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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन (17 सितम्बर) पर विशेष
- प्रो. संजय द्विवेदी 
राजनीति में संवाद की बड़ी भूमिका है। कुशल नेतृत्व के लिए नेतृत्वकर्ता का कुशल संवादक होना अत्यंत आवश्यक है। संवाद की इसी प्रक्रिया को भारत के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक क्रांतिकारी दिशा दी है। आम आदमी से जुड़कर सीधे संवाद करने की कला को मोदी ने पुन: जीवित कर जनता को 'प्रधान' का दर्जा दिया है और स्वयं 'सेवक' की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। वे भारत और भारतीय जन को संबोधित करने वाले नेता हैं। उनकी देहभाषा और उनकी जीवन यात्रा भारत के उत्थान और उसके जनमानस को स्पंदित करती है। यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि नरेंद्र मोदी उम्मीदों को जगाने वाले नेता हैं।

नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए अक्सर लोग ये प्रश्न पूछते हैं कि आखिर उनकी सफलता का राज क्या है? आखिर वो कौन सी चीज है, जो उन्हें भारत की मौजूदा राजनीति में नेताओं की भीड़ में सबसे अलग और सबसे खास बनाती है? असल में नरेंद्र मोदी की यात्रा एक साधारण इंसान के असाधारण बनने की कहानी है। वो आज जिस मुकाम पर हैं, इसमें उनकी संवाद शैली की सबसे अहम भूमिका है। उनके भाषणों की गूंज सिर्फ देश में ही सुनाई नहीं देती, बल्कि उन्होंने अपनी अनूठी संचार कला से दुनिया भर को प्रभावित किया है। वो बोलते हैं तो हर किसी के लिए उनके पास कुछ ना कुछ रहता है, वो अपनी बात जिस तरीके से समझाते हैं और लोगों को प्रभावित करते हैं, उससे लोग प्रेरित होते हैं। 

अपनी संवाद कला से प्रधानमंत्री मोदी ने देश के नेताओं को लेकर सोचने के बने-बनाए ढर्रे को तोड़ने का काम किया है। आम लोग जब नेताओं के भाषणों से उकता गए थे, जब चारों ओर निराशा घर कर चुकी थी, तब उनके भाषणों ने हताश-निराश माहौल के अंधेरे को छांटने का काम किया। वो आए और लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गए। अपने जीवन में मन-वचन-कर्म को एक कर उन्होंने करोड़ों लोगों में अपनी अद्भुत भाषण शैली से नई जान डाल दी। याद कीजिए 13 सितंबर, 2013 का वो दिन, जब नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव की कमान सौंपी और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। महज 6 महीने के भीतर शुरू हो रहे आम चुनावों में उन्हें पार्टी ने सवा अरब भारतवासियों के साथ संवाद करने की जिम्मेदारी सौंपी। और तब जिस जोरदार तरीके से उन्होंने रैलियों में अपने अनूठे अंदाज वाले भाषणों से समां बांधा, उस चुनाव अभियान ने एक बारगी पूरे विश्व को अचंभित कर दिया। बगैर थके-बगैर रुके और बगैर एक भी सभा स्थगित किए, नरेंद्र मोदी ने 440 रैलियों के साथ पूरे देश की 3 लाख किलोमीटर की बेहद थकाऊ यात्रा महज 6 महीने में पूरी कर रिकॉर्ड कायम किया। इस चुनावी कैंपेन में उनके ओजस्वी भाषणों में कुछ ना कुछ नया और अनूठा था। काशी में जब मोदी की चुनावी सभा पर प्रशासन द्वारा रोक लगाई गई, तब उन्होंने कहा था, “मेरी मौन भी मेरा संवाद है।” इस एक वाक्य ने पूरे देश को उनके करिश्माई नेतृत्व में ऐसा गूंथ दिया कि भारतीय जनमानस में आत्माभिमान और आत्मगौरव वाले राजनीतिक नेतृत्व को लेकर एक नई बहस पैदा हो गई। 

नरेंद्र मोदी ने श्रोताओं के हिसाब से अपने भाषणों में बदलाव किया, जो उनकी शैली की सबसे बड़ी खासियत भी बनी। अपने चुनावी अभियान में मोदी ने युवाओं और वृद्ध दोनों आयु वर्ग के लोगों को प्रभावित किया। मोदी ने रटे-रटाए भाषणों के बजाय लय में बात रखी, जिसने अपेक्षाकृत अधिक लोगों के दिलों को छुआ। अपनी बॉडी लैंग्वेज में मोदी हाथों और उंगलियों का शानदार इस्तेमाल करते हैं। अपने शब्दों के हिसाब से वह चेहरे पर भाव लाते हैं । तर्कों को जब आंकड़ों और शानदार बॉडी लैंग्वेज का साथ मिलता है, तो भाषण अधिकतम प्रभाव छोड़ता है। मोदी अपने विजन को लोगों तक पहुंचाने के लिए आंकड़ों का खूब इस्तेमाल करते हैं। जरुरतों और उपलब्धता के आंकड़े अपने भाषणों में इस्तेमाल कर मोदी ने मुश्किल समस्याओं को आसानी से लोगों के सामने रखा। महान वक्ता इतिहास के किस्सों से अपने भाषणों को जीवंत बनाते हैं। अपनी बात को प्रभावी तरीके से रखने के लिए वे मुस्कुराहट, नारों और लयात्मक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। कई बार अच्छे वक्ता एक कहानी के माध्यम से ही अपनी बात और इरादे साफ कर देते हैं। नरेंद्र मोदी इस कला में निपुण हैं। उनके ‘वन लाइनर्स’ भाषण को यादगार बना जाते हैं।

विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों को जब वे संबोधित करते हैं, तब भी ऐसा ही होता है। प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की ‘सॉफ्ट पॉवर’ को पेश करने के लिए खास तौर पर प्रवासी भारतीयों पर ध्यान दिया है। चूंकि विदेशों में गए प्रवासी भारतीय काफी प्रभावशाली भूमिकाओं में हैं, इसलिए प्रधानमंत्री ने विभिन्न देशों के प्रमुख शहरों (जैसे कि ब्रसेल्स या दुबई) में विशेष कार्यक्रम आयोजित किए, जिससे मजबूत संदेश दिया जा सके। ये प्रवासी भारतीय विदेश नीति संबंधी प्रयासों में एक अहम तत्व हैं और साथ ही भारत की ‘सॉफ्ट पॉवर’ को आगे भी बढ़ा रहे हैं। मोदी सोशल मीडिया और पारंपरिक मीडिया का जम कर उपयोग करते हैं। मीडिया प्रबंधन की उनके पास कारगर रणनीति है। वे सोशल मीडिया की अहमियत को हमेशा स्वीकार करते रहे हैं और इसलिए लोगों को सीधे इसी के जरिए संबोधित करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी उन शुरुआती नेताओं में से हैं, जिन्होंने हाल के समय में शुरू हुए ‘सेल्फी ट्रेंड’ के महत्व को समझा और इसका उपयोग उन्होंने अपने प्रचार के लिए किया। मोदी के बेहद लोकप्रिय ट्विटर अकाउंट पर सेल्फी को काफी महत्वपूर्ण जगह मिलती है और इस कारण युवाओं में उनकी काफी लोकप्रियता है। संचार को ले कर वे जैसी रणनीति बनाते हैं, वो सबसे अलग है। साल 2014 के प्रचार के दौरान उन्होंने होलोग्राम तकनीक का इस्तेमाल किया, ताकि एक साथ उन्हें कई जगह पर देखा जा सके। संचार की यह रणनीति उनकी ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि बनाने में मददगार साबित हुई। नरेंद्र मोदी लोगों से सीधा संवाद कायम करने में सक्षम भी हैं और इच्छुक भी हैं। मोदी जब विदेश जाते हैं, उस दौरान वहां के लिए संदेश देने के लिहाज से भी सोशल मीडिया ही उनकी पहली पसंद है। वे दूसरे देशों के लोगों के सामने उनकी अपनी भाषा में बात रखते हैं। यह भारतीय कूटनीति के तरकश में एक तीर है। सोशल मीडिया के जरिए पब्लिक डिप्लोमेसी आधुनिक कूटनीति का एक अहम साधन है, जिसका उद्देश्य खास तौर पर अपनी ‘सॉफ्ट पॉवर’ को पेश करना है। नरेंद्र मोदी इस कूटनीति के माहिर खिलाड़ी हैं।

लेकिन क्या मोदी का व्यक्तित्व सिर्फ भाषणों ने गढ़ा है? असल में नरेंद्र मोदी ‘मैन ऑफ एक्शन’ हैं। उन्हें मालूम है कि किस चीज को कैसे किया जाता है और भाषण की चीजों को एक्शन में कैसे लाया जाता है। लक्ष्य केंद्रित मोदी को मालूम है कि उनकी जिंदगी का उद्देश्य क्या है? 2014 में ब्यूरोक्रेसी के साथ सारे सहयोगियों को समय पर आने के आग्रह की शुरुआत प्रधानमंत्री खुद दफ्तर में ठीक 9 बजे हाजिर होकर शुरु करते हैं। उनका ये एक कार्य ही मातहतों के लिए साफ संकेत था कि प्रधानमंत्री किस तरह की कार्यशैली के कायल हैं। एक तंत्र, जो अरसे से चलता आ रहा है, प्रवृत्ति का शिकार है, उस तंत्र को भीतर से दुरुस्त कर उसे इस तरह सक्रिय करना कि देखते ही देखते सारा काम पटरी पर आ जाए। ये कमाल उस नेतृत्व का है, जिसके आते ही प्रशासन में लोग खुद को बदलने के लिए मजबूर हो गए।

जापान दौरे में ताइको ड्रम बजाकर उन्होंने जिस तरह से संसार भर को खुद के भीतर लय-सुर-ताल की समझ रखने वाले शख्स का अहसास कराया, उसने क्षण भर में ही उनके भीतर मौजूद हर मौके पर आम लोगों की दिलचस्पी के मुताबिक काम करने वाले बहुआयामी शख्सियत को सामने ला दिया। जो बताता है कि मोदी को मालूम है कि आखिर उनके सामने दर्शक वर्ग उक्त समय में क्या सुनना पसंद करेगा और किस तरह के बर्ताव और संवाद की अपेक्षा लोग उनसे करेंगे। लोकप्रिय भाषण देने में वो समकालीन नेताओं में सबसे आगे दिखाई देते हैं, क्योंकि उनके भाषणों के पीछे कठोर तपस्या और कर्म-साधना का बल खड़ा रहता है। हर जगह के हिसाब से उनके भाषणों का मिजाज अलग होता है। स्थानीय बोलियों के साथ देश की अनेक मातृभाषाओं में जनता के साथ वो सीधा संवाद करते हैं। स्थानीय लोकोक्तियों और स्थानीय लोगों की जिंदगी से जुड़े मार्मिक प्रसंगों का वो सहारा लेते हैं। मोदी अपने भाषणों में अक्सर जरुरत के अनुसार कहीं सख्त प्रशासक, तो कहीं नरमदिल और उदार नेता के तौर पर खुद की भावनाओं को आगे रखते हैं।
जिंदगी के रास्ते में उनके ऊपर फेंके गए पत्थरों से कैसे उन्होंने सफलता की सीढ़ियों का निर्माण किया, उनका जीवन और उनके भाषण इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। वो एक ओर देश के युवाओं में आस भरते हैं, तो खिलखिलाकर हंसते भी हैं। मुट्ठी बांधकर आसमान में देश की ताकत का परचम फहराते हैं, तो दोनों हाथ उठाकर करोड़ों भारतीयों के आत्मविश्वास को आवाज देते हैं। आंखों में आंसू भरकर अपने बचपन की दुखों भरी जिंदगी का हवाला देकर वो आम भारतीय को हार न मानकर हिम्मत के साथ लड़ने और कर्मक्षेत्र में डटने की सीख भी देते हैं। ताकि गांव-गरीब-किसान, झुग्गी-झोपड़ी के इंसान, बेरोजगार नौजवान की जिंदगी में उम्मीदों का नया सवेरा आए। प्रधानमंत्री इन्हीं वजहों से बार बार ‘मुद्रा बैंक योजना’ के जरिए युवकों को स्वरोजगार के लिए कर्ज देने, नए बैंक खातों की योजना को सफल बनाने और ‘स्किल इंडिया’ के जरिए हर नौजवान को देश की जरुरत के हिसाब से हुनरमंद बनाने की बात करते हैं। ‘स्टार्टअप योजना’ के जरिए लाखों नए उद्यमी खड़े करने, स्वच्छता अभियान के जरिए भारत की बदरंग तस्वीर बदलने और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के जरिए महिलाओं और बच्चियों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। वह देश के कॉरपोरेट, विज्ञान, शिक्षा और खेल जगत समेत हर वर्ग और हर क्षेत्र में ‘सबका साथ-सबका विकास’ का महान मंत्र देते हैं, ताकि सबके साथ मिलकर भविष्य के भारत की तस्वीर को बदला जा सके।
प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति सब के बस की बात नहीं है। यह कला सीखी नहीं जा सकती। यह केवल और केवल अनुभव से आती है। जनता के बीच से निकला जमीनी नेता ही इस स्तर तक पहुंच सकता है। जैसे कि नरेंद्र मोदी। उन्हें सुनने वालों की फेहरिस्त में देश के लोग भी हैं और दुनिया के भी। विरोधियों को घेरना हो या मन की बात करनी हो, उनके शब्दों का चयन अनूठा होता है। पुलवामा हमले के बाद जब उन्होंने कहा, “घर में घुसकर मारेंगे”, तब उनके चेहरे पर जो भाव थे, वे बता रहे थे कि यह महज भाषणबाजी नहीं है। विरोधी भले ही इसे जुमलेबाजी कहें, लेकिन शायद जनता इसे जुमलेबाजी नहीं मानती। अगर मानती तो मोदी का नाम ‘ब्रांड मोदी’ नहीं बन पाता। राष्ट्रीय राजनीति में अपने सेवा भाव, साधारण जीवन शैली, शानदार प्रबंधन और शब्दों के प्रभावी चयन के बूते नरेंद्र मोदी अगली कतार में आ खड़े हुए हैं। जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने देश की विविध जनता को ध्यान में रखते हुए अपनी संवाद क्षमता का इस्तेमाल किया है, वह उनकी सफलता का बड़ा आधार भी है। ऐसे परिदृश्य में जब भारत के प्रधानमंत्री को वैश्विक नेता के रूप में मान्यता मिली है, उनका प्रत्येक शब्द मूल्यवान हो जाता है। विशाल देश की विशाल जनसंख्या से संवाद करने का इससे ज्यादा प्रभावी तरीका दूसरा नहीं हो सकता। 
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष हैं।)


वीर विनोद छाबड़ा 
आज राजीव गांधी का जन्मदिन है. उन्होंने संजय गांधी के प्लेन हादसे से हुई मृत्यु के कारण बहुत हिचक के साथ राजनीति में कदम रखा. अमेठी सीट से उपचुनाव जीत कर सांसद बने. इंदिरा जी की हत्या के बाद 1984 में प्रधानमंत्री बने, महज 40 साल की उम्र में, भारत के आजतक के सबसे युवा प्रधानमंत्री. ताजपोशी के बाद सबसे पहले सिख विरोधी दंगे नियंत्रित किये. इस संदर्भ में उनके इस बयान की विपक्ष ने बहुत आलोचना की कि जब एक बड़ा वृक्ष गिरता है तो उसके आस-पास की धरती भी उखड़ती है. 
उसी साल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने चार सौ से ऊपर सीटें जीतीं. लेकिन इसमें राजीव का योगदान ज्यादा नहीं था बल्कि इंदिरा जी की हत्या के कारण उपजी सहानुभूति थी. आने वाले साल राजीव के लिए बहुत कठिन रहे. शाहबानो को लेकर अल्पवर्ग के प्रति सहानुभूति के कारण बहुसंख्यक के साथ साथ अल्पसंख्यक भी नाराज़ हो गए. श्रीलंका में तमिल मिलिटेंसी को कुचलने के लिए भेजी गयी 'पीस कीपिंग' फौज, पंजाब समस्या सुलझाने के लिये राजीव गाँधी-लोंगोवाल एकॉर्ड, मिजोरम समझौता आदि अच्छे काम किये.  मालद्वीप में सेना भेज कर विद्रोह को कुचला. उस दौर के जानकार बताते थे, यदि ऐसा न होता तो पाकिस्तान का मालद्वीप पर कब्ज़ा निश्चित था. उन्होंने लोकप्रियता के नए आयाम छुए. लेकिन जलने वालों की फ़ौज बढ़ती गयी. अंततः अपनों ने ही बोफोर्स कांड में घेर लिया. वीपी सिंह, अरुण नेहरू आदि अनेक विश्वसनीय साथियों ने उनके साथ दगा की. उन्हें राजीव ने बाहर का रास्ता दिखाया.  विपक्षी तो हमलावर थे ही. उन्हें तो बस मौके का इंतज़ार था. 
इधर सच्ची बात कह कर ब्यूरोक्रेसी को नाराज़ कर डाला - गरीब के लिए भेजे गए हर एक रूपए में उसको सिर्फ 15 पैसे ही मिलते हैं. अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँस गया. लेकिन राजीव गांधी ने इन आँधियों के बीच अपने अकेले दम पर कुछ बहुत अच्छे काम भी किये जिसके लिए राष्ट्र उन्हें आज भी सलाम करता है. सबसे पहले उन्होंने आया-राम गया राम पर अंकुश लगाने के लिए 'एंटी डिफेक्शन बिल' पास कराया. अठारह की आयु वालों को वोटिंग राइट दिलवाया.  सबसे महत्वपूर्ण तो इक्कीसवीं शताब्दी में छलांग लगाने की बात की. सूचना तंत्र की क्रांति का बिगुल बजाया. सैम पित्रोदा ने उनका अच्छा साथ दिया. गांव गांव में पीसीओ लग गए. सरकारी दफ्तरों में कंप्यूटर की शुरुआत की. बहुत विरोध हुआ इसका कि बेरोजगारी बढ़ेगी.  लेकिन नतीजा देखिये कि कंप्यूटर आज सबसे अच्छा मित्र है. 
1989 के चुनाव में बोफोर्स में भ्रष्टाचार के घने गहरे छाये थे. मीडिया पूरी तरह से राजीव गांधी के विरुद्ध था. लगता था कि कांग्रेस का नामो-निशान मिट जाएगा.  लेकिन इसके बावज़ूद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को लोकसभा में सर्वाधिक 196 सीटें मिलीं. उन्हें सरकार बनाने का ऑफर मिला. विरोधियों को मिर्ची लग गयी. गला फाड़ चिल्लाने लगे. लेकिन राजीव ने बड़ी शालीनता से विपक्ष में बैठना स्वीकार किया. वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने. लेकिन हर चुनावी सभा में बोफोर्स घोटाले में संलिप्त जनों के नाम जेब में रखी पर्ची में लिखे होने की बात करने वाले वीपी सिंह पलट गए. कोई पर्ची नहीं निकली. जुमला निकला.  
पहले वीपी सिंह और फिर चंद्रशेखर के नेतृत्व में बनीं सरकारें चल नहीं सकीं.  जनता को राजीव गांधी शिद्दत से याद आये.  तब तक राजीव भी राजनीती में दोस्त के भेष में छिपे दुश्मन को पहचानने का गुर सीख चुके थे. और लगभग तय था कि राजीव गांधी 1991 के चुनाव में एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे. मगर इससे पूर्व ही श्रीलंका में लिट्टों के प्रति नीति का विरोध करने वालों उनकी हत्या कर दी. 
जिन लोगों ने राजीव को बहुत निकट से देखा और जाना है, उनका कथन है कि राजीव गांधी जैसा शालीन बंदा दूसरा नहीं देखा. 
उन्होंने ही कहा था - मेरा भारत महान. अगर राजीव होते तो आज राजनीति का सीन फ़र्क होता. 


लोकप्रिय नेता थे राजीव गांधी
-फ़िरदौस ख़ान
कुछ लोग ज़मीन पर राज करते हैं और कु्छ लोग दिलों पर... मरहूम राजीव गांधी एक ऐसी शख़्सियत थे, जिन्होंने ज़मीन पर ही नहीं, बल्कि दिलों पर भी हुकूमत की... वह भले ही आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन हमारे दिलों में आज भी ज़िंदा हैं...
श्री राजीव गांधी ने उन्नीसवीं सदी में इक्कीसवीं सदी के भारत का सपना देखा था.  स्वभाव से गंभीर लेकिन आधुनिक सोच और निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता वाले श्री राजीव गांधी देश को दुनिया की उच्च तकनीकों से पूर्ण करना चाहते थे. वे बार-बार कहते थे कि भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के साथ ही उनका अन्य बड़ा मक़सद इक्कीसवीं सदी के भारत का निर्माण है. अपने इसी सपने को साकार करने के लिए उन्होंने देश में कई क्षेत्रों में नई पहल की, जिनमें संचार क्रांति और कंप्यूटर क्रांति, शिक्षा का प्रसार, 18 साल के युवाओं को मताधिकार, पंचायती राज आदि शामिल हैं. वे देश की कंप्यूटर क्रांति के जनक के रूप में भी जाने जाते हैं. वे युवाओं के लोकप्रिय नेता थे. उनका भाषण सुनने के लिए लोग घंटों इंतज़ार किया करते थे. उन्‍होंने अपने प्रधानमंत्री काल में कई ऐसे महत्वपूर्ण फ़ैसले लिए, जिसका असर देश के विकास में देखने को मिल रहा है. आज हर हाथ में दिखने वाला मोबाइल उन्हीं फ़ैसलों का नतीजा है.

चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने वाले श्री राजीव गांधी देश के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री थे और दुनिया के उन युवा राजनेताओं में से एक हैं, जिन्होंने सरकार की अगुवाई की है. उनकी मां श्रीमती इंदिरा गांधी 1966 में जब पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं, तब वह उनसे उम्र में आठ साल बड़ी थीं. उनके नाना पंडित जवाहरलाल नेहरू 58 साल के थे, जब उन्होंने आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के तौर शपथ ली. देश में पीढ़ीगत बदलाव के अग्रदूत श्री राजीव गांधी को देश के इतिहास में सबसे बड़ा जनादेश हासिल हुआ था. अपनी मां के क़त्ल के बाद 31 अक्टूबर 1984 को वे कांग्रेस अध्यक्ष और देश के प्रधानमंत्री बने थे. अपनी मां की मौत के सदमे से उबरने के बाद उन्होंने लोकसभा के लिए चुनाव कराने का आदेश दिया. दुखी होने के बावजूद उन्होंने अपनी हर ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया. महीने भर की लंबी चुनावी मुहिम के दौरान उन्होंने पृथ्वी की परिधि के डेढ़ गुना के बराबर दूरी की यात्रा करते हुए देश के तक़रीबन सभी हिस्सों में जाकर 250 से ज़्यादा जनसभाएं कीं और लाखों लोगों से रूबरू हुए. उस चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला और पार्टी ने रिकॉर्ड 401 सीटें हासिल कीं. सात सौ करोड़ भारतीयों के नेता के तौर पर इस तरह की शानदार शुरुआत किसी भी हालत में क़ाबिले-तारीफ़ मानी जाती है. यह इसलिए भी बेहद ख़ास है, क्योंकि वे उस सियासी ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते थे, जिसकी चार पीढ़ियों ने जंगे-आज़ादी के दौरान और इसके बाद हिन्दुस्तान की ख़िदमत की थी. इसके बावजूद श्री राजीव गांधी सियासत में नहीं आना चाहते थे. इसीलिए वे सियासत में देर से आए.

श्री राजीव गांधी का जन्म 20 अगस्त, 1944 को मुंबई में हुआ था. वे सिर्फ़ तीन साल के थे, जब देश आज़ाद हुआ और उनके नाना आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बने. उनके माता-पिता लखनऊ से नई दिल्ली आकर बस गए. उनके पिता फ़िरोज़ गांधी सांसद बने, जिन्होंने एक निडर तथा मेहनती सांसद के रूप में ख्याति अर्जित की.
राजीव गांधी ने अपना बचपन अपने नाना के साथ तीन मूर्ति हाउस में बिताया, जहां इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री की परिचारिका के रूप में काम किया. वे कुछ वक़्त के लिए देहरादून के वेल्हम स्कूल गए, लेकिन जल्द ही उन्हें हिमालय की तलहटी में स्थित आवासीय दून स्कूल में भेज दिया गया. वहां उनके कई दोस्त बने, जिनके साथ उनकी ताउम्र दोस्ती बनी रही. बाद में उनके छोटे भाई संजय गांधी को भी इसी स्कूल में भेजा गया, जहां दोनों साथ रहे. स्कूल से निकलने के बाद श्री राजीव गांधी कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, लेकिन जल्द ही वे वहां से हटकर लंदन के इम्पीरियल कॉलेज चले गए. उन्होंने वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की.
उनके सहपाठियों के मुताबिक़ उनके पास दर्शन, राजनीति या इतिहास से संबंधित पुस्तकें न होकर विज्ञान एवं इंजीनियरिंग की कई पुस्तकें हुआ करती थीं. हालांकि संगीत में उनकी बहुत दिलचस्पी थी. उन्हें पश्चिमी और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय और आधुनिक संगीत पसंद था. उन्हें फ़ोटोग्राफ़ी और रेडियो सुनने का भी ख़ासा शौक़ था. हवाई उड़ान उनका सबसे बड़ा जुनून था. इंग्लैंड से घर लौटने के बाद उन्होंने दिल्ली फ़्लाइंग क्लब की प्रवेश परीक्षा पास की और व्यावसायिक पायलट का लाइसेंस हासिल किया. इसके बाद वे  1968 में घरेलू राष्ट्रीय जहाज़ कंपनी इंडियन एयरलाइंस के पायलट बन गए.
कैम्ब्रिज में उनकी मुलाक़ात इतालवी सोनिया मैनो से हुई थी, जो उस वक़्त वहां अंग्रेज़ी की पढ़ाई कर रही थीं. उन्होंने 1968 में नई दिल्ली में शादी कर ली. वे अपने दोनों बच्चों राहुल और प्रियंका के साथ नई दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी के निवास पर रहे. वे ख़ुशी ख़ुशी अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे, लेकिन  23 जून 1980 को एक जहाज़ हादसे में उनके भाई संजय गांधी की मौत ने सारे हालात बदल कर रख दिए. उन पर सियासत में आकर अपनी मां की मदद करने का दबाव बन गया. फिर कई अंदरूनी और बाहरी चुनौतियां भी सामने आईं. पहले उन्होंने इन सबका काफ़ी विरोध किया, लेकिन बाद में उन्हें अपनी मां की बात माननी पड़ी और इस तरह वे न चाहते हुए भी सियासत में आ गए. उन्होंने जून 1981 में अपने भाई की मौत की वजह से ख़ाली हुए उत्तर प्रदेश के अमेठी लोकसभा क्षेत्र का उपचुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें जीत हासिल हुई.  इसी महीने वे युवा कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य बन गए. उन्हें नवंबर 1982 में भारत में हुए एशियाई खेलों से संबंधित महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई, जिसे उन्होंने बख़ूबी अंजाम दिया. साथ ही कांग्रेस के महासचिव के तौर पर उन्होंने उसी लगन से काम करते हुए पार्टी संगठन को व्यवस्थित और सक्रिय किया.

अपने प्रधानमंत्री काल में राजीव गांधी ने नौकरशाही में सुधार लाने और देश की अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए कारगर क़दम उठाए, लेकिन पंजाब और कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को नाकाम करने की उनकी कोशिश का बुरा असर हुआ. वे सियासत को भ्रष्टाचार से मुक्त करना चाहते थे, लेकिन यह विडंबना है कि उन्हें भ्रष्टाचार की वजह से ही सबसे ज़्यादा आलोचना का सामना करना पड़ा.  उन्होंने कई साहसिक क़दम उठाए, जिनमें श्रीलंका में शांति सेना का भेजा जाना, असम समझौता, पंजाब समझौता, मिज़ोरम समझौता आदि शामिल हैं. इसकी वजह से चरमपंथी उनके दुश्मन बन गए. नतीजतन, श्रीलंका में सलामी गारद के निरीक्षण के वक़्त उन पर हमला किया गया, लेकिन वे बाल-बाल बच गए. साल 1989 में उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन वह कांग्रेस के नेता पद पर बने रहे. वे आगामी आम चुनाव के प्रचार के लिए 21 मई, 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेराम्बदूर गए, जहां एक आत्मघाती हमले में उनकी मौत हो गई. देश में शोक की लहर दौड़ पड़ी.
राजीव गांधी की देश सेवा को राष्ट्र ने उनके दुनिया से विदा होने के बाद स्वीकार करते हुए उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया, जिसे श्रीमती सोनिया गांधी ने 6 जुलाई, 1991 को अपने पति की ओर से ग्रहण किया.

राजीव गांधी अपने विरोधियों की मदद के लिए भी हमेशा तैयार रहते थे. साल 1991 में जब राजीव गांधी की हत्या कर दी गई, तो एक पत्रकार ने भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी से संपर्क किया. उन्होंने पत्रकार को अपने घर बुलाया और कहा कि अगर वह विपक्ष के नेता के नाते उनसे राजीव गांधी के ख़िलाफ़ कुछ सुनना चाहते हैं, तो मैं एक भी शब्द राजीव गांधी के ख़िलाफ़ नहीं कहेंगे, क्योंकि राजीव गांधी की मदद की वजह से ही ज़िन्दा हैं. उन्होंने भावुक होकर कहा कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तो उन्हें पता नहीं कैसे पता चल गया कि मेरी किडनी में समस्या है और इलाज के लिए मुझे विदेश जाना है. उन्होंने मुझे अपने दफ़्तर में बुलाया और कहा कि वह उन्हें आपको संयुक्त राष्ट्र में न्यूयॉर्क जाने वाले भारत के प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर रहे हैं और उम्मीद है कि इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर आप अपना इलाज करा लेंगे. मैं न्यूयॉर्क गया और आज इसी वजह से मैं जीवित हूं. फिर वाजपेयी बहुत भावविह्वल होकर बोले कि मैं विपक्ष का नेता हूं, तो लोग उम्मीद करते हैं कि में विरोध में ही कुछ बोलूंगा. लेकिन ऐसा मैं नहीं कर सकता. मैं राजीव गांधी के बारे में वही कह सकता हूं, जो उन्होंने मेरे लिए किया.

आज़ाद भारत स्वर्गीय राजीव महत्वपूर्ण योगदान के लिए हमेशा उनका ऋणी रहेगा. कांग्रेस स्वर्गीय राजीव गांधी की पुण्यतिथि 21 मई को ’बलिदान दिवस’ के रूप में मनाती है.


फ़िरदौस ख़ान
कुछ लोग ज़मीन पर राज करते हैं और कु्छ लोग दिलों पर. मरहूम राजीव गांधी एक ऐसी शख़्सियत थे, जिन्होंने ज़मीन पर ही नहीं, बल्कि दिलों पर भी हुकूमत की. वह भले ही आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन हमारे दिलों में आज भी ज़िंदा हैं. श्री राजीव गांधी ने उन्नीसवीं सदी में इक्कीसवीं सदी के भारत का सपना देखा था.  स्वभाव से गंभीर लेकिन आधुनिक सोच और निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता वाले श्री राजीव गांधी देश को दुनिया की उच्च तकनीकों से पूर्ण करना चाहते थे. वे बार-बार कहते थे कि भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के साथ ही उनका अन्य बड़ा मक़सद इक्कीसवीं सदी के भारत का निर्माण है. अपने इसी सपने को साकार करने के लिए उन्होंने देश में कई क्षेत्रों में नई पहल की, जिनमें संचार क्रांति और कंप्यूटर क्रांति, शिक्षा का प्रसार, 18 साल के युवाओं को मताधिकार, पंचायती राज आदि शामिल हैं. वे देश की कंप्यूटर क्रांति के जनक के रूप में भी जाने जाते हैं. वे युवाओं के लोकप्रिय नेता थे. उनका भाषण सुनने के लिए लोग घंटों इंतज़ार किया करते थे. उन्होंने अपने प्रधानमंत्री काल में कई ऐसे महत्वपूर्ण फ़ैसले लिए, जिसका असर देश के विकास में देखने को मिल रहा है. आज हर हाथ में दिखने वाला मोबाइल उन्हीं फ़ैसलों का नतीजा है.


चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने वाले श्री राजीव गांधी देश के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री थे और दुनिया के उन युवा राजनेताओं में से एक हैं, जिन्होंने सरकार की अगुवाई की है. उनकी मां श्रीमती इंदिरा गांधी 1966 में जब पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं, तब वह उनसे उम्र में आठ साल बड़ी थीं. उनके नाना पंडित जवाहरलाल नेहरू 58 साल के थे, जब उन्होंने आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के तौर शपथ ली. देश में पीढ़ीगत बदलाव के अग्रदूत श्री राजीव गांधी को देश के इतिहास में सबसे बड़ा जनादेश हासिल हुआ था. अपनी मां के क़त्ल के बाद 31 अक्टूबर 1984 को वे कांग्रेस अध्यक्ष और देश के प्रधानमंत्री बने थे. अपनी मां की मौत के सदमे से उबरने के बाद उन्होंने लोकसभा के लिए चुनाव कराने का आदेश दिया. दुखी होने के बावजूद उन्होंने अपनी हर ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया. महीने भर की लंबी चुनावी मुहिम के दौरान उन्होंने पृथ्वी की परिधि के डेढ़ गुना के बराबर दूरी की यात्रा करते हुए देश के तक़रीबन सभी हिस्सों में जाकर 250 से ज़्यादा जनसभाएं कीं और लाखों लोगों से रूबरू हुए. उस चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला और पार्टी ने रिकॉर्ड 401 सीटें हासिल कीं. सात सौ करोड़ भारतीयों के नेता के तौर पर इस तरह की शानदार शुरुआत किसी भी हालत में क़ाबिले-तारीफ़ मानी जाती है. यह इसलिए भी बेहद ख़ास है, क्योंकि वे उस सियासी ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते थे, जिसकी चार पीढ़ियों ने जंगे-आज़ादी के दौरान और इसके बाद हिन्दुस्तान की ख़िदमत की थी. इसके बावजूद श्री राजीव गांधी सियासत में नहीं आना चाहते थे. इसीलिए वे सियासत में देर से आए.

श्री राजीव गांधी का जन्म 20 अगस्त, 1944 को मुंबई में हुआ था. वे सिर्फ़ तीन साल के थे, जब देश आज़ाद हुआ और उनके नाना आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बने. उनके माता-पिता लखनऊ से नई दिल्ली आकर बस गए. उनके पिता फ़िरोज़ गांधी सांसद बने, जिन्होंने एक निडर तथा मेहनती सांसद के रूप में ख्याति अर्जित की.
राजीव गांधी ने अपना बचपन अपने नाना के साथ तीन मूर्ति हाउस में बिताया, जहां इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री की परिचारिका के रूप में काम किया. वे कुछ वक़्त के लिए देहरादून के वेल्हम स्कूल गए, लेकिन जल्द ही उन्हें हिमालय की तलहटी में स्थित आवासीय दून स्कूल में भेज दिया गया. वहां उनके कई दोस्त बने, जिनके साथ उनकी ताउम्र दोस्ती बनी रही. बाद में उनके छोटे भाई संजय गांधी को भी इसी स्कूल में भेजा गया, जहां दोनों साथ रहे. स्कूल से निकलने के बाद श्री राजीव गांधी कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, लेकिन जल्द ही वे वहां से हटकर लंदन के इम्पीरियल कॉलेज चले गए. उन्होंने वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की.
उनके सहपाठियों के मुताबिक़ उनके पास दर्शन, राजनीति या इतिहास से संबंधित पुस्तकें न होकर विज्ञान एवं इंजीनियरिंग की कई पुस्तकें हुआ करती थीं. हालांकि संगीत में उनकी बहुत दिलचस्पी थी. उन्हें पश्चिमी और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय और आधुनिक संगीत पसंद था. उन्हें फ़ोटोग्राफ़ी और रेडियो सुनने का भी ख़ासा शौक़ था. हवाई उड़ान उनका सबसे बड़ा जुनून था. इंग्लैंड से घर लौटने के बाद उन्होंने दिल्ली फ़्लाइंग क्लब की प्रवेश परीक्षा पास की और व्यावसायिक पायलट का लाइसेंस हासिल किया. इसके बाद वे  1968 में घरेलू राष्ट्रीय जहाज़ कंपनी इंडियन एयरलाइंस के पायलट बन गए.

कैम्ब्रिज में उनकी मुलाक़ात इतालवी सोनिया मैनो से हुई थी, जो उस वक़्त वहां अंग्रेज़ी की पढ़ाई कर रही थीं. उन्होंने 1968 में नई दिल्ली में शादी कर ली. वे अपने दोनों बच्चों राहुल और प्रियंका के साथ नई दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी के निवास पर रहे. वे ख़ुशी ख़ुशी अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे, लेकिन  23 जून 1980 को एक जहाज़ हादसे में उनके भाई संजय गांधी की मौत ने सारे हालात बदल कर रख दिए. उन पर सियासत में आकर अपनी मां की मदद करने का दबाव बन गया. फिर कई अंदरूनी और बाहरी चुनौतियां भी सामने आईं. पहले उन्होंने इन सबका काफ़ी विरोध किया, लेकिन बाद में उन्हें अपनी मां की बात माननी पड़ी और इस तरह वे न चाहते हुए भी सियासत में आ गए. उन्होंने जून 1981 में अपने भाई की मौत की वजह से ख़ाली हुए उत्तर प्रदेश के अमेठी लोकसभा क्षेत्र का उपचुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें जीत हासिल हुई.  इसी महीने वे युवा कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य बन गए. उन्हें नवंबर 1982 में भारत में हुए एशियाई खेलों से संबंधित महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई, जिसे उन्होंने बख़ूबी अंजाम दिया. साथ ही कांग्रेस के महासचिव के तौर पर उन्होंने उसी लगन से काम करते हुए पार्टी संगठन को व्यवस्थित और सक्रिय किया.

अपने प्रधानमंत्री काल में राजीव गांधी ने नौकरशाही में सुधार लाने और देश की अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए कारगर क़दम उठाए, लेकिन पंजाब और कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को नाकाम करने की उनकी कोशिश का बुरा असर हुआ. वे सियासत को भ्रष्टाचार से मुक्त करना चाहते थे, लेकिन यह विडंबना है कि उन्हें भ्रष्टाचार की वजह से ही सबसे ज़्यादा आलोचना का सामना करना पड़ा.  उन्होंने कई साहसिक क़दम उठाए, जिनमें श्रीलंका में शांति सेना का भेजा जाना, असम समझौता, पंजाब समझौता, मिज़ोरम समझौता आदि शामिल हैं. इसकी वजह से चरमपंथी उनके दुश्मन बन गए. नतीजतन, श्रीलंका में सलामी गारद के निरीक्षण के वक़्त उन पर हमला किया गया, लेकिन वे बाल-बाल बच गए. साल 1989 में उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन वह कांग्रेस के नेता पद पर बने रहे. वे आगामी आम चुनाव के प्रचार के लिए 21 मई, 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेराम्बदूर गए, जहां एक आत्मघाती हमले में उनकी मौत हो गई. देश में शोक की लहर दौड़ पड़ी.
राजीव गांधी की देश सेवा को राष्ट्र ने उनके दुनिया से विदा होने के बाद स्वीकार करते हुए उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया, जिसे श्रीमती सोनिया गांधी ने 6 जुलाई, 1991 को अपने पति की ओर से ग्रहण किया.

राजीव गांधी अपने विरोधियों की मदद के लिए भी हमेशा तैयार रहते थे. साल 1991 में जब राजीव गांधी की हत्या कर दी गई, तो एक पत्रकार ने भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी से संपर्क किया. उन्होंने पत्रकार को अपने घर बुलाया और कहा कि अगर वह विपक्ष के नेता के नाते उनसे राजीव गांधी के ख़िलाफ़ कुछ सुनना चाहते हैं, तो मैं एक भी शब्द राजीव गांधी के ख़िलाफ़ नहीं कहेंगे, क्योंकि राजीव गांधी की मदद की वजह से ही वह ज़िन्दा हैं. उन्होंने भावुक होकर कहा कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तो उन्हें पता नहीं कैसे पता चल गया कि मेरी किडनी में समस्या है और इलाज के लिए मुझे विदेश जाना है. उन्होंने मुझे अपने दफ़्तर में बुलाया और कहा कि वह उन्हें आपको संयुक्त राष्ट्र में न्यूयॉर्क जाने वाले भारत के प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर रहे हैं और उम्मीद है कि इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर आप अपना इलाज करा लेंगे. मैं न्यूयॉर्क गया और आज इसी वजह से मैं जीवित हूं. फिर वाजपेयी बहुत भावविह्वल होकर बोले कि मैं विपक्ष का नेता हूं, तो लोग उम्मीद करते हैं कि में विरोध में ही कुछ बोलूंगा. लेकिन ऐसा मैं नहीं कर सकता. मैं राजीव गांधी के बारे में वही कह सकता हूं, जो उन्होंने मेरे लिए किया. ग़ौरतलब है कि श्री राजीव गांधी ने अटल बिहारी वाजपेयी को इलाज के लिए कई बार विदेश भेजा था.

श्री राजीव गांधी की निर्मम हत्या के वक़्त सारा देश शोक में डूब गया था. श्री राजीव गांधी की मौत से श्री अटल बिहारी वाजपेयी को बहुत दुख हुआ था. उन्होंने स्वर्गीय राजीव गांधी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, मृत्यु शरीर का धर्म है. जन्म के साथ मरण जुड़ा हुआ है. लेकिन जब मृत्यु सहज नहीं होती, स्वाभाविक नहीं होती, प्राकृतिक नहीं होती, ’जीर्णानि वस्त्रादि यथा विहाय’- गीता की इस कोटि में नहीं आती, जब मृत्यु बिना बादलों से बिजली की तरह गिरती है, भरी जवानी में किसी जीवन-पुष्प को चिता की राख में बदल देती है, जब मृत्यु एक साजिश का नतीजा होती है, एक षडतंत्र का परिणाम होती है तो समझ में नहीं आता कि मनुष्य किस तरह से धैर्य धारण करे, परिवार वाले किस तरह से उस वज्रपात को सहें. श्री राजीव गांधी की जघन्य हत्या हमारे राष्ट्रीय मर्म पर एक आघात है, भारतीय लोकतंत्र पर एक कलंक है. एक बार फिर हमारी महान सभ्यता और प्राचीन संस्कृति विश्व में उपहास का विषय बन गई है. शायद दुनिया में और कोई ऐसा देश नहीं होगा जो अहिंसा की इतनी बातें करता हो. लेकिन शायद कोई और देश दुनिया में नहीं होगा, जहां राजनेताओं की इस तरह से हिंसा में मृत्यु होती हो. यह हिंसा और हत्याओं का सिलसिला बंद होना चाहिए.

आज़ाद भारत स्वर्गीय राजीव महत्वपूर्ण योगदान के लिए हमेशा उनका ऋणी रहेगा. स्वर्गीय राजीव गांधी की जयंती 'सद्भावना दिवस' और 'अक्षय ऊर्जा दिवस' के तौर पर मनाई जाती है, जबकि पुण्यतिथि 21 मई को ’बलिदान दिवस’ के रूप में मनाई जाती है.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने पिता को याद करते हुए कहते हैं, वे एक दयालु, सौम्य और स्नेही व्यक्ति थे, जिनकी असामयिक मृत्यु ने मेरे जीवन में एक गहरा शून्य छोड़ा है. मुझे उनके साथ बिताया गया वक़्त याद है और भाग्यशाली था कि कई जन्मदिन उनके साथ मनाएं, जब वह ज़िन्दा थे. मैं उन्हें बहुत याद करता हूं, लेकिन वे मेरी यादों में हैं. वे कहते हैं, “मेरे पिता ने मुझे सिखाया कि नफ़रत पालने वालों के लिए यह जेल होती है. मैं उनका आभार जताता हूं कि उन्होंने मुझे सभी को प्यार और सम्मान करना सिखाया. यह सबसे बेशक़ीमती तोहफ़ा है, जो एक पिता अपने बेटे को दे सकता है."


फ़िरदौस ख़ान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिला सशक्तिकरण पर ज़ोर देते हुए राज्यसभा के सभी सांसदों से नारी शक्ति वंदन अधिनियम संविधान संशोधन मामले में सर्सम्मति से निर्णय लेने का आह्वान किया है. वे आज नये संसद भवन में राज्यसभा को संबोधित कर रहे थे. इस मौक़े पर उन्होंने कहा कि हम सबके लिए आज का ये दिवस यादगार भी है, ऐतिहासिक भी है. इससे पहले मुझे लोकसभा में भी अपनी भावना को व्यक्त करने का अवसर मिला था. अब राज्यसभा में भी आज आपने मुझे अवसर दिया है, मैं आपका आभारी हूं. 

हमारे संविधान में राज्यसभा की परिकल्पना उच्च सदन के रूप में की गई है. संविधान निर्माताओं का ये आशय रहा है कि ये सदन राजनीति की आपाधापी से ऊपर उठकर के गंभीर, बौद्धिक विचार विमर्श का केंद्र बने और देश को दिशा देने का सामर्थ्य यहीं से निकले. ये स्वाभाविक देश की अपेक्षा भी है और लोकतंत्र की समृद्धि में ये योगदान भी उस समृद्धि को अधिक मूल्यवृद्धि कर सकता है. 

इस सदन में अनेक महापुरुष रहे हैं. मैं सब का उल्लेख तो न कर पाऊं लेकिन लाल बहादुर शास्त्री जी को, गोविंद वल्लभ पंत साहब हों, लालकृष्ण आडवाणी जी हो, प्रणब  मुखर्जी साहब हों, अरूण जेटली जी हों, ऐसे अनगिनत विद्वान, सृष्टिजन और सार्वजनिक जीवन में वर्षों तक तपस्या किए हुए लोगो ने इस सदन को सुशोभित किया है, देश का मार्गदर्शन किया है. ऐसे कितने ही सदस्य जिन्होंने एक प्रकार से व्यक्ति स्वयं में एक संस्था की तरह, एक independent think tank के रूप में अपना सामर्थ्य देश को उसका लाभ देने वाले लोग भी हमें रहे हैं. संसदीय इतिहास के शुरुआती दिनों में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्ण जी ने राज्यसभा के महत्व पर कहा था कि  parliament is not only a legislative but a deliberative body. राज्यसभा से देश की जनता की अनेक ऊंची अपेक्षाएं हैं, सर्वोत्तम अपेक्षाएं हैं और इसलिए माननीय सदस्यों के बीच गंभीर विषयों की चर्चा और उसे सुनना ये भी एक बहुत बड़ा सुखद अवसर होता है. नया संसद भवन एक सिर्फ़ नई बिल्डिंग नहीं है, लेकिन ये एक नई शुरुआत का प्रतीक भी है. हम व्यक्तिगत जीवन में भी देखते हैं. जब किसी भी नई चीज़ के साथ हमारा जुड़ाव आता है तो मन पहला करता है कि अब एक नये वातावरण का मैं optimum utilisation करूंगा, उसका सर्वाधिक सकारात्मक वातावरण में मैं काम करूंगा ऐसा स्वभाव होता है. और अमृतकाल की शुरुआत में ही इस भवन का निर्माण होना और इस भवन में हम सबका प्रवेश होना ये अपने आप में, हमारे देश के 104 करोड़  नागरिकों की जो आशा–आकांक्षाएं हैं उसमें एक नई ऊर्जा भरने वाला बनेगा. नई आशा और नया विश्वास पैदा करने वाला बनेगा.  

हमें तय समय सीमा में लक्ष्यों को हासिल करना है. क्योंकि देश, जैसा मैंने पहले भी कहा था, ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं कर सकता है. एक कालखंड था जब सामान्य मन को लगता था कि ठीक है हमारे मां-बाप भी ऐसे गुज़ारा किया, हम भी कर लेंगे, हमारे नसीब में ये था हम जी लेंगे. आज समाज जीवन की और ख़ासकर के नई पीढ़ी की सोच वो नहीं है और इसलिए हमें भी नई सोच के साथ नई शैली के साथ सामान्य मानवीय की आशा–आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए हमारे कार्य का व्याप्त भी बढ़ाना पड़ेगा, हमारी सोचने की जो सीमाएं हैं उससे भी हमें आगे बढ़ना पड़ेगा और हमारी क्षमता जितनी बढ़ेगी उतना ही देश की क्षमता बढ़ाने में हमारा योगदान भी बढ़ेगा.

मानता हूं कि इस नये भवन में, ये उच्च सदन में हम अपने आचरण से, अपने व्यवहार से संसदीय सूचिता के प्रतीक रूप में देश की विधानसभाओं को, देश की स्थानीय स्वराज्य की संस्थाओं को बाक़ी सारी व्यवस्था को प्रेरणा दे सकते हैं और मैं समझता हूं कि ये स्थान ऐसा है कि जिसमें ये सामर्थ्य सबसे अधिक है और इसका लाभ देश को मिलना चाहिए, देश के जनप्रतिनिधि को मिलना चाहिए, चाहे वो ग्राम प्रधान के रूप में चुना गया हो, चाहे वो संसद में आया हो और ये परम्परा यहां से हम कैसे आगे बढ़ाएं.

पिछले नौ वर्ष से आप सबके साथ से, सहयोग से देश की सेवा करने का हमें मौक़ा मिला. कई बड़े निर्णय करने के अवसर आए और बड़े महत्वपूर्ण निर्णयों पर फ़ैसले  भी हुए और कई तो फ़ैसले ऐसे थे जो दशकों से लटके हुए थे. उन फ़ैसलों को भी और ऐसे निर्णय, ऐसी बातें थीं जिसको बहुत कठिन माना जाता था, मुश्किल माना जाता था और राजनीतिक दृष्टि से तो उसको स्पर्श करना भी बहुत ही ग़लत माना जाता था. लेकिन इन सबके बावजूद भी हमने उस दिशा में कुछ हिम्मत दिखाई. राज्यसभा में हमारे पास उतनी संख्या नहीं थी लेकिन हमें एक विश्वास था कि राज्यसभा दलगत सोच से ऊपर उठकर के देश हित में ज़रूर अपने फ़ैसले लेगी. और मैं आज मेरे संतोष के साथ कह सकता हूं कि उदार सोच के परिणाम हमारे पास संख्याबल कम होने के बावजूद भी आप सभी माननीय सांसदों की maturity के कारण, समझ के कारण, राष्ट्रहित के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी के कारण, आप सबके सहयोग से हम कई ऐसे कठिन निर्णय भी कर पाए और राज्यसभा की गरिमा को ऊपर उठाने का काम सदस्य संख्या के बल पर नहीं, समझदारी के सामर्थ्य पर आगे बढ़ा. इससे बड़ा संतोष क्या हो सकता है? और इसलिए मैं सदन के सभी माननीय सांसदों का जो आज हैं, जो इसके पहले थे उन सबका धन्यवाद करता हूं.

लोकतंत्र में कौन शासन में आएगा, कौन नहीं आएगा, कौन कब आएगा, ये क्रम चलता रहता है. वो बहुत स्वाभाविक भी है और वो लोकतंत्र की स्वाभाविक उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति भी है. लेकिन जब भी विषय देश के लिए सामने आए हम सबने मिलकर के राजनीति से ऊपर उठकर के देश के हितों को सर्वोपरि रखते हुए कार्य करने का प्रयास किया है. 

राज्यसभा एक प्रकार से राज्यों का भी प्रतिनिधित्व करती है. एक प्रकार से cooperative federalism और जब अब competitive cooperative federalism की ओर बल दे रहे हैं तब हम देख रहे हैं कि एक अत्यंत सहयोग के साथ अनेक ऐसे मसले रहे हैं, देश आगे बढ़ा है. Covid का संकट बहुत बड़ा था. दुनिया ने भी परेशानी झेली है हम लोगों ने भी झेली है. लेकिन हमारे federalism की ताक़त थी की केंद्र और राज्यों ने मिलकर के, जिससे जो बन पड़ता है, देश को बहुत बड़े संकट से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया और ये हमारे cooperative federalism की ताक़त को बल देता है. हमारे federal structure की ताक़तों से अनेक संकटों का सामना किया है. और हमने सिर्फ़ संकटों के समय नहीं, उत्सव के समय भी दुनिया के सामने भारत की उस ताक़त को पेश किया है जिससे दुनिया प्रभावित हुई है. भारत की विविधता, भारत के इतने राजनीतिक दल, भारत में इतने media houses, भारत के इतने रहन-सहन, बोलियां ये सारी चीज़ें G-20 समिट में, राज्यों में जो Summit हुई क्योंकि दिल्ली में तो बहुत देर से आई. लेकिन उसके पहले देश के 60 शहरों में 220 से ज़्यादा समिट होना और हर राज्य में बढ़-चढ़कर के, बड़े उत्साह के साथ विश्व को प्रभावित करे इस प्रकार से मेहमानवाजी भी की और जो deliberations हुए उसने तो दुनिया को दिशा देने का सामर्थ्य दिखाया है. और ये हमारे federalism की ताक़त है और उसी federalism के कारण और उसी Cooperative federalism के कारण आज हम यहां प्रगति कर रहे हैं. 

इस नये सदन में भी, नई इस हमारी Parliament building में भी, उस federalism का एक अंश ज़रूर नज़र आता है. क्योंकि जब बनता था तो राज्यों से प्रार्थना की गई थी कि कई बातें ऐसी हैं जिसमें हमें राज्यों की कोई न कोई याद यहां चाहिए. लगना चाहिए कि ये भारत के सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व है और यहां कई प्रकार की ऐसी कलाकृतियां, कई चित्र पूरे हमारे दीवारों की शोभा बढ़ा रहे हैं. वो राज्यों ने पसंद करके अपने यहां राज्य की श्रेष्ठ चीज़ भेजी है यानी एक प्रकार से यहां के वातावरण में भी राज्य भी हैं, राज्यों की विवधता भी है और federalism की सुगंध भी है. 

Technology ने जीवन को बहुत तेज़ी से प्रभावित किया है. पहले जो टेक्नोलॉजी में बदलाव आते-आते 50-50 साल लग जाते थे वो आजकल कुछ हफ़्तों में आ जाते हैं. आधुनिकता, अनिवार्यता बन गई है और आधुनिकता को मैच करने के लिए हमने अपने आप को भी निरंतर dynamic रूप से आगे बढ़ाना ही पड़ेगा जब जाकर के उस आधुनिकता के साथ हम क़दम से क़दम मिलाकर के आगे बढ़ सकते हैं. 

पुराने भवन में हमने जिसको अभी आपने संविधान सदन के रूप में कहा हमने वहां कभी आज़ादी का अमृत महोत्सव बड़े आन-बान-शान के साथ मनाया, 75 साल की हमारी यात्रा की तरफ़ हमने देखा भी और नई दिशा, नया संकल्प करने का प्रयास भी शुरू किया है लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि नये संसद भवन में आज़ादी की जब हम शताब्दी मनाएंगे वो स्वर्ण शताब्दी विकसित भारत की होगी, developed India की होगी मुझे पूरा विश्वास है. पुराने भवन में हम पांचवीं अर्थव्यवस्था तक पहुंचे थे, मुझे विश्वास है कि नई संसद भवन में हम दुनिया की top 3 economy बनेंगे, स्थान प्राप्त करेंगे. पुराने संसद भवन में ग़रीब कल्याण के अनेक initiative हुए, अनेक काम हुए नये संसद भवन में हम अब शत-प्रतिशत saturation जिसका हक़ उसको पुन: मिले.   

इस नये सदन की दीवारों के साथ-साथ हमें भी अब टेक्नोलॉजी के साथ अपने आप को अब adjust करना पड़ेगा क्योंकि अब सारी चीज़ें हमारे सामने I-Pad पर है. मैं तो प्रार्थना करूंगा कि बहुत से माननीय सदस्यों को अगर कल कुछ समय निकालकर के उनको अगर परिचित करा दिया जाए टेक्नोलॉजी से तो उनकी सुविधा रहेगी, वहां बैठेगें, अपनी स्क्रीन भी देखेंगे, ये स्क्रीन भी देखेंगे तो हो सकता है कि उनको कठिनाई ना आए क्योंकि आज मैं अभी लोकसभा में था तो कई साथियों को इन चीज़ों को operate करने में दिक़्क़त हो रही थी. तो ये हम सबका दायित्व है कि हम उसमें सबकी मदद करें तो कल कुछ समय निकालकर के अगर ये हो सकता है तो अच्छा होगा. 

ये डिजिटल का युग है. हमने इस सदन से भी उस चीज़ों से आदतन हमारा हिस्सा बनाना ही होगा. शुरू में थोड़ा दिन लगता है लेकिन अब तो बहुत सी चीज़ें user-friendly होती हैं बड़े आराम से इन चीज़ों को adopt किया जा सकता है. अब इसको करें. Make in India एक प्रकार से globally game changer के रूप में हमने इसका भरपूर फ़ायदा उठाया है और मैंने कहा वैसे नई सोच, नया उत्साह, नया उमंग, नई ऊर्जा के साथ हम आगे बढ़कर के कर सकते हैं. 

आज नया संसद भवन देश के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक फ़ैसले का साक्षी बन रहा है. अभी Parliament लोकसभा में एक bill प्रस्तुत किया गया है. वहां पर चर्चा होने के बाद यहां भी आएगा. नारी शक्ति के सशक्तिकरण की दिशा में जो पिछले अनेक वर्षों से महत्वपूर्ण क़दम उठाए गए हैं उसमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण क़दम आज हम सब मिलकर के उठाने जा रहे हैं. सरकार का प्रयास रहा East of Living का Quality of Life का और Ease of Living और Quality of Life की बात करते है तो उसकी पहली हक़दार हमारी बहनें होती हैं, हमारी नारी होती हैं क्योंकि उसी को सब चीज़ें झेलनी है. और इसलिए हमारा प्रयास रहा है और राष्ट्रनिर्माण में उनकी भूमिका बहे ये भी हमारी उतनी ही ज़िम्मेदारी है. अनेक नये-नये sectors हैं, जिनमें महिलाओं की शक्ति, महिलाओं की भागीदारी निरंतर सुनिश्चित की जा रही हैं. Mining में बहनें काम कर सकें ये निर्णय है, हमारे ही सांसदों की मदद से हुआ. हमने सभी स्कूलों को बेटियों के लिए दरवाज़े खोल दिए क्योंकि बेटियों में जो सामर्थ्य है. उस सामर्थ्य को अब अवसर मिलना चाहिए उनके जीवन में Ifs and buts का युग ख़त्म हो चुका है. हम जितनी सुविधा देंगे उतना सामर्थ्य हमारी मातृ शक्ति हमारी बेटियां, हमारी बहनें दिखाएंगी. ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का अभियान वो कोई सरकारी कार्यक्रम नहीं है समाज के इसे अपना बनाया है और बेटियों की मान-सम्मान की दिशा में, समाज में एक भाव पैदा हुआ है. मुद्रा योजना हो, जनधन योजना हो महिलाओं ने बढ़ चढ़कर के इसका लाभ उठाया है. Financial inclusion के अंदर आज भारत में महिलाओं का सक्रिय योगदान नज़र आ रहा है, ये अपने आप में, मैं समझता हूं उनके परिवार के जीवन में भी उनके सामर्थ्य को प्रकट करता है. जो सामर्थ्य अब राष्ट्र जीवन में भी प्रकट होने का वक़्त आ चुका है. हमारी कोशिश रही है कि हमारी माताओं, बहनों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उज्जवला योजना, हमें मालूम है गैस सिलेंडर के लिए पहले एमपी के घर के चक्कर काटने पड़ते थे. ग़रीब परिवारों तक उसको पहुंचाना मैं जानता हूं बहुत बड़ा आर्थिक बोझ है लेकिन महिलाओं के जीवन को ध्यान में रखते हुए उस काम को किया. महिलाओं के सम्मान के लिए ट्रिपल तलाक़ लम्बे अरसे से राजनीतिक कोशिशें, राजनीतिक लाभालाभ का शिकार हो चुका था. इतना बड़ा मानवीय निर्णय लेकिन हम सभी माननीय सांसदों की मदद से उसको कर पाया. नारी सुरक्षा के लिए कड़े क़ानून बनाने का काम भी हम सब कर पाए हैं. Women-led development G-20 की सबसे बड़ी चर्चा का विषय रहा और दुनिया के कई देश हैं जिनके लिए Women-led development विषय थोड़ा सा नया सा अनुभव होता था और जब उनकी चर्चा में सुर आते थे, कुछ अलग से सुर सुनने को मिलते थे. लेकिन G-20 के declaration में सबने मिलकर के Women- led development के विषय को अब भारत से दुनिया की तरफ़ पहुंचा है ये हम सबके लिए गर्व की बात है. 

इसी background में लंबे अरसे से विधानसभा और लोकसभा में सीधे चुनाव में बहनों की भागीदारी सुनिश्चित करने का विषय और ये बहुत समय से आरक्षण की चर्चा चली थी, हर किसी ने कुछ न कुछ प्रयास किया है लेकिन और ये 1996 से इसकी शुरुआत हुई है और अटल जी के समय तो कई बार बिल लाए गए. लेकिन नम्बर कम पड़ते थे उस उग्र विरोध का भी वातावरण रहता था, एक महत्वपूर्ण काम करने में काफ़ी असुविधा होती थी. लेकिन जब नये सदन में आए हैं. नया होने का एक उमंग भी होता है तो मुझे विश्वास है कि ये जो लम्बे अरसे से चर्चा में रहा विषय है अब इसको हमने क़ानून बनाकर के हमारे देश की विकास यात्रा में नारी शक्ति की भागीदारी सुनिश्चित करने का समय आ चुका है. और इसलिए नारी शक्ति वंदन अधिनियम संविधान संशोधन के रूप में लाने का सरकार का विचार है जिसको आज लोकसभा में रखा गया है, कल लोकसभा में इसकी चर्चा होगी और इसके बाद राज्यसभा में भी आएगा. मैं आज आप सबसे प्रार्थना करता हूं कि एक ऐसा विषय है जिसको अगर हम सर्वसम्मति से आगे बढ़ाएंगे तो साथ अर्थ में वो शक्ति अनेक गुना बढ़ जाएगी. और जब भी हम सबके सामने आए तब मैं राज्यसभा के सभी मेरे माननीय सांसद साथियों से आज आग्रह करने आया हूं कि हम सर्वसम्मति से जब भी उसके निर्णय करने का अवसर आए, आने वाले एक-दो दिन में आप सबके सहयोग के अपेक्षा साथ मैं मेरी वाणी को विराम देता हूं. बहुत-बहुत धन्यवाद.   


फ़िरदौस ख़ान
भारतीय जनता पार्टी की आईटी सेल के लोग और नेता कांग्रेस नेताओं को कितना ही बुरा कहें, लेकिन उनके आक़ाओं को कांगेस नेताओं की तारीफ़ करनी ही पड़ती है. अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज नये संसद भवन में लोकसभा को संबोधित करते हुए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को याद किया. नरेंद्र मोदी ने कहा कि ये भवन नया है, यहां सबकुछ नया है, सारी व्यवस्थाएं नई हैं, यहां तक आपके सब साथियों को भी आपने एक नये रंग-रूप के साथ प्रस्तुत किया है. सब कुछ नया है लेकिन यहां पर कल और आज को जोड़ती हुई एक बहुत बड़ी विरासत का प्रतीक भी मौजूद है, वो नया नहीं है, वो पुराना है. और वो आज़ादी की पहली किरण का स्वयं साक्षी रहा है जो आज अभी हमारे बीच उपस्थित है. वो हमारे समृद्ध इतिहास को जोड़ता है और जब आज हम नये सदन में प्रवेश कर रहे हैं, संसदीय लोकतंत्र का जब ये नया गृह प्रवेश हो रहा है तो यहां पर आज़ादी की पहली किरण का साक्षी, जो आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरणा देने वाला है, वैसा पवित्र सैंगोल और ये वो सैंगोल है जिसको भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का स्पर्श हुआ था, ये पंडित नेहरू के हाथों में पूजाविधि कर-करके आज़ादी के पर्व का प्रारम्भ हुआ था. और इसलिए एक बहुत महत्वपूर्ण अतीत को उसके साथ ये सैंगोल हमें जोड़ता है. तमिलनाडु की महान परम्परा का वो प्रतीक तो है ही देश को जोड़ने का भी, देश की एकता का भी वो प्रतीक है. और हम सभी माननीय सांसदों को हमेशा जो पवित्र सैंगोल पंडित नेहरू के हाथ में शोभा देता था वो आज हम सबकी प्रेरणा का कारण बन रहा है, इससे बड़ा गर्व क्या हो सकता है.   

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा को संबोधित करते हुए कहा कि नये संसद भवन का ये प्रथम और ऐतिहासिक सत्र है. मैं सभी माननीय सांसदों को और सभी देशवासियों को बहुत-बहुत शुभकामनाएं देता हूं.  

आज प्रथम दिवस के प्रथम सत्र में नये सदन में आपने मुझे बात रखने के लिए अवसर दिया है इसलिए मैं आपका बहुत-बहुत आभार व्यक्त करता हूं. इस नये संसद भवन में मैं आप सभी माननीय सांसदों का भी हृदय से स्वागत करता हूं. ये अवसर कई माइनो में अभूतपूर्व है. आज़ादी के अमृतकाल का ये उषाकाल है और भारत अनेक सिद्धियों के साथ नये संकल्प लेकर के, नये भवन में अपना भविष्य तय करने के लिए आगे बढ़ रहा है. विज्ञान जगत में चंद्रयान-3 की गगनचुंबी सफलता हर देशवासी को गर्व से भर देती है. भारत की अध्यक्षता में G-20 का असाधारण आयोजन विश्व में इच्छित प्रभाव इस अर्थ में ये अद्वितीय उपलब्धियां हासिल करने वाला एक अवसर भारत के लिए बना. इसी आलोक में आज आधुनिक भारत और हमारे प्राचीन लोकतंत्र का प्रतीक नये संसद भवन का शुभारम्भ हुआ है. सुखद संयोग है कि गणेश चतुर्थी का शुभ दिन है. गणेश जी शुभता और सिद्धी के देवता है, गणेश जी विवेक और ज्ञान के भी देवता है. इस पावन दिवस पर हमारा ये शुभारंभ संकल्प से सिद्धी की ओर एक नये विश्वास के साथ यात्रा को आरम्भ करने का है. 

आज़ादी के अमृतकाल में हम जब नये संकल्पों को लेकर चल रहे हैं तब, अब जब गणेश चतुर्थी का पर्व आज है तब लोकमान्य तिलक की याद आना बहुत स्वाभाविक है. आज़ादी के आन्दोलन में लोकमान्य तिलक जी ने गणेश उत्सव को एक सार्वजनिक गणेश उत्सव के रूप में प्रस्थापित करके पूरे राष्ट्र में स्वराज्य की आहलेख जगाने का माध्यम बनाया था. लोकमान्य तिलक जी ने गणेश पर्व से स्वराज्य की संकल्पना को शक्ति दी उसी प्रकास से आज ये गणेश चतुर्थी का पर्व, लोकमान्य तिलक जी ने स्वतंत्र भारत स्वराज्य की बात कही थी. आज हम समृद्ध भारत गणेश चतुर्थी के पावन दिवस पर उसकी प्रेरणा के साथ आगे बढ़ रहे हैं. सभी देशवासियों को इस अवसर पर फिर एक बार मैं बहुत-बहुत बधाई देता हूं.         

आज संवत्सरी का भी पर्व है ये अपने आप में एक अद्भुत परम्परा है इस दिन को एक प्रकार से क्षमावाणी का भी पर्व कहते है. आज मिच्छामी दुक्कड़म कहने का दिन है, ये पर्व मन से, कर्म से, वचन से अगर जाने अनजाने किसी को भी दुख पहुंचाया है तो उसकी क्षमायाचना का अवसर है. मेरी तरफ़ से भी पूरी विनम्रता के साथ, पूरे हृदय से आप सभी को, सभी सांसद सदस्यों को और सभी देशवासियों को मिच्छामी दुक्कड़म. आज जब हम एक नई शुरुआत कर रहे हैं तब हमें अतीत की हर कड़वाहट को भुलाकर आगे बढ़ना है. स्पिरिट के साथ जब हम यहां से, हमारे आचरण से, हमारी वाणी से, हमारे संकल्पों से जो भी करेंगे, देश के लिए, राष्ट्र के एक-एक नागरिक के लिए वो प्रेरणा का कारण बनना चाहिए और हम सबको इस दायित्व को निभाने के लिए भरसक प्रयास भी करना चाहिए.

ये भवन नया है, यहां सबकुछ नया है, सारी व्यवस्थाएं नई हैं, यहां तक आपके सब साथियों को भी आपने एक नये रंग-रूप के साथ प्रस्तुत किया है. सब कुछ नया है लेकिन यहां पर कल और आज को जोड़ती हुई एक बहुत बड़ी विरासत का प्रतीक भी मौजूद है, वो नया नहीं है, वो पुराना है. और वो आज़ादी की पहली किरण का स्वयं साक्षी रहा है जो आज अभी हमारे बीच उपस्थित है. वो हमारे समृद्ध इतिहास को जोड़ता है और जब आज हम नये सदन में प्रवेश कर रहे हैं, संसदीय लोकतंत्र का जब ये नया गृह प्रवेश हो रहा है तो यहां पर आज़ादी की पहली किरण का साक्षी, जो आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरणा देने वाला है, वैसा पवित्र सैंगोल और ये वो सैंगोल है जिसको भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का स्पर्श हुआ था, ये पंडित नेहरू के हाथों में पूजाविधि कर-करके आज़ादी के पर्व का प्रारम्भ हुआ था. और इसलिए एक बहुत महत्वपूर्ण अतीत को उसके साथ ये सैंगोल हमें जोड़ता है. तमिलनाडु की महान परम्परा का वो प्रतीक तो है ही देश को जोड़ने का भी, देश की एकता का भी वो प्रतीक है. और हम सभी माननीय सांसदों को हमेशा जो पवित्र सैंगोल पंडित नेहरू के हाथ में शोभा देता था वो आज हम सबकी प्रेरणा का कारण बन रहा है, इससे बड़ा गर्व क्या हो सकता है.   
      
नये संसद भवन की भव्यता, आधुनिक भारत के महिमा को भी मंडित करती है. हमारे श्रमिक, हमारे इंजीनियर्स, हमारे कामगारों उनका पसीना इसमें लगा है और कोरोना काल में भी उन्होंने जिस लगन से इस काम को किया है क्योंकि मुझे कार्य जब चल रहा था तब उन श्रमिकों के बीच आने का बार-बार मौक़ा मिलता था और ख़ासकर के मैं उनके स्वास्थ्य को लेकर के उनसे मिलने आता था लेकिन ऐसे समय भी उन्होंने इस बहुत बड़े सपने को पूरा किया. आज मैं चाहूंगा कि हम सब हमारे उन श्रमिकों का, हमारे उन कामगारों का, हमारे इंजीनियर्स का हृदय से धन्यवाद करें. क्योंकि उनके द्वारा ये निर्मित भाविक पीढ़ियों को प्रेरणा देने वाला है. और 30 हज़ार से ज़्यादा श्रमिक बंधुओं ने परिश्रम किया है, पसीना बहाया है इस भव्य व्यवस्था को खड़ी करने के लिए और कई पीढ़ियों के लिए ये बहुत बड़ा योगदान होने वाला है. 

मैं उन श्रमयोगियों का नमन तो करता ही हूं लेकिन एक नई परम्परा का प्रारम्भ हो रहा है, इसका मुझे अत्यंत आनंद है. इस सदन में एक डिजिटल बुक रखी गई है. जिस डिजिटल बुक में उन सभी श्रमिकों का पूरा परिचय इसमें रखा गया है, ताकि आने वाली पीढ़ियों को पता चलेगा कि हिन्दुस्तान के किस कोने से कौन श्रमिक ने आकर के इस भव्य इमारत को, यानी उनके पसीने को भी अमृत्व देने का प्रयास इस सदन में हो रहा है, ये एक नई शुरुआत है, शुभ शुरुआत है और हम सबके लिए गर्व की शुरुआत है. मैं इस अवसर पर 140 करोड़ देशवासियों की तरफ़ से, मैं इस अवसर पर लोकतंत्र की महान परम्परा की तरफ़ से हमारी इन श्रमिकों का अभिनंदन करता हूं. 

हमारे यहां कहा जाता है ‘यद भावं तद भवति’ और इसलिए हमारा भाव जैसा होता है वैसे ही कुछ घटित होता है ‘यद भावं तद भवति’ और इसलिए हम जैसी भावना करते हैं और हमने जैसी भावना करके प्रवेश किया है, मुझे विश्वास है, भावना भीतर जो होगी हम भी वैसे ही ख़ुद भी बनते जाएंगे और वो बहुत स्वाभाविक है. भवन बदला है मैं चाहूंगा भाव भी बदलना चाहिए, भावना भी बदलनी चाहिए. 

संसद राष्ट्र सेवा का सर्वोच्च स्थान है. ये संसद दलहित के लिए नहीं है, हमारे संविधान निर्माताओं ने इतनी पवित्र संस्था का निर्माण दलहित के लिए नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ देशहित के लिए किया है. नये भवन में हम सभी अपने वाणी से, विचार से, आचार से संविधान के जो स्पिरिट है उन मानदंडों को लेकर के नये संकल्पों के अनुसार नवी भाव को लेकर के, नई भावना को लेकर के, मैं आशा करता हूं अध्यक्ष जी आप कल भी कह रहे थे, आज भी कह रहे थे, कभी स्पष्ट कह रहे थे, कभी थोड़ा लपेट कर भी कह रहे थे हम सांसदों के व्यवहार के संबंध में, मैं मेरी तरफ़ से आपको आश्वासन देता हूं कि हमारा पूरा प्रयास रहेगा और मैं चाहूंगा कि सदन के नेता के नाते हम सभी सांसद आपकी आशा-अपेक्षा में खरे उतरें. हम अनुशासन का पालन करें देश हमें देखता है, आप जैसा दिशानिर्देश करे.      

अभी चुनाव तो दूर है और जितना समय हमारे पास बचा है इस Parliament के, मैं पक्का मानता हूं कि यहां जो व्यवहार होगा ये निर्धारित करेगा कि कौन यहां बैठने के लिए व्यवहार करता है और कौन वहां बैठने के लिए व्यवहार करता है. जो वहां ही बैठे रहना चाहता है उसका व्यवहार क्या होगा और जो जहां आकर के भविष्य में बैठना चाहता है उसका व्यवहार क्या होगा इसका फ़र्क़ बिल्कुल आने वाले महीनों में देश देखेगा और उनके बर्ताव से पता चलेगा ये मुझे पूरा विश्वास है. 
  
हमारे यहां वेदों में कहा गया है, ‘संमिच, सब्रता, रुतबा बाचंम बदत’ अर्थात हम सब एकमत होकर, एक समान संकल्पय लेकर, कल्या णकारी सार्थक संवाद करें. यहां हमारे विचार अलग हो सकते हैं, विमर्श अलग हो सकते हैं लेकिन हमारे संकल्पे एकजुट ही होते हैं, एकजुट ही रहते हैं. और इसलिए हमें उसकी एकजुटता के लिए भी भरपूर प्रयास करते रहना चाहिए.  

हमारी संसद ने राष्ट्रएहित के तमाम बड़े अवसरों पर ही इसी भावना से काम किया है. न कोई ईधर का है, न उधर का है, सब कोई राष्ट्रर के लिए करते रहे हैं. मुझे आशा है कि इस नई शुरुआत के साथ इस संवादीय के वातावरण में और इस संसद के पूरे डिबेट में हम उस भावना को जितना ज़्यादा मज़बूत करेंगे, हमारी आने वाली पीढ़ियों को अवश्य  हम प्रेरणा देंगे. संसदीय परम्प राओं की जो लक्ष्मबण रेखा है, उन लक्ष्मढण रेखा का पालन हम सबको करना चाहिए और वो स्पी कर महोदय की अपेक्षा को हमें जरूर पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए. 

लोकतंत्र में राजनीति, नीति और शक्ति का इस्तेामाल, ये समाज में प्रभावी बदलाव का एक बहुत बड़ा माध्याम होता है. और इसलिए स्पे स हो या सपोर्ट्स हों, स्टायर्टअप हो या सेल्फ़ हेल्प ग्रुप हो, हर क्षेत्र में दुनिया भारतीय महिलाओं की ताक़त देख रही है. G20 की अध्यहक्षता women-led development की चर्चा, आज दुनिया इसका स्वातगत कर रही है, स्वी कार कर रही है. दुनिया समझ रही है कि सिर्फ़ महिलाओं के विकास की बात enough नहीं है. हमें मानव जाति की विकास यात्रा में उस नये पड़ाव को अगर प्राप्तम करना है, राष्ट्र  की विकास यात्रा में हमने नई मंज़िलों को पाना है, तो ये आवश्यपक है कि women-led development को हम बल दें और G-20 में भारत की बात को विश्वक ने स्वी कार किया है. 

महिला सशक्तिकरण की हमारी हर योजना ने महिला नेतृत्‍व करने की दिशा में बहुत सार्थक क़दम उठाए हैं. आर्थिक समावेश को ध्याणन में रखते हुए जनधन योजना शुरू की, 50 करोड़ लाभार्थियों में से भी अधिकतम महिला बैंक एकाउंट की धारक बनी हैं. ये अपने आप में बहुत बड़ा परिवर्तन भी है, नया विश्वा स भी है. जब मुद्रा योजना रखी गई, ये देश गर्व कर सकता है कि उसमें बिना बैंक गारंटी 10 लाख रुपये की लोन देने की योजना और उसका लाभ पूरे देश में सबसे ज़्यादा महिलाओं ने उठाया, महिला entrepreneur का ये पूरा वातावरण देश में नज़र आया. पीएम आवास योजना- पक्केत घर ये भी उसकी रजिस्ट्रीि ज़्यादातर महिलाओं के नाम हुई, महिलाओं का मालिकाना हक़ बना. 

हर देश की विकास यात्रा में ऐसे milestone आते हैं, जब वो गर्व से कहता है कि आज के दिन हम सब ने नया इतिहास रचा है. ऐसे कुछ पल जीवन में प्राप्त  होते हैं. 
नये सदन के प्रथम सत्र के प्रथम भाषण में, मैं बड़े विश्वावस और गर्व से कह रहा हूं कि आज के ये पल, आज का ये दिवस संवत्सहरी हो, गणेश चतुर्थी हो, उससे भी आशीर्वाद प्राप्तस करते हुए इतिहास में नाम दर्ज करने वाला समय है. हम सबके लिए ये पल गर्व का पल है. अनेक वर्षों से महिला आरक्षण के संबंध में बहुत चर्चाएं हुई हैं, बहुत वाद-विवाद हुए हैं. महिला आरक्षण को लेकर संसद में पहले भी कुछ प्रयास हुए हैं. 1996 में इससे जुड़ा बिल पहली बार पेश हुआ था. अटल जी के कार्यकाल में कई बार महिला आरक्षण का बिल पेश किया गया, कई बार. लेकिन उसे पार कराने के लिए आंकड़े नहीं जुटा पाए और उसके कारण वो सपना अधूरा रह गया. महिलाओं को अधिकार देने का, महिलाओं की शक्ति का उपयोग करने का वो काम, शायद ईश्व र ने ऐसे कई पवित्र काम के लिए मुझे चुना है. 

एक बार फिर हमारी सरकार ने इस दिशा में क़दम बढ़ाया है. कल ही कैबिनेट में महिला आरक्षण वाला जो विधेयक है उसको मंज़ूरी दी गई है. आज 19 सितम्बयर की ये तारीख़ इसीलिए इतिहास में अमरत्वे को प्राप्त  करने जा रही है. आज जब महिलाएं हर सेक्टगर में तेज़ी से आगे बढ़ रही हैं, नेतृत्वह कर रही हैं, तो बहुत आवश्यपक है कि नीति-निर्धारण में, पॉलिसी मेकिंग में हमारी माताएं, बहनें, हमारी नारी शक्ति अधिकतम योगदान दें, ज़्यादा से ज़्यादा योगदान दें. योगदान ही नहीं, वे महत्व,पूर्ण भूमिका निभाएं. 

आज इस ऐतिहासिक मौक़े पर नये संसद भवन में सदी सदन की, सदन की पहली कार्यवाही के रूप में, उस कार्यवाही के अवसर पर देश के इस नये बदलाव का आह्वान किया है और देश की नारी शक्ति के लिए सभी सांसद मिल करके नये प्रवेश द्वार खोल दें, इसका आरम्भ हम इस महत्वकपूर्ण निर्णय से करने जा रहे हैं. Women-led development के अपने संकल्प  के आगे बढ़ाते हुए हमारी सरकार आज एक प्रमुख संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुmत कर रही है. इस विधेयक का लक्ष्य  लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी का विस्तारर करने का है. नारी शक्ति वंदन अधिनियम - इसके माध्यंम से हमारा लोकतंत्र और मज़बूत होगा. 

मैं देश की माताओं, बहनों, बेटियों को नारी शक्ति वंदन अधिनियम के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूं. मैं सभी माताओं, बहनों, बेटियों को आश्व स्ति करता हूं कि हम इस बिल को क़ानून बनाने के लिए संकल्प बद्ध हैं. मैं सदन में सभी साथियों से आग्रहपूर्वक निवेदन करता हूं, आग्रह भी करता हूं और जब एक पावन शुरुआत हो रही है, पावक विचार हमारे सामने आया है तो सर्वसम्मतति से, जब ये बिल क़ानून बनेगा तो उसकी ताक़त अनेक गुना बढ़ जाएगी. और इसलिए मैं सभी मान्यह सांसदों से, दोनों सदन के सभी मान्या सांसदों से इसे सर्वसम्म ति से पारित करने के लिए प्रार्थना करते हुए आपका आभार व्यंक्त, करता हूं. इस नये सदन के प्रथम सत्र में मुझे आपने मेरी भावनाओं को व्य्क्त  करने का अवसर दिया. बहुत-बहुत धन्येवाद. 


फ़िरदौस ख़ान
विपक्ष में अकेले राहुल गांधी ही एक ऐसे नेता हैं, जो केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद किए हुए हैं. वे एक ऐसे नेता हैं, जो दूसरों के दर्द को महसूस करते हैं, उनकी परेशानियों को समझते हैं. मामला नोटबंदी का हो या जीएसटी का हो, एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न बिल का हो या फिर काले कृषि क़ानूनों का हो, या कोरोना काल में जनता की बदहाली का हो. उन्होंने हमेशा ही ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की है. बेरोज़गारी, दिनोंदिन बढ़ती महंगाई, देश की बर्बाद होती अर्थव्यवस्था और चीन के अतिक्रमण को लेकर भी वे केंद्र पर लगातार हमले कर रहे हैं. अब राहुल गांधी ने हिन्दू और हिन्दुत्व की व्याख्या कर हिंदुत्ववादियों के लिए बड़ा संकट पैदा कर दिया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सत्ता हड़पने के लिए जो सियासी बिसात बिछाई थी, उस पर अब राहुल खुलकर खेल रहे हैं.    

ग़ौरतलब है कि कांग्रेस ने बढ़ती महंगाई के ख़िलाफ़ गुज़श्ता 12 दिसम्बर को जयपुर में महंगाई हटाओ महारैली का आयोजन किया. राहुल गांधी ने जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि देश की हालत आप सबको दिख रही है. रैली महंगाई के बारे में है, बेरोज़गारी के बारे में है. जो आम जनता को दर्द हो रहा है, दुख हो रहा है, उसके बारे में है. देश की आज जो हालत है, शायद पहले कभी नहीं हुई. पूरा का पूरा धन चार-पांच पूंजीपतियों के हाथ में है. हिन्दुस्तान के सब इंस्टीट्यूशन, एक संगठन के हाथ में हैं. मंत्रियों के दफ़्तरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक के ओएसडी हैं. देश को जनता नहीं चला रही है, बल्कि देश को तीन-चार पूंजीपति चला रहे हैं.


उन्होंने कहा कि नोटबंदी हुई, जीएसटी लागू की गई, तीन काले क़ानून बनाए गए और कोरोना के वक़्त आपने देश की जनता और देश की हालत देखी. मगर इन चीज़ों के बारे में बोलने से पहले मैं आज आपसे एक दूसरी बात कहना चाहता हूं. देश के सामने कौन सी लड़ाई है और लड़ाई किसके बीच में है, कौन सी विचारधाराओं के बीच में है. मैं आपको बताना चाहता हूं. फिर उसके बाद महंगाई, काले क़ानूनों के बारे में, बेरोज़गारी के बारे में खुलकर आपसे कहूंगा. आप जानते हो कि दो जीवों की एक आत्मा नहीं हो सकती. क्या दो जीवों की एक आत्मा हो सकती है? इसके जवाब में लोगों ने कहा कि नहीं हो सकती. जवाब सुनकर राहुल गांधी ने कहा कि वैसे ही दो शब्दों का एक मतलब नहीं हो सकता. दो जीवों की एक आत्मा नहीं हो सकती, दो शब्दों का एक अर्थ नहीं हो सकता. हर शब्द का अलग मतलब होता है. देश की राजनीति में आज दो शब्दों की टक्कर है, दो अलग शब्दों की, इनका अर्थ अलग है. एक शब्द हिन्दू, दूसरा शब्द हिन्दुत्ववादी. ये एक चीज़ नहीं है. ये दो अलग-अलग शब्द हैं और इनका अर्थ बिल्कुल अलग है. मैं हिन्दू हूं, मगर हिन्दुत्ववादी नहीं हूं. उन्होंने जन सैलाब की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ये सब हिन्दू हैं, मगर हिन्दुत्ववादी नहीं हैं. पर आज मैं आपको हिन्दू और हिन्दुत्ववादी शब्द के बीच में फ़र्क़ बताना चाहता हूं.

उन्होंने आगे कहा कि महात्मा गांधी हिन्दू थे, जबकि गोडसे हिन्दुत्ववादी था. फ़र्क़ क्या होता है. फ़र्क़ मैं आपको बताता हूं. चाहे कुछ भी हो जाए, हिन्दू सत्य को खोजता है. भले ही वह मर जाए, कट जाए, पिस जाए, हिन्दू सच को ढूंढता है. उसका रास्ता सत्याग्रह होता है. पूरी ज़िन्दगी वह सच को ढूंढने में निकाल देता है. महात्मा गांधी ने ऑटोबायोग्राफ़ी लिखी- माई एक्सपेरियंस विद ट्रुथ, मतलब पूरी ज़िन्दगी उन्होंने सत्य को समझने के लिए, सच को ढूंढने के लिए बिता दी और अंत में एक हिन्दुत्ववादी ने उनकी छाती में तीन गोलियां मारीं. दूसरी तरफ़ एक हिन्दुत्ववादी अपनी पूरी ज़िन्दगी सत्ता को खोजने में लगा देता है. उसे सत्य से कुछ लेना-देना नहीं होता, उसे सिर्फ़ सत्ता चाहिए और सत्ता के लिए वह कुछ भी कर डालेगा. किसी को मार देगा, कुछ भी बोल देगा, जला देगा, काट देगा, पीट देगा, उसे सिर्फ़ सत्ता चाहिए. उसका रास्ता सत्याग्रह नहीं, उसका रास्ता सत्ताग्रह है.

उन्होंने कहा कि हिन्दू अपने डर का सामना करता है. हिन्दू खड़ा होकर अपने डर का सामना करता है, और एक इंच भी पीछे नहीं हटता है. वह शिवजी की तरह अपने डर को निगल जाता है, उसे पी लेता है. दूसरी तरफ़ एक हिन्दुत्ववादी अपने डर के सामने झुक जाता है. अपने डर के सामने वह मत्था टेकता है. हिन्दुत्ववादी को उसका डर डुबो देता है और इस डर से उसके दिल में नफ़रत पैदा होती है. यानी डर से नफ़रत पैदा होती है, ग़ुस्सा आता है, क्रोध आता है. हिन्दू डर का सामना करता है, उसके दिल में शान्ति होती है, उसके दिल में प्यार होता है, उसके दिल के अन्दर एक शक्ति होती है. ये हिन्दुत्ववादी और हिन्दू के बीच में मूल फ़र्क़ है.


मैंने ये सब आपको इसलिए बताया, क्योंकि आप सब हिन्दू हो, हिन्दुत्ववादी नहीं. और ये देश हिन्दुओं का देश है, हिन्दुत्ववादियों का नहीं. आज अगर इस देश में महंगाई है, दर्द है, दुख है, तो ये काम हिन्दुत्ववादियों ने किया है. हिन्दुत्ववादियों को किसी भी हालत में सत्ता चाहिए, वैसे ही ये कहते हैं कि मुझे सत्ता चाहिए, सच्चाई से मुझे कुछ लेना-देना नहीं. सच्चाई जाए भाड़ में. मुझे कुर्सी मिल जाए बस. और 2014 से इन लोगों का राज है, हिन्दुओं का राज नहीं. और हमें एक बार फिर इन हिन्दुत्ववादियों को सत्ता से बाहर निकालना है और एक बार फिर हिन्दुओं का राज लाना है. 

हिन्दू शब्द की परिभाषा बताते हुए राहुल गांधी ने कहा कि हिन्दू कौन- जो सबसे गले मिलता है. हिन्दू कौन- जो किसी से नहीं डरता है. हिन्दू कौन- जो हर धर्म का आदर करता है, वह हिन्दू है. आप हमारा कोई भी शास्त्र पढ़ लीजिए. रामायण पढ़िए, महाभारत पढ़िए, गीता पढ़िए, उपनिषद पढ़िए, मुझे दिखा दीजिए, कहां लिखा है कि किसी ग़रीब को मारना है? कहां लिखा है कि किसी कमज़ोर व्यक्ति को कुचलना है? कहां लिखा है? मुझे दिखा दो. कहीं नहीं लिखा. उन्होंने कहा कि गीता में लिखा है कि सत्य की लड़ाई लड़ो, मर जाओ, कट जाओ, लेकिन सत्य की लड़ाई लड़ो. गीता में कृष्णजी ने अर्जुन से ये नहीं कहा कि अपने भाइयों को सत्ता के लिए मारो. कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अपने भाइयों को सच्चाई के लिए मारो. ये लड़ाई आज हिन्दुस्तान में चल रही है. ये झूठे हिन्दू एक तरफ़ हिन्दुत्ववादी हैं और दूसरी तरफ़ सच्चे हिन्दू यानी प्यार करने वाले हिन्दू, भाईचारे वाले हिन्दू, सभी धर्मों का आदर और सम्मान करने वाले हिन्दू.      

उन्होंने कहा कि अब मैं बताना चाहता हूं कि हुआ क्या, क्योंकि हमारी जनता को समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या. छोटा सा उदाहरण है- आज हिन्दुस्तान की एक प्रतिशत आबादी के हाथ में हिन्दुस्तान का 33 प्रतिशत धन है. एक प्रतिशत आबादी के हाथ में 33 प्रतिशत धन. दस प्रतिशत आबादी के हाथ में 65 प्रतिशत धन और सबसे ग़रीब 50 प्रतिशत लोगों के हाथ में इस देश का सिर्फ़ छह प्रतिशत धन छोड़ा है. ये जादू कैसे किया? इस जादू को किसने किया, मैं आज आपको बताना चाहता हूं. औज़ार था- नोटबंदी, जीएसटी, किसान के ख़िलाफ़ तीन काले क़ानून.


उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी जी के आने से पहले हिन्दुस्तान का जो असंगठित सेक्टर था, छोटे दुकानदार, ग़रीब लोग, छोटी कम्पनी वाले, कुटीर उद्योग वाले, जो घर में अगरबत्ती बनाते थे, चप्पल बनाते थे, जूता बनाते थे, कपड़े सीते थे, किसान जो संगठित नहीं थे, मोदी जी के आने से पहले भारत की अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र का हिस्सा 52 प्रतिशत हुआ करता था. नोटबंदी, जीएसटी, काले क़ानून और कोरोना के बाद असंगठित क्षेत्र का भाग 20 प्रतिशत तक रह गया है. उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान का 90 प्रतिशत तक फ़ायदा, 90 प्रतिशत प्रॉफ़िट, कॉरपोरेट प्रॉफ़िट 20 कम्पनियों को जाता है. उन्होंने वहां लगे एलसीडी टीवी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ये जो आप टीवी देख रहे हैं न, ये जो इस रैली में पांच मिनट के लिए दिखाएंगे, ये उनके ग़ुलाम हैं. ये हिन्दुत्ववादी नहीं हैं, ये हिन्दू हैं. मगर इन्हें दबाया गया गया है. हिंदुत्ववादियों ने इन बेचारों को दबा दिया है. मगर हिन्दू को नहीं दबाया जा सकता, कभी नहीं दबाया जा सकता. तीन हज़ार सालों में कभी ऐसा नहीं हुआ, आज भी नहीं हो सकता. क्योंकि हम डरते नहीं हैं. हम किसी से नहीं डरते. हम मरने से नहीं डरते. तो नरेंद्र मोदी जी और उनके तीन-चार उद्योगपतियों ने, हिन्दुत्ववादियों ने इस देश को सात सालों में बर्बाद कर दिया, ख़त्म कर दिया है, पिछले सात सालों में.

उन्होंने किसानों का ज़िक्र करते हुए कहा कि हमने क़र्ज़माफ़ी की. हम बात को समझे कि किसान को मदद करने की ज़रूरत है, क़र्ज़माफ़ी की ज़रूरत है. हर स्टेट में क़र्ज़माफ़ी की, क्योंकि हम जानते हैं कि किसान इस देश की हड्डी है, उसके बिना कुछ नहीं हो सकता. नरेंद्र मोदी जी ने किसानों की जो आत्मा है, उनका जो दिल है, उनकी छाती में चाक़ू मारा है. आगे से नहीं, बल्कि पीछे से मारा है. क्योंकि वह हिन्दुत्ववादी हैं. हिन्दू को अगर मारना भी पड़े, तो सामने से वार करता है, पीछे से नहीं. अगर वह हिन्दुत्ववादी है, तो पीछे से मारेगा, याद रखना. पहले पीछे से छुरा मारा और फिर कहते हैं, जाग हिन्दू. किसान हिन्दुत्ववादी के सामने खड़ा हुआ, तो हिन्दुत्ववादी ने कहा कि मैं माफ़ी मांगता हूं, मैं माफ़ी मांगता हूं.

उन्होंने कहा कि 700 किसान शहीद हुए. यहां हमने दो मिनट मौन रखा, पार्लियामेंट में मौन रखने नहीं दिया. मैंने कहा कि अगर आप नहीं करना चाहते, तो मैं खड़ा हो जाता हूं. विपक्ष के लोग दो मिनट के लिए मौन में खड़े हुए, लेकिन सरकार ने मौन नहीं रखा. पंजाब सरकार ने 400 शहीद किसानों के परिवारों को पांच लाख रुपये दिए हैं और उनमें से 152 किसानों के परिजनों को नौकरी भी दिलवा दी है और बाक़ी को हम नौकरी देने वाले हैं. हिन्दुस्तान की सरकार पार्लियामेंट में कहती है- हमें मालूम नहीं कि कौन से किसान मरे, हमारे पास लिस्ट ही नहीं है. कोई किसान शहीद हुआ ही नहीं, पार्लियामेंट में कहा था. हम कंपंसेशन कैसे दें, हमें तो मालूम ही नहीं है. मैंने पंजाब की लिस्ट ली, हरियाणा से 70-80 और नाम लिए, 500 लोगों की लिस्ट मैंने पार्लियामेंट में रखी और कहा- देखिए, पंजाब की सरकार ने मुआविज़ा दिया है, कंपंसेशन दिया है, आप भी दीजिए. पीछे से छुरा मारा, फिर माफ़ी मांगी और जब कंपंसेशन की बात आई, पांच लाख, 10 लाख, 25 लाख रुपये देने की बात आई, तो नरेंद्र मोदी जी नहीं दे सकते. क्योंकि वे कहते हैं कि वे किसान शहीद ही नहीं हुए. तो ये जो सोच है हिन्दुत्ववादियों की. चीन की सेना हिन्दुस्तान के अन्दर आ जाए, हज़ार किलोमीटर ले जाए, प्रधानमंत्री जी कहेंगे, देश के अन्दर कोई नहीं आया. और फिर डिफ़ेंस मिनिस्ट्री कहेगी कि चीन हमारे देश के अन्दर आ गया, चीन की सेना हमारे देश के अन्दर है.


उन्होंने कहा कि मैं थोड़ा और भी बताना चाहता हूं. 2014 में गैस सिलेंडर 414 रुपये का था, 2021 में 900 रुपये हो गया, यानी 117 प्रतिशत बढ़ोतरी. पेट्रोल 70 रुपये था, आज सौ रुपये है. डीज़ल 57 रुपये था, आज 90 रुपये है. चीनी 30 रुपये थी, आज 50 रुपये है. घी 300-350 रुपये लीटर था, आज 650 रुपये लीटर है. आटा 15 रुपये किलो था, आज 30 रुपये है. दाल 70 रुपये किलो थी, आज 190 रुपये है. अच्छे दिन आ गए हैं. आ गए अच्छे दिन? किसके- ‘हम दो, हमारे दो’ के. एयरपोर्ट देखो, पोर्ट देखो, कोल माइन देखो, टेलीफ़ोन देखो, सुपर मार्केट देखो. जहां भी देखो भैया, दो लोग दिखेंगे आपको- अडानी जी, अंबानी जी. उनकी ग़लती नहीं है. देखो भैया, अगर आपको कोई मुफ़्त में कुछ दे, आप क्या वापस दे दोगे- नहीं दोगे. उनकी ग़लती थोड़े ही है, ग़लती प्रधानमंत्री की है. सुबह उठते ही कहते हैं- भैया, आज अडानी-अंबानी को क्या दें? चलो भैया, आज एयरपोर्ट दे देते हैं. चलो भैया, आज किसानों के खेत दे देते हैं. चलो आज खनन दे देते हैं, माइन दे देते हैं. ऐसे देश नहीं चलाया जाता है. देश ग़रीबों का है, किसानों का है, मज़दूरों का है, छोटे दुकानदारों का है, स्मॉल मीडियम बिजनेस वालों का है, क्यों- क्योंकि यही लोग इस देश को रोज़गार दे सकते हैं. अंबानी जी की जगह है, अडानी जी की जगह है, मगर वे रोज़गार पैदा नहीं कर सकते. रोज़गार हमारा किसान पैदा करता है. रोज़गार छोटे व्यापारी पैदा करते हैं. छोटे दुकानदार पैदा करते हैं. छोटे बिजनेस वालों, मिडिल साइज़ बिजनेस वालों को तो इन्होंने ख़त्म ही कर दिया, मिटा दिया. एक प्रतिशत आबादी के पास 33 प्रतिशत धन, 10 प्रतिशत आबादी के पास 65 प्रतिशत धन और 50 प्रतिशत आबादी के पास केवल छह प्रतिशत धन. ये क्या हो रहा है? उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान को इस आक्रमण के ख़िलाफ़ खड़ा होना ही पड़ेगा और कोई रास्ता ही नहीं है और आप देखना, ये देश एक आवाज़ से खड़ा होगा. राजस्थान एक आवाज़ से खड़ा होगा और नरेंद्र मोदी जी को बाहर का रास्ता दिखाएगा. 

उन्होंने कहा कि कोरोना हुआ, मैंने अपनी आंखों से देखा. बाक़ी देशों ने अपने लोगों की जेब में पैसा डाला, मदद की, मगर नरेंद्र मोदी जी ने 5-10 बड़े उद्योगपतियों का टैक्स माफ़ किया, उनकी जेब में पैसा डाला और मज़दूरों को ट्रेन तो छोड़ो, बस भी नहीं दी, वे हज़ारों किलोमीटर पैदल चले. 100-200 लोग तो सड़कों पर ही मर गए. नरेंद्र मोदी जी ने कहा- थाली बजाओ, ताली बजाओ, मोबाइल फ़ोन की लाइट जलाओ, मर जाओ.


उन्होंने कहा कि अब रोज़गार की बात करते हैं, पर आज 60 साल से सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी हिन्दुस्तान में है. क्यों- क्योंकि आपने रोज़गार देने वाली रीढ़ की हड्डी तोड़ दी. आपने डिमोनेटाइज़ेशन किया, जीएसटी की. नोटबंदी, कोरोना में आपने छोटे बिजनेस वालों को समर्थन नहीं दिया, सब ख़त्म हो गया. रोज़गार कहां से पैदा होगा? रोज़गार दो-तीन उद्योगपति नहीं पैदा कर सकते. रोज़गार लाखों दुकानदार, लाखों छोटे बिजनेस वाले, मिडिल साइज़ बिजनेस वाले, करोड़ों किसान पैदा करते हैं. ये सच्चाई है देश की. देश को यह सच्चाई पहचाननी पड़ेगी, और कोई रास्ता नहीं है. मैं आपसे झूठ नहीं बोलने वाला, मैं हिन्दुत्ववादी नहीं हूं, मैं हिन्दू हूं. मैं डरता नहीं, सत्ता मिले न मिले, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, मैं सच्चाई के रास्ते से नहीं हटने वाला. मगर सच्चाई देश को पहचाननी पड़ेगी.       


उन्होंने चीन का ज़िक्र करते हुए कहा कि चीन ने अरुणाचल में, लद्दाख़ में हमारी ज़मीन ली है. मोदी जी कह रहे हैं कि कुछ नहीं हुआ. 700 किसान शहीद हुए, मोदी जी कहते हैं कि कुछ नहीं हुआ. बहुत कुछ हुआ है. बहुत लोगों को चोट लगी है. बहुत लोगों की जानें गई हैं. बहुत दुख हुआ है और अब देश को आगे बढ़ना पड़ेगा और ये देश एक साथ मिलकर आगे बढ़ेगा.
   
प्रियंका गांधी ने भी जनसभा को संबोधित करते हुए केंद्र सरकार की नीतियों की निन्दा की. उन्होंने कहा कि मैं ऐसे लोगों से मिलकर आई हूं, जिनके परिजनों को इस सरकार के मंत्री के बेटे ने कुचलकर मार दिया। हमारे बेटों के हत्यारों के साथ पीएम मंच साझा करते हैं. ये सरकार जनता की भलाई नहीं चाहती. ये आपके लिए काम नहीं कर रही है. किसके लिए काम कर रही है? ये सरकार कुछ गिने-चुने लोगों के लिए ही काम कर रही है.

इस रैली में सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, केसी वेणु गोपाल, पवन बंसल, अजय माकन, अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, चरणजीत सिंह चन्नी, अधीर रंजन चौधरी, गोविन्द सिंह डोटासरा, सचिन पायलट आदि ने शिरकत की. कांग्रेस नेताओं ने केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों का कड़े शब्दों में निंदा करते हुए जनमानस से कांग्रेस के लिए समर्थन मांगा. 

क़ाबिले ग़ौर है कि भारतीय जनता पार्टी हमेशा से ही जनमानस के मुद्दों को दरकिनार करते हुए सांप्रदायिक भावनाएं भड़का कर चुनाव लड़ती आई है. अब राहुल गांधी ने भाजपा को उसी की बिछाई बिसात पर हर तरफ़ से घेर लिया है. देखना दिलचस्प होगा कि अब भाजपा इसका कैसे मुक़ाबला करती है.         
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)

फ़िरदौस ख़ान
लोकसभा में हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने पद से इस्तीफ़ा देने का ऐलान करते हुए साफ़ कह दिया कि पार्टी अपना नया अध्यक्ष चुन ले. कार्यकर्ताओं और पार्टी नेताओं के लाख मनाने पर भी वे अपना इस्तीफ़ा वापस लेने को तैयार नहीं हैं. राहुल गांधी के इस फ़ैसले से पार्टी कार्यकर्ताओं में मायूसी छा गई है. पहले लोकसभा हार ने उन्हें मायूस किया, फिर राहुल गांधी के इस्तीफ़े ने उन्हें दुख पहुंचाया. हालांकि उन्होंने कहा है कि वे नये पार्टी अध्यक्ष की पूरी मदद करेंगे. दरअसल, राहुल गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के बिछाये जाल में फंस गए हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने साज़िशन कांग्रेस पर परिवारवाद के आरोप लगाए और राहुल गांधी ने इसे गंभीरता से लेते हुए पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने जो चाहा, राहुल गांधी ने वही किया.
राहुल गांधी को न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कोई सफ़ाई देनी है और न भारतीय जनता पार्टी को कोई जवाब देना है. उनकी ज़िम्मेदारी कांग्रेस के प्रति है और इस देश की अवाम के प्रति है, जो उनसे उम्मीद करती है कि वे उन्हें एक बेहतर नेतृत्व देंगे, ख़ुशनुमा जीने लायक़ माहौल देंगे. 

जीत और हार, धूप और छांव की तरह हुआ करती हैं. वक़्त कभी एक जैसा नहीं रहता. देश पर हुकूमत करने वाली कांग्रेस बेशक आज गर्दिश में है, लेकिन इसके बावजूद वह देश की माटी में रची-बसी है. देश का मिज़ाज हमेशा कांग्रेस के साथ रहा है और आगे भी रहेगा. कांग्रेस जनमानस की पार्टी रही है. कांग्रेस का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है. इस देश की माटी उन कांग्रेस नेताओं की ऋणी है, जिन्होंने अपने ख़ून से इस धरती को सींचा है. देश की आज़ादी में महात्मा गांधी के योगदान को भला कौन भुला पाएगा. देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी समर्पित कर दी. पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी ने देश के लिए, जनता के लिए बहुत कुछ किया. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विकास की जो बुनियाद रखी, इंदिरा गांधी ने उसे परवान चढ़ाया. राजीव गांधी ने देश के युवाओं को आगे बढ़ने की राह दिखाई. उन्होंने युवाओं के लिए जो ख़्वाब संजोये, उन्हें साकार करने में सोनिया गांधी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. कांग्रेस ने देश को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाया. देश को मज़बूत करने वाली कांग्रेस को आज ख़ुद को मज़बूत करने की ज़रूरत है.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को हार को भुलाकर अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष को जारी रखना करना चाहिए. सड़क से सदन तक पार्टी को नये सिरे से खड़ा करने का मौक़ा उनके पास है. राहुल गांधी किसी ख़ास वर्ग के नेता न होकर जन नेता हैं. वे कहते हैं, "जब भी मैं किसी देशवासी से मिलता हूं. मुझे सिर्फ़ उसकी भारतीयता दिखाई देती है. मेरे लिए उसकी यही पहचान है. अपने देशवासियों के बीच न मुझे धर्म, ना वर्ग, ना कोई और अंतर दिखता है." राहुल गांधी के कंधों पर दोहरी ज़िम्मेदारी है. पहले उन्हें पार्टी को मज़बूत बनाना है और फिर खोई हुई हुकूमत को हासिल करना है. उन्हें चाहिए कि वे देश भर के सभी राज्यों में युवा नेतृत्व ख़ड़ा करें. सियासत में आज जो हालात हैं, वे कल भी रहेंगे, ऐसा ज़रूरी नहीं है. जनता को ऐसी सरकार चाहिए, जो जनहित की बात करे, जनहित का काम करे. बिना किसी भेदभाव के सभी तबक़ों को साथ लेकर चले. कांग्रेस ने जनहित में बहुत काम किए हैं. ये अलग बात है कि वे अपने जन हितैषी कार्यों का प्रचार नहीं कर पाई, उनसे कोई फ़ायदा नहीं उठा पाई, जबकि भारतीय जनता पार्टी लोक लुभावन नारे देकर सत्ता तक पहुंच गई. बाद में ख़ुद प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के चुनावी वादों को’ जुमला’ क़रार दे दिया. आज देश को राहुल गांधी जैसे नेता की ज़रूरत है, जो छल और फ़रेब की राजनीति नहीं करते. वे कहते हैं,  ''मैं गांधीजी की सोच से राजनीति करता हूं. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता. मेरे अंदर ये है ही नहीं. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. 'मैं झूठे वादे नहीं करता."  क़ाबिले-ग़ौर है कि एक सर्वे में विश्वसनीयता के मामले में दुनिया के बड़े नेताओं में राहुल गांधी को तीसरा दर्जा मिला हैं, यानी दुनिया भी उनकी विश्वसनीयता का लोहा मानती है. ऐसे ईमानदार नेता को जनता भला क्यों न सर-आंखों में बिठाएगी.

बेशक लोकसभा चुनाव में हार से पार्टी को झटका लगा है. लेकिन आज पार्टी हारी है, तो कल जीत भी सकती है. कांग्रेस को इस हार से सबक़ लेकर उन कारणों को दूर करना होगा, जिनकी वजह से पार्टी आज इस हालत तक पहुंची है. कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए पार्टी की आंतरिक कलह को दूर करना होगा. पार्टी की अंदरूनी ख़ेमेबाज़ी को भी ख़त्म करने की ज़ररूरत है. मार्च 2017 में पार्टी के वरिष्ठ नेता सज्जन वर्मा ने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कुछ सियासी परिवारों पर कांग्रेस को ख़त्म करने की एवज में सुपारी लेने का आरोप लगाया था. उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को फ़ौरन सख़्त कार्रवाई करने की सलाह देते हुए लिखा था- "इंदिरा गांधी ने राजा-महाराजाओं का प्रभाव ख़त्म करने के लिए रियासतें ख़त्म कर दी थीं, तब कुछ लोगों ने ख़ूब शोर मचाया था. अब वही लोग राजनीतिक शोर मचा रहे हैं. ऐसे लोगों का प्रभाव ख़त्म करने के लिए कठोर निर्णय लेने होंगे. तभी हमारी पार्टी खड़ी हो पाएगी." हालांकि सज्जन कुमार का पत्र सार्वजनिक होने के बाद इस पर बवाल भी मचा था.  इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर सज्जन कुमार की बातों को गंभीरता से लिया जाता और उन पर अमल किया जाता, तो शायद आज हालात कुछ और होते.

बहरहाल, इस बात में कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस की नैया डुबोने में इसके खेवनहारों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. राहुल गांधी भी अब इस बात को बाख़ूबी समझ चुके हैं. हाल में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने ख़ुद कहा है कि पार्टी के कई नेताओं ने पार्टी से आगे अपने बेटों को रखा और उन्हें टिकट दिलाने के लिए दबाव बनाया. हालांकि राहुल गांधी ने किसी का नाम नहीं किया, लेकिन कई वरिष्ठ नेताओं के बेटे और बेटियों को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. इनमें राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत, कांग्रेस महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया, पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष मोहन देव की बेटी सुष्मिता देव भी शामिल हैं.  दरअसल कांग्रेस नेताओं के निजी स्वार्थ ने पार्टी को बहुत नुक़सान पहुंचाया है.  राहुल गांधी को इसी को मद्देनज़र रखते हुए आगामी रणनीति बनानी होगी. पार्टी के नेताओं ने कांग्रेस को अपनी जागीर समझ लिया और सत्ता के मद में चूर वे कार्यकर्ताओं से भी दूर होते गए. नतीजतन, जनमानस ने कांग्रेस को सबक़ सिखाने की ठान ली और उसे सत्ता से बदख़ल कर दिया. वोटों के बिखराव और सही रणनीति की कमी की वजह से भी कांग्रेस को ज़्यादा नुक़सान हुआ. पिछले लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं, वहीं इस बार के आम चुनाव में कांग्रेस महज़ 52 सीटें ही जीत पाई है. मेहनत और सही रणनीति से यह संख्या 300 से 400 तक भी पहुंच सकती है.

राहुल गांधी को चाहिए कि वे ऐसे नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाएं, जो पार्टी के बीच रहकर पार्टी को कमज़ोर करने का काम कर रहे हैं. राहुल गांधी को चाहिए कि वे कार्यकर्ताओं के मनोबल को बढ़ाएं, क्योंकि कार्यकर्ता किसी भी पार्टी की रीढ़ होते हैं. जब तक रीढ़ मज़बूत नहीं होगी, तब तक पार्टी भला कैसे मज़बूत हो सकती है. उन्हें पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं से लेकर पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक अपनी पहुंच बनानी होगी. बूथ स्तर पर पार्टी को मज़बूत करना होगा. साफ़ छवि वाले जोशीले युवाओं को ज़्यादा से ज़्यादा पार्टी में शामिल करना होगा. कांग्रेस की मूल नीतियों पर चलना होगा, ताकि पार्टी को उसका खोया हुआ वर्चस्व मिल सके. इसके साथ ही कांग्रेस सेवा दल को भी मज़बूत करना होगा.
राहुल गांधी को याद रखना होगा, मन के हारे हार है और मन के जीते जीत. जो सच के साथ होते हैं, वो कभी हारा नहीं करते.

फ़िरदौस ख़ान
राहुल गांधी देश और राज्यों में सबसे लम्बे अरसे तक हुकूमत करने वाली कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. वे एक ऐसे ख़ानदान के वारिस हैं, जिसने देश के लिए अपनी जानें क़ुर्बान की हैं. राहुल गांधी के लाखों-करोड़ों चाहने वाले हैं. देश-दुनिया में उनके प्रशंसकों की कोई कमी नहीं है. लेकिन इस सबके बावजूद वे अकेले खड़े नज़र आते हैं. उनके चारों तरफ़ एक ऐसा अनदेखा दायरा है, जिससे वे चाहकर भी बाहर नहीं आ पाते.  एक ऐसी दीवार है, जिसे वे तोड़ नहीं पा रहे हैं. वे अपने आसपास बने ख़ोल में घुटन तो महसूस करते हैं, लेकिन उससे निकलने की कोई राह, कोई तरकीब उन्हें नज़र नहीं आती.

बचपन से ही उन्हें ऐसा माहौल मिला, जहां अपने-पराये और दोस्त-दुश्मन की पहचान करना बड़ा मुश्किल हो गया था. उनकी दादी इंदिरा गांधी और उनके पिता राजीव गांधी का बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया. इन हादसों ने उन्हें वह दर्द दिया, जिसकी ज़रा सी भी याद उनकी आंखें भिगो देती है. उन्होंने कहा था,  "उनकी दादी को उन सुरक्षा गार्डों ने मारा, जिनके साथ वे बैडमिंटन खेला करते थे."
वैसे राहुल गांधी के दुश्मनों की भी कोई कमी नहीं है. कभी उन्हें जान से मार देने की धमकियां मिलती हैं, तो कभी उनकी गाड़ी पर पत्थर फेंके जाते हैं. गुज़शता अप्रैल में उनका जहाज़ क्रैश होते-होते बचा. कर्नाटक के हुबली में उड़ान के दौरान 41 हज़ार फुट की ऊंचाई पर जहाज़ में तकनीकी ख़राबी आ गई और वह आठ हज़ार फ़ुट तक नीचे आ गया. उस वक़्त उन्हें लगा कि जहाज़ गिर जाएगा और उनकी जान नहीं बचेगी.  लेकिन न जाने किनकी दुआएं ढाल बनकर खड़ी हो गईं और हादसा टल गया. कांग्रेस ने राहुल गांधी के ख़िलाफ़ साज़िश रचने का इल्ज़ाम लगाया.
किसी अनहोनी की आशंका की वजह से ही राहुल गांधी हमेशा सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहे हैं, इसलिए उन्हें वह ज़िन्दगी नहीं मिल पाई, जिसे कोई आम इंसान जीता है. बचपन में भी उन्हें गार्डन के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने की इजाज़त नहीं थी. खेलते वक़्त भी सुरक्षाकर्मी किसी साये की तरह उनके साथ ही रहा करते थे. वे अपनी ज़िन्दगी जीना चाहते थे, एक आम इंसान की ज़िन्दगी. राहुल गांधी ने एक बार कहा था, "अमेरिका में पढ़ाई के बाद मैंने जोखिम उठाया और अपने सुरक्षा गार्डो से निजात पा ली, ताकि इंग्लैंड में आम ज़िन्दगी जी सकूं." लेकिन ऐसा ज़्यादा वक़्त नहीं हो पाया और वे फिर से सुरक्षाकर्मियों के घेरे में क़ैद होकर रह गए.

हर वक़्त कड़ी सुरक्षा में रहना, किसी भी इंसान को असहज कर देगा, लेकिन उन्होंने इसी माहौल में जीने की आदत डाल ली. ख़ौफ़ के साये में रहने के बावजूद उनका दिल मुहब्बत से सराबोर है. वे एक ऐसे शख़्स हैं, जो अपने दुश्मनों के लिए भी दिल में नफ़रत नहीं रखते. वे कहते हैं, “मेरे पिता ने मुझे सिखाया कि नफ़रत पालने वालों के लिए यह जेल होती है. मैं उनका आभार जताता हूं कि उन्होंने मुझे सभी को प्यार और सम्मान करना सिखाया.यह सबसे बेशक़ीमती तोहफ़ा है, जो एक पिता अपने बेटे को दे सकता है.” अपने पिता की सीख को उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में ढाला. इसीलिए उन्होंने अपने पिता के क़ातिलों तक को माफ़ कर दिया. उनका कहना है, "वजह जो भी हो, मुझे किसी भी तरह की हिंसा पसंद नहीं है. मुझे पता है कि दूसरी तरफ़ होने का मतलब क्या होता है. ऐसे में जब मैं जब हिंसा देखता हूं चाहे वो किसी के भी साथ हो रही हो, मुझे पता होता है कि इसके पीछे एक इंसान, उसका परिवार और रोते हुए बच्चे हैं. मैं ये समझने के लिए काफ़ी दर्द से होकर गुजरा हूं. मुझे सच में किसी से नफ़रत करना बेहद मुश्किल लगता है."
उन्होंने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) के प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरण का ज़िक्र करते हुए कहा था, "मुझे याद है जब मैंने टीवी पर प्रभाकरण के मुर्दा जिस्म को ज़मीन पर पड़ा देखा. ये देखकर मेरे मन में दो जज़्बे पैदा हुए. पहला ये कि ये लोग इनकी लाश का इस तरह अपमान क्यों कर रहे हैं और दूसरा मुझे प्रभाकरण और उनके परिवार के लिए बुरा महसूस हुआ."

राहुल गांधी एक ऐसी शख़्सियत के मालिक हैं, जिनसे कोई भी मुतासिर हुए बिना नहीं रह सकता. देश के प्रभावशाली राज घराने से होने के बावजूद उनमें ज़र्रा भर भी ग़ुरूर नहीं है.  उनकी भाषा में मिठास और मोहकता है, जो सभी को अपनी तरफ़ आकर्षित करती है. वे विनम्र इतने हैं कि अपने विरोधियों के साथ भी सम्मान से पेश आते हैं, भले ही उनके विरोधी उनके लिए कितनी ही तल्ख़ भाषा का इस्तेमाल क्यों न करते रहें. किसी भी हाल में वे अपनी तहज़ीब से पीछे नहीं हटते. उनके कट्टर विरोधी भी कहते हैं कि राहुल गांधी का विरोध करना उनकी पार्टी की नीति का एक अहम हिस्सा है, लेकिन ज़ाती तौर पर वे राहुल गांधी को बहुत पसंद करते हैं. वे ख़ुशमिज़ाज, ईमानदार, मेहनती और सकारात्मक सोच वाले हैं.  बुज़ुर्ग उन्हें स्नेह करते हैं, उनके सर पर शफ़क़त का हाथ रखते हैं, उन्हें दुआएं देते हैं.  वे युवाओं के चहेते हैं. राहुल गांधी अपने विरोधियों का नाम भी सम्मान के साथ लेते हैं, उनके नाम के साथ जी लगाते हैं.  बड़ों के लिए उनके दिल में सम्मान है. उन्होंने जब सुना कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में दाख़िल कराए गए हैं, तो वे उनका हालचाल जानने के लिए अस्पताल पहुंच गए. वे इंसानियत को सर्वोपरि मानते हैं. अपने पिता की ही तरह अपने कट्टर विरोधियों की मदद करने में भी पीछे नहीं रहते. विभिन्न समारोहों में वे लाल्कृष्ण आडवाणी का भी ख़्याल रखते नज़र आते हैं.

राहुल गांधी छल और फ़रेब की राजनीति नहीं करते. वे कहते हैं,  ''मैं गांधीजी की सोच से राजनीति करता हूं. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता. मेरे अंदर ये है ही नहीं. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. 'मैं झूठे वादे नहीं करता. "  वे कहते हैं, 'सत्ता और सच्चाई में फ़र्क़ होता है. ज़रूरी नहीं है, जिसके पास सत्ता है उसके पास सच्चाई है.
वे कहते हैं, "जब भी मैं किसी देशवासी से मिलता हूं. मुझे सिर्फ़ उसकी भारतीयता दिखाई देती है. मेरे लिए उसकी यही पहचान है. अपने देशवासियों के बीच न मुझे धर्म, ना वर्ग, ना कोई और अंतर दिखता है."

कहते हैं कि सच के रास्ते में मुश्किलें ज़्यादा आती हैं और राहुल गांधी को भी बेहिसाब मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. बचपन से ही उनके विरोधियों ने उनके ख़िलाफ़ साज़िशें रचनी शुरू कर दी थीं.   उन पर लगातार ज़ाती हमले किए जाते हैं. इस बात को राहुल गांधी भी बख़ूबी समझते हैं, तभी तो उन्होंने विदेश जाने से पहले ट्वीट करके अपने विरोधियों से कहा था, "कुछ दिन के लिए देश से बाहर रहूंगा. भारतीय जनता पार्टी की सोशल मीडिया ट्रोल आर्मी के दोस्तों, ज़्यादा परेशान मत होना. मैं जल्द ही वापस लौटूंगा."

राहुल गांधी एक नेता हैं, जो पार्टी संगठन को मज़बूत करने के लिए, पार्टी को हुकूमत में लाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं, लेकिन उनकी ही पार्टी के लोग ऐन चुनावों के मौक़ों पर ऐसे बयान दे जाते हैं, ऐसे काम कर जाते हैं, जिससे विरोधियों को उनके ख़िलाफ़ बोलने का मौक़ा मिल जाता है. इन लोगों में वे लोग भी शामिल हैं, जो उनकी दादी, उनके पिता के क़रीबी रहे हैं. ताज़ा मिसाल पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की है, जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में शिरकत करके सियासी बवाल पैदा कर दिया.

बहरहाल, राहुल गांधी तमाम अफ़वाहों और अपने ख़िलाफ़ रची जाने वाली तमाम साज़िशों से अकेले ही जूझ रहे है, मुस्कराकर उनका सामना कर रहे हैं.

इतिहास साक्षी है जब-जब विश्व के किसी भी देश में जनता ने आंदोलन आरम्भ किया और जनहित हेतु आंदोलन आरम्भ हुआ तो उसका मुख्य कारण था की जनता में उपजा हुआ असंतोष। जिसके परिणाम स्वरूप उस देश की जनता ने आंदोलन किया और अपने अधिकारों की रक्षा हेतु उस देश की जनता अपने-अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आ खड़ी हुई। मात्र सड़कों पर आ जाने से आंदोलन सफल एवं सिद्ध हो जाए ऐसा कदापि नहीं हो सकता। क्योंकि, किसी भी आंदोलन को सफल एवं सिद्ध करने के लिए उस देश की जनता को बड़ी से बड़ी कुर्बानी देनी पड़ती है जिसमें देश का हर तबका मुख्य रूप से उस आंदोलन का भागीदार होता है। तब जाकर किसी भी देश का आंदोलन सफल एवं कामयाब होता है। क्योंकि, उस देश की जनता स्वयं अपना नेता चुनती है। जोकि उसके दुख दर्दों को समझे और उस दुख दर्द का निराकरण करने की क्षमता रखता हो। यह भी अडिग सत्य है कि किसी भी देश में आंदोलन तभी हुआ जब उस देश में शासन के प्रति पनपा हुआ आक्रोश एवं शासक के प्रति दूसरा विकल्प जनता को प्राप्त हो गया हो। जबतक किसी भी देश की जनता को दूसरा विकल्प नहीं मिल जाता तबतक आंदोलन कदापि नहीं होता। क्योंकि, किसी भी आंदोलन के सफल होने के लिए नेतृत्व का होना अत्यंत आवश्यक है। जब किसी भी देश में जनता को अपना दूसरा विकल्प दिखाई देता है कि यह व्यक्ति देश की सत्ता पर विराजमान होकर हम जनता की समस्याओं का निराकरण निश्चित ही कर देगा तभी उस देश में आंदोलन का बिगुल बजता है। और तब देश की जनता सड़कों पर उतर जाती है। क्योंकि, किसी भी आंदोलन में जान माल की भी भारी क्षति पहुंचती है। परन्तु, उस देश की जनता इस बात की परवाह न करते हुए आंदोलन के लिए एक जुट होती चली जाती है। और आंदोलन को सफल बनाकर ही शांत होती है। उसके बाद अपने संघर्षशील व्यक्ति को देश की गद्दी पर बैठा करके देश का नेता बना देती है। जिसे देश की जनता अपनी जिम्मेदारी सौंप देती है। लोकतंत्र का यही मुख्य रूप है। इसे ही लोकतंत्र कहते हैं। जनता के लिए जनता हेतु जनता की सरकार दिन रात कार्य करे लोकतंत्र का यही मुख्य मंत्र है।
दूसरा सबसे अहम बिंदु यह है कि नेतृत्व क्षमता। किसी भी देश में आंदोलन नेतृत्व क्षमता के कारण ही हुआ है न कि इससे इतर। किसी भी नेता के नेतृत्व से फैला हुआ असंतोष ही आंदोलन का मुख्य कारण बना है।
राजनीति का यही मुख्य मूल उद्देश्य है। सफल एवं दृढ़ तथा जनता के प्रति समर्पित नेता को ही देश की कमान सौंपी जाती है कि वह देश की जनता की समस्याओं का निराकरण कर सके। जोकि जनता की समस्याओं से भलिभांति अवगत हो, साथ ही जनता की समस्याओं के निराकरण की प्रबल क्षमता रखता हो। ऐसे ही व्यक्ति को सदैव किसी भी देश की सत्ता की बागडोर दी जाती है। जोकि सेवाभाव से अपने कुशल अनुभव के साथ देश की सेवा कर सके। किसी भी देश की राजनीति का मुख्य आधार यही होता है।
ऐसा कदापि नहीं होता कि किसी भी देश की सत्ता पर अअनुभवी एवं अप्रतिबद्ध तथा अप्रबल व्यक्ति को सत्ता की कुर्सी पर बैठाकर देश की जनता के ऊपर थोप दिया जाए और देश की जनता उस थोपे हुए व्यक्ति को स्वीकार्य करले। ऐसा कदापि नहीं होता।
किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था फैमिली कैरियर अथवा किसी भी व्यक्ति को राजनीति सिखाने की प्रयोगशाला के रूप में कभी भी प्रयोग नहीं की जाती क्योंकि, ऐसा करना देशहित एवं जनहित के लिए कदापि शुभ संकेत नहीं है। इसलिए किसी भी देश में राजनीति को प्रयोगशाला के रूप में प्रयोग करना संभव नहीं है। क्योंकि, यह संपूर्ण देश एवं देश की जनता के हित की बात होती है। क्योंकि, किसी भी देश का विकास उसके नेतृत्व के विवेक पर ही निर्भर करता है। यदि नेतृत्व क्षमत प्रबल एवं कुशल है तो देश विश्वस्तर पर अपनी पहचान बनाने में सफल एवं कामयाब होता है। किसी भी देश का नेतृत्व यदि सफल एवं दूरगामी सोच वाले नेता के हाथों में है तो वह देश विश्व की कूटनीति एवं राजनीति में सफल होकर संपूर्ण विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए आगे बढ़ता चला जाता है। और एक दिन जाकर वह देश विश्व की पहली पंक्ति में खड़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि उस देश के नेता ने संपूर्ण विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा और विश्व की कूटनीति एवं राजनीति में वह नेता सफल हो गया। जिससे कि संबन्धित देश की आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति होती है। इसी के ठीक विपरीत यदि किसी भी देश के नेतृत्व में यदि तनिक भी विश्व स्तर के नेतृत्व शक्ति का आभाव है तो वह देश कितना ही बलवान क्यों न हो परन्तु, अपने नेता की अक्षमताओं के कारण विश्व स्तर की राजनीति में सफल कदापि नहीं हो सकता। यह सत्य है।
अतः किसी भी देश की राजनीति में परिवारवाद एवं कैरियरवाद को बढ़ावा देना उस देश के राजनीतिक भविष्य के लिए बहुत ही बड़ा खतरा है जोकि, अत्यंत घातक है। क्योंकि, किसी भी देश की राजनीति परिवारवाद एवं कैरियरवाद के लिए नहीं होती। क्योंकि, राजनीति का मुख्य उद्देश्य देशहित एवं जनहित पर ही आधारित होता है। न कि इससे इतर।
परिवारवाद एवं कैरियरवाद की राजनीति किसी भी देश के लिए एक कैंसर है जोकि देश को धीरे-धीरे खोखला करके एक दिन समाप्त कर देती है। यह भी सत्य है कि आज किसी भी राजनीतिक पार्टी में योग्य व्यक्ति की कमी नहीं है। अनेकों ऐसे व्यक्ति हैं जोकि सुधार एवं परिवर्तन की क्षमता रखते हैं लेकिन वह ऐसी राजनीतिक पार्टियों में हैं कि वह आगे आ ही नहीं सकते। क्योंकि, वंशवाद की राजनीति हावी होने के कारण योग्य व्यक्ति को अपनी राजनीतिक पार्टी में देश की सेवा का अवसर नहीं प्राप्त होता। यह सत्य है जिसे बड़ी ही सरलता के साथ देश की राजनीति में देखा जा सकता है। क्योंकि, शीर्ष नेतृत्व की सीट किसी दूसरे व्यक्ति के लिए रिजर्व है। जोकि वंशवाद एवं परिवारवाद पर आधारित है। तो क्या ऐसा करना उचित एवं न्यायसंगत है। क्या इससे देश एवं जनता की समस्याओं का निराकरण हो पाएगा। इसे सोचने और समझने की आवश्यकता है। इस बिंदु पर चिंतन तथा मनन करने की आवश्यकता है।
क्योंकि, भारत की राजनीति में आज जो कुछ हो रहा है वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। आज के समय में भारत की राजनीति को फैमिली कैरियर के रूप में ढ़ालने खाका खींचा जा रहा है। यह अत्यंत चिंताजनक है। इससे अधिक यह और भी चिंताजनक है कि आज देश की राजनीति को ट्रेनिंग स्कूल के रूप में ढ़ालने की कोशिश हो रही है। किसी भी चर्चित परिवार एवं किसी भी चर्चित वंश में जन्मे हुए व्यक्ति को देश के ऊपर थोपने का प्रयास किया जा रहा है। क्या यह न्यायसंगत है? क्या यह सही एवं उचित है? क्या ऐसा किया जाना चाहिए? इसलिए कि यह देश, देश के प्रत्येक नागरिक का है। न कि कुछ चर्चित परिवार एवं वंशवाद की औधोगिक फैक्ट्री। इसलिए देश एवं देश की जनता के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना अत्यंत गलत एवं अन्याय पूर्ण है। ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए। देश की प्रत्येक जनता को इस संदर्भ में गंभीरता पूर्वक विचार एवं आत्म मंथन करना चाहिए कि क्या सत्य है अथवा क्या असत्य। क्योंकि यह देश के प्रत्येक नागरिक के भविष्य की बात है।       
सज्जाद हैदर


इस चुनाव में लोकसभा निर्वाचन के लिए किसी उम्मीदवार के खर्च की सीमा सत्तर लाख है । इससे पहले कई बड़े नेता सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उन्होंने बीते चुनाव में कितने करोड़ खर्च किए। ‘‘भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य का सपना देखने वाले सेनानियों का मत था कि वोट के लिए निजी अपील करना संसदीय लोकतंत्र और सामूहिक हित की भावना के प्रतिकूल है । वोट मांगने का काम केवल सार्वजनिक सभाओं के जरिए होना चाहिए ।’’ इस अर्थ-प्रधान युग में ऐसी धारणा रखने वालों का राजनीति में कोई स्थान नहीं है । आज का चुनाव वास्तव में हथकंडों के साथ ‘लड़ा’ जा रहा है । यह सत्ता हथियाने का पर्व है , जिसमें अरबों-खरबों के काले धन का वारा-न्यारा होना है । चुनाव आयोग खर्चेां पर नजर रखने के लिए भले ही पर्यवेक्षक नियुक्त करता है, लेकिन चुनावी हथकंडों की जटिलता के बीच कायदे- कानून असहाय रह जाते हैं । सन 2014 के चुनाव में आयोग ने 1400 करोड़ रूपए जब्त किए थे जबकि इस बार चौथे चरण के मतदान तक ,अभी तक कोई 14 सौ करोड की नगदी, ड्रग्स व शराब आदि चुनाव आयोग जब्त कर चुका है। वैल्लौर सीट का निर्वाचन तो नगदी बांटने की षिकायतों के बाद रद्द किया गया। अब यह बात खुले आम कही जा रही है कि चाहे जितनी निगरानी कर लो, इस आम चुनाव में दस हजार करोड से ज्यादा का काला धन खर्च होगा, जबकि चुनाव आयोग इस बार चुनाव लड़ने के लिए खर्च की सीमा सत्तर लाख कर चुका है। हकीकत के धरातल पर यह रकम  नाकाफी है और जाहिर है कि बकाया खर्च की आपूर्ति दो नंबर के पैसे से व फर्जी तरीके से ही होगी।  यह विडंबना ही है कि यह जानते -बूझते हुए चुनाव आयोग इस खर्च पर निगाह रखने के नाम पर खुद ही कई हजार करोड़ खर्च कर देता है, वह भी जनता की कमाई का।

किसी ने ‘नए फिल्मी गाने की धुन’ को ही एक करोड़ में खरीद डाला है तो कोई मषहूर फिल्मी अदाकारों  को किराए पर ले कर गली-गली घुमाने जा रहा है। भाजपा हो या कांग्रेस या फिर समाजवादी पार्टी या दलित मित्र बसपा सभी ने अपने बड़े नेताओं के दौरों के लिए अधिक से अधिक हेलीकाप्टर और विमान किराए पर ले लिए हैं , जिनका किराया हर घंटे की पचपन लाख तक है। कंाग्रेस ने इलेक्ट्रानिक्स संचार माध्यमों, केबल नेटवर्क के जरिए गांव-गांव तक बात पहुंचाने का करोड़ों का प्रोजेक्ट तैयार किया है । भाजपा के नेता षूटिंग कर रहे । कोई एक राज्य में ही चार सौ रथ चलवा रहा है तो कहीं रोड षो। वोटों के लिए लोगों को रिझाने के वास्ते हर पार्टी हाई-टेक की ओर अग्रसर है । यह तो महज पार्टी के आलाकमानों का खर्चा है । हर पार्टी का उम्मीदवार स्थानीय देश -  काल- परिस्थिति के अनुरूप अपनी अलग से प्रचार योजना बना रहा है । जिसमें दीवार रंगाई, झंडे, बैनर, पोस्टर गाड़ियों पर लाऊड-स्पीकर से प्रचार, आम सभाओं के साथ-साथ क्षेेत्रीय भाषाओं में आडियो-वीडियो कैसेट बनवाने, आंचलिक वोट के ठेकेदारों को अपने पक्ष में पटाने सरीखे खर्चें भी हांेगे । इसमें टिकट पाने के लिए की गई जोड़-तोड़ का खर्चा षामिल नहीं है। अभी दो साल पहले ही उत्तर प्रदेष में संपन्न पंचायत चुनाव बानगी हैं कि एक गांव का सरपंच बनने के लिए कम से कम दस लाख का खर्च मामूली बात थी। फिर एक लोकसभा सीट के तहत आठ सौ पंचायतें होना सामान्य सी बात है। इसके अलावा कई नगर पालिक व निगम भी होते हैं।
भाजपा, कांग्रेस, सरीखी पार्टियां ही नहीं क्षेत्रीय दल के उम्मीदवार भी 15 से 40 वाहन प्रचार में लगाते ही हैं । आज गाड़ियों का किराया न्यूनतम पच्चीस सौ रुपए रोज है । फिर उसमें डी़जल, उस पर लगे लाऊड-स्पीकर का किराया और सवार कार्यकर्ताओं का खाना-खुराक,यानि प्रति वाहन हर रोज दस हजार रुपए का खर्चा होता है । यदि चुुनाव अभियान 20 दिन ही चला तो तीस लाख से अधिक का खर्चा तो इसी मद पर होना है । पर्चा, पोस्टर लेखन, स्थानीय अखबार में विज्ञापन पर बीस लाख, वोट पड़ने के इंतजाम ,मतदाता पर्चा लिखना, बंटवाना, मतदान केंदª के बाहर कैंप लगाना आदि में बीस लाख का खर्चा मामूली बात है । इसके अलावा आम सभाओें, स्थानीय बाहुबलियों को प्रोत्साहन राशि, पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के मानदेय पर चालीस लाख का खर्चा होना ही है । साफ है कि एक करोड़ का खर्चा किए बगैर ढ़ंग से लोकसभा चुनाव लड़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती है ।
इस बार देष कुल 543 सीटों लिए छह बड़ी, 40 क्षेत्रीय दल व कई सौ अन्य उम्मीदवार मैदान में हैं । औसतन हर सीट पर तीन बड़ी पार्टियों की टक्कर होना है । यदि न्यूनतम खर्चा भी लें तो प्रत्येक सीट पर छह करोड से अधिक रुपए का धंुआ उड़ना है । यह पैसा निश्चित ही वैध कमाई का हिस्सा नहीं होगा, अतः इसे वैध तरीके से खर्च करने की बात करना बेमानी होगा । यहां एक बात और मजेदार है कि चुनावी खर्चे पर नजर रखने के नाम पर चुनाव आयोग भी जम कर फिजूलखर्ची करता है । अफसरों के टीए-डीए, वीडियो रिकार्डिंग, और ऐसे ही मद में आधा अरब का खर्चा मामूली माना जा रहा है। कई महकमों के अफसर चुनाव खर्च पर नजर रखने के लिए लगाए जाते हैं, उनके मूल महकमे का काम काज एक महीने ठप्प रहता है सो अलग। यदि इसे भी खर्च में जोडे़ं तो आयोग का व्यय ही दुगना हो जाता है।
यह सभी कह रहे हैं कि इस बार का चुनाव सबसे अधिक खर्चीला है- असल में तो चुनाव के खर्चे छह महीने पहले से षुरू हो गए थे। एक-एक रैली पर कई करोड़ का खर्च, इमेज बिल्डिंग के नाम पर जापनी एजेंसियों को दो सौ करोड तक चुकाने, और इलेक्ट्रानिक व सोषल मीडिया पर ‘‘भ्रमित प्रचार’’ के लिए पीछे के रास्ते से खर्च अकूत धन का तो कहीं इरा-सिरा  ही नहीं मिल रहा है। कुल मिला कर चुनाव अब ‘इन्वेस्टिमेंट’ हो गया है, जितना करोड लगाओगे, उतने अरब का रिटर्न पांच साल में मिलेगा।
चुनावी खर्च बाबत कानून की ढ़ेरों खामियों को सरकार और सभी सियासती पार्टियां स्वीकार करती हैं । किंतु उनके निदान के सवाल को सदैव खटाई में डाला जाता रहा है । राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए । ये सिफारिशें कहीं ठडे बस्ते में पड़ी हुई हैं । वैसे भी आज के भ्रष्ट राजनैतिक माहौल में समिति की आदर्श सिफारिशें कतई प्रासंगिक नहीं हैं । इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि नेता महज सरकारी खर्चे पर ही चुनाव लड़ लेंगे या फिर सरकारी पैसे को ईमानदारी से खर्च करेंगे । 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा ।
चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि  राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरैक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिती ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । सनद रहे कि 1979 के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा किसी भी दल ने अपने आय-व्यय के ब्यौरे इनकम टेक्स विभाग को नहीं दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाया तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा कीं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है ।
वैसे लोकतंत्र में मत संकलन की जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए,नाकि पार्टी या प्रत्याशी की । हम इस सदी के संभवतया आखिरी आम चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं । थैलीशाहों ने काले धन का बहाव तेज कर दिया है । औद्योगिक घराने मंदी के बावजूद अपनी थैलियां खोले हुए हैं। आखिर सरकार उन्हीं के लिए तो चुनी जानी है । आम मतदाता को तो वोट के ऐवज में महंगाई, बढ़े हुए टेक्स और परेशानियों से अधिक कुछ तो मिलने से रहा ।
पंकज चतुर्वेदी


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