ए एन खान
तेजी से बढ़ता हुआ शहरीकरण और शहरों की जनसंख्या में हो रही बढ़ोतरी को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के समाधान की दिशा में प्रमुख चुनौतियों के रूप में देखा जाता रहा है । अनुमान है कि 1990 और 2025 के बीच विकासशील देशों में शहरी आबादी में तीन गुनी वृध्दि हो चुकी होगी और यह कुल जनसंख्या के 61 प्रतिशत के बराबर हो गयी होगी। इस बढ़ती हुई शहरी आबादी को देखते हुए पानी, पर्यावरण, हिंसा और चोट , गैर संचारी रोगों जैसी स्वास्थ्य संबंधी अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा, तम्बाकू के उपयोग, अस्वास्थ्यकर आहार, शारीरिक अकर्मण्यता और महामारियों के फैलने से जुड़ी आकांक्षाएं और खतरे भी कोई कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं।

      शहरों की चकाचौंध , आसपास के इलाकों में रहने वाले लोगों के लिये हमेशा से ही आकर्षण का विषय रही है और वे प्राय: इस आकर्षण के वशीभूत होकर शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं, जहां पहले से ही आबादी की भरमार होती है। वहां पहुंच कर वे भी आवास, जलापूर्ति, जलमल निकासी, स्थानीय परिवहन और रोजगार के अवसरों जैसी पहले से ही गंभीर समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। शहरी गरीब अनेक जटिल रोगों सहित अनेक प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के शिकार होते हैं। कई लोग तो तपेदिक और एचआईवीएड्स जैसे संचारी रोगों के शिकार होते हैं ।

      शहरी क्षेत्रों में लोगों की बढती हुई संख्या से अधिकतर सरकारों की बुनियादी सेवायें प्रदान करने की क्षमता पर भारी दबाव पड़ा है। अवैध रूप से बसने वाली मलिन बस्तियां और झुग्गी-झोंपड़े एक आम बात हो गई है। इन क्षेत्रों में लोगों को आमतौर पर पेयजल और कचरे के निपटान जैसी बुनियादी सुविधायें नहीं मिल पाती। कचरे के निपटान के लिये आवश्यक संसाधन पर्याप्त नहीं होते। इन क्षेत्रों के निवासियों को वे सुविधायें नहीं मयस्सर होतीं, जिनसे उचित स्तर का जीवन बिताया जा सके और मानव विकास सही ढंग से हो सके। इन बस्तियों में धूल, दुर्गंध , रसायन और ध्वनि प्रदूषण की बहुतायत के कारण अनेक लोग इनके शिकार हो जाते हैं। उनके घरों की प्रकृति

इस प्रकार की होती है कि वे आमतौर पर इन खतरों से बच नहीं पाते। इन स्थितियों में रहने वाले लोगों और हैजा, वायरल हेपाटाइटिस, मियादीबुखार, अतिसार और लकवा जैसी अनेक बीमारियों के बीच सीधा संबंध होता है। ये बीमारियां प्राय: पीने के अयोग्य पानी, गंदगी, भीड़भाड़ और खराब आहार के कारण फैलती हैं। आधुनिक शहरों के स्वास्थ्य संबंधी खतरों जैसे यातायात, पर्यावरण आदि से भी उनके ग्रसित होने की आशंका बनी रहती है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों का पारम्परिक मददगार ढांचा धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। फलस्वरूप वे सामाजिक और मनावैज्ञानिक अस्थिरता के परिणामों के शिकार बन जाते हैं ।
     
      इन शहरों के अधिकांश लोग अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये असंगठित आर्थिक क्षेत्र की गतिविधियों में काम करने को विवश होते हैं। इन कार्यों में काम के दौरान के खतरों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। निर्माण क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का उच्च स्तर श्वास संबंधी रोगों को जन्म दे सकता है, फेफड़ों की कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचा सकता है, कैंसर को जन्म दे सकता है और अन्य अनेक गंभीर और जटिल रोगों का कारण बन सकता है।

      हाल के दिनों में यह अहसास बढता जा रहा है कि स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याओं के निराकरण के लिये चिकित्सा क्षेत्र से परे भी ध्यान देने की जरूरत है । सुनियोजित आर्थिक विकास, बेहतर आहार एवं शिक्षा, बेहतर आवास और स्वच्छ पर्यावरण के क्षेत्रों में बढ रही दिलचस्पी से बचाव चिकित्सा (प्रिवेन्टिव मेडिसिन) की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है ।

      हम सभी लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली शहरी व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं से जूझते रहे हैं । अत: शहरों को स्वास्थ्यकर बनाने के लिये हमें शहरी स्वास्थ्य नियोजन पर ध्यान देना होगा और उसमें भागीदारी करनी होगी । परिवहन, शारीरिक सक्रियता को बढावा देने वाले क्षेत्रों की रूपरेखा तैयार करने में निवेश बढाना होगा, तम्बाकू पर नियंत्रण और खाद्य सुरक्षा के लिये कड़े कानून बनाने होंगे  इस तरह के दूरंदेशी शहरी नियोजन से ही स्वास्थ्य आहार व्यवहार को प्रोत्साहन मिलेगा। आवास, पेयजल और साफ-सफाई के क्षेत्रों में व्यापक सुधार से ही स्वास्थ्य संबंधी खतरों को दूर किया जा सकेगा  ऐसे शहरों का विकास करना होगा जिसमें सभी वर्गों और सभी आयु समूह के लोगों को जीवन की बुनियादी सुविधायें सुलभ हों।

इन कार्यों के लिये कोई अतिरिक्त निवेश की आवश्यकता नहीं है  जरूरत है केवल उपलब्ध संसाधनों को प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की ओर मोड़ने की। ऐसा होने पर ही शहरी क्षेत्रों की समस्याओं का निराकरण किया जा सकेगा।

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