीठी रोटी, जलेबियां, लड्डू, बिस्किट वग़ैरह होते हैं.

मुहर्रम की आठ तारीख़ का मातमी जुलूस बहुत बड़ा होता है. इसमें ऊंट और घोड़े भी शामिल होते हैं. इसमें बहुत से अलम और अज़ादारी की चीज़ें होती हैं. इस दिन लोग छुरियों, तलवारों और ज़ंजीरों से मातम करते हैं. वे ख़ुद को इतना ज़ख़्मी कर लेते हैं कि अपने ही ख़ून में सराबोर हो जाते हैं. बड़े तो बड़े बच्चे भी इस मामले में पीछे नहीं रहते. बहुत से लोग इतने ज़ख़्मी हो जाते हैं कि वे ग़श खाकर गिर पड़ते हैं. उन्हें अपना होश तक नहीं रहता. इस नज़ारे को देखकर दिल दहल जाता है. 

इस दिन के जुलूस में एक घुड़सवार होता है, जो कर्बला की जंग के वक़्त मौजूद औरतों की याद में निकाला जाता है. मुहर्रम के मातमी जुलूस में मेहंदी भी निकलती है. हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बेटे क़ासिम की एक दिन पहले ही शादी हुई थी. इसलिए उनकी याद में एक चौकी पर सजाकर मेहंदी निकाली जाती है. इसके अलावा मश्क भी निकाली जाती है. कहा जाता है कि हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की प्यारी बेटी सुकैना प्यास से तड़प रही थीं, तो हज़रत अब्बास उनके लिए पानी लेने गए. इस दौरान यज़ीद के सिपाहियों ने उन्हें शहीद कर दिया. मातमी जुलूस में एक गहवारा भी होता है, जो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के छह माह के मासूम बेटे अली असग़र की याद दिलाता है. भूखे-प्यासे मासूम बच्चे को तीन नोक वाला तीर मारकर शहीद कर दिया गया था. 

नौ तारीख़ के मातमी जुलूस में भी बहुत ज़्यादा अलम होते हैं. इस दिन मातमी जुलूस में लोग मर्सिये और नौहे पढ़ते हुए बहुत रोते हैं. हालत यह होती है कि बहुत से लोग बेहोश हो जाते हैं. दस तारीख़ के जुलूस में ताज़िया और तुर्बतें निकाली जाती हैं, जो कर्बला के शहीदों की याद दिलाती हैं. ताज़िया हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े का प्रतीक है. ताज़िये में दो तुर्बतें होती हैं. सब्ज़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है, जबकि सुर्ख़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है. इस दिन खाने ख़ासकर हलीम, बिरयानी, ज़र्दा और शर्बत की सबीलें लगाई जाती हैं. खाने में वेज बिरयानी भी शामिल होती है.  
 
मन्नतें 
मुहर्रम की आठ और नौ तारीख़ की रात में औरतें इमामबाड़ों में जाती हैं और वहां रखे अलम को छूकर अल्लाह तआला से हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के शहीदों के सदक़े में दुआएं मांगती हैं. जिन औरतों के बच्चे नहीं होते हैं, वे गोद भर जाने पर चांदी की ज़ंजीर या चांदी का कड़ा अलम को छुआकर अपने बच्चों को पहना देती हैं. जिनके बच्चे बीमार रहते हैं, वे भी मन्नतें मांगती हैं. वे जितने साल की मन्नत मांगती हैं, उतने बरस तक वे इमामबाड़े में अपने बच्चों को लेकर आती हैं और तबर्रुक भी तक़सीम करती हैं. 
अमरोहा की शाहीन बताती हैं कि शादी के कई बरस तक उनके यहां औलाद नहीं हुई तो उन्होंने मन्नत मानी थी. जब उनकी गोद भर गई तो वे यहां आने लगीं. चांदनी ने भी अपने बच्चों की सेहतयाबी की मन्नत मांगकर उन्हें चांदी की ज़ंजीरें पहनाई थीं.  

क़ाबिले ग़ौर यह भी है कि शियाओं के अलावा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से मुहब्बत करने वाले सुन्नी भी मुहर्रम में दस दिनों का एहतराम करते हैं. वे नियाज़ नज़र करते हैं. सूफ़ियों की ख़ानकाहों में भी मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं.
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
तस्वीर गूगल से साभार 


फ़िरदौस ख़ान
भारत एक ऐसा देश है, जो अपनी संस्कृति के लिए विश्व विख्यात है. यहां विभिन्न सम्प्रदायों और पंथों के लोग निवास करते हैं. पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैले इसके विशाल भूभाग पर जितनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधताएं मिलती हैं, उतनी शायद ही दुनिया के किसी और देश में देखने को मिलती हों. भले ही लोगों के मज़हब अलग हों, उनकी अक़ीदत अलग हो, लेकिन उनमें कोई न कोई समानता देखने को मिल ही जाती है. अब मुहर्रम के जुलूस को ही लें. इसमें यहां के विभिन्न त्यौहारों पर निकलने वाली शोभा यात्राओं की झलक साफ़ नज़र आती है. 

मुहर्रम के महीने में शिया अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व कर्बला के दीगर शहीदों का ग़म मनाते हैं. वे कर्बला के वाक़िये की याद में जुलूस निकालते हैं. इस दौरान वे स्याह लिबास पहनते हैं. जुलूस में अलम भी होते हैं. अलम परचम को कहा जाता है. इसे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के उस परचम की याद में बनाया जाता है, जो कर्बला में उनकी फ़ौज का निशान था. जुलूस में जो परचम होता है, उस पर पंजे का निशान होता है. इस निशान का ताल्लुक़ पंजतन पाक से है यानी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, हज़रत अली अलैहिस्सलाम, हज़रत बीबी फ़ातिमा ज़हरा सलाम उल्लाह अलैहा, हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम. 

अलम बांस से बनाया जाता है. कई अलम बहुत बड़े होते हैं, जिसे कई लोग पकड़ते हैं. बहुत से अलम छोटे भी होते हैं, जिन्हें एक व्यक्ति आसानी से पकड़ लेता है. बड़ा अलम थामे लोग जुलूस में आगे चलते हैं.  
जुलूस में घोड़ा भी होता है. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के घोड़े का नाम ज़ुलजनाह था. इसलिए जुलूस के लिए बहुत ही अच्छे घोड़े का इंतख़ाब किया जाता है. घोड़े को सजाते हैं और उसकी पीठ पर एक साफ़ा रखा जाता है. चूंकि यह हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का घोड़ा माना जाता है, इसलिए इसका बहुत ही अच्छी तरह ख़्याल रखा जाता है. उसे दूध जलेबी भी खिलाई जाती है. मुहर्रम के दौरान किसी को इस पर सवारी करने की इजाज़त नहीं होती.  

जुलूस में तुर्बतें भी होती हैं. तुर्बत का मतलब है क़ब्र. कर्बला के शहीदों की याद में तुर्बतें बनाई जाती हैं. ताज़िये में दो तुर्बतें रखी जाती हैं. एक तुर्बत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद में होती है. इसका रंग सब्ज़ होता है, क्योंकि उन्हें ज़हर देकर शहीद किया गया था. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की तुर्बत सुर्ख़ रंग की होती है, क्योंकि उन्हें सजदे की हालत में शहीद किया गया था और उनका जिस्म ख़ून से सुर्ख़ हो गया था. जुलूस में एक गहवारा भी होता है. गहवारा पालने को कहा जाता है. यह हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के छह माह के बेटे अली असग़र की शहादत की याद में होता है, जिन्हें तीर मार कर शहीद कर दिया गया था. 
मुहर्रम में मेहंदी भी निकाली जाती है. कहा जाता है कि हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बेटे क़ासिम का एक दिन पहले ही निकाह हुआ था. इसकी याद में एक चौकी पर सजाकर मेहंदी निकाली जाती है. हज़रत अब्बास हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की लाडली बेटी सुकैना के लिए पानी लेने गए थे, तब उन्हें शहीद कर दिया गया था. इस शहादत की याद में मश्क निकाली जाती है. 

जुलूस में एक अम्मारी होता है. एक पहरेदार सवारी को अम्मारी कहा जाता है. यह कर्बला की जंग के वक़्त मौजूद महिलाओं की याद में मुहर्रम की आठ तारीख़ को निकाली जाती है. 
इसी तारीख़ को जुलूसे अज़ा निकाला जाता है. अज़ा का मतलब है तकलीफ़. इसमें अज़ादारी से वाबस्ता चीज़ें होती हैं. लोग इन चीज़ों को देख- देखकर रोते हैं. इनके सामने मरसिये और नौहे पढ़े जाते हैं. इस दौरान लोग अपने हाथों को सीने पर मारकर मातम करते हैं. बहुत से लोग ज़ंजीरों और तलवारों से ख़ुद को ज़ख़्मी करते हैं और ‘या हुसैन, या हुसैन’ कहते जाते हैं. बहुत जगहों पर लोग दहकते हुए अंगारों पर चलते हैं. ख़ास बात यह है कि उनके पैर ज़र्रा बराबर भी आग में नहीं झुलसते. ऐसा लगता है कि वह फ़र्श पर चल रहे हैं. कुछ लोग दहकते अंगारों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज़ भी अदा करते हैं. मजाल है कि मुसल्ले का एक भी धागा आग में जल जाए. मातम में ख़ुद को ज़ख़्मी करने वाले लोग कर्बला की मिट्टी अपने ज़ख़्मों पर लगा लेते हैं और ठीक हो जाते हैं. 
 
मुहर्रम की दस तारीख़ को ताज़िया निकाला जाता है. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े के प्रतीक को ताज़िया कहा जाता है. यह लकड़ी, अबरक और रंग-बिरंगे काग़ज़ से बनाया जाता है. इसका कोई एक आकार नहीं होता. कारीगर अपनी-अपनी कल्पना के हिसाब से इसे बनाते हैं. ज़्यादातर ताज़ियों में गुम्बद बनाया जाता है.   

दरअसल भारत में प्राचीन काल से ही अपने मृतजनों को स्मरण किए जाने की परम्परा है. श्राद्ध एक ऐसा कर्म है, जिसके माध्यम से पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त की जाती है. मान्यता है कि जिन पूर्वजों की वजह से हमारा अस्तित्व है, हम उनके ऋणी हैं. इसीलिए श्राद्ध के दिनों में लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति के लिए दान-पुण्य करते हैं. इस दौरान कोई शुभ एवं मंगल कार्य नहीं किया जाता. इसी तरह शिया और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बेपनाह मुहब्बत करने वाले दीगर मुसलमान भी मुहर्रम से चेहलुम तक कोई शादी-ब्याह जैसे ख़ुशी के काम नहीं करते. मुहर्रम के दस दिनों तक लोग नये कपड़े, ज़ेवर और ऐसी ही दूसरी चीज़ों की ख़रीददारी भी नहीं करते. बस रोज़मर्रा की ज़रूरत का सामान ही ख़रीदते हैं.   
  
भारत में देवी-देवताओं की शोभा यात्रा निकालने की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी की यात्रा विश्व प्रसिद्ध है. इसी तरह विजय दशमी पर देवी दुर्गा की शोभा यात्रा निकाली जाती है. राम, लक्ष्मण और सीता की शोभा यात्रा निकाली जाती है. जन्माष्टमी पर कृष्ण की शोभा यात्रा निकाली जाती है. शिवरात्रि पर शिव की शोभा यात्रा निकाली जाती है. गणेश चतुर्थी पर गणेश की शोभा यात्रा निकाली जाती है. इसके अलावा अन्य देवी-देवताओं की शोभा यात्राएं भी निकाली जाती हैं.  
फ़र्क़ इतना है कि मुहर्रम का जुलूस ग़म में निकाला जाता है और शोभा यात्राएं हर्षोल्लास से निकाली जाती हैं. मुहर्रम पर ताज़िये ज़मीन में दफ़न कर दिए जाते हैं, जबकि देवी दुर्गा और गणेश की प्रतिमाओं का पानी में विसर्जन किया जाता है.
 
मुहर्रम के जुलूस में हिन्दू भी शामिल होते हैं. मुहर्रम में तक़सीम होने वाले तबर्रुक को हिन्दू भी बहुत ही श्रद्धा से ग्रहण करते हैं. उत्तर प्रदेश के शिकारपुर की ताहिरा बताती हैं कि हिन्दू औरतें ख़ुद कहती हैं कि उन्हें तबर्रुक चाहिए. जब उनसे पूछा गया कि वे इसका क्या करती हैं, तो उन्होंने बताया कि वे तबर्रुक के चावलों को सुखाकर रख लेती हैं. जब उनका कोई बच्चा बीमार होता है, तो वे चावल के कुछ दाने उसे खिला देती हैं. इससे बच्चा ठीक हो जाता है. इसी को तो अक़ीदत कहा जाता है. 

वाक़ई अक़ीदत के मामले में भारत का कोई सानी नहीं है. यह वह देश है, जहां धरती को भी माता कहकर पुकारा जाता है. एक दूसरे के मज़हब और रीति-रिवाजों को मान-सम्मान देना ही तो इस देश की माटी की ख़ासियत है. इसे ही गंगा-जमुनी तहज़ीब कहा जाता है. 
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
साभार आवाज़ 
तस्वीर गूगल से साभार  


-फ़िरदौस ख़ान
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कर्बला की जंग में अपनी और अपने ख़ानदान की क़ुर्बानी देकर अल्लाह के उस दीन को ज़िन्दा रखा, जिसे उनके नाना लेकर आए थे. वे इस्लाम के पैरोकार थे और दीन के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करते थे. उन्होंने अपनी जान की क़ुर्बानी दे दी, लेकिन ज़ालिम की अधीनता क़ुबूल नहीं की. 
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपनी बेटी फ़ातिमा ज़हरा, अपने दामाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम और अपने नातियों हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बहुत मुहब्बत थी. आपने फ़रमाया कि जिसका मैं मौला हूं, उसका अली मौला है. आपने यह भी फ़रमाया कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूं. अल्लाह तू उससे मुहब्बत कर, जो हुसैन से मुहब्बत करे. 

कर्बला की जंग मुहर्रम में हुई थी, जो इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी का पहला महीना है. हिजरी साल का आग़ाज़ इसी महीने से होता है. इस माह को इस्लाम के चार पाक महीनों में शुमार किया जाता है. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस माह को अल्लाह का महीना कहा है. 

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद नियमानुसार उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को ख़िलाफ़त मिलनी थी. मुआविया अब साम-दाम दंड भेद की नीति के तहत ख़ुद ख़लीफ़ा बनना चाहता था. वह नहीं चाहता था कि ख़िलाफ़त हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को मिले. अगर शूरा के तहत ख़िलाफ़त हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को मिल गई तो न वह ख़ुद ख़लीफ़ा बन पाएगा और न ही उसके बेटे यज़ीद को ख़िलाफ़त मिल पाएगी.  

आख़िरकार इमाम हसन अलैहिस्सलाम से ईर्ष्या रखने वाले उनके दुश्मनों ने साज़िशन उन्हें ज़हर दिलवा दिया, जिससे उनकी शहादत हो गई. अब मुआविया पहले से ज़्यादा सतर्क होकर अपने बेटे यज़ीद को अपना वारिस घोषित करके नई साज़िशें करने में जुट गया, क्योंकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के छोटे बेटे हज़रत इमाम हुसैन अब एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आने वाले थे. कालांतर में हुआ भी कुछ इस तरह कि तत्कालीन गवर्नर मुआविया को गद्दी से हटाकर वलीअहद यज़ीद ख़ुद ख़लीफ़ा बन बैठा.      
मुआविया से हुए समझौते के मुताबिक़ इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद उनके छोटे भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ख़लीफ़ा बनेंगे और दस साल तक ख़िलाफ़त करेंगे, लेकिन मुआविया ने वादाख़िलाफ़ी करते हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िलाफ़त देने से मना कर दिया. शर्त यह भी थी मुआविया की कोई औलाद ख़िलाफ़त की हक़दार नहीं होगी. इसके बावजूद मुआविया का बेटा यज़ीद खलीफ़ा बन बैठा. उसने इस्लाम में हराम जुआ, शराब और ब्याज़ जैसी तमाम बुराइयों को आम कर दिया. यज़ीद के अवाम पर ज़ुल्म भी लगातार बढ़ते जा रहे थे. इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उसके ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की. यज़ीद ने उन पर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए ज़ोर डाला, लेकिन उन्होंने इससे इनकार कर दिया. इस पर उसने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को क़त्ल करने का फ़रमान जारी कर दिया. इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना से अपने ख़ानदान के साथ कुफ़ा के लिए रवाना हो गए, जिसमें उनके ख़ानदान के 123 सदस्य यानी 72 मर्द व औरतें और 51 बच्चे शामिल थे. यज़ीद की फ़ौज ने उन्हें कर्बला के मैदान में ही रोक लिया. फ़ौज ने उन पर यज़ीद की बात मानने के लिए दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने ज़ालिम यज़ीद की अधीनता क़ुबूल करने से साफ़ इनकार कर दिया. इस पर यज़ीद ने नहर पर पहरा लगवा दिया और उनके पानी लेने पर रोक लगा दी गई. 
तीन दिन गुज़र जाने के बाद जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ानदान के बच्चे प्यास से तड़पने लगे,  तो उन्होंने यज़ीद की फ़ौज से पानी मांगा. फ़ौज ने पानी देने से मना कर दिया. फ़ौज ने सोचा कि बच्चों की भूख-प्यास देखकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम टूट जाएंगे और यज़ीद की अधीनता कुबूल कर लेंगे. जब उन्होंने यज़ीद की बात नहीं मानी, तो फ़ौज ने उनके ख़ेमों पर हमला कर दिया. इस हमले में इमाम हुसैन समेत उनके ख़ानदान के 72 लोग शहीद हो गए. इसमें छह महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। दुश्मनों ने छह महीने के मासूम अली असग़र के गले पर तीन नोक वाला तीर मारकर उन्हें शहीद कर दिया. दुश्मनों ने सात साल आठ महीने के औन-ओ-मुहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर उन्हें शहीद कर दिया. उन्होंने 13 साल के हज़रत कासिम घोड़ों की टापों कुचलवा कर शहीद कर दिया.
दरअसल यह एक जंग नहीं थी, एक सुनियोजित हमला था, एक क़त्ले-आम था. एक तरफ़ ज़ालिम यज़ीद की लाखों की फ़ौज थी, तो दूसरी तरह इमाम हुसैन के ख़ानदान के तीन दिन के भूखे-प्यासे लोग थे. 
पूरी दुनिया में कर्बला के इन्हीं शहीदों की याद में मुहर्रम मनाया जाता है. दस मुहर्रम यानी आशूरा के दिन ताज़िये का जुलूस निकलता है. ताज़िया इराक़ की राजधानी बग़दाद से एक सौ किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में स्थित क़स्बे कर्बला में स्थित इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रौज़े जैसा होता है. लोग अपनी-अपनी अक़ीदत और हैसियत के हिसाब से ताज़िये बनाते हैं. जुलूस में काले कपड़े पहने शिया मुसलमान नंगे पैर चलते हैं और अपने सीने पर हाथ मारते हैं, जिसे मातम कहा जाता है. मातम के साथ वे हाय हुसैन की सदा लगाते हैं और साथ ही नौहा यानी शोक गीत भी पढ़ते हैं. पहले ताज़िये के साथ अलम भी होता है, जिसे हज़रत अब्बास की याद में निकाला जाता है.

मुहर्रम का महीना शुरू होते ही इमामबाड़ों में मजलिसों का सिलसिला शुरू हो जाता है. आशूरा के दिन जगह-जगह पानी के प्याऊ और शर्बत की छबीलें लगाई जाती हैं. हिन्दुस्तान में ताज़िये के जुलूस में शिया मुसलमानों के अलावा दूसरे मज़हबों के लोग भी शामिल होते हैं.

मुख़तलिफ़ हदीसों से मुहर्रम की हुरमत और इसकी अहमियत का पता चलता है. एक हदीस के मुताबिक़ अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि रमज़ान के अलावा सबसे अहम रोज़े वह हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं. यह फ़रमाते वक़्त हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह फ़र्ज़ नमाज़ों के बाद सबसे अहम नमाज़ तहज्जुद की है, उसी तरह रमज़ान के रोज़ों के बाद सबसे अहम रोज़े मुहर्रम के हैं.

मुहर्रम की 9 तारीख़ को की जाने वाली इबादत का भी बहुत सवाब बताया गया है. सहाबी इब्ने अब्बास के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि जिसने मुहर्रम की 9 तारीख़ का रोज़ा रखा, उसके दो साल के गुनाह माफ़ हो जाते हैं और मुहर्रम के एक रोज़े का सवाब 30 रोज़ों के बराबर है.
मुहर्रम हमें सच्चाई, नेकी और ईमानदारी के रास्ते पर चलने की हिदायत देता है.
क़त्ले-हुसैन असल में मर्ग़े-यज़ीद है
इस्लाम ज़िन्दा होता है हर कर्बला के बाद...

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते हुए ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं-
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीने-पनाह हुसैन
सरदाद न दाद दस्त, दर दस्ते-यज़ीद
हक़्क़ा के बिना, लाइलाह अस्त हुसैन...


सरफ़राज़ ख़ान 
अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम आज भी लोगों के ज़ेहन में बसे हैं और उनके दिलों में हमेशा ज़िन्दा रहेंगे. 
किसी ने क्या ख़ूब कहा है- 
नबियों में मर्तबा है निराला रसूल ﷺ का 
सानी रसूल का है न साया रसूल ﷺ का 
बिक जाती कायनात ये हाथों यज़ीद के 
कर्बला में गर न होता नवासा रसूल ﷺ का  
  
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत को सदियां गुज़र गईं, लेकिन उसकी याद आज भी तारोताज़ा है. दुनिया के जाने-माने लोगों ने उनकी उनके बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं.  
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा- “मैंने हुसैन से सीखा कि मज़लूमियत में किस तरह जीत हासिल की जा सकती है. इस्लाम की बढ़ोतरी तलवार पर निर्भर नहीं करती, बल्कि हुसैन के बलिदान का एक नतीजा है, जो एक महान संत थे.”
कवि और साहित्यकार रबिन्द्र नाथ टेगौर ने कहा- “इंसाफ़ और सच्चाई को ज़िन्दा रखने के लिए फ़ौजों या हथियारों की ज़रूरत नहीं होती है. क़ुर्बानियां देकर भी फ़तेह हासिल की जा सकती है, जैसे इमाम हुसैन ने कर्बला में हासिल की.”
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा- “इमाम हुसैन की क़ुर्बानी तमाम गिरोहों और सारे समाज के लिए है. और यह क़ुर्बानी इंसानियत और भलाई की एक अनोखी मिसाल है.”
देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा- “इमाम हुसैन की क़ुर्बानी किसी एक मुल्क या क़ौम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह असीमित है.” 
देश के पहले उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने कहा- “अगरचे इमाम हुसैन ने सदियों पहले अपनी शहादत दी, लेकिन उनकी पाक रूह आज भी लोगों के दिलों पर राज करती है.”
कवयित्री सरोजिनी नायडू ने कहा- “मैं मुसलमानों को इसलिए मुबारकबाद पेश करना चाहती हूं कि यह उनकी ख़ुशक़िस्मती है कि उनके बीच दुनिया की बड़ी हस्ती इमाम हुसैन पैदा हुए, जो सम्पूर्ण रूप से दुनियाभर की तमाम जातियों और समूहों के दिलों पर राज करते हैं.” 
एडवर्ड ब्राउन ने कहा- “कर्बला ख़ूनी सहरा की याद है, जहां अल्लाह के रसूल के नवासे के चारों तरफ़ सगे-संबंधियों की लाशें थीं. यह इस बात को समझने के लिए काफ़ी है कि दुश्मनों की वहशत अपने चरम पर थी और यह सबसे बड़ा ग़म था. भावनाओं पर इस तरह नियंत्रण था कि किसी भी प्रिय की मौत से इमाम हुसैन के क़दम नहीं डगमगाये.”
लेखक एंटोनी बारा ने कहा- “मानवता के वर्तमान और अतीत के इतिहास में कोई भी युद्ध ऐसा नहीं है, जिसने इतनी मात्रा में सहानूभूति और प्रशंसा हासिल की है जितनी इमाम हुसैन की शहादत ने कर्बला के युद्ध में हासिल की है. 
एक स्कॉटिश निबंधकार, इतिहासकार और दार्शनिक थॉमस कार्लाइल ने कहा- “कर्बला की दुखद घटना से हमें जो सबसे बड़ी सीख मिलती है वह ये है कि इमाम हुसैन और उनके साथियों का ख़ुदा पर अटूट विश्वास था और वे सब मोमिन थे. इमाम हुसैन ने यह दिखा दिया कि सैन्य विशालता ताक़त नहीं बन सकती.


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