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फ़िरदौस ख़ान
लोकसभा में हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने पद से इस्तीफ़ा देने का ऐलान करते हुए साफ़ कह दिया कि पार्टी अपना नया अध्यक्ष चुन ले. कार्यकर्ताओं और पार्टी नेताओं के लाख मनाने पर भी वे अपना इस्तीफ़ा वापस लेने को तैयार नहीं हैं. राहुल गांधी के इस फ़ैसले से पार्टी कार्यकर्ताओं में मायूसी छा गई है. पहले लोकसभा हार ने उन्हें मायूस किया, फिर राहुल गांधी के इस्तीफ़े ने उन्हें दुख पहुंचाया. हालांकि उन्होंने कहा है कि वे नये पार्टी अध्यक्ष की पूरी मदद करेंगे. दरअसल, राहुल गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के बिछाये जाल में फंस गए हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने साज़िशन कांग्रेस पर परिवारवाद के आरोप लगाए और राहुल गांधी ने इसे गंभीरता से लेते हुए पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने जो चाहा, राहुल गांधी ने वही किया.
राहुल गांधी को न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कोई सफ़ाई देनी है और न भारतीय जनता पार्टी को कोई जवाब देना है. उनकी ज़िम्मेदारी कांग्रेस के प्रति है और इस देश की अवाम के प्रति है, जो उनसे उम्मीद करती है कि वे उन्हें एक बेहतर नेतृत्व देंगे, ख़ुशनुमा जीने लायक़ माहौल देंगे. 

जीत और हार, धूप और छांव की तरह हुआ करती हैं. वक़्त कभी एक जैसा नहीं रहता. देश पर हुकूमत करने वाली कांग्रेस बेशक आज गर्दिश में है, लेकिन इसके बावजूद वह देश की माटी में रची-बसी है. देश का मिज़ाज हमेशा कांग्रेस के साथ रहा है और आगे भी रहेगा. कांग्रेस जनमानस की पार्टी रही है. कांग्रेस का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है. इस देश की माटी उन कांग्रेस नेताओं की ऋणी है, जिन्होंने अपने ख़ून से इस धरती को सींचा है. देश की आज़ादी में महात्मा गांधी के योगदान को भला कौन भुला पाएगा. देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी समर्पित कर दी. पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी ने देश के लिए, जनता के लिए बहुत कुछ किया. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विकास की जो बुनियाद रखी, इंदिरा गांधी ने उसे परवान चढ़ाया. राजीव गांधी ने देश के युवाओं को आगे बढ़ने की राह दिखाई. उन्होंने युवाओं के लिए जो ख़्वाब संजोये, उन्हें साकार करने में सोनिया गांधी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. कांग्रेस ने देश को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाया. देश को मज़बूत करने वाली कांग्रेस को आज ख़ुद को मज़बूत करने की ज़रूरत है.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को हार को भुलाकर अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष को जारी रखना करना चाहिए. सड़क से सदन तक पार्टी को नये सिरे से खड़ा करने का मौक़ा उनके पास है. राहुल गांधी किसी ख़ास वर्ग के नेता न होकर जन नेता हैं. वे कहते हैं, "जब भी मैं किसी देशवासी से मिलता हूं. मुझे सिर्फ़ उसकी भारतीयता दिखाई देती है. मेरे लिए उसकी यही पहचान है. अपने देशवासियों के बीच न मुझे धर्म, ना वर्ग, ना कोई और अंतर दिखता है." राहुल गांधी के कंधों पर दोहरी ज़िम्मेदारी है. पहले उन्हें पार्टी को मज़बूत बनाना है और फिर खोई हुई हुकूमत को हासिल करना है. उन्हें चाहिए कि वे देश भर के सभी राज्यों में युवा नेतृत्व ख़ड़ा करें. सियासत में आज जो हालात हैं, वे कल भी रहेंगे, ऐसा ज़रूरी नहीं है. जनता को ऐसी सरकार चाहिए, जो जनहित की बात करे, जनहित का काम करे. बिना किसी भेदभाव के सभी तबक़ों को साथ लेकर चले. कांग्रेस ने जनहित में बहुत काम किए हैं. ये अलग बात है कि वे अपने जन हितैषी कार्यों का प्रचार नहीं कर पाई, उनसे कोई फ़ायदा नहीं उठा पाई, जबकि भारतीय जनता पार्टी लोक लुभावन नारे देकर सत्ता तक पहुंच गई. बाद में ख़ुद प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के चुनावी वादों को’ जुमला’ क़रार दे दिया. आज देश को राहुल गांधी जैसे नेता की ज़रूरत है, जो छल और फ़रेब की राजनीति नहीं करते. वे कहते हैं,  ''मैं गांधीजी की सोच से राजनीति करता हूं. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता. मेरे अंदर ये है ही नहीं. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. 'मैं झूठे वादे नहीं करता."  क़ाबिले-ग़ौर है कि एक सर्वे में विश्वसनीयता के मामले में दुनिया के बड़े नेताओं में राहुल गांधी को तीसरा दर्जा मिला हैं, यानी दुनिया भी उनकी विश्वसनीयता का लोहा मानती है. ऐसे ईमानदार नेता को जनता भला क्यों न सर-आंखों में बिठाएगी.

बेशक लोकसभा चुनाव में हार से पार्टी को झटका लगा है. लेकिन आज पार्टी हारी है, तो कल जीत भी सकती है. कांग्रेस को इस हार से सबक़ लेकर उन कारणों को दूर करना होगा, जिनकी वजह से पार्टी आज इस हालत तक पहुंची है. कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए पार्टी की आंतरिक कलह को दूर करना होगा. पार्टी की अंदरूनी ख़ेमेबाज़ी को भी ख़त्म करने की ज़ररूरत है. मार्च 2017 में पार्टी के वरिष्ठ नेता सज्जन वर्मा ने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कुछ सियासी परिवारों पर कांग्रेस को ख़त्म करने की एवज में सुपारी लेने का आरोप लगाया था. उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को फ़ौरन सख़्त कार्रवाई करने की सलाह देते हुए लिखा था- "इंदिरा गांधी ने राजा-महाराजाओं का प्रभाव ख़त्म करने के लिए रियासतें ख़त्म कर दी थीं, तब कुछ लोगों ने ख़ूब शोर मचाया था. अब वही लोग राजनीतिक शोर मचा रहे हैं. ऐसे लोगों का प्रभाव ख़त्म करने के लिए कठोर निर्णय लेने होंगे. तभी हमारी पार्टी खड़ी हो पाएगी." हालांकि सज्जन कुमार का पत्र सार्वजनिक होने के बाद इस पर बवाल भी मचा था.  इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर सज्जन कुमार की बातों को गंभीरता से लिया जाता और उन पर अमल किया जाता, तो शायद आज हालात कुछ और होते.

बहरहाल, इस बात में कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस की नैया डुबोने में इसके खेवनहारों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. राहुल गांधी भी अब इस बात को बाख़ूबी समझ चुके हैं. हाल में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने ख़ुद कहा है कि पार्टी के कई नेताओं ने पार्टी से आगे अपने बेटों को रखा और उन्हें टिकट दिलाने के लिए दबाव बनाया. हालांकि राहुल गांधी ने किसी का नाम नहीं किया, लेकिन कई वरिष्ठ नेताओं के बेटे और बेटियों को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. इनमें राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत, कांग्रेस महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया, पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष मोहन देव की बेटी सुष्मिता देव भी शामिल हैं.  दरअसल कांग्रेस नेताओं के निजी स्वार्थ ने पार्टी को बहुत नुक़सान पहुंचाया है.  राहुल गांधी को इसी को मद्देनज़र रखते हुए आगामी रणनीति बनानी होगी. पार्टी के नेताओं ने कांग्रेस को अपनी जागीर समझ लिया और सत्ता के मद में चूर वे कार्यकर्ताओं से भी दूर होते गए. नतीजतन, जनमानस ने कांग्रेस को सबक़ सिखाने की ठान ली और उसे सत्ता से बदख़ल कर दिया. वोटों के बिखराव और सही रणनीति की कमी की वजह से भी कांग्रेस को ज़्यादा नुक़सान हुआ. पिछले लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं, वहीं इस बार के आम चुनाव में कांग्रेस महज़ 52 सीटें ही जीत पाई है. मेहनत और सही रणनीति से यह संख्या 300 से 400 तक भी पहुंच सकती है.

राहुल गांधी को चाहिए कि वे ऐसे नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाएं, जो पार्टी के बीच रहकर पार्टी को कमज़ोर करने का काम कर रहे हैं. राहुल गांधी को चाहिए कि वे कार्यकर्ताओं के मनोबल को बढ़ाएं, क्योंकि कार्यकर्ता किसी भी पार्टी की रीढ़ होते हैं. जब तक रीढ़ मज़बूत नहीं होगी, तब तक पार्टी भला कैसे मज़बूत हो सकती है. उन्हें पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं से लेकर पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक अपनी पहुंच बनानी होगी. बूथ स्तर पर पार्टी को मज़बूत करना होगा. साफ़ छवि वाले जोशीले युवाओं को ज़्यादा से ज़्यादा पार्टी में शामिल करना होगा. कांग्रेस की मूल नीतियों पर चलना होगा, ताकि पार्टी को उसका खोया हुआ वर्चस्व मिल सके. इसके साथ ही कांग्रेस सेवा दल को भी मज़बूत करना होगा.
राहुल गांधी को याद रखना होगा, मन के हारे हार है और मन के जीते जीत. जो सच के साथ होते हैं, वो कभी हारा नहीं करते.


इस चुनाव में लोकसभा निर्वाचन के लिए किसी उम्मीदवार के खर्च की सीमा सत्तर लाख है । इससे पहले कई बड़े नेता सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उन्होंने बीते चुनाव में कितने करोड़ खर्च किए। ‘‘भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य का सपना देखने वाले सेनानियों का मत था कि वोट के लिए निजी अपील करना संसदीय लोकतंत्र और सामूहिक हित की भावना के प्रतिकूल है । वोट मांगने का काम केवल सार्वजनिक सभाओं के जरिए होना चाहिए ।’’ इस अर्थ-प्रधान युग में ऐसी धारणा रखने वालों का राजनीति में कोई स्थान नहीं है । आज का चुनाव वास्तव में हथकंडों के साथ ‘लड़ा’ जा रहा है । यह सत्ता हथियाने का पर्व है , जिसमें अरबों-खरबों के काले धन का वारा-न्यारा होना है । चुनाव आयोग खर्चेां पर नजर रखने के लिए भले ही पर्यवेक्षक नियुक्त करता है, लेकिन चुनावी हथकंडों की जटिलता के बीच कायदे- कानून असहाय रह जाते हैं । सन 2014 के चुनाव में आयोग ने 1400 करोड़ रूपए जब्त किए थे जबकि इस बार चौथे चरण के मतदान तक ,अभी तक कोई 14 सौ करोड की नगदी, ड्रग्स व शराब आदि चुनाव आयोग जब्त कर चुका है। वैल्लौर सीट का निर्वाचन तो नगदी बांटने की षिकायतों के बाद रद्द किया गया। अब यह बात खुले आम कही जा रही है कि चाहे जितनी निगरानी कर लो, इस आम चुनाव में दस हजार करोड से ज्यादा का काला धन खर्च होगा, जबकि चुनाव आयोग इस बार चुनाव लड़ने के लिए खर्च की सीमा सत्तर लाख कर चुका है। हकीकत के धरातल पर यह रकम  नाकाफी है और जाहिर है कि बकाया खर्च की आपूर्ति दो नंबर के पैसे से व फर्जी तरीके से ही होगी।  यह विडंबना ही है कि यह जानते -बूझते हुए चुनाव आयोग इस खर्च पर निगाह रखने के नाम पर खुद ही कई हजार करोड़ खर्च कर देता है, वह भी जनता की कमाई का।

किसी ने ‘नए फिल्मी गाने की धुन’ को ही एक करोड़ में खरीद डाला है तो कोई मषहूर फिल्मी अदाकारों  को किराए पर ले कर गली-गली घुमाने जा रहा है। भाजपा हो या कांग्रेस या फिर समाजवादी पार्टी या दलित मित्र बसपा सभी ने अपने बड़े नेताओं के दौरों के लिए अधिक से अधिक हेलीकाप्टर और विमान किराए पर ले लिए हैं , जिनका किराया हर घंटे की पचपन लाख तक है। कंाग्रेस ने इलेक्ट्रानिक्स संचार माध्यमों, केबल नेटवर्क के जरिए गांव-गांव तक बात पहुंचाने का करोड़ों का प्रोजेक्ट तैयार किया है । भाजपा के नेता षूटिंग कर रहे । कोई एक राज्य में ही चार सौ रथ चलवा रहा है तो कहीं रोड षो। वोटों के लिए लोगों को रिझाने के वास्ते हर पार्टी हाई-टेक की ओर अग्रसर है । यह तो महज पार्टी के आलाकमानों का खर्चा है । हर पार्टी का उम्मीदवार स्थानीय देश -  काल- परिस्थिति के अनुरूप अपनी अलग से प्रचार योजना बना रहा है । जिसमें दीवार रंगाई, झंडे, बैनर, पोस्टर गाड़ियों पर लाऊड-स्पीकर से प्रचार, आम सभाओं के साथ-साथ क्षेेत्रीय भाषाओं में आडियो-वीडियो कैसेट बनवाने, आंचलिक वोट के ठेकेदारों को अपने पक्ष में पटाने सरीखे खर्चें भी हांेगे । इसमें टिकट पाने के लिए की गई जोड़-तोड़ का खर्चा षामिल नहीं है। अभी दो साल पहले ही उत्तर प्रदेष में संपन्न पंचायत चुनाव बानगी हैं कि एक गांव का सरपंच बनने के लिए कम से कम दस लाख का खर्च मामूली बात थी। फिर एक लोकसभा सीट के तहत आठ सौ पंचायतें होना सामान्य सी बात है। इसके अलावा कई नगर पालिक व निगम भी होते हैं।
भाजपा, कांग्रेस, सरीखी पार्टियां ही नहीं क्षेत्रीय दल के उम्मीदवार भी 15 से 40 वाहन प्रचार में लगाते ही हैं । आज गाड़ियों का किराया न्यूनतम पच्चीस सौ रुपए रोज है । फिर उसमें डी़जल, उस पर लगे लाऊड-स्पीकर का किराया और सवार कार्यकर्ताओं का खाना-खुराक,यानि प्रति वाहन हर रोज दस हजार रुपए का खर्चा होता है । यदि चुुनाव अभियान 20 दिन ही चला तो तीस लाख से अधिक का खर्चा तो इसी मद पर होना है । पर्चा, पोस्टर लेखन, स्थानीय अखबार में विज्ञापन पर बीस लाख, वोट पड़ने के इंतजाम ,मतदाता पर्चा लिखना, बंटवाना, मतदान केंदª के बाहर कैंप लगाना आदि में बीस लाख का खर्चा मामूली बात है । इसके अलावा आम सभाओें, स्थानीय बाहुबलियों को प्रोत्साहन राशि, पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के मानदेय पर चालीस लाख का खर्चा होना ही है । साफ है कि एक करोड़ का खर्चा किए बगैर ढ़ंग से लोकसभा चुनाव लड़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती है ।
इस बार देष कुल 543 सीटों लिए छह बड़ी, 40 क्षेत्रीय दल व कई सौ अन्य उम्मीदवार मैदान में हैं । औसतन हर सीट पर तीन बड़ी पार्टियों की टक्कर होना है । यदि न्यूनतम खर्चा भी लें तो प्रत्येक सीट पर छह करोड से अधिक रुपए का धंुआ उड़ना है । यह पैसा निश्चित ही वैध कमाई का हिस्सा नहीं होगा, अतः इसे वैध तरीके से खर्च करने की बात करना बेमानी होगा । यहां एक बात और मजेदार है कि चुनावी खर्चे पर नजर रखने के नाम पर चुनाव आयोग भी जम कर फिजूलखर्ची करता है । अफसरों के टीए-डीए, वीडियो रिकार्डिंग, और ऐसे ही मद में आधा अरब का खर्चा मामूली माना जा रहा है। कई महकमों के अफसर चुनाव खर्च पर नजर रखने के लिए लगाए जाते हैं, उनके मूल महकमे का काम काज एक महीने ठप्प रहता है सो अलग। यदि इसे भी खर्च में जोडे़ं तो आयोग का व्यय ही दुगना हो जाता है।
यह सभी कह रहे हैं कि इस बार का चुनाव सबसे अधिक खर्चीला है- असल में तो चुनाव के खर्चे छह महीने पहले से षुरू हो गए थे। एक-एक रैली पर कई करोड़ का खर्च, इमेज बिल्डिंग के नाम पर जापनी एजेंसियों को दो सौ करोड तक चुकाने, और इलेक्ट्रानिक व सोषल मीडिया पर ‘‘भ्रमित प्रचार’’ के लिए पीछे के रास्ते से खर्च अकूत धन का तो कहीं इरा-सिरा  ही नहीं मिल रहा है। कुल मिला कर चुनाव अब ‘इन्वेस्टिमेंट’ हो गया है, जितना करोड लगाओगे, उतने अरब का रिटर्न पांच साल में मिलेगा।
चुनावी खर्च बाबत कानून की ढ़ेरों खामियों को सरकार और सभी सियासती पार्टियां स्वीकार करती हैं । किंतु उनके निदान के सवाल को सदैव खटाई में डाला जाता रहा है । राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों की कमेटी का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, ईंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया करवाए जाने चाहिए । ये सिफारिशें कहीं ठडे बस्ते में पड़ी हुई हैं । वैसे भी आज के भ्रष्ट राजनैतिक माहौल में समिति की आदर्श सिफारिशें कतई प्रासंगिक नहीं हैं । इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि नेता महज सरकारी खर्चे पर ही चुनाव लड़ लेंगे या फिर सरकारी पैसे को ईमानदारी से खर्च करेंगे । 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा ।
चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि  राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरैक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिती ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । सनद रहे कि 1979 के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा किसी भी दल ने अपने आय-व्यय के ब्यौरे इनकम टेक्स विभाग को नहीं दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाया तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा कीं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है ।
वैसे लोकतंत्र में मत संकलन की जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए,नाकि पार्टी या प्रत्याशी की । हम इस सदी के संभवतया आखिरी आम चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं । थैलीशाहों ने काले धन का बहाव तेज कर दिया है । औद्योगिक घराने मंदी के बावजूद अपनी थैलियां खोले हुए हैं। आखिर सरकार उन्हीं के लिए तो चुनी जानी है । आम मतदाता को तो वोट के ऐवज में महंगाई, बढ़े हुए टेक्स और परेशानियों से अधिक कुछ तो मिलने से रहा ।
पंकज चतुर्वेदी

सरफ़राज़ ख़ान 
चुनाव आयोग ने रविवार को लोकसभा चुनाव 2019 की तारीख़ों का ऐलान  कर दिया. लोकसभा की 543 सीटों के लिए सात चरणों (11 अप्रैल से 19 मई) में मतदान होगा और नतीजे 23 मई को घोषित होंगे. इस बार चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में उम्मीदवारों की तस्वीर भी नज़र आएगी. इस बार चुनाव में 90 करोड़ मतदाता शिरकत करेंगे. इसमें 18-19 साल के 1.5 करोड़ नये मतदाता भी हैं. इवीएम के साथ मतदाता पावती रसीद यानी वोटर वेरिफ़ायड पेपर ऑडिट ट्राय (वीवीपीएटी) का इस्तेमाल किया जाएगा. मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा के मुताबिक़ चुनाव संपन्न कराने के लिए तक़रीबन 10 लाख मतदान केंद्र बनाए जाएंगे.

ग़ौरतलब है कि तलब सोलहवीं लोकसभा का कार्यकाल तीन जून 2019 को ख़त्म हो रहा है. इससे पहले लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया पूरी की जानी है. इस लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम में विधानसभा चुनाव भी कराए जाएंगे. इन राज्यों में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान, इन राज्यों की लोकसभा सीटों के लिए होने वाले मतदान के साथ ही होगा. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव के साथ नहीं होंगे.

पहला चरण का  मतदान 11 अप्रैल को होगा. इसमें  20 राज्यों की 91 सीटों पर मतदान होगा.  इसकी अधिसूचना 18 मार्च को जारी होगी. 
पहले चरण के चुनाव में आंध्र प्रदेश (25), अरुणाचल (2), असम (5), बिहार (4), छत्तीसगढ़ (एक), जम्मू-कश्मीर (2), महाराष्ट्र (सात), मणिपुर (1), मेघालय (2), मिज़ोरम (1), नगालैंड (1), ओडिशा (4), सिक्किम (1), तेलंगाना (17), त्रिपुरा (1), उत्तर प्रदेश (आठ), उत्तराखंड (पांच), पश्चिम बंगाल (दो), अंडमान (1) और लक्षद्वीप (1) शामिल है.

दूसरे चरण का मतदान 18 अप्रैल को होगा. इसमें 13 राज्यों की 97 सीटों पर मतदान होगा. इसकी अधिसूचना 19 मार्च को जारी होगी.
दूसरे चरण के चुनाव में असम (5), बिहार (5), छत्तीसगढ़ (3), जम्मू-कश्मीर (2), कर्नाटक (4), महाराष्ट्र (10), मणिपुर  (1), ओडिशा (5), तमिलनाडु (39), त्रिपुरा (1), उत्तर प्रदेश (8), पश्चिम बंगाल (3) और पुडुचेरी (1) शामिल है.

तीसरे चरण के मतदान 23 अप्रैल होगा. इसमें 14 राज्यों की 115 सीटों पर मतदान होगा. इसकी अधिसूचना 28 मार्च को जारी होगी. ​
तीसरे चरण के चुनाव में असम (4), बिहार (5), छत्तीसगढ़ (7), गुजरात (26), गोवा (2), जम्मू-कश्मीर (1), कर्नाटक (14), केरल (20), महाराष्ट्र (14), ओडिशा (6), उत्तर प्रदेश (10), पश्चिम बंगाल (5), दादरा एवं नगर (1) और दमन एवं दिउ (1) शामिल हैं.

चौथे चरण का मतदान 29 अप्रैल को होगा. इसमें  9 राज्यों की 71 सीटों पर मतदान होगा. इसकी अधिसूचना 2 अप्रैल को जारी होगी.
चौथे चरण के चुनाव में बिहार (5), जम्मू-कश्मीर (एक), झारखंड (3), मध्य प्रदेश (6), महाराष्ट्र (17), ओडिशा की (6), राजस्थान की (13), उत्तर प्रदेश (13) और पश्चिम बंगाल (8) शामिल हैं.

पांचवें चरण का मतदान 6 मई होगा. इसमें 7 राज्यों की 51 सीटों पर मतदान होगा. इसकी अधिसूचना 10 अप्रैल को जारी होगी.
पांचवें चरण के  चुनाव में बिहार (5), जम्मू-कश्मीर (एक), झारखंड (4), मध्य प्रदेश (7), राजस्थान (12), उत्तर प्रदेश (14) और  पश्चिम बंगाल (7) शामिल हैं.

छठे चरण का चुनाव 12 मई को होगा. इसमें 7 राज्यों की 59 सीटों पर मतदान होगा. इसकी अधिसूचना 16 अप्रैल को जारी होगी.
छठे चरण के चुनाव में बिहार (8), हरियाणा (10), झारखंड (4), मध्य प्रदेश की (8), उत्तर प्रदेश (14), पश्चिम बंगाल की (8) और दिल्ली (7) शामिल हैं.

सातवें चरण का चुनाव 19 मई को होगा. इसमें 8 राज्यों की 59 सीटों पर मतदान होगा. इसकी अधिसूचना 22 अप्रैल को जारी होगी.​
सातवें चरण के चुनाव में बिहार (8), झारखंड (3), मध्य प्रदेश (8), पंजाब (13), पश्चिम बंगाल (9), उत्तर प्रदेश (13) और हिमाचल (4) शामिल हैं.

फ़िरदौस ख़ान
लोकसभा चुनाव क़रीब हैं. इस समर को जीतने के लिए कांग्रेस दिन-रात मेहनत कर रही है. इसके मद्देनज़र पार्टी संगठन में भी लगातार बड़े बदलाव किए जा रहे हैं. सियासत के लिहाज़ से देश के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की कमान प्रियंका गांधी को सौंपी गई है. ग़ौरतलब है कि बीती 23 जनवरी को प्रियंका गांधी को कांग्रेस महासचिव बनाया गया था और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश के 41 लोकसभा क्षेत्रों की ज़िम्मेदारी दी गई थी. ज्योतिरादित्य सिंधिया को महासचिव बनाने के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया गया था. उन्हें 39 लोकसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को जिताने का दायित्व दिया गया था. अब इन दोनों नेताओं की मदद के लिए तीन-तीन सचिव नियुक्त किए गए हैं. नव नियुक्त पार्टी सचिव जुबेर ख़ान, कुमार आशीष और बाजीराव खाडे प्रियंका गांधी की मदद करेंगे, जबकि राणा गोस्वामी, धीरज गुर्जर और रोहित चौधरी ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ काम करेंगे. कांग्रेस उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से ज़्यादा से ज़्यादा जीत लेना चाहती है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के कमज़ोर होने की कई वजहें रही हैं, जिनमें मज़बूत क्षेत्रीय नेतृत्व की कमी सबसे अहम वजह है. हालांकि कांग्रेस के सभी बड़े नेता उत्तर प्रदेश से ही चुनाव लड़ते रहे हैं, जिनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी शामिल हैं. लेकिन इनका दख़ल दिल्ली की सियासत में ज़्यादा रहा. मज़बूत नेतृत्व के अभाव में कांग्रेस कमज़ोर पड़ने लगी और लगातार राज्य की सत्ता से दूर होती गई. इसकी वजह से पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटने लगा. ऐसे में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी मज़बूत हुई. अब कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी खोई ज़मीन फिर से पाना चाहती है. इसके लिए वह ख़ासी मशक्क़त कर रही है.

कांग्रेस देश की माटी में रची-बसी है. देश का मिज़ाज हमेशा कांग्रेस के साथ रहा है और आगे भी रहेगा. कांग्रेस जनमानस की पार्टी रही है. कांग्रेस का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है. इस देश की माटी उन कांग्रेस नेताओं की ऋणी है, जिन्होंने अपने ख़ून से इस धरती को सींचा है. देश की आज़ादी में महात्मा गांधी के योगदान को भला कौन भुला पाएगा. देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी समर्पित कर दी. पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी ने देश के लिए, जनता के लिए बहुत कुछ किया. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विकास की जो बुनियाद रखी, इंदिरा गांधी ने उसे परवान चढ़ाया. राजीव गांधी ने देश के युवाओं को आगे बढ़ने की राह दिखाई. उन्होंने युवाओं के लिए जो ख़्वाब संजोये, उन्हें साकार करने में सोनिया गांधी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. अब कांग्रेस की अगली पीढ़ी के नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के कंधों पर ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी सियासी विरासत को आगे बढ़ाएं और अवाम को वह हुकूमत दें, जिसमें सभी लोग मिलजुल रहा करते हैं. पिछले कुछ बरसों से लोग ‘अच्छे दिनों’ के लिए तरस रहे हैं. समाज में फैले नफ़रत और अविश्वास के इस दौर में कांग्रेस ही देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने का काम कर सकती है. जनता को कांग्रेस से उम्मीदें हैं, क्योंकि राहुल गांधी किसी ख़ास तबक़े के नेता न होकर जन नेता हैं. वे कहते हैं, "जब भी मैं किसी देशवासी से मिलता हूं. मुझे सिर्फ़ उसकी भारतीयता दिखाई देती है. मेरे लिए उसकी यही पहचान है. अपने देशवासियों के बीच न मुझे धर्म, ना वर्ग, ना कोई और अंतर दिखता है."

जनता को ऐसी सरकार चाहिए, जो जनहित की बात करे, जनहित का काम करे. बिना किसी भेदभाव के सभी तबक़ों को साथ लेकर चले. कांग्रेस ने जनहित में बहुत काम किए हैं. ये अलग बात है कि वे अपने जन हितैषी कार्यों का प्रचार नहीं कर पाई, उनसे कोई फ़ायदा नहीं उठा पाई, जबकि भारतीय जनता पार्टी लोक लुभावन नारे देकर सत्ता तक पहुंच गई. बाद में ख़ुद प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के चुनावी वादों को’ जुमला’ क़रार दे दिया. आज देश को राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे नेताओं की ज़रूरत है, जो छल और फ़रेब की राजनीति नहीं करते. राहुल गांधी कहते हैं,  ''मैं गांधीजी की सोच से राजनीति करता हूं. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता. मेरे अंदर ये है ही नहीं. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. 'मैं झूठे वादे नहीं करता. "  क़ाबिले-ग़ौर है कि एक सर्वे में विश्वसनीयता के मामले में दुनिया के बड़े नेताओं में राहुल गांधी को तीसरा दर्जा मिला है, यानी दुनिया भी उनकी विश्वसनीयता का लोहा मानती है.

फ़िलहाल  राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के कंधों पर दोहरी ज़िम्मेदारी है. उन्हें पार्टी को मज़बूत बनाने के साथ-साथ खोई हुई हुकूमत को भी हासिल करना है. उन्हें चाहिए कि वे देश भर के सभी राज्यों में युवा नेतृत्व ख़ड़ा करें. इस बात में कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस की नैया डुबोने में इसके खेवनहारों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. राहुल गांधी को इस बात को भी समझना होगा और इसी को मद्देनज़र रखते हुए आगामी रणनीति बनानी होगी. वैसे अब राहुल गांधी अंदरूनी कलह, ख़ेमेबाज़ी और बग़ावत को लेकर काफ़ी सख्त़ हुए हैं. प्रियंका गांधी ने तो साफ़ कह दिया है कि जो नेता पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल पाए जाएंगे, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.

दरअसल, पार्टी के कुछ नेताओं ने कांग्रेस को अपनी जागीर समझ लिया था और सत्ता के मद में चूर वे कार्यकर्ताओं से भी दूर होते गए. नतीजतन, जनमानस ने कांग्रेस को सबक़ सिखाने की ठान ली और उसे सत्ता से बदख़ल कर दिया. वोटों के बिखराव और सही रणनीति की कमी की वजह से कांग्रेस को ज़्यादा नुक़सान हुआ. लेकिन इसका यह मतलब क़तई नहीं कि कांग्रेस का जनाधार कम हुआ है. पिछले लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ा है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया और कई राज्यों में सत्ता में वापसी की. इससे पार्टी नेताओं के साथ-साथ कार्यकर्ताओं में भी भारी उत्साह है. भारतीय जनता पार्टी व अन्य सियासी दलों के नेता भी कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं. 

आज़ादी के बाद से देश में सबसे ज़्यादा वक़्त तक हुकूमत करने वाली कांग्रेस के लोकसभा में अब भले ही कम सांसद हैं, लेकिन कई मामलों में वे भारतीय जनता पार्टी की बहुतमत वाली सरकार पर भारी पड़े हैं. सत्ताधारी पार्टी ने कई बार ख़ुद कहा है कि कांग्रेस के सांसद उसे काम नहीं करने दे रहे हैं.

बहरहाल, कांग्रेस के पास अब ज़्यादा वक़्त नहीं बचा है. कांग्रेस को चाहिए कि वह कार्यकर्ताओं के ज़रिये घर-घर तक पहुंचे. उन्हें पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं से लेकर पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक अपनी पहुंच बनानी होगी. बूथ स्तर पर पार्टी को मज़बूत करना होगा. साफ़ छवि वाले जोशीले युवाओं को ज़्यादा से ज़्यादा पार्टी में शामिल करना होगा. कांग्रेस की मूल नीतियों पर चलना होगा, ताकि पार्टी को उसका खोया हुआ वर्चस्व मिल सके. साथ ही ऐसे बयानों और घोषणाओं से बचना होगा, जिससे वोटों में बिखराव आने के अंदेशा हो.
कांग्रेस को अपनी चुनावी रणनीति बनाते वक़्त कई बातों को ज़ेहन में रखना होगा. उसे सभी वर्गों का ध्यान रखते हुए अपने पदाधिकारी तय करने होंगे. टिकट बंटवारे में भी एहतियात बरतनी होगी. क्षेत्रीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी विश्वास में लेना होगा, क्योंकि जनता के बीच तो इन्हीं को जाना है. कांग्रेस नेताओं को चाहिए कि वे पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक से संवाद करें. उनकी पहुंच हर कार्यकर्ता तक और कार्यकर्ता की पहुंच उन तक होनी चाहिए, फिर कांग्रेस को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा. अराजकता के इस दौर में अवाम को कांग्रेस की बेहद ज़रूरत है. बक़ौल शहरयार-
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तेरे निकलने का

फ़िरदौस ख़ान 
अहंकार को एक दिन टूटना ही होता है. अहंकार की नियति ही टूटना है. इतिहास गवाह है कि किसी का भी अहंकार कभी ज़्यादा वक़्त तक नहीं रहा. इस अहंकार की वजह से बड़ी-बड़ी सल्तनतें नेस्तनाबूद हो गईं. किसी हुकूमत को बदलते हुए वक़्त नहीं लगता. बस देर होती है अवाम के जागने की. जिस दिन अवाम बेदार हो जाती है, जाग जाती है, उसी दिन से हुक्मरानों के बुरे दिन शुरू हो जाते हैं, उनका ज़वाल (पतन) शुरू हो जाता है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी यही तो हुआ. यहां अहंकार हार गया और विनम्रता जीत गई. चुनाव नतीजों वाले दिन शाम को हुई प्रेस कॊन्फ़्रेंस में राहुल गांधी ने कहा कि हम किसी को देश से मिटाना नहीं चाहते. हम विचारधारा की लड़ाई लड़ेंगे. मैं मोदी जी का धन्यवाद करता हूं, जिनसे मैंने यह सीखा कि एक पॉलिटिशियन होने के नाते मुझे क्या नहीं कहना या करना चाहिए.

ये राहुल गांधी का धैर्य, विनम्रता और शालीनता ही है कि उन्होंने विपरीत हालात का हिम्मत से मुक़ाबला किया. जब भारतीय जनता पार्टी द्वारा उनके नेतृत्व पर सवाल उठाए गए, चुनावों में नाकामी मिलने पर उनका मज़ाक़ उड़ाया गया, उनके लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया गया, लेकिन राहुल गांधी ने कभी अपनी तहज़ीब नहीं छोड़ी, अपने संस्कार नहीं छोड़े. उन्होंने अपने विरोधियों के लिए भी कभी अपशब्दों का इस्तेमाल नहीं किया. उन्होंने मिज़ोरम और तेलंगाना में जीतने वाले दलों को मुबारकबाद दी. चुनावों में जीतने वाले सभी उम्मीदवारों को शुभकामनाएं दीं. अहंकार कभी उन पर हावी नहीं हुआ. विधानसभा चुनावों में जीत का श्रेय उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को दिया. उन्होंने कहा कि उनके कार्यकर्ता बब्बर शेर हैं. राहुल गांधी में हार को क़ुबूल करने की हिम्मत भी है. पिछले चुनावों में नाकामी मिलने पर उन्होंने हार का ज़िम्मा ख़ुद लिया. ये सब बातें ही तो हैं, जो उन्हें महान बनाती हैं और ये साबित करती हैं कि उनमें एक महान नेता के सभी गुण मौजूद हैं.


अमूमन देखा जाता है कि जब कोई पार्टी सत्ता में आ जाती है, तो उसे घमंड हो जाता है. राजनेता बेलगाम हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि सत्ता उनकी मुट्ठी में है, वे जो चाहें कर सकते हैं. उन्हें टोकने, रोकने वाला कोई नहीं है. साल 2014 के आम चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने जनता से बड़े-बड़े वादे किए थे. उन्हें ख़ूब सब्ज़ बाग़ दिखाए थे, लेकिन सत्ता में आते ही अपने वादों से उलट काम किया. भारतीय जनता पार्टी ने महंगाई कम करने का वादा किया था, लेकिन उसके शासनकाल में महंगाई आसमान छूने लगी. भारतीय जनता पार्टी ने महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों पर रोक लगाने का वादा किया था, लेकिन आए-दिन महिला शोषण के दिल दहला देने वाले मामले सामने आने लगे. भारतीय जनता पार्टी ने किसानों को राहत देने का वादा किया था, लेकिन किसानों के ख़ुदकुशी के मामले थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. किसानों को अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करने पर मजबूर होना पड़ा. भारतीय जनता पार्टी ने युवाओं को रोज़गार देने का वादा किया था, लेकिन रोज़गार देना तो दूर, नोटबंदी और जीएसटी लागू करके जो उद्योग-धंधे चल रहे थे, उन्हें भी बंद करने का काम किया है. जो लोग काम कर रहे थे, वे भी रोज़ी-रोटी के लिए तरसने लगे. भारतीय जनता पार्टी की सरकार जो भी फ़ैसले ले रही है, उनसे सिर्फ़ बड़े उद्योगपतियों को ही फ़ायदा हो रहा है. ऑक्सफ़ेम सर्वेक्षण के मुताबिक़ पिछले साल यानी 2017 में भारत में सृजित कुल संपदा का 73 फ़ीसद हिस्सा देश की एक फ़ीसद अमीर आबादी के पास है. राहुल गांधी ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सवाल भी किया था. ग़ौरतलब है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्राओं और उनकी सरकार पर अमीरों के लिए काम करने और उनके कर्ज़ माफ़ करने को लेकर लगातार हमला करते रहे हैं. इतना ही नहीं भारत और फ्रांस सरकार के बीच हुए राफ़ेल लड़ाकू विमान सौदे पर भी राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं.

दरअसल, एक तरफ़ केन्द्र की मोदी सरकार अमीरों को तमाम सुविधाएं दे रही है, उन्हें करों में छूट दे रही है, उनके कर माफ़ कर रही है, उनके क़र्ज़ माफ़ कर रही है. वहीं दूसरी तरफ़ ग़रीब जनता पर आए दिन नये-नये कर लगाए जा रहे हैं, कभी स्वच्छता के नाम पर, तो कभी जीएसटी के नाम पर उनसे वसूली की जा रही है. खाद्यान्नों और रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ों के दाम भी लगातार बढ़ाए जा रहे हैं. मरीज़ों के लिए इलाज कराना भी मुश्किल हो गया है. दवाओं यहां तक कि जीवन रक्षक दवाओं और ख़ून के दाम भी बहुत ज़्यादा बढ़ा दिए गए हैं. ऐसे में ग़रीब मरीज़ कैसे अपना इलाज कराएंगे, इसकी सरकार को ज़रा भी फ़िक्र नहीं है. सरकार का सारा ध्यान जनता से कर वसूली पर ही लगा हुआ है. वैसे भी प्रधानमंत्री ख़ुद कह चुके हैं कि उनके ख़ून में व्यापार है.

ऐसे मुश्किल दौर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अवाम के साथ खड़े हैं. वे लगातार बेरोज़गारी, महंगाई, किसानों की दुर्दशा, महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसक वारदातों और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अलख जगाए हुए हैं. अवाम को भी समझ में आ गया है कि उनसे झूठे वादे करके उन्हें ठगा गया. इसलिए अब जनता उन वादों के बारे में सवाल करने लगी है. जनता पूछने लगी कि कहां हैं, वे अच्छे दिन जिसका इंद्रधनुषी सपना भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें दिखाया था. कहां हैं, वह 15 लाख रुपये, जिन्हें उनके खाते में डालने का वादा किया गया था. कहां है वह विदेशी काला धन, जिसके बारे में वादा किया गया था कि उसके भारत में आने के बाद जनता के हालात सुधर जाएंगे.

अवाम अब जागने लगी है. इसी का नतीजा है कि उसने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी को उखाड़ फेंका और कांग्रेस को हुकूमत सौंप दी. अवाम राहुल गांधी पर यक़ीन करने लगी है. वह समझ चुकी है कि कांग्रेस ही देश की एकता और अखंडता को बनाए रख सकती है. कांग्रेस के राज में ही सब मिलजुल कर चैन-अमन के साथ रह सकते हैं, क्योंकि कांग्रेस विनाश में नहीं, विकास में यक़ीन रखती है. जनता अब बदलाव चाहती है.


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मुलाक़ात कर रहे हैं. अगर वे मुसलमानों के हालात जानने के लिए ऐसा कर रहे हैं, तो उन्हें वरिष्ठ पत्रकार फ़िरदौस ख़ान की ये रिपोर्ट ज़रूर पढ़नी चाहिए.
देश को आज़ाद हुए सात दशक बीत चुके हैं. इस दौरान बहुत कुछ बदल गया, लेकिन अगर कहीं कुछ नहीं बदला है, तो वह है देश के मुसलमानों की हालत. यह बेहद अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी मुसलमानों की हालत अच्छी नहीं है. उन्हें उन्नति के लिए समान अवसर नहीं मिल रहे हैं. नतीजतन, मुसलमान सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से बेहद पिछ्ड़े हुए हैं.

संपत्ति के मामले में भी मुसलमानों की हालत बेहद ख़स्ता है. ग्रामीण इलाक़ों में 62.2 फ़ीसद मुसलमान भूमिहीन हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 43 फ़ीसद है. वक़्फ़ संपत्तियों यहां तक की क़ब्रिस्तानों पर भी बहुसंख्यकों का क़ब्ज़ा है. शर्मनाक बात तो यह भी है कि इन मामलों में वक़्फ़ बोर्ड के अधिकारियों की मिलीभगत शामिल रहती है. मुसलमानों को रोज़गार के अच्छे मौक़े भी बहुत कम ही मिल पाते हैं. इसलिए ज़्यादार मुसलमान छोटे-मोटे कामधंधे करके ही अपना गुज़ारा कर रहे हैं. 2001 की जनगणना के मुताबिक़ मुसलमानों की आबादी 13.43 फ़ीसद है, लेकिन सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की हिस्सेदारी बहुत कम है. सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ सुरक्षा बलों में कार्यरत 18 लाख 89 हज़ार 134 जवनों में 60 हज़ार 517 मुसलमान हैं. सार्वजनिक इकाइयों को छोड़कर सरकारी रोज़गारों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज़ 4.9 फ़ीसद है. सुरक्षा बलों में 3.2 फ़ीसद, भारतीय प्रशासनिक सेवा में 30, भारतीय विदेश सेवा में 1.8, भारतीय पुलिस सेवा में 4, राज्यस्तरीय विभागों में 6.3, रेलवे में 4.5, बैंक और रिज़र्व बैंक में 2.2, विश्वविद्यालयों में 4.7,  डाक सेवा में 5, केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में 3.3 और राज्यों के सार्वजनिक उपक्रमों में 10.8 फ़ीसद मुसलमान हैं. ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले 60 फ़ीसद मुसलमान मज़दूरी करते हैं.

शिक्षा के मामले में भी मुसलमानों की हालत बेहद ख़राब है. शहरी इलाक़ों में 60 फ़ीसद मुसलमानों ने कभी स्कूल में क़दम तक नहीं रखा है. हालत यह है कि शहरों में 3.1 फ़ीसद मुसलमान ही स्नातक हैं, जबकि ग्रामीण इलाक़ों में यह दर सिर्फ़ 0.8 फ़ीसद ही है. साल 2001 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ मुसलमान दूसरे धर्मों के लोगों के मुक़ाबले शिक्षा के मामले में बहुत पीछे है. देश के तक़रीबन सभी राज्यों में कमोबेश यही हालत है. शहरी मुसलमानों की साक्षरता की दर बाक़ी शहरी आबादी के मुक़ाबले 19 फ़ीसद कम है. ग़ौरतलब है कि साल 2001 में देश के कुल 7.1 करोड़ मुस्लिम पुरुषों में सिर्फ़ 55 फ़ीसद ही साक्षर थे, जबकि 46.1 करोड़ ग़ैर मुसलमानों में यह दर 64.5 फ़ीसद थी. देश की 6.7 करोड़ मुस्लिम महिलाओं में सिर्फ़ 41 फ़ीसद महिलाएं साक्षर थीं, जबकि अन्य धर्मों की 43 करोड़ महिलाओं में 46 फ़ीसद महिलाएं साक्षर थीं. स्कूलों में मुस्लिम लड़कियों की संख्या अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के मुक़ाबले तीन फ़ीसद कम थी. 101 मुस्लिम महिलाओं में से सिर्फ़ एक मुस्लिम महिला स्नातक है, जबकि 37 ग़ैर मुसलमानों में से एक महिला स्नातक है. देश के हाईस्कूल स्तर पर मुसलमानों की मौजूदगी महज़ 7.2 फ़ीसद है. ग़ैर मुस्लिमों के मुक़ाबले 44 फ़ीसद कम मुस्लिम विद्यार्थी सीनियर स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं, जबकि महाविद्यालयों में इनकी दर 6.5 फ़ीसद है. स्नातक की डिग्री प्राप्त करने वाले मुसलमानों में सिर्फ़ 16 फ़ीसद ही स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल कर पाते हैं. मुसलमानों के 4 फ़ीसद बच्चे मदरसों में पढ़ते हैं, जबकि 66 फ़ीसद सरकारी स्कूलों और 30 फ़ीसद बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं.

मुसलमानों को सरकारी योजनाओं का भी कोई ख़ास फ़ायदा नहीं मिल पाता है. ग्रामीण इलाक़ों में ग़रीबी रेखा से नीचे के 94.9 फ़ीसद मुस्लिम परिवारों को मुफ़्त राशन नहीं मिल पाता है. इसी तरह सिर्फ़ 3.2 फ़ीसद मुसलमानों को ही सब्सिडी वाला क़र्ज़ मिलता है और महज़ 1.9 फ़ीसद मुसलमान सरकारी अनुदान वाले खाद्य कार्यक्रमों से फ़ायदा उठा पाते हैं. उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है.

देश में सांप्रदायिकता, ग़रीबी और अशिक्षा की वजह से मुसलमानों के साथ नाइंसाफ़ी की जाती रही है. देश के किसी भी हिस्से में अगर कोई आतंकी वारदात हो जाती है, तो सुरक्षा एजेंसियां फ़ौरन मुसलमानों पर शिकंजा कस देती हैं. पुलिस का भी यही रवैया रहता है. कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं, जिनके लिए बेक़सूर मुसलमानों को गिरफ़्तार किया गया, उन्हें बहुसंख्यक वर्ग के लोगों ने अंजाम दिया था. लेकिन इस सबके बावजूद सुरक्षा एजेंसियों से लेकर मीडिया की भूमिका भी मुसलमानों को फ़ंसाने की ही रहती है. नतीजतन, देशभर की जेलों में मुसलमान क़ैदियों की तादाद उनकी आबादी के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा है. सच्चर समिति की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि देश में मुसलमानों की आबादी जहां तक़रीबन 13.43 फ़ीसद है,  वहीं जेलों में उनकी तादाद क़रीब 21 फ़ीसद है. सच्चर समिति ने 2006 में कहा था कि सबसे ज़्यादा मुस्लिम क़ैदी महाराष्ट्र की जेलों में हैं, लेकिन मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक़, मुस्लिम क़ैदियों के मामले में पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर है, जबकि महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर है. नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो के आंकड़ों (दिसंबर 2010 तक) के मुताबिक़, पश्चिम बंगाल में 47 फ़ीसद मुस्लिम क़ैदी हैं, जबकि महाराष्ट्र में यह दर 32 फ़ीसद है. उत्तर प्रदेश में 26 फ़ीसद और बिहार में 23 फ़ीसद मुसलमान जेलों में हैं. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि इन प्रदेशों में विचाराधीन मुस्लिम क़ैदियों की तादाद सजायाफ़्ता मुस्लिम क़ैदियों से कई गुना ज़्यादा है. नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश की कुल 1,393 जेलों में 3 लाख 68 हज़ार 998 क़ैदी हैं, जिनमें 76 हज़ार 701 मुस्लिम क़ैदी हैं. इनमें सिर्फ़ 22 हज़ार 672 मुस्लिम क़ैदी ऐसे हैं, जिन्हें सज़ा सुनाई जा चुकी है, जबकि 53 हज़ार 312 मुस्लिम क़ैदी विचाराधीन हैं. देश की लचर क़ानून व्यवस्था जगज़ाहिर है कि यहां किसी भी मामले की सुनवाई में बरसों लग जाते हैं. ऐसी हालत में विचाराधीन क़ैदियों की उम्र जेल में ही गुज़र जाती है. एक अन्य रिपोर्ट की मानें तो ज़्यादातर क़ैदियों का आतंकवाद या संगठित अपराध से वास्ता नहीं है.

मुसलमानों की बदतर हालत के लिए सियासी तौर पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व का कम और कमज़ोर होना भी है. मुसलमानों की आबादी के लिहाज़ से सियासत में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है. देश में तक़रीबन 15 करोड़ मुसलमान हैं. कुल मुस्लिम आबादी में से तक़रीबन 23.7 फ़ीसद मुसलमान उत्तर प्रदेश में रहते हैं. बिहार, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में एक-एक करोड़ मुसलमान रहते हैं. केरल, आंध्र प्रदेश, असम, जम्मू-कश्मीर और कर्नाटक में 25 लाख से एक करोड़ के बीच मुसलमान रहते हैं. राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड में से प्रत्येक राज्य में तक़रीबन 30 से 50 लाख मुसलमान रहते हैं. दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड में 10 से 20 लाख मुसलमान रहते हैं. देश के नौ ज़िलों में मुसलमानों की आबादी 75 फ़ीसद से ज़्यादा है. मुसलमानों की अपनी कोई सियासी पार्टी नहीं है. सियासी दल बहुत कम मुसलमानों को ही चुनाव मैदान में उतारते हैं. इनमें से जो जीतकर आते हैं, मुसलमानों के प्रति उनका अपना कोई नज़रिया नहीं होता, क्योंकि उन्हें तो अपनी पार्टी के मुताबिक़ ही काम करना है. हालांकि सरकार ने मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक हालत जानने के लिए सच्चर समिति का गठन किया. इससे पहले रंगनाथन मिश्र आयोग बनाया गया, लेकिन इनकी सिफ़ारिशों को अभी तक लागू नहीं किया गया. इसलिए मुसलमानों को इनका कोई फ़ायदा नहीं मिला.

बहरहाल, मुसलमानों को अपनी क़ौम की तरक़्क़ी के लिए एकजुट होकर आगे आना होगा. इसके ज़रूरी है कि वे सियासत में ज़्यादा से ज़्यादा प्रतिनिधित्व हासिल करें.

फ़िरदौस ख़ान 
देश में कुछ संगठन ऐसे हैं, जो निस्वार्थ भाव से जन सेवा के काम में जुटे हैं. अखिल भारतीय कांग्रेस सेवा दल भी एक ऐसा ही संगठन है, जो मुश्किल वक़्त में लोगों की मदद करता है. कहीं बाढ़ आए, सूखा पड़े या फिर कोई और मुसीबत आए, संगठन के कार्यकर्ता राहत के कामों में बढ़ चढ़कर शिरकत करते हैं. दरअसल, जंगे-आज़ादी के वक़्त वजूद में आए इस संगठन का मक़सद ही सामाजिक समरसता को बनाए रखना और देश के नवनिर्माण में योगदान देना है. समाज सेवा के साथ-साथ कांग्रेस को मज़बूत करने में भी इसने अपना अहम किरदार अदा किया है.

पिछले कुछ अरसे से कांग्रेस की अनदेखी के शिकार इस संगठन की गतिविधियां फिर से तेज़ हो गई हैं. कांग्रेस ने अब अपने आनुषांगिक संगठन सेवा दल पर तवज्जो देनी शुरू कर दी है. यह संगठन हर महीने के आख़िरी रविवार को देशभर के एक हज़ार क़स्बों, शहरों और महानगरों में ’ध्वज वंदन’ कार्यक्रम करेगा. इन कार्यक्रमों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी आदि के सिद्धांतों और विचारों को जनमानस के सामने रखा जाएगा और उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा की जाएगी.

हाल में पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने सेवा दल के प्रस्तावों को अपनी मंज़ूरी दी है. उन्होंने सेवा दल के पदाधिकारियों को यक़ीन दिलाया है कि पहले की तरह ही यह संगठन आज़ाद होकर काम करेगा. सेवा दल की कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक में संगठन के पदाधिकारियों ने उनके समक्ष कई प्रस्ताव रखे थे, जिसे उन्होंने मंज़ूर कर लिया.

 सेवा दल के मुख्य संगठक लालजी भाई देसाई का कहना है कि सेवा दल अब पहले की तरह सक्रिय नहीं है. अब तो सेवा दल को कांग्रेस के कार्यक्रमों की ज़िम्मेदारी भी नहीं दी जाती है. मौजूदा हालात को देखते हुए सेवा दल को फिर से खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. इसी सिलसिले में कांग्रेस अध्यक्ष के सामने कुछ सुझाव रखे गए.

ग़ौरतलब है कि डॉ. नारायण सुब्बाराव हार्डिकर ने 1 जनवरी, 1924 को आंध्र प्रदेश के काकिनाडा में कांग्रेस सेवा दल की स्थापना की थी. इसके पहले अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू थे. देश को आज़ाद कराने की मुहिम में शामिल कांग्रेस के क़द्दावर नेता इस संगठन से जुड़े हुए थे. सीमाप्रांत और बलूचिस्तान के महान राजनेता ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान के संगठन लाल कुर्ती का विलय भी सेवादल में किया गया था. आज़ादी की मुहिम में सेवा दल के अहम किरदार के मद्देनज़र साल 1931 में इसका आज़ाद वजूद ख़त्म करके इसे कांग्रेस का हिस्सा बना दिया गया. कहा जाता है कि ये फ़ैसला सरदार बल्लभ भाई पटेल की सिफ़ारिश पर किया गया था. उन्हें डर था कि सेवा दल कहीं अपने मातृ संगठन कांग्रेस को ही ख़त्म न कर दे. अपनी इस आशंका का ज़िक्र करते हुए उन्होंने महात्मा गांधी से कहा था कि ‘अगर सेवादल को आज़ाद छोड़ दिया गया, तो वह हम सबको लील जाएगा.’
पहले इसे हिन्दुस्तानी सेवा दल के नाम से जाना जाता था, बाद इसे कांग्रेस सेवा दल का नाम दिया. दरअसल, कांग्रेसियों ने महिला सेना का गठन किया था. इस पर कार्रवाई करते हुए साल 1932 में बिटिश शासकों ने सेवा दल पर पाबंदी लगा दी थी, बाद में कांग्रेस से तो पाबंदी हटा ली गई, लेकिन हिन्दुस्तानी सेवा दल पर पाबंदी जारी रही. बाद में यह संगठन कांग्रेस सेवा दल के नाम से वजूद में आया.

क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि देश को आज़ादी मिलने के बाद कांग्रेस हुकूमत में आ गई. कांग्रेस का सारा ध्यान सत्ता संभालने में लग गया. कांग्रेस के कई नये आनुषांगिक संगठन वजूद में आते गए और बदलते वक़्त के साथ-साथ सेवा दल की अनदेखी होने लगी. सेवा दल के कार्यकर्ताओं को मलाल है कि उन्हें महज़ रवायती बना दिया गया. कांग्रेस के समारोहों में उनकी ज़िम्मेदारी वर्दी पहनकर इंतज़ामों की देखरेख की रह गई.  जिस मक़सद से सेवा दल का गठन किया गया था, वह कहीं पीछे छूटने लगा. लेकिन इस सबके बावजूद सेवा दल के कार्यकर्ता अपने काम में लगे रहे. वे सामाजिक कार्यों में पहले की तरह ही बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते रहे, चाहे प्राकृतिक आपदाओं में पीडि़तों की मदद करनी हो या फिर महाकुंभ जैसे धार्मिक आयोजनों और महोत्सवों में श्रद्धालुओं के रहने और भोजन का इंतज़ाम करना हो. हर जगह इनकी मौजूदगी नज़र आती है.  

कांग्रेस के अग्रिम संगठनों में सेवा दल का अनुशासन और निष्ठा इसे और भी ख़ास बनाती है. बिल्कुल फ़ौज की तरह इसका संचालन किया जाता है. एक दौर वह भी था जब सेवा दल में प्रशिक्षण लेने के बाद ही किसी को कांग्रेस में शामिल किया जाता था. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने अपने बेटे राजीव गांधी को कांग्रेस में शामिल करने से पहले सेवा दल का प्रशिक्षण दिलाया था, ताकि वे पार्टी की नीतियों को बेहतर तरीक़े से समझ पाएं. निस्वार्थ सेवा और सहयोग भाव की वजह से ही सेवा दल को कांग्रेस का सच्चा सिपाही कहा जाता है.

फ़िलवक़्त देश के 700 ज़िलों और शहरों में सेवा दल की इकाइयां हैं. सेवा दल की एक युवा इकाई शुरू करने की योजना है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को इससे जोड़ा जा सके. आज जब कांग्रेस अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने और पार्टी को हुकूमत में लाने के लिए जद्दोजहद कर रही है, ऐसे में सेवा दल कांग्रेस के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है, बस इस पर ख़ास तवज्जो देने की ज़रूरत है. देश में फैले अराजकता और अविश्वास के माहौल को देखते हुए भी सेवा दल जैसे संगठनों की बेहद ज़रूरत है, जो सांप्रदायिक सौहार्द्र, सामाजिक समरसता और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने का काम करते हैं.

राकेश सैन
जुझारु राजनीति, संघर्षशील व सादे जीवन के चलते पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी को 'बंगाल की शेरनी' के नाम से भी जाना जाता है। बौद्धिक व सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बंगाल में लगभग 34 साल तक चले वामपंथी राज का जिस तरह ममता ने तख्तापलट किया और तानाशाही से लोहा लिया उससे उन्होंने अपनी इस संज्ञा की गरिमा को नए आयाम भी दिए परंतु अब कहीं न कहीं लगने लगा है कि इस शेरनी के पंजे लोकतंत्र का गला घोंटते जा रहे हैं। बंगाल के पंचायत चुनावों में जिस तरह से हिंसा हुई और लोकतंत्र की मर्यादाओं को तार-तार किया गया उससे बंगाली समाज की छवि दागदार हुई। विश्वगुरु रबिंद्रनाथ टैगोर, बंकिमचंद्र चैटर्जी जैसे विद्वानों, स्वामी विवेकानंद जी जैसे महापुरुषों व सुभाषचंद्र बोस, खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारियों की भूमि आजकल हिंसा, रक्तपात, सांप्रदायिक उन्माद व लोकतंत्र की हत्या के लिए चर्चा में है।

चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, राज्य के 621 जिला परिषद् और 31803 ग्राम पंचायत की 48650 सीटों पर हुए पंचायत चुनावों में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने अपार सफलता मिली है। तीन स्तरों पर हुए चुनावों में इन सीटों में 34 प्रतिशत सीटों पर तो निर्विरोध चुनाव हुए जो स्वभाविक तौर पर सत्ताधारियों के पक्ष में गए। चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने भारी भरकम सफलता हासिल की जबकि भारतीय जनता पार्टी दूसरे, वामपंथी तीसरे स्थान पर रहे और कांग्रेस गधे के सींगों की तरह गायब सी हो गई। अगर चुनाव निर्विवादित होते तो आज ममता को चारों ओर से बधाई मिल रही होती परंतु उनकी तो आलोचना शुरु हो गई है। पूरी चुनावी प्रक्रिया में हिंसा, सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग, मतपेटियों की लूटपाट, मतपत्रों को तालाब में फेंकने, आगजनी, मतदाताओं को पीटने, डराने धमकाने की इतनी घटनाएं हुईं कि पिछली विगत 80-90 के दशक में बिहार में होने वाली चुनावी  गड़बडिय़ां स्मृति पटल पर उभर आईं। पूरे प्रदेश के 56 मतदान केंद्रों में हिंसा की शिकायतें दर्ज हुईं और 131 हिंसा, आगजनी, तोडफ़ोड़ के केस सामने आए। इस हिंसा में लगभग 13 लोगों की कीमती जानें गईं और कई दर्जन घायल हुए। देश में एक ओर जहां चुनावी प्रक्रिया काफी सीमा तक स्वच्छ हो चुकी है वहीं बंगाल जैसे जागरुक जनमत वाले राज्य में हिंसा की खबरों ने इस चिंता में डाल दिया कि कहीं बंगाल की शेरनी के  हाथों लोकतंत्र दम न तोड़ दे।

वैसे बंगाल में हिंसा नई घटना नहीं, विभाजन पूर्व मुस्लिम लीग की प्रत्यक्ष कार्रवाई में हुई हजारों हिंदुओं की हत्याएं को छोड़ भी दें तो भी साल 1977 से लेकर 2010 तक 28000 लोग राजनीतिक हिंसा का शिकार हुए बताए गए हैं। ममता से पूर्ववर्ती वाम सरकारों को राज्य में हिंसा का सूत्रपात करने का बहुत बड़ा श्रेय दिया जाता है। ठीक है कि राज्य में पंचायत चुनावों व भू-सुधारों की वामदलों ने केवल शुरुआत ही नहीं की बल्कि इन्हे इतने अच्छे तरीके से चलाया कि स्थानीय स्तर पर सफल लोकतंत्र के रूप में दुनिया भर में इसकी उदाहरण दी जाने लगी। पर जैसे-जैसे सीपीआई में विभाजन सहित अनेक कारणों से वामपंथियों के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ता गया तो सत्ताधारी अपना दबदबा बनाए रखने को हिंसा का सहारा लेने लगे। परेशानी तब पैदा हुई जब विपक्ष के रूप में कांग्रेस भी लुप्त होने लगी और केंद्र में सत्ता के लिए वामदलों पर निर्भर होने लगी। इससे यहां के लोग पूरी तरह कामरेडों की दया पर निर्भर हो गए। इस बीच कांग्रेस से अलग हो कर जुझारु नेता के रूप में ममता बैनर्जी ने बंगाली मिट्टी, मानुष के नाम पर तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। एक समय वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ का हिस्सा भी रहीं और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री का पद संभाला लेकिन देश में छिड़ी धर्मनिरपेक्षता की बहस के बीच वे राजग से भी अलग हो गईं। उन्होंने बंगाल की तंगहाली, वाम सरकार की उद्योग विरोधी नीतियों, हिंसा की राजनीति के खिलाफ मोर्चा खोला और 34 साल पुराने लाल दुर्ग को ताश के पत्तों की भांति छिन्न-भिन्न कर दिया। लेकिन सत्ता में आने के बाद ममता भी वामपंथियों की उन्हीं नीतियों पर चलने लगीं जिनके खिलाफ उन्हें जनादेश मिला।

प्रदेश में राजनीतिक हिंसा व दमन की नीति जारी रही है, अंतर केवल इतना आया कि गुंडे पाला बदल कर तृणमूल कांग्रेस में आ गए। यह राजनीतिक हिंसा की ही बानगी है कि साल 2015 में इस तरह के 139 और अगले साल 91 मामले सामने आए। ममता सरकार किसी उद्योग को राज्य में आकर्षित नहीं कर पाई तो राजनीतिक गुंडागर्दी बहुत बड़ा उद्योग बन कर सामने आया। सरकारी संरक्षण में यह दबंग सार्वजनिक व निजी संपत्तियों पर कब्जे सहित अनेक अपराधिक वारदातें करने लगे। बदले में सत्ताधारी दल के लिए उसी तरह वोट जुटाने लगे जिस तरीके से इन पंचायत चुनावों में मतपत्र लूटे गए हैं। दंगाईयों के सामने पुलिस प्रशासन की बेबसी बताती है कि पंचायत चुनावों में हुई हिंसा इन्हीं समर्थकों ने ही की। इस बीच राज्य में भारतीय जनता पार्टी राज्य में एक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आरही है, जिसके साक्षी पंचायत चुनाव खुद भी हैं। अपनी सत्ता बचाने के लिए तृणमूल, पुरानी प्रतिष्ठा पाने के लिए वामपंथी दिनबदिन हिंसक हो रहे हैं।

चिंता की बात यह है कि देश में हुआ लोकतंत्र का यह चीरहरण बौद्धिक विमर्श से गायब है। हर छोटी-बड़ी घटनाओं पर पूरी ताकत से दांत कटकटाने वाले बुद्धिजीवी बंगाल की हिंसा पर दंतरोगी की भांति मौन हैं। ममता स्वयं को धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती है और हमारे बौद्धिक योद्धा मान कर चलते हैं कि जैसे लालबत्ती वाली गाड़ी को यातायात कानून तोडऩे के तमाम अधिकार हैं उसी तरह धर्मनिरपेक्ष नेता के  अपराधों पर मौन धारण करना उनका परम दायित्व है। ममता दीदी की मनमानियों को नहीं रोका गया तो पहले से ही कटुता झेल रहा देश का लोकतंत्र कोई नए खतरे में पड़ सकता है जिसके लिए आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी। हमें राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की चेतावनी नहीं भूलनी चाहिए कि -
समर शेेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

फ़िरदौस ख़ान
सियासत का मौसम कब बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. ये सियासत की ही ज़मीन है, जो सावन में भी ख़ुश्क रह जाए और सूखे में भी बिन बादल भीग जाए. कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी को ही लें. कर्नाटक में पहली बार उन्होंने ख़ुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताकर सबको चौंका दिया है. चौंका इसलिए दिया है, क्योंकि सियासी गलियारे में अभी तक यही माना जा रहा था कि अगर 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस जीत हासिल करती है, तो वे अपने किसी क़रीबी और विश्वसनीय व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाना चाहेंगे. वे ख़ुद अपनी मां सोनिया गांधी की तरह पार्टी संगठन का ही काम देखेंगे और सरकार पर नज़र रखेंगे.  लेकिन राहुल गांधी के एक बयान ने सियासी माहौल को गरमा दिया है.

प्रधानमंत्री बनने के सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, मैं क्यों पीएम नहीं बनूंगा, अगर 2019 का चुनाव जीते तो ज़रूर पीएम बन सकता हूं. अपने इस बयान से उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुली चुनौती दी है कि वे मुक़ाबले के लिए तैयार हैं. ये राहुल गांधी का हौसला और आत्मविश्वास ही है कि पिछले कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में हारने और सत्ता गंवाने के बाद फिर से संघर्ष के लिए खड़े हो जाते हैं. वे जानते हैं कि सियासत में कभी मौसम एक जैसा नहीं रहता. यहां कुछ भी स्थाई नहीं है. सत्ता कब किसके हाथ में आ जाए, कब किसके हाथ से फिसल जाए, कोई नहीं जानता.  वे जानते हैं कि जीत और हार, धूप और छांव की तरह हैं. और वक़्त कभी एक जैसा नहीं रहता. ये हर पल बदलता रहता है. वक़्त कभी उनके साथ रहा है, तो आज उनके विरोधियों के साथ है. कांग्रेस आज भले ही गर्दिश में है, लेकिन उसने कभी अपनी विचारधारा से अपने उसूलों के साथ समझौता नहीं किया. इसीलिए कांग्रेस आज भी इस देश की माटी में रची-बसी है. अवाम का मिज़ाज हमेशा कांग्रेस के साथ रहा है और आगे भी रहेगा. कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है, जिसे हर कोई अपनी पार्टी मानता है. कांग्रेस जनमानस की पार्टी रही है. कांग्रेस ने हमेशा इस देश की आत्मा और अपनी अनमोल व समृद्ध विरासत का प्रतिनिधित्व किया है. महात्मा गांधी ने कांग्रेस के बारे में कहा है, "कांग्रेस इस देश में रहने वाले सभी भारतीयों की है, चाहे वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, ईसाई, सिख या पारसी हों." कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी कहते हैं, "जब भी मैं किसी देशवासी से मिलता हूं. मुझे सिर्फ़ उसकी भारतीयता दिखाई देती है. मेरे लिए उसकी यही पहचान है. अपने देशवासियों के बीच न मुझे धर्म, ना वर्ग, ना कोई और अंतर दिखता है." यही कांग्रेस की ख़ासियत है.

कांग्रेस हमेशा जनमानस का सहारा बनी और मुश्किल वक़्त में अवाम को हिम्मत दी. किसी भी देश की तरक़्क़ी के लिए, अवाम की ख़ुशहाली के लिए चैन-अमन सबसे ज़रूरी है. पिछले कुछ बरसों में देश में जो नफ़रत और ग़ैर यक़ीनी का माहौल बना है, उस ख़ौफ़ के माहौल में राहुल गांधी ने अवाम को यक़ीन दिलाया है कि वे उसकी हिफ़ाज़त करेंगे. वे उन लोगों की हिफ़ाज़त करने का भी वादा करते हैं, जो हमेशा उनके ख़िलाफ़ रहते हैं, उनके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करते हैं. ऐसा राहुल गांधी ही कर सकते हैं, क्योंकि वे उस विरासत से ताल्लुक़ रखते हैं, जिसने देश की गरिमा को बढ़ाया. बेशक, कांग्रेस का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है. वे कांग्रेस के नेताओं ने इस देश के लिए अपना जान तक क़ुर्बान कर दी. देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने में महात्मा गांधी के योगदान को भला कौन भुल पाएगा. उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी देश के नाम कर दी.  देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के निर्माताओं में अग्रणी रहे हैं. श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत को विश्व पटल पर चमकाया. श्री राजीव गांधी ने देश को, देश के युवाओं को नई राह दी, जिसकी बदौलत आज देश उन्नति के शिखर तक पहुंचा है. श्रीमती सोनिया गांधी ने भी देश के लिए बहुत कुछ किया है और आज भी कर रही हैं. जब भी देश और पार्टी पर कोई संकट आया, श्रीमती सोनिया गांधी आगे आईं.

क़ाबिले-ग़ौर है कि राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद श्रीमती सोनिया गांधी ने ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी कि वे अब आराम करना चाहती हैं. माना जा रहा था कि वे अब सियासत से दूरी बना लेंगी. उन्होंने ऐसा किया भी. उन्होंने कुछ अरसे के लिए सियासी सरगर्मियों से फ़ासला रखा, लेकिन कांग्रेस को संकट में देख उन्होंने सियासत में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. कर्नाटक में उन्होंने चुनावी रैलियां करते हुए केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार से चार साल का हिसाब मांगा. उन्होंने  बीजापुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज़ करते हुए कहा कि मोदी जी अच्छा भाषण देते हैं, एक अभिनेता की तरह भाषण देते हैं. लेकिन केवल भाषण से लोगों का पेट नहीं भर सकता, लोगों का कल्याण नहीं हो सकता है. अगर भाषण से पेट भरता, तो मेरी प्रार्थना है कि वह और भी अच्छा भाषण दें.

सोनिया गांधी चुनावी मुहिम में इसीलिए उतरी हैं, ताकि कांग्रेस को मज़बूत बना सकें. एक वक़्त वह था, जब वे न तो खुद सियासत में आना चाहती थीं और न ही अपने बच्चों को इसमें शामिल होने देना चाहती थीं. लेकिन वक़्त जो न कराए, कम है. राहुल गांधी की भी सियासत में इतनी गहरी दिलचस्पी नहीं थी. वह सत्ता के पीछे भी नहीं भागे. एक वह वक़्त था, जब देश में उनकी पार्टी की सरकार थी, तब उनके समर्थक चाहते थे कि वह सरकार में कोई अहम ओहदा लें, कोई मंत्रालय संभालें, लेकिन उन्होंने बता दिया कि वे सरकार में कोई किरदार निभाने की बजाय पार्टी संगठन में काम करना पसंद करते हैं, इसलिए उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री का ओहदा लेने से साफ़ इंकार कर दिया था.

मगर आज हालात जुदा हैं. राहुल गांधी ने ख़ुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार, तो बता दिया है. क्या उनके सहयोगी दल इस पर राज़ी होंगे? उनके सहयोगी दलों के कई नेता न जाने कब से प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोये बैठे हैं.
क्या राहुल गांधी ने बहुत-सोच-समझकर ये ऐलान किया है? सवाल कई हैं, लेकिन जवाब आने वाले वक़्त की तह में छुपे हैं. बहरहाल, कांग्रेसी ख़ासकर राहुल गांधी के चाहने वाले उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में ही देखना चाहते हैं.

फ़िरदौस ख़ान
एक ख़ुशहाल देश की पहचान यही है कि उसमें रहने वाले हर व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान हो, उसे बुनियादी ज़रूरत की सभी चीज़ें, सभी सुविधाएं मुहैया हों. जब व्यक्ति ख़ुशहाल होगा, तो परिवार ख़ुशहाल होगा, परिवार ख़ुशहाल होगा, तो समाज ख़ुशहाल होगा. एक ख़ुशहाल समाज ही आने वाली पीढ़ियों को बेहतर समाज, बेहतर परिवेश दे सकता है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सर्वोदय समाज का सपना देखा था और वे इसे साकार करना चाहते थे. गांधीजी कहते हैं- "समाजवाद का प्रारंभ पहले समाजवादी से होता है. अगर एक भी ऐसा समाजवादी हो, तो उस पर शून्य बढ़ाए जा सकते हैं. हर शून्य से उसकी क़ीमत दस गुना बढ़ जाएगी, लेकिन अगर पहला अंक शून्य हो, तो उसके आगे कितने ही शून्य बढ़ाए जाएं, उसकी क़ीमत फिर भी शून्य ही रहेगी." भूदान आन्दोलन के जनक विनोबा भावे के शब्दों में, सर्वोदय का अर्थ है- सर्वसेवा के माध्यम से समस्त प्राणियो की उन्नति. आज देश को इसी सर्वोदय समाज की ज़रूरत है.

पिछले कुछ बरसों देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है, जहां सिर्फ़ मुट्ठीभर लोगों का ही भला हो रहा है. बाक़ी जनता की हालत बद से बदतर होती जा रही है. लोगों के काम-धंधे तो पहले ही बर्बाद हो चुके हैं. बढ़ती महंगाई की मार भी लोग झेल ही रहे हैं. ऐसे में अपराधों की बढ़ती वारदातों ने डर का माहौल पैदा कर दिया है. हालत ये है कि चंद महीने की मासूम बच्चियां भी दरिन्दों का शिकार बन रही हैं. क़ानून-व्यवस्था की हालत भी कुछ ऐसी है कि शिकायत करने वाले मज़लूम की हिरासत में मौत तक हो जाती है और आरोपी खुले घूमते रहते हैं. ऐसे में जनता का शासन-प्रशासन से यक़ीन उठने लगा है. बीते मार्च माह में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत आरोपी की फ़ौरन गिरफ़्तारी पर रोक लगाने के आदेश के बाद से इन तबक़ों में खौफ़ पैदा हो गया है. उन्हें लगता है कि पहले ही उनके साथ अमानवीय व्यवहार के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं, ऐसे में उन पर दबंगों का ज़ुल्म और ज़्यादा बढ़ जाएगा. अपने अधिकारों के लिए उन्हें सड़क पर उतरना पड़ा. क़ाबिले-गौर है कि देश में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की आबादी तक़रीबन 20 करोड़ है. लोकसभा में इन तबक़ों के 131 सदस्य हैं. हैरानी की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी में 67 सांसद इसी तबक़े से होने के बावजूद दलितों के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों पर कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है. चंद सांसदों के बयान सामने आए, लेकिन जो विरोध होना चाहिए था, वह दिखाई नहीं पड़ा. ग़ौरतलब है कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक़, हर 15 मिनट में एक दलित के साथ अपराध होता है. रोज़ाना छह दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है. ये तो सिर्फ़ सरकारी आंकड़े हैं, और उन मामलों के हैं, जो दर्ज हो जाते हैं. जो मामले दर्ज नहीं कराए जाते, या दर्ज नहीं हो पाते, उनकी तादाद कितनी हो सकती है, इसका अंदाज़ा लगाना कोई मुश्किल नहीं है.

बुरे हालात में कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल दलितों के समर्थन में सामने आए. कांग्रेस ने दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में संविधान बचाओ रैली का आयोजन करके जहां भाजपा सरकार को ये चेतावनी दी कि अब और ज़ुल्म बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, वहीं दलितों को भी ये यक़ीन दिलाने की कोशिश की गई कि वे अकेले नहीं हैं. कांग्रेस हमेशा उनके साथ है. रैली को संबोधित करते हुए कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि  दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार बढ़ रहा है. मोदी के दिल में दलितों के लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने कहा कि कांग्रेस दलितों, ग़रीबों, किसानों औऱ देश के सभी कमज़ोर तबक़ों की रक्षा के लिए हमेशा लड़ती रहेगी. कांग्रेस ने सत्तर साल में देश की गरिमा बनाई और पिछले चार साल में मोदी सरकार ने इसे धूमिल कर दिया, इसे चोट पहुंचाई. उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने देश को संविधान दिया और ये संविधान दलितों, ग़रीबों और महिलाओं की रक्षा करता है. आज सर्वोच्च न्यायालय को कुचला और दबाया जा रहा है, पहली बार ऐसा हुआ है कि चार जज हिन्दुस्तान की जनता से इंसाफ़ मांग रहे हैं. उन्होंने कहा कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग इस संविधान को कभी नहीं छू पाएंगे, क्योंकि हम ऐसा होने नहीं देंगे. उन्होंने कहा कि आज जनता बेहाल है. देश के प्रधानमंत्री सिर्फ़ अपने मन की बात सुनते हैं. वह किसी को बोलना देना नहीं चाहते. वे कहते हैं कि सिर्फ़ मेरे मन की बात सुनो. मैं कहता हूं कि 2019 के चुनाव में देश की जनता मोदीजी को अपने मन की बात बताएगी.

दरअसल, आपराधिक मामलों में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के नाम सामने आने की वजह से भी अवाम का भाजपा सरकार से यक़ीन ख़त्म हो चला है. भाजपा नेताओं के अश्लील और विवादित बयान भी इस पार्टी के चाल, चरित्र और चेहरे को सामने लाते रहते हैं. ये बेहद अफ़सोस की बात है कि केंद्र सरकार में ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोग पूरी तरह से संवेदनहीन रवैया अपनाये हुए हैं. इसी ही वारदातों की तरफ़ इशारा करते हुए राहुल गांधी ने तंज़ किया, मोदी जी अब नया नारा देंगे- "बेटी बचाओ, बीजेपी के लोगों से बचाओ."

बहरहाल, आज देश को ऐसे रहनुमाओं की ज़रूरत है, जो बिना किसी भेदभाव के अवाम के लिए काम करें. जनता को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि देश में किस सियासी दल का शासन है, उसे तो बस चैन-अमन चाहिए, बुनियादी सुविधाएं चाहिएं, ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए अच्छा माहौल चाहिए. अवाम की ये ज़रूरतें वही सियासी दल पूरी कर सकते हैं, जो पूर्वाग्रह से ग्रस्त न हों. इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस ने इस देश के लिए बहुत कुछ किया है. आज भी अवाम को कांग्रेस से बहुत उम्मीदें हैं. राहुल गांधी की ज़िम्मेदारी है कि वे विपक्ष में होने के नाते, एक सियासी दल के अध्यक्ष होने के नाते, जनता को ये यक़ीन दिलाते रहें कि वे हमेशा उसके साथ हैं. महात्मा गांधी के सर्वोदय के सिद्धांत पर अमल करते हुए देश और समाज के लिए काम करना भी उनकी ज़िम्मेदारियों में शामिल हैं. आज जनता को ऐसे नेता की ज़रूरत है, जो उनकी आवाज़ बन सके. कांग्रेस इसमें कितना कामयाब हो पाती है, ये आने वाला वक़्त ही बताएगा.

फ़िरदौस ख़ान
हरियाणा कांग्रेस ने आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों की तैयारी शुरू कर दी है. इन चुनावों में अब ज़्यादा वक़्त नहीं बचा है. जो वक़्त बचा है, पार्टी उसे गंवाना नहीं चाहती, इसीलिए पार्टी नेता अपनी जीत सुनिश्चत करने के लिए मेहनत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते. इसी क़वायद के मद्देनज़र हरियाणा कांग्रेस ने प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी सरकार के ख़िलाफ़ मुहिम शुरू कर दी है. इसके तहत कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष अशोक तंवर की अगुवाई में 5 मार्च से साइकिल यात्रा शुरू की जा रही है.  इसे ’परिवर्तन लाओ-हरियाणा बचाओ’ का नाम दिया गया है. कालका से शुरू होने वाली यह यात्रा 6 मार्च को नारायणगढ़, 7 मार्च को मुलाना, 8 को जगाधरी, 9 को कुरुक्षेत्र और 10 मार्च को अंबाला पहुंचेगी. यह यात्रा 11 मार्च को पिहोवा पहुंचेंगी. पिहोवा में एक जनसभा का आयोजन किया जाएगा, जिसमें कांग्रेस नेता जनता को संबोधित करते हुए उससे भाजपा सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ समर्थन मांगेंगे. लाल रंग की साइकिलों पर सवार पार्टी कार्यकर्ता राहुल गांधी और अशोक तंवर का मुखौटा पहनेंगे. इसके साथ ही वे ’मुझमें राहुल-मुझमें तंवर’ के नारे लगाएंगे.

ग़ौरतलब है कि 5 मार्च से हरियाणा का विधानसभा सत्र शुरू हो रहा है. इसी के मद्देनज़र कांग्रेस ने सरकार घेरने की तैयारी की है. कांग्रेस के विधायक जहां सदन के भीतर सरकार को घेरेंगे, वहीं कांग्रेस के पदाधिकारी सदन के बाहर जनमानस के बीच सरकार से जवाब तलब करेंगे. कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी की सरकार से चुनावी घोषणा-पत्र में किए गए वादों का हिसाब मांगेगी. चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने किसानों से, मज़दूरों से, कारोबारियों से, कर्मचारियों से बहुत से लुभावने वादे किए थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन वादों को भुला दिया गया.

इस यात्रा का मक़सद कांग्रेस की विचारचारा को जनमानस तक पहुंचाना है. इस यात्रा के ज़रिये देश और प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार बढ़ाने की कोशिश की जा रही है. साइकिल यात्रा का यह पहला चरण है. इसके तहत राज्य के उत्तरी हिस्से को कवर किया जाएगा. इसके बाद के चरणों में प्रदेश के सभी 90 विधानसभा क्षेत्रों में यह यात्रा निकाली जाएगी. 

फ़िरदौस ख़ान
अच्छे लोगों के लिए पूरी दुनिया ही अपना परिवार हुआ करती है, उन्हें किसी से कोई बैर नहीं होता. वे जहां जाते हैं, वहां के लोगों को अपना बना लिया करते हैं. लेकिन बुरे लोग अपने परिवार को भी तहस-नहस कर डालते हैं. भारत के प्राचीन ग्रंथ महा उपनिषद में कहा गया है- अयं बन्धुरयं नेतिगणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
यानी यह अपना भाई है और यह अपना भाई नहीं है, इस तरह की बात तंगदिल लोग करते हैं, बड़े दिल वाले लोगों के लिए तो पूरी दुनिया ही उनका अपना परिवार है. दरअसल, महा उपनिषद का यह श्लोक आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस वक़्त रहा होगा, जब इसे लिखा गया होगा. प्राचीनकाल से ही भारत की विचारधारा वसुधैव कुटुम्बकम् रही है और यही विचारधारा कांग्रेस की भी है. कांग्रेस ने हमेशा सर्वधर्म समभाव, सर्वधर्म सदभाव में यक़ीन किया है. इसीलिए कांग्रेस अपनी स्थापना काल से ही जन-जन की पार्टी रही है. कांग्रेस के शासनकाल में सभी मज़हबों के लोग मिलजुल रहते आए हैं, लेकिन पिछले कुछ बरसों से देश की हवा में सांप्रदायिकता और जातिवाद का ज़हर शामिल हो गया है.

कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने बहरीन में भारतीयों को संबोधित करते हुए यह मुद्दा उठाया. उन्होंने केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि सरकार लोगों को जाति और धर्म के आधार पर बांट रही है. नौकरी पैदा करने में भारत पिछले आठ सालों में सबसे निचले स्तर पर आ गया है. नये निवेश के मामले में भारत पिछले 13 सालों में निचले स्तर पर पहुंच गया है. नोटबंदी के फ़ैसले की वजह से दुनिया भर के भारतीयों की कमाई पर बुरा असर पड़ा है. भारत की आर्थिक विकास की रफ़्तार थम गई है. सरकार बेरोज़गार युवाओं के ग़ुस्से को समाज में नफ़रत फैलाने में इस्तेमाल कर रही है. मैं ऐसे भारत की कल्पना भी नहीं कर सकता, जहां देश का हर नागरिक ख़ुद को देश का हिस्सा न समझे. देश में आज दलितों को पीटा जा रहा है, पत्रकारों को धमकाया जा रहा है और जजों की रहस्यमयी हालात में मौत हो रही है. मैं यहां आपको यह बताने के लिए आया हूं कि आप अपने देश के लिए कितने ख़ास हैं, कितने अहम हैं. आपके घर में गंभीर समस्या है और उसके समाधान की प्रक्रिया में आपको शामिल होना है. आज भारत को आपकी प्रतिभा, आपके कौशल और देशभक्ति की ज़रूरत है. हमें हिंसा और नफ़रत पर चल रही बातचीत को प्रगति, रोज़गार और आपसी भाईचारे की तरफ़ लाना है. हमलोग यह काम आपके कौशल के बिना नहीं कर सकते. उन्होंने कहा कि भारत के निर्माण में अनिवासी भारतीय समुदाय का अहम किरदार रहा है. देश के तीन महान नेता महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और भीमराव आंबेडकर कभी न कभी अनिवासी भारतीय रहे हैं. दक्षिण अफ़्रीका से वापस आने के बाद महात्मा गांधी ने जिस दर्शन को स्थापित किया, वह भारतीय दर्शन था. गांधी के दर्शन में जाति और धर्म के आधार पर विभेद नहीं किया गया. भारत ने लंबा सफ़र इसी दर्शन की बुनियाद पर किया है, लेकिन अब ख़तरे मंडरा रहे हैं. मैं कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष हूं और इस पार्टी का जन्म ही लोगों को साथ लाने के लिए हुआ था.

ग़ौरतलब है कि राहुल गांधी की यह पहली विदेश यात्रा है. वे ग्लोबल ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ पीपुल ऑफ़ इंडिया ओरिजिन द्वारा बहरीन में आयोजित सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे। उन्होंने बहरीन के क्राउन प्रिंस शेख़ सलमान बिन हमाद अल ख़लीफ़ा से मुलाक़ात की और पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखी गई किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ उन्हें भेंट की.

बहरीन में दिए गए राहुल गांधी के भाषण को लेकर देश में सियासत गरमा गई और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया. भारतीय जनता पार्टी ने कड़ी प्रतिक्रिया ज़ाहिर करते हुए राहुल गांधी के बयान को शर्मनाक तक कह डाला. इसके जवाब में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर ने कहा कि सत्तापक्ष को आलोचना और चिंता में फ़र्क़ समझना चाहिए. राहुल गांधी ने चिंता ज़ाहिर की है. अपने लोगों के बीच में चिंता की जाती है, ताकि उसका हल निकाला जा सके. बहरीन में राहुल के कार्यक्रम में देश के सभी प्रदेशों के लोग थे. पंजाब, केरल, महाराष्ट्र, गुजरात समेत अन्य तमाम प्रदेशों के लोगों के बीच में ये कहना कि हम सबको एक मसले के हल के लिए एकजुट होना चाहिए, यह देश की आलोचना नहीं है. अगर सत्ता पक्ष को लगता है कि आलोचना है, तो फिर लगता है कि कहीं ना कहीं दाढ़ी में तिनका है.

सत्ता पक्ष के नेता, राहुल गांधी की कितनी भी बुराई करें, लेकिन इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि उन्होंने बहरीन में जो भी कहा है, बिल्कुल सच कहा है. पिछले कुछ सालों में कई ऐसे वाक़ियात हुए हैं, जिन्होंने सामाजिक समरस्ता में ज़हर घोलने की कोशिश की है, सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाने की कोशिश की है. मज़हब के नाम पर लोगों को बांटने की कोशिश की है, जात-पांत के नाम पर एक-दूसरे को लड़ाने की कोशिश की है. देश की गरीब जनता पर नित-नये टैक्स का बोझ डाला जा रहा है. आए-दिन खाद्यान्न और रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ों के दाम बढ़ाए जा रहे हैं. हालत यह है कि जनता की जमा पूंजी पर भी आंखें गड़ा ली गई हैं. बैंक नित-नये फ़रमान जारी कर ग्राहकों के खाते से पैसा काट रहे हैं. मरीज़ों को भी नहीं बख़्शा जा रहा है. दवाओं यहां तक कि जीवन रक्षक दवाओं के दाम भी बहुत ज़्यादा बढ़ा दिए गए हैं. कभी नोटबंदी तो कभी जीएसटी लागू कर लोगों के काम-धंधे बंद कर दिए गए. समाज में हाशिये पर रहने वाले तबक़ों की आवाज़ को भी कुचलने की कोशिश की जा रही है. आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है. जल, जंगल और ज़मीन के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों को नक्सली कहकर प्रताड़ित करने का सिलसिला जारी है. दलितों पर अत्याचार बढ़ गए हैं. ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बोलने पर दलितों को देशद्रोही कहकर सरेआम पीटा जाता है. हाल ही में महाराष्ट्र में पुणे ज़िले के भीमा-कोरेगांव मंा हुई हिंसा में दलितों पर हमले किए गए. गाय के नाम पर मुसलमान तो निशाने पर हैं ही. अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने पर उन्हें दहशतगर्द क़रार देकर अंदर कर दिया जाता है.

अलबत्ता देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना, देश में चैन और अमन क़ायम रखना सरकार की सबसे पहली ज़िम्मेदारी है. अगर सरकार इसमें नाकाम साबित हो रही है, तो ये विपक्ष की ज़िम्मेदारी है कि वे सरकार को आईना दिखाए और देश में चैन और अमन बनाए रखने के लिए काम करे. अगर राहुल गांधी ये काम कर रहे हैं, तो इसके लिए उनकी सराहना की जानी चाहिए, उनका साथ दिया जाना चाहिए. बहरहाल, सत्तापक्ष को आत्ममंथन की ज़रूरत है, आत्म विश्लेषण की ज़रूरत है. 

शायरा फ़िरदौस ख़ान ने कांग्रेस पर एक गीत लिखा है. ये गीत उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को समर्पित किया है.
गीत
कांग्रेस कांग्रेस कांग्रेस कांग्रेस
देश की यही है आन
देश की यही है बान
देश की यही है शान
देश की यही है जान
कांग्रेस कांग्रेस कांग्रेस कांग्रेस

ये अवाम की हिताय
ये अवाम की सुखाय
ये सभी के काम आये
ये सभी के मन को भाये
कांग्रेस कांग्रेस कांग्रेस कांग्रेस....

ग़ौरतलब है कि स्टार न्यूज़ एजेंसी की संपादक फ़िरदौस ख़ान ने वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद भी किया था. उन्होंने सूफ़िज़्म पर एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम है गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत.

फ़िरदौस ख़ान
गले में रुद्राक्ष की माला, माथे पर चंदन का टीका और होठों पर शिव का नाम. ये है कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी का नया अवतार. हाल में हुए हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनावों के दौरान न सिर्फ़ राहुल गांधी मंदिर गए, बल्कि उन्होंने अपने गले में रुद्राक्ष की माला भी पहनी. उन्होंने ख़ुद कहा कि वे और उनका पूरा परिवार शिवभक्त है. मगर सोमनाथ मंदिर में ग़ैर हिन्दुओं के लिए रखी गई विज़िटर्स बुक में दस्तख़्त करने पर उठे विवाद के बाद कांग्रेस ने राहुल गांधी के जनेऊ धारण किए तस्वीरंस जारी कर उनके ब्राह्मण होने का सबूत दिया. राहुल गांधी के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में पार्टी कार्यकर्ताओं ने उनके पोस्टर जारी कर उन्हें परशुराम का वंशज तक बता दिया.

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी को कड़ी टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने हिन्दुत्व की ओर क़दम बढ़ाने शुरू कर दिए हैं. सियासी गलियारे में कहा जाता है कि कांग्रेस पहले से ही हिन्दुत्व की समर्थक पार्टी रही है. ये और बात है कि उसने कभी खुलकर हिन्दुत्व का कार्ड नहीं खेला. बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना इसकी एक मिसाल है. हालांकि कांग्रेस पर तुष्टिकरण की सियासत करने के आरोप भी ख़ूब लगते रहे हैं. शाहबानो मामले में कांग्रेस की केंद्र सरकार मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने झुक गई थी और इसकी वजह से शाहबानो को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ा था.

बहरहाल,  कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी की तर्ज़ पर हिन्दुत्व की राह पकड़ ली है. कांग्रेस को इसका सियासी फ़ायदा भी मिला है. गुजरात विधानसभा चुनाव की 85 दिन की मुहिम के दौरान कांग्रेस के स्टार प्रचारक राहुल गांधी ने 27 मंदिरों में पूजा-अर्चना की थी. उन्होंने जिन मंदिरों के दर्शन किए, उन इलाक़ों के 18 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस ने जीत का परचम लहराया. जो सीटें कांग्रेस को मिली, उनमें से आठ पर 2012 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ही जीती थी, लेकिन इस बार उसने 10 सीटें भारतीय जनता पार्टी को कड़ी शिकस्त देकर हासिल की हैं. इनमें दांता विधानसभा, नॉर्थ गांधीनगर विधानसभा, बेचराजी विधानसभा, गधाधा विधानसभा, पाटन विधानसभा, उंझा विधानसभा, भिलोडा विधानसभा, थारसा विधानसभा, पेटलाड विधानसभा, दाहोद विधानसभा, वंसडा विधानसभा, राधनपुर विधानसभा, कापडवंज विधानसभा, देदियापाड़ा विधानसभा,  वेव विधानसभा और चोटिला विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं. क़ाबिले-ग़ौर है कि राज्य की तक़रीबन 87 सीटों पर मंदिरों का सीधा असर पड़ता है और इनमें से आधी से ज़्यादा यानी 47 सीटें कांग्रेस को हासिल हुई हैं.

हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने राहुल गांधी पर इल्ज़ाम लगाया था कि वे चुनावी फ़ायदे के लिए मंदिर जा रहे हैं. इसके जवाब में राहुल गांधी ने कहा था कि उन्हें जहां मौक़ा मिलता है वहां मदिर जाते हैं, वे केदारनाथ भी गए थे, क्या वो गुजरात में है. राहुल गांधी के क़रीबियों का कहना है कि वे अकसर मंदिर जाते हैं. राहुल गांधी अगस्त 2015 में दस किलोमीटर पैदल चलकर केदारनाथ मंदिर गए थे.  वे उत्तर प्रदेश के अमेठी ज़िले के गौरीगंज में दुर्गा भवानी के मंदिर में भी जाते रहते हैं.  इसके अलावा भी बहुत से ऐसे मंदिर हैं, जहां वे जाते रहते हैं, लेकिन वे इसका प्रचार बिल्कुल नहीं करते.

इस साल देश के आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, मेघालय, मिज़ोरम और नागालैंड शामिल हैं. इनमें से कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है, जबकि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में हैं. फिर अगले ही साल लोकसभा चुनाव होना है. कांग्रेस ने चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है. माना जा रहा है कि राहुल गांधी राजस्थान के मंदिरों में भी दर्शन करने जाएंगे. वे मकर संक्रांति पर स्नान भी कर सकते हैं. अगले साल जनवरी के अर्द्ध कुंभ में भी राहुल गांधी की एक नई छवि जनता को नज़र आ सकती है. ऐसा नहीं है कि कांग्रेस पहली बार इस तरह के प्रयोग कर रही है. क़ाबिले-ग़ौर है कि सोनिया गांधी ने साल 2001 के कुंभ में संगम में स्नान करके ये साबित कर दिया था कि जन्म से विदेशी होने के बावजूद वे एक आदर्श भारतीय बहू हैं. देश की अवाम ने सोनिया गांधी को दिल से अपनाया और इस तरह भारतीय जनता पार्टी द्वारा पैदा विदेशी मूल का मुद्दा ही ख़त्म हो गया.

पिछले लोकसभा चुनाव में हुकूमत गंवाने के बाद कांग्रेस को लगने लगा था कि भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व का कार्ड खेलकर ही सत्ता तक पहुंची है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटनी का कहना था कि कांग्रेस को चुनाव में अल्पसंख्यकवाद का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा है. इस चुनाव में कांग्रेस 44 सीट तक सिमट गई थी.
दरअसल, भारतीय जनता पार्टी के पास नरेन्द्र मोदी सहित बहुत से ऐसे नेता हैं, जिनकी छवि कट्टर हिन्दुत्ववादी है. भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व का कार्ड खेलने के साथ-साथ मुस्लिमों को रिझाने का भी दांव खेलना जानती है. तीन तलाक़ और हज पर बिना मेहरम के जाने वाली महिलाओं को लॊटरी में छूट देकर मोदी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं का दिल जीतने का काम किया है.

राहुल गांधी की हिन्दुववादी छवि को लेकर कांग्रेस नेताओं में एक राय नहीं है. कई नेताओं का मानना है कि पार्टी अध्यक्ष की हिन्दुववादी छवि से कुछ राज्यों में भले ही कांग्रेस को ज़्यादा मिल जाएं, लेकिन पूर्वोत्तर के राज्यों में पार्टी को इसका नुक़सान भी झेलना पड़ सकता है. कांग्रेस की मूल छवि सर्वधर्म सदभाव की रही है. ऐसे में हिन्दुत्व की राह पर चलने से पार्टी का अल्पसंख्यक और सेकुलर वोट क्षेत्रीय दलों की झोली में जा सकता है. ऐसे में क्षेत्रीय दलों को फ़ायदा होगा. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी है. इसी तरह पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और केरल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को अल्पसंख्यकों का भरपूर समर्थन मिलता है.

बहरहाल, राहुल गांधी को सिर्फ़ मंदिरों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, उन्हें अन्य मज़हबों के धार्मिक स्थानों पर भी जाना चाहिए, ताकि कांग्रेस की सर्वधर्म सदभाव, सर्वधर्म समभाव वाली छवि बरक़रार रहे. कांग्रेस, कांग्रेस ही बनी रहे, तो बेहतर है. देश के लिए भी, अवाम के लिए भी और ख़ुद कांग्रेस के लिए भी यही बेहतर रहेगा.

फ़िरदौस ख़ान
देश में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को लेकर संशय बरक़रार है. सियासी दलों के नेताओं का मानना है कि चुनाव के दौरान ईवीएम में गड़बड़ी कर चुनाव नतीजों को प्रभावित किया गया है. ख़बरों के मुताबिक़ गुजरात के मुख्य चुनाव अधिकारी बीबी स्वैन ने माना है कि कम से कम चार मतदान केंदों पर ईवीएम और वीवीपैट की पर्चियों के मिलान में गड़बड़ी पाई गई है. उन्होंने बताया कि मतगणना के दिन वागरा, द्वारका, अंकलेश्वर और भावनगर-ग्रामीण सीट पर नये तरह का मामला सामने आया है. क़ाबिले-ग़ौर है कि चुनाव आयोग ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारियों को हर विधानसभा क्षेत्र के कम से कम एक मतदान केंद्र की वोटर वेरीफ़ाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) पर्चियों का ईवीएम में पड़े मतों से मिलान करने का निर्देश दिया था. इस प्रक्रिया में मतदान केंद्र लॊटरी के ज़रिये चुने जाने थे. दरअसल, ईवीएम में गड़बड़ी पाए जाने के बाद इसे सुरक्षित बताने वाले चुनाव आयोग के तमाम दावों की भी पोल खुल गई है. इतना ही नहीं, विपक्ष में रहते ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने वाली भारतीय जनता पार्टी भी मौन साधे हुए है.

ग़ौरतलब है कि कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाख़िल करके मांग की थी कि मतगणना के दौरान कम से कम 20 फ़ीसद वीवीपैट पर्चियों का ईवीएम से मिलान किया जाए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि अदालत तब तक इस मामले में दख़ल नहीं दे सकती, जब तक कि ईवीएम-वीवीपैट पर्चियों के मिलान में कोई गड़बड़ी या फिर पक्षपात नज़र नहीं आता है.

बहरहाल, गुजरात के सूरत में लोग ईवीएम के ख़िलाफ़ सड़क पर उतर आए हैं. लोगों ने चुनाव में धांधली का आरोप लगाते हुए प्रदर्शन किया. इस दौरान वे अपने हाथ में पोस्टर भी लिए हुए थे, जिन पर ‘वोट चोरी बंद करो’ और ‘ईवीएम हटाओ लोकतंत्र बचाओ’ जैसे नारे लिखे हुए थे. हाल में उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव के दौरान भी ईवीएम में गड़बड़ी के मामले सामने आए थे. मतदाताओं का आरोप था कि ईवीएम में किसी भी पार्टी का बटन दबाने पर वोट भारतीय जनता पार्टी के खाते में जा रहा था. उनका कहना था कि हाथ के निशान और साइकिल के निशान का बटन दबाने पर कमल के निशान की बत्ती जलती थी. जब कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को ये बात पता चली, तो उन्होंने बूथ के बाहर प्रदर्शन किया था. दोनों दलों के नेताओं ने इस बारे में प्रदेश के चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज कराई थी. उनका यह भी कहना था कि प्रशासन भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर काम कर रहा है. बहुजन समाज पार्टी इस मामले को लेकर अदालत पहुंच गई थी.

फ़िलहाल सियासी दल ईवीएम के ख़िलाफ़ देशभर में मुहिम चलाने की क़वायद में जुटे हैं. समाजवादी पार्टी ने सियासी दलों को एकजुट करने का फ़ैसला किया है, ताकि आगामी चुनाव ईवीएम की बजाय मतपत्र के ज़रिये कराने का दबाव बनाया जा सके. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना है कि निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव को लेकर जनता के मन में विश्वास होना चाहिए. ईवीएम को लेकर तमाम तरह की शंकाएं हैं,  इसलिए मतपत्र से मतदान होना चाहिए. ईवीएम से जनता का विश्वास खंडित हुआ है. चुनावों में कई जगह ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की शिकायतें आती रहती हैं. मतदान में कुल मतदाता संख्या और पड़े मतों में अंतर की भी काफ़ी शिकायतें होती हैं. यह स्थिति लोकतंत्र के लिए खतरे का संकेत है. उनका यह भी कहना है कि आज देश में जिस एकाधिकारी राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है, वह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है.

पाटीदार आरक्षण आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल गुजरात में ईवीएम के ख़िलाफ़ मुहिम चलाए हुए हैं. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी पर पैसे और बेईमानी से चुनाव जीतने का आरोप लगाया है. उनका कहना है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ हुई है और यह हक़ीक़त है. उन्होंने कहा कि सूरत, राजकोट और अहमदाबाद में ईवीएम मशीनों में टेपरिंग हुई है, क्योंकि यहां हार और जीत का अंतर बेहद कम है. सूरत की वारछा रोड सीट पर एक लाख पटेल मतदाता हैं, लेकिन वहां रैली में इतनी भीड़ होने के बाद भी अगर हारे तो यह सवाल उठना जायज़ है कि ईवीएम में गड़बड़ी है. उनका यहां तक कहना है कि भारतीय जनता पार्टी ने इसलिए 99 सीटें जीतीं, ताकि कोई ईवीएम पर शंका न करे.उनका कहना है कि ईवीएम के ख़िलाफ़ उनका संघर्ष जारी रहेगा.  इस मुद्दे पर सभी विपक्षी दलों को एकसाथ खड़ा होना होगा.

कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला और गुजरात चुनाव के प्रभारी अशोक गहलोत ने भी चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाए थे. उनका कहना था कि चुनाव आयोग पूरी तरह पीएम और पीएमओ के दबाव में काम कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव आयोग को बंधक बना लिया है. इस मुद्दे को लेकर दिल्ली में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने चुनाव आयोग के दफ़्तर के बाहर प्रदर्शन किया था.
ग़ौरतलब है कि इस साल के शुरू में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के वक़्त से ही बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भारतीय जनता पार्टी पर ईवीएम में छेड़छाड़ करने के आरोप लगा रही हैं. उनका कहना है कि भारतीय जनता पार्टी ने ईवीएम में छेड़छाड़ करके ही विधानसभा चुनाव जीता है. उन्होंने राज्यसभा में ईवीएम से मतदान को बंद करने की मांग की थी.

पूर्व केंद्रीय मंत्री व जनता दल (यू)  के नेता शरद यादव का कहना है जब ईवीएम को लेकर जनता में भ्रम की स्थिति है, तो चुनाव आयोग आख़िर क्यों इस डिब्बे को गले लगाए बैठा है. दूसरी प्रणाली से चुनाव कराने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए. इस मामले में अरविन्द केजरीवाल का कहना है कि चुनाव आयोग धृतराष्ट्र बनकर दुर्योधन को बचा रहा है. उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में ईवीएम में गड़बड़ियों की ख़बरों को लेकर शिवसेना ने भी भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा था. पार्टी के मुखपत्र ’सामना’ में लिखा था कि उत्तर प्रदेश में जनता का ध्यान बांटने और ईवीएम में छेड़छाड़ के अलावा भाजपा के पास कोई चारा नहीं बचा है. पार्टी का आरोप था कि भाजपा उत्तर प्रदेश में डर्टी पॉलिटिक्स कर रही है. जहां ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं होती, वहां भाजपा कांग्रेस से पिट जाती है. चित्रकूट, मुरैना और सबलगढ़ इस बात का प्रमाण है.

बहरहाल, चुनाव आयोग ने गड़बड़ी पर सफ़ाई पेश की थी कि मशीन ख़राब है. लेकिन उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि मशीन ख़राब है, तो फिर सभी वोट किसी ’विशेष दल’ के खाते में ही क्यों जाते हैं?

फ़िरदौस ख़ान
हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों के नतीजे बहुत कुछ कहते हैं. इन नतीजों से बहुत से सवाल पैदा होते हैं. इन नतीजों के मद्देनज़र यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जीत गए, लेकिन उनके रणनीतिकार बुरी तरह हार गए. इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी ने गुजरात में ख़ूब मेहनत की, लेकिन इसके बावजूद उन्हें सत्ता के तौर मेहनत को फल नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था या जिसके वे मुसतहक़ थे.

लेकिन इतना ज़रूर हुआ है कि राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री के गृह राज्य में जाकर यह बता दिया है कि वे अकेले दम पर पूरी सरकार से टकरा सकते हैं. कांग्रेस की तरफ़ से जहां अधिकारिक रूप से अकेले राहुल गांधी गुजरात में पार्टी की चुनाव मुहिम संभाले हुए थे, वहीं भारतीय जनता पार्टी की तरफ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री भी चुनाव प्रचार में दिन-रात जुटे हुए थे. ऐसा लग रहा था, मानो एक अकेले राहुल गांधी के ख़िलाफ़ पूरी सरकार चुनाव में उतर आई है. इतना ही नहीं, मीडिया भी राहुल गांधी के ख़िलाफ़ था. चुनाव आयोग भी पूरी तरह से सरकार के पक्ष में नज़र आ रहा था. जिस तरह चुनाव आयोग ने राहुल गांधी के साक्षात्कार को लेकर न्यूज़ चैनलों को नोटिस भेजा और भारतीय जनता पार्टी के 8  दिसम्बर पर घोषणा पत्र जारी करने, मतदान वाले दिन प्रधानमंत्री के रोड शो करने आदि मामलों में आंखें मूंद लीं, उसने चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा कर दिया है.

कांग्रेस ने साबरमती के रानिप में वोट डालने के बाद लोगों की भीड़ को खुली गाड़ी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अभिवादन को चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन बताते हुए कहा था कि चुनाव आयुक्त प्रधानमंत्री के निजी सचिव की तरह काम कर रहा है. कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला और गुजरात चुनाव के प्रभारी अशोक गहलोत का कहना था कि प्रधानमंत्री चुनाव आयोग और प्रशासन के साथ मिलकर गुजरात में रोड शो करके संविधान की धज्जियां उड़ा रहे है. रणदीप सुरजेवाला ने कहा था कि राहुल गांधी का इंटरव्यू दिखाने पर चुनाव आयोग ने टीवी चैनलों और अख़बारों पर एफ़आईआर दर्ज कराने के आदेश दिए, राहुल गांधी को नोटिस भेजा, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की. उन्होंने कहा, 'देश चुनाव आयोग से जानना चाहता है कि 8 दिसंबर को जब बीजेपी चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन कर अहमदाबाद में अपना घोषणा-पत्र जारी करती है, तो चुनाव आयोग मूकदर्शक क्यों बना रहता है. क्या कारण है कि वोटिंग से एक दिन पहले अहमदाबाद एयरपोर्ट जैसी सार्वजनिक संपत्ति पर अमित शाह पत्रकार गोष्ठी करते हैं. क्या कारण है कि एक केंद्रीय मंत्री (पीयूष गोयल) गुजरात को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं.' उन्होंने कहा था कहा कि चुनाव आयोग पूरी तरह पीएम और पीएमओ के दबाव में काम कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव आयोग को बंधक बना लिया है. इस मुद्दे को लेकर दिल्ली में काग्रेस कार्यकर्ताओं ने चुनाव आयोग के दफ़्तर के बाहर प्रदर्शन किया था.

भले ही भारतीय जनता पार्टी गुजरात विधानसभा चुनाव जीत गई हो, लेकिन नैतिक रूप से उसकी हार ही हुई है. इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में हुई ग़ड़बड़ी के मामले सामने आने के बाद अवाम के दिल में यह बात बैठ गई है कि चुनाव में धांधली हुई है. हार्दिक पटेल का कहना है,''बेईमानी करके जीत हासिल की है. अगर हैकिंग न हुई होती,तो बीजेपी जीत हासिल नहीं कर पाती. विपक्षी दलों को ईवीएम हैक के ख़िलाफ़ एकजुट होना चाहिए. अगर एटीएम हैक हो सकता है,तो ईवीएम क्यों हैक नहीं हो सकती.''
इसी तरह कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने भी अपना एक पुराना ट्वीट री-ट्वीट करते हुए लिखा है, ''मैं अब भी इस ट्वीट पर क़ायम हूं. अगर ईवीएम से छेड़छाड़ न हुई होती, तो रिज़ल्ट कांग्रेस के पक्ष में होता.'' कांग्रेस कार्यकर्ताओं का आरोप है कि मतगणना में ईवीएम के साथ लगाई गई वोटर वेरीफ़ाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) पर्चियों का मिलान किया जाता, तो कांग्रेस ज़रूर जीत जाती. ग़ौरतलब है कि
कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाख़िल करके मांग की थी कि मतगणना के दौरान कम से कम 20 फ़ीसद वीवीपीएट पर्चियों का ईवीएम से मिलान किया जाए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में दख़ल नहीं दे सकता. सवाल यह है कि अगर ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हुई, तो फिर चुनाव आयोग ने मतगणना के दौरान वीवीपीएट पर्चियों का ईवीएम से मिलान क्यों नहीं किया?
सियासी गलियारों में तो यहां तक कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में पूरी कोशिश की है नतीजा ऐसा रहे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, यानी भाजपा की सरकार बन जाए, और एकतरफ़ा चुनाव भी न लगे, ताकि ईवीएम में ग़ड़बड़ी का मुद्दा थम जाए.

हालांकि गुजरात में राहुल गांधी की मेहनत कुछ रंग लाई. जो भारतीय जनता पार्टी 150 सीटें जीतने का दावा कर कर थी, वह महज़ 99 सीटों तक सिमट गई. कांग्रेस ने 61 से 19 सीटों की बढ़ोतरी करते हुए 80 सीटों पर जीत दर्ज कर की है. ख़ास बात ये भी है कि राहुल गांधी ने जिन मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना की, उन इलाक़ों में कांग्रेस ने जीत का परचम लहराया. राज्य में 15 सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस उम्मीदवार कम वोटों के अंतर से चुनाव हारे हैं. ग्रामीण इलाक़ों में भी कांग्रेस को ख़ासा जन समर्थन हासिल हुआ है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भारतीय जनता पार्टी की जीत पर तंज़ करते हुए कहा है कि गुजरात में भाजपा का दो अंकों में सिमट जाना उनके पतन की शुरुआत है. ये गांव, ग़रीब और ग्रामीण की उपेक्षा का नतीजा है. ये भाजपा की तथाकथित जीत है.

दरअसल, कांग्रेस समझ चुकी थी कि गुजरात और हिमाचल उनके साथ से निकल रहा है, इसलिए इन राज्यों के चुनाव नतीजे आने से दो दिन पहले ही यानी 16 दिसम्बर को राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई. कार्यकर्ता राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष के तौर पर पाकर ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे. वे ख़ूब जश्न मना रहे थे, मिठाइयां बांटी जा रही थीं, लेकिन इसके दो दिन बाद आए चुनाव नतीजों ने उनकी ख़ुशी को कम कर दिया. कांगेस कार्यकर्ताओं को जीत न पाने का उतना मलाल नहीं था, जितना दुख इस बात का था कि वे जीत कर भी हार गए. उनका कहना है कि अगर अगर इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन की जगह मतपत्र से मतदान होता, तो कांग्रेस की जीत तय थी.
हालांकि राहुल गांधी ने हिम्मत नहीं हारी है. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस गुजरात और हिमाचल प्रदेश में जनता के फ़ैसले का सम्मान करती है और नई सरकारों को शुभकामनाएं देती है, गुजरात और हिमाचल प्रदेश की अवाम ने जो प्यार दिया, उसके लिए तहे-दिल से शुक्रिया.

क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि कांग्रेस की नाकामी की सबसे बड़ी वजह सही रणनीति की कमी है. कांग्रेस के पास या ये कहना ज़्यादा सही होगा कि राहुल गांधी के पास ऐसे सलाहकारों की, ऐसे रणनीतिकारों की बेहद कमी है, जो उनकी जीत का मार्ग प्रशस्त कर सकें. सही रणनीति की कमी की वजह से ही कांग्रेस जीतकर भी हार जाती है. यही वजह है कि कांग्रेस डेमेज कंट्रोल भी नहीं कर पाती. कांग्रेस नेता मणिशंकर के बयान पर उन्हें बर्ख़ास्त करने के बाद भी पार्टी को कोई फ़ायदा नहीं हुआ. कांग्रेस जन हितैषी काम करके भी हार जाती है, जबकि आतंकियों को कंधार पहुंचाने वाले, बिन बुलाए पाकिस्तान जाकर बिरयानी खाने वाले नेताओं की पार्टी जीत जाती है. इसलिए राहुल गांधी को ऐसे सलाहकारों की ज़रूरत है, जो उन्हें कामयाबी की बुलंदियों तक ले जाएं.

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं जब तरक़्क़ी मिलती है, तो उसके साथ ही ज़िम्मेदारियां भी बढ़ जाती हैं. राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए हैं. उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद मिल गया है और इसके साथ ही उन्हें ढेर सारी चुनौतियां भी मिली हैं, जिसका सामना उन्हें क़दम-क़दम पर करना है. राहुल गांधी ऐसे वक़्त में पार्टी के अध्यक्ष बने हैं, जब कांग्रेस देश की सत्ता से बाहर है. ऐसी हालत में उन पर दोहरी ज़िम्मेदारी आन पड़ी है. पहली ज़िम्मेदारी पार्टी संगठन को मज़बूत बनाने की है और दूसरी खोई हुई हुकूमत को फिर से हासिल करने की है. राहुल गांधी पर इससे बड़ी भी एक ज़िम्मेदारी है और वह है देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी, देश में चैन-अमन क़ायम करने की ज़िम्मेदारी. देश में ऐसा माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी, जिसमें सभी मज़हबों के लोग चैन-अमन के साथ मिलजुल कर रह सकें. पिछले तीन-चार सालों में देश में जो सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं, उनकी वजह से न सिर्फ़ देश का माहौल ख़राब हुआ है, बल्कि विदेशों में भी भारत की छवि धूमिल हुई है. ऐसी हालत में देश को, अवाम को राहुल गांधी से बहुत उम्मीदें हैं.

देश के कई राज्यों में जहां पहले कांग्रेस की हुकूमत हुआ करती थी, अब वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. लगातार बढ़ती महंगाई, नोटबंदी, जीएसटी और सांप्रदायिक घटनाओं को लेकर लोग भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ नज़र आ रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस के पास अच्छा मौक़ा है. वह जन आंदोलन चलाकर भारी जन समर्थन जुटा सकती है, अपना जनाधार बढ़ा सकती है, पार्टी को मज़बूत कर सकती है. इसके लिए राहुल गांधी को देशभर के सभी राज्यों में युवा नेतृत्व को आगे लाना होगा. इसके साथ ही कांग्रेस के शासनकाल में हुए विकास कार्यों को भी जनता के बीच रखना होगा. जनता को बताना होगा कि कांग्रेस और भाजपा के शासन में क्या फ़र्क़ है. कांग्रेस ने मनरेगा, आरटीआई और खाद्य सुरक्षा जैसी अनेक कल्याणकारी योजनाएं दीं, जिनका सीधा फ़ायदा जनता को हुआ. लेकिन कांग्रेस के नेता चुनावों में इनका कोई भी फ़ायदा नहीं ले पाए. यह कांग्रेस की बहुत बड़ी कमी रही, जबकि भारतीय जनता पार्टी जनता से कभी पूरे न होने वाले लुभावने वादे करके सत्ता तक पहुंच गई.

ये कांग्रेस की ख़ासियत है कि वह जन हित की बात करती है, जनता की बात करती है. कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है, जो बिना किसी भेदभाव के सभी तबक़ों को साथ लेकर चलती है. कांग्रेस ने देश के लिए बहुत कुछ किया है. जिन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है, उनमें कांग्रेस के ही नेता सबसे आगे रहे हैं, चाहे वह पंडित जवाहरलाल नेहरू हों या फिर श्रीमती इंदिरा गांधी या उनके बेटे राजीव गांधी. कांग्रेस की अध्यक्ष रहते हुए श्रीमती सोनिया गांधी ने पार्टी को सत्ता तक पहुंचाया. उन्होंने एक दशक तक देश को मज़बूत और जन हितैषी सरकार दी. अब बारी राहुल गांधी की है. मौजूदा हालात को देखते हुए यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि आज देश को राहुल गांधी जैसे ईमानदार नेता की ज़रूरत है, जो मक्कारी और फ़रेब की सियासत नहीं करते. वे बेबाक कहते हैं, 'मैं झूठे वादे नहीं करता. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता." राहुल गांधी की यही ईमानदारी उन्हें क़ाबिले-ऐतबार बनाती है, उन्हें लोकप्रिय बनाती है. सनद रहे कि एक सर्वे में विश्वसनीयता के मामले में दुनिया के बड़े नेताओं में राहुल गांधी को तीसरा दर्जा मिला हैं, यानी दुनिया भी उनकी ईमानदारी का लोहा मानती है. उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस कामयाबी की बुलंदियों को छुये, ऐसी उम्मीद उनसे की जा सकती है.

राहुल गांधी पर यह भी ज़िम्मेदारी रहेगी कि युवाओं को आगे लाने के साथ-साथ वे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी साथ लेकर चलें. वरिष्ठ नेताओं के अनुभव की रौशनी में युवा नेताओं का जोश और मेहनत पार्टी को मज़बूती दे सकती है. इसके साथ ही उन्हें अंदरूनी कलह से भी चो-चार होना पड़ेगा. पार्टी का नया संगठन खड़ा होना है, ऐसे में जिन लोगों को उनकी पसंद का पद नहीं मिलेगा, वे पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं. इतना ही नहीं, पार्टी को रणनीति पर भी ख़ास ध्यान देना होगा. एक छोटी-सी ग़लती भी बड़े नुक़सान की वजह बन जाया करती है. मिसाल के तौर पर मणिपुर और गोवा को ही लें, इन दोनों ही राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी से बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन सियासी रणनीति सही नहीं होने की वजह से कांग्रेस सरकार बनाने में नाकाम रही. इतना ही नहीं, बिहार के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद भी कांग्रेस सरकार को संभाल नहीं पाई और सत्ता भारतीय जनता पार्टी ने हथिया ली. यहां भी कांग्रेस को बड़ी नाकामी मिली. इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस की नैया डुबोने में पार्टी के खेवनहारों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. राहुल गांधी को इस बात को भी मद्देनज़र रखते हुए आगामी रणनीति बनानी होगी. कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पार्टी को अपनी जागीर समझ रखा है और सत्ता के मद में चूर वे कार्यकर्ताओं और जनता से दूर होते चले गए, जिसका ख़ामियाज़ा कांग्रेस को पिछले आम चुनाव और विधानसभा चुनावों में उठाना पड़ा. पार्टी की अंदरूनी कलह, आपसी खींचतान, कार्यकर्ताओं की बात को तरजीह न देना कांग्रेस के लिए नुक़सानदेह साबित हुआ. हालत यह रही कि अगर कोई कार्यकर्ता पार्टी के नेता से मिलना चाहे, तो उसे वक़्त नहीं दिया जाता था. कांग्रेस में सदस्यता अभियान के नाम पर भी सिर्फ़ ख़ानापूर्ति ही की गई. इसके दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में लाने के लिए दिन-रात मेहनत की. भाजपा का जनाधार बढ़ाने पर ख़ासा ज़ोर दिया. संघ और भाजपा ने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पार्टी से जोड़ा. केंद्र में सत्ता में आने के बाद भी भाजपा अपना जनाधार बढ़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है. कांग्रेस को भी अपना जनाधार बढ़ाने और उसे मज़बूत करने पर ध्यान देना चाहिए.

राहुल गांधी पिछड़ों और दलितों को पार्टी से जोड़ने का काम कर रहे हैं, इसका उन्हें फ़ायदा होगा. उन्हें अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों को भी कांग्रेस से जोड़ने के लिए काम शुरू करना चाहिए. वैसे तो मुस्लिम कांग्रेस के कट्टर समर्थक रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ बरसों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाई है. इससे मुस्लिम वोट का बंटवारा हो गया, जिसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी को होता है.

साल 2019 में लोकसभा चुनाव होने हैं. इससे पहले आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे, जिनमें कर्नाटक, मेघालय, मिज़ोरम, त्रिपुरा और नगालैंड शामिल हैं. कर्नाटक, मेघालय और मिज़ोरम में कांग्रेस की हुकूमत है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सत्ता है. इन राज्यों में कांग्रेस को भारतीय जनता पार्टी से कड़ा मुक़ाबला करना होगा. इसके लिए कांग्रेस को अभी से तैयारी शुरू करनी होगी. गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजे इन राज्यों को कितना प्रभावित करते हैं, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा.

बहरहाल, राहुल गांधी को अपनी पार्टी के नेताओं, सांसदों, विधायकों, कार्यकर्ताओं और समर्थकों से ऐसा रिश्ता क़ायम करना होगा, जिसे बड़े से बड़ा लालच भी तोड़ न पाए. इसके लिए उन्हें पार्टी कार्यकर्ताओं से संवाद करना होगा, आम लोगों से मिलना होगा, उनके मन की बात सुननी होगी. राहुल गांधी ने पार्टी संगठन को मज़बूत कर लिया, तो बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है. उन्हें चाहिए कि वे पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक से संवाद करें. उनकी पहुंच हर कार्यकर्ता तक हो और कार्यकर्ता की पहुंच राहुल गांधी तक होनी चाहिए. अगर ऐसा हो गया तो कांग्रेस को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा और आने वाला वक़्त कांग्रेस का होगा. राहुल गांधी के पास वक़्त है, मौक़ा है, वे चाहें तो इतिहास रच सकते हैं.


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