फ़िरदौस ख़ान
मुहर्रम का महीना शुरू हो चुका है. इस महीने के साथ ही हिजरी कैलेंडर के नये साल 1445 का भी आग़ाज़ हो गया है. मुहर्रम का महीना कर्बला का वाक़िया याद दिलाता है. मुहर्रम की दस तारीख़ को ताज़िये निकाले जाते हैं. हिन्दुस्तान में ताज़िये निकालने की बहुत पुरानी रिवायत है. यहां ताज़ियादारी किसने और कब शुरू की, इस बारे में पुख़्ता जानकारी नहीं मिलती. शिया समुदाय के बहुत से लोगों का मानना है कि हिन्दुस्तान में मुग़ल बादशाह बाबर ने ताज़ियादारी शुरू की थी.     
   
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रंजन ज़ैदी का कहना है कि हिन्दुस्तान में ताज़िये निकालने की शुरुआत मुग़ल बादशाह बाबर ने की थी. कहा जाता है कि बाबर की बीवी माहम बेगम बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. कर्बला के शहीदों के लिए उनके दिल में बहुत ही अक़ीदत थी. वे हर साल मुहर्रम के महीने में कर्बला जाया करती थीं. एक बार वे बहुत बीमार हो गईं. बीमारी की वजह से वे इतनी कमज़ोर हो गईं कि उनके लिए सफ़र करना मुनासिब नहीं था. मुहर्रम का महीना आने वाला था. अब सवाल यह था कि वे कर्बला कैसे जाएं. उस वक़्त आज की तरह यातायात के सुगम साधन नहीं थे. ऊंटों और घोड़ों पर लोग सफ़र करते थे. उस दौर में तांगे और बैल गाड़ियां होती थीं. कहने का मतलब यह है कि सफ़र में बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ता था. ऐसी हालत में किसी बीमार के लिए लम्बा सफ़र करना किसी भी सूरत में आसान नहीं था.

बादशाह बाबर ने माहम बेगम की हालत देखी, तो उन्होंने सोचा कि क्यों न कर्बला को यहीं लाया जाए. ऐसा करना नामुमकिन था. बादशाह ने अपने वज़ीरों से सलाह मशविरा किया. फिर कारीगरों को हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े जैसा ताज़िया बनाने का हुक्म दिया गया. बादशाह के हुक्म पर ताज़िया बनकर तैयार हो गया. फिर मुहर्रम में स्याह लिबास पहना गया, मजलिसें हुईं, नोहे पढ़े गए और तबर्रुक तक़सीम किया गया. मुहर्रम की दस तारीख़ को जुलूस के साथ ताज़िया निकाला गया और फिर उसे दफ़न कर दिया गया. इसके बाद हर साल ऐसा ही होने लगा. चूंकि यह रिवायत मुग़ल बादशाह बाबर ने शुरू की थी, इसलिए अवाम भी इसमें शिरकत करती थी. एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर बदस्तूर जारी रहा. 

जब शेर ख़ां यानी शेरशाह से जंग हारने के बाद हुमायूं हिन्दुस्तान से चले गए और कई बरसों तक ख़ानाबदोश जैसी ज़िन्दगी बसर की. फिर जब वे ईरान के बादशाह की मदद मिलने के बाद वापस हिन्दुस्तान आए, तो उनके साथ वहां से बहुत से शिया भी आए. हुमायूं के क़रीबी बैरम ख़ां भी शिया थे. हुमायूं के दौर में भी ताज़िया निकालने का सिलसिला जारी रहा है. बादशाह अकबर के ज़माने में भी मुहर्रम में ताज़िये निकाले जाते थे. फिर बादशाह जहांगीर का दौर आया. जहांगीर की बेगम मेहरुन्निसा यानी नूरजहां शिया थीं. उनके पिता मिर्ज़ा ग़ियास बेग और मां अस्मत बेगम हुमायूं के साथ ही हिन्दुस्तान आए थे. उनके वक़्त में भी कर्बला के शहीदों की याद में मजलिसें होती थीं और ताज़िये निकाले जाते थे. यह रिवायत आज भी जारी है. 

प्रख्यात विद्वान व इतिहासकार प्रोफ़ेसर जाफ़र रज़ा अपनी किताब ‘इस्लाम के धार्मिक आयाम हुसैनी क्रान्ति के परिपक्ष्य में’ लिखते हैं- “यह निश्चित है कि हज़रत अली के ख़िलाफ़त काल (656-661 ईस्वी) में विशेषकर सिन्धी जाठों में ‘शीआने-ग़ुलात’ ने भारत में पैग़म्बर के परिवारजनों के अनुरूप वातावरण बना रखा था. यहां तक कि कहा जाता है कि सिन्ध के दत्त, जो अरब में निवास करते थे, कर्बला के संग्राम में इमाम हुसैन का सहयोग करते हुए शहीद भी हुए. बाद में बनी उमैया के शासन काल में दत्त जाति के बचे-खुचे लोगों को अरब से ईरान में ढकेल दिया गया. यदि हज़रत अली के दास वंशज गौरी शासकों ने उमैया वंशज ख़लीफ़ाओं के अत्याचार से बचते हुए इस्लामी पैग़म्बर के परिवारजनों के प्रेम को अपने सीने में लगाए रखा था. इस तथ्य के ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं कि सिन्धी मुस्लिम उलेमा पैग़म्बर के परिवारजनों के इमामों विशेषकर इमाम मुहम्मद बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़ की सेवा में होने का गौरव रखते थे तो यह किस प्रकार संभव है कि वे इमाम हुसैन की अज़ादारी में सम्मिलित न हुए हों. इसी प्रकार सिन्ध तथा पंजाब के क्षेत्रों में शीआ सम्प्रदाय की नई बस्तियों का बसना, सिन्ध के प्रशासक का बनी फ़ातमा की हुकूमत क़ायम करने में अपनी जानों का क़ुर्बान करना, पंजाब और सिन्धवासियों की नई बस्तियों के प्रतिष्ठित लोगों का फ़ातिमी वंशज मिस्री शासकों से प्रत्यक्ष रूप में संबंध स्थापित करना, वह भी इस सीमा तक कि अपने सभी कार्यों में फ़ातिमीन ख़लीफ़ाओं की अनुमति प्राप्त करते थे. मिस्र के फ़ातिमीन ख़लीफ़ा अन्य शीओं के समान अज़ादारी के प्रति असाधारण अभिरुचि रखते थे. फिर इस्माईलियों के धर्म प्रचार संबंधी गतिविधियां जो मुहर्रम के दस दिनों में अपने सत्संगों में इमाम हुसैन और उनके संबंधियों के त्याग एवं बलिदान की घटनाएं निश्चित रूप से वर्णन करते होंगे. खेद है कि इन तथ्यों की ओर हमारे इतिहासकारों ने ध्यान नहीं दिया, जिनसे भारत में अज़ादारी के प्रारम्भिक चिह्न धुंधला गए. भारत-आर्य संयुक्त संस्कृति एवं सभ्यता के इन परम महत्वपूर्ण पृष्ठों पर समय की धूल की मोटी परत चढ़ गई. वरना जन प्रियता के कारण कुछेक प्रारम्भिक चिह्न बिखरे हुए मिलते हैं, जिनके आधार पर इमाम हुसैन की याद मनाने के विषय में जानकारी प्राप्त होती है.”

लोकगीतों में भी कर्बला के वाक़िये का ज़िक्र मिलता है. लोकगीत रचने वालों और लोक गायकों ने भी ऐतिहासिक घटनाओं को ज़िन्दा रखने में अपना अहम किरदार अदा किया है. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “भारत में इमाम हुसैन की याद मनाने के प्रारम्भिक चिह्न सरायकी भाषा के मरसियो के रूप में सुरक्षित हैं, जिनको सिन्धी और सरायकी क्षेत्रों में चारण जाति के लोग गाकर सुनने वालों से पुरस्कार प्राप्त करते हैं. भारत में इमाम हुसैन की अद्वितीय शहीदी बयान करने वालों में पहला नाम मिन्हाज सिराज जुज़जानी है, जो अपने बारे में लिखता है कि वह मई 1231 को ग्वालियर पहुंचा, जहां सुल्तान शम्सउद्दीन अल्तुतमिश (मृ. 1236 ईस्वी) घेरा डाले हुए था. यह घेरा बढ़ता ही गया. सुल्तान ने जुज़जानी को सैनिकों की धार्मिक दीक्षा के कार्य पर नियुक्त किया, जिसका दायित्व उसने सात माह तक निर्धारित किया. रमज़ान के पूरे महीने में, हफ़्ते में तीन बार, ज़िलहिज्जा माह के प्रारम्भिक दस दिनों तक और पहली मुहर्रम से दसवीं मुहर्रम तक. जुज़जानी इन धर्म प्रचार वक्तव्यों को ‘तज़कीर’ कहता है. स्पष्ट है कि रमज़ान में तज़कीर का विषय आत्म संयम और ऋषत्व रहा होगा. ज़िलहिज्जा में हज़रत इब्राहीम की क़ुर्बानी बयान की गई होगी, जिस पर मुसलमान त्यौहार मनाते हैं परन्तु पहली मुहर्रम से दस मुहर्रम तक उसके वक्तव्यों का विषय इमाम हुसैन की अद्वितीय शहादत के अलावा कोई और कुछ नहीं हो सकता. यह विषय सैनिकों में त्याग एवं बलिदान की भावना जाग्रत करने के लिए सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुआ होगा. “

हिन्दुस्तान में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद मनाने में सूफ़ियों का भी अहम किरदार रहा है. सूफ़ियों की ख़ानकाहों में आज भी कर्बला के शहीदों को याद किया जाता है. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “उत्तरी भारत में इमाम हुसैन की याद मनाने का क्रम प्रसिद्ध सूफ़ी संत ख़्वाजा सैयद मुहम्मद अशरफ़ जहांगीर शमनानी द्वारा अलम निकालने से प्रारम्भ होता है. उन्होंने मुहर्रम के मौक़े पर इमाम हुसैन का अलम निकाला और उसकी छाया में बैठे. उनका दस्तूर था कि सब्ज़वार (ईरान) के समान अलम तैयार कराते थे. एक थैली के साथ उस अलम को पास-पड़ौस के उत्कृष्ट सैयदों और धर्मभीरू जनों के पास भेजते थे. अधिकांश यह दायित्व अपने उत्तराधिकारी शाह सैयद अली क़लन्दर के माध्यम से सम्पन्न कराते थे. सूफ़ी संत शाह समनानी 1380 ईस्वी में भारत पधारे थे. इस प्रकार अलम निकालने का क्रम उसी के आसपास प्रारम्भ हुआ होगा. उनके वक्तव्यों में लिखित है कि मुहर्रम के दस दिनों में अच्छा वस्त्र धारण नहीं करते थे. किसी आनन्दमय आयोजन में भाग नहीं लेते थे. आठवीं तथा दसवीं मुहर्रम के बीच की तिथियों में विश्राम करना त्याग देते थे. तीस वर्षों तक चाहे यात्रा में हों या कहीं भी हों, इमाम हुसैन का ग़म मनाना कभी नहीं भूलते थे.”
                                         
सूफ़ियों के दिलों में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अहले बैत के लिए बेहद अक़ीदत रही है. वे इस बेपनाह मुहब्बत को ईमान की अलामत मानते हैं. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते हुए ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं-
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीने-पनाह हुसैन
सर दाद न दाद दस्त, दर दस्ते-यज़ीद
हक़्क़ा कि बिना-ए-लाइलाह अस्त हुसैन
यानी 
शाह भी हुसैन हैं और बादशाह भी हुसैन हैं
दीन भी हुसैन हैं और दीने पनाह भी हुसैन हैं 
सर दे दिया, पर यज़ीद के हाथ में अपना हाथ नहीं दिया 
हक़ीक़त यही है कि लाइलाहा की बुनियाद हुसैन हैं.     

बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां ने भी अज़ादारी को ख़ूब तरग़ीब दी. जाफ़र रज़ा लिखते हैं- “मलका नूरजहां (मौत 1665 ईस्वी) जो जहांगीर के पर्दे में शहनशाहे-ज़मन थीं, ने वहां इमाम हुसैन की अज़ादारी को प्रोत्साहित करने हेतु एक शाही फ़रमान जारी किया था, जिसमें अज़ादारी और ताज़ियादारी की विशेष चर्चा है तथा उसने कई गांव बतौर माफ़ी ख़्वाजा अजमेरी की दरगाह से सम्बद्ध किए थे, ताकि वहां अज़ादारी और ताज़ियादारी अधिक सुचारू रूप से विकसित हो सके.

ख़्वाजा अजमेरी की सूफ़ी-पीठ के ही प्रख्यात संत ख़्वाजा बन्दा नवाज़ गेसूदराज़ (मौत 1442 ईस्वी) के ‘समाअ’ में इमाम हुसैन का ग़म मनाने की चर्चा मिलती है. यह घटना 10 मुहर्रम 803 हिजरी (31 अगस्त, 1400 ईस्वी) की है अर्थात उस समय तक वे देहली में ही निवास करते थे, दकन नहीं पधारे थे. घटना यूं बताई जाती है कि 10 मुहर्रम को उनके जमअतख़ाने पर श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या एकत्र हुई, क़व्वाल आए तथा सितार के तारों को छेड़ना प्रारम्भ किया, कुछ श्रद्धालु संगीत का आनन्द ले रहे थे कि ख़्वाजा ने सम्बोधित किया- आज प्रत्येक व्यक्ति को दस मुहर्रम की याद मनानी है. आज की समाअ इमाम हुसैन की स्मृति में होगी तथा लोगों को उनके दुखमय वृत्तांत को सुनकर रुदन करना होगा. उन्होंने पुन: कहा कि दुख के अवसरों पर सूफ़ी समाअ की सभाएं करते हैं, श्रद्धालुओं को अपने धर्मगुरुओं का ही अनुसरण करना चाहिए.”  
         
उसी दौर से चिश्तिया सिलसिले व अन्य सूफ़ियों की ख़ानकाहों में मुहर्रम के दिनों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों का ग़म मनाया जाता है. इस दौरान मर्सिया पढ़ा जाता है और तबर्रुक तक़सीम किया जाता है. मुरीद अपने घरों से खाने पकवाकर लाते हैं और नियाज़ के बाद इसे तक़सीम करते हैं. इस दौरान शिया लोग अलम निकालते हैं. 
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
साभार आवाज़  
तस्वीर गूगल से साभार 


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