सर ता पा रहमत ही रहमत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
रहबरे-राहे शरीअत,
और गुह्रे - मार्फत,
मख्ज़ने-राहे तरीकत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
मेरी क्या औकात दुन्या,
कह रही बाँगे-दुहल,
बादशाहे-दीनो-मिल्लत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
आपका हल्क़-ए मुरीदी,
देख कर आया समझ,
मम्ब-ए रुशदो-हिदायत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
जो मिला इक बार भी,
तुम से तो यह कहने लगा,
कामिले - इश्को -मुहब्बत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
गुफ्तगू-ए मार्फत सब,
से नही करते थे वह,
वाकिफे-असरारे-वहदत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
हो गये रू पोश अपने,
इश्क का गम बख्श के,
बस यही है इक शिकायत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
क्या गुज़रती है दिले-
उश्शाक़ पे मत पूछिये,
सर पे टूटा गम का परवत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
हम गुनहगारों का अब,
तक के रखा जैसे भरम,
ऐसे ही रखना इनायत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
इल्मो-फन,अक्लो-खिरद,
हुस्ने-अमल के बा वजूद,
पैकरे-अख्लाको-उलफत,
मुरशिदे- रहमत शहा।
आपकी मेहमाँ नवाज़ी,
भी है विर्स-ए साबिरी,
मरहबा ख़ुल्क़े-ज़ियाफ़त,
मुरशिदे- रहमत शहा।
दीनो-दुन्या और उक़्वा,
की तुम्हीं तुम हो "बहार"
हर घङी तुम रखना शफ़क़त,
मुरशिदे- रहमत शहा।
-डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी