फ़िरदौस ख़ान
देशभर के शिया बहुल शहरों में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों की याद में मातमी जुलूस निकाला जाता है. यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है.  

उत्तर प्रदेश के अमरोहा की बात करें तो यहां तक़रीबन 490 साल से मातमी जुलूस निकाला जा रहा है. हैदराबाद और लखनऊ के बाद अमरोहा ही देश का ऐसा शहर है, जहां मातमी जुलूस में सबसे ज़्यादा लोग शिरकत करते हैं. मातमी जुलूस में शामिल होने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं. दरअसल अमरोहा में शियाओं की अच्छी ख़ासी आबादी है. ज़्यादातर शिया पढ़े-लिखे और साहिबे हैसियत हैं. यहां के बहुत से शिया विदेशों में बस गए हैं, जिनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस, ब्रिटेन, कनाडा, अफ़्रीका, नाइजीरिया, डेनमार्क, न्यूज़ीलैंड, संयुक्त राज्य अमीरात और अरब आदि देश शामिल हैं. विदेशों में बसने वाले शिया मुहर्रम में अमरोहा आ जाते हैं. इसके अलावा अमरोहा के जो शिया देश के अन्य शहरों में रहते हैं, वे भी मुहर्रम में अपने घरों को लौट आते हैं. 

ईद उल ज़ुहा के फ़ौरन बाद से ही मुहर्रम के मातमी जुलूस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. अलम बनाए जाते है, ताज़िये बनाए जाते हैं, तुर्बतें बनाई जाती हैं, मेहंदी की चौकी बनाई जाती है. इमामबाड़ों की साफ़-सफ़ाई का काम शुरू हो जाता है. उन पर रंग-रोग़न किया जाता है. अज़ाख़ाने तैयार किए जाते हैं. इन पर स्याह परचम फहराये जाते हैं, जो ग़म की अलामत हैं. मुहर्रम का चांद नज़र आते ही इमामबाड़ों में नौबत बजाई जाती है और मुहर्रम की अज़ादारी का ऐलान कर दिया जाता है. इसके बाद मुहर्रम के दस दिनों तक लोग सिर्फ़ स्याह लिबास ही पहननते हैं. 

अमरोहा में मुहर्रम की तीन तारीख़ से मातमी जुलूस निकलना शुरू होता है. इसलिए सुबह से ही जुलूस के रूट की साफ़-सफ़ाई हो जाती है. सड़कों के दोनों तरफ़ चूने से क़तारें बना दी जाती हैं. इस मातमी जुलूस में अलम निकलते हैं और एक सजा हुआ घोड़ा भी होता है. इस दौरान जंगी धुन बजाई जाती है और लोग मर्सिया और नौहा पढ़ते हैं. वे अपने सीनों पर ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारते हुए ‘या हुसैन-या हुसैन’ की आवाज़ बुलंद करते हुए चलते हैं. ऐसा लगता है कि वक़्त ठहर गया है. सब कुछ बदला-बदला महसूस होता है. आंखों के सामने कर्बला का मंज़र आ जाता है. रूह कांप उठती है. दिल भर आता है और आंखों से आंसू बहने लगते हैं. दुनिया फ़ानी लगने लगती है. दिल कहता है कि बस आख़िरत ही सच है, बाक़ी सब पानी का एक बुलबुला है.  

मातमी जुलूस शहर के बहुत से मुहल्लों से होकर गुज़रता है. इस दौरान शहर के सभी इमामबाड़ों में हाज़िरी दी जाती है. जुलूस जहां से भी गुज़रता हैं, वहां के लोग भी इसमें शामिल होते जाते हैं. जुलूस को देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है. घरों की छतों पर औरतें खड़ी होती हैं. जिन घरों से जुलूस नज़र आता है, उन घरों में न जाने कहां-कहां से औरतें आती हैं. लोग उन्हें अपने घरों की छतों से जुलूस देखने की इजाज़त दे देते हैं. इस दौरान प्रशासन द्वारा सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम किए जाते हैं. जुलूस के रूट पर जगह-जगह पुलिसकर्मी तैनात रहते हैं. 

मुहर्रम में रात में इमामबाड़ों में मजलिसें होती हैं. अज़ाख़ानों में मिम्बर पर बैठे शियागुरु कर्बला का वाक़िया बयान करते हैं. इस दौरान मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं. लोग ज़ारो-क़तार रोते हैं. इसके बाद तबर्रुक तक़सीम किया जाता है, जिसमें ज़र्दा, बिरयानी, मीठी रोटी, जलेबियां, लड्डू, बिस्किट वग़ैरह होते हैं.

मुहर्रम की आठ तारीख़ का मातमी जुलूस बहुत बड़ा होता है. इसमें ऊंट और घोड़े भी शामिल होते हैं. इसमें बहुत से अलम और अज़ादारी की चीज़ें होती हैं. इस दिन लोग छुरियों, तलवारों और ज़ंजीरों से मातम करते हैं. वे ख़ुद को इतना ज़ख़्मी कर लेते हैं कि अपने ही ख़ून में सराबोर हो जाते हैं. बड़े तो बड़े बच्चे भी इस मामले में पीछे नहीं रहते. बहुत से लोग इतने ज़ख़्मी हो जाते हैं कि वे ग़श खाकर गिर पड़ते हैं. उन्हें अपना होश तक नहीं रहता. इस नज़ारे को देखकर दिल दहल जाता है. 

इस दिन के जुलूस में एक घुड़सवार होता है, जो कर्बला की जंग के वक़्त मौजूद औरतों की याद में निकाला जाता है. मुहर्रम के मातमी जुलूस में मेहंदी भी निकलती है. हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बेटे क़ासिम की एक दिन पहले ही शादी हुई थी. इसलिए उनकी याद में एक चौकी पर सजाकर मेहंदी निकाली जाती है. इसके अलावा मश्क भी निकाली जाती है. कहा जाता है कि हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की प्यारी बेटी सुकैना प्यास से तड़प रही थीं, तो हज़रत अब्बास उनके लिए पानी लेने गए. इस दौरान यज़ीद के सिपाहियों ने उन्हें शहीद कर दिया. मातमी जुलूस में एक गहवारा भी होता है, जो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के छह माह के मासूम बेटे अली असग़र की याद दिलाता है. भूखे-प्यासे मासूम बच्चे को तीन नोक वाला तीर मारकर शहीद कर दिया गया था. 

नौ तारीख़ के मातमी जुलूस में भी बहुत ज़्यादा अलम होते हैं. इस दिन मातमी जुलूस में लोग मर्सिये और नौहे पढ़ते हुए बहुत रोते हैं. हालत यह होती है कि बहुत से लोग बेहोश हो जाते हैं. दस तारीख़ के जुलूस में ताज़िया और तुर्बतें निकाली जाती हैं, जो कर्बला के शहीदों की याद दिलाती हैं. ताज़िया हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े का प्रतीक है. ताज़िये में दो तुर्बतें होती हैं. सब्ज़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है, जबकि सुर्ख़ रंग की तुर्बत हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद में रखी जाती है. इस दिन खाने ख़ासकर हलीम, बिरयानी, ज़र्दा और शर्बत की सबीलें लगाई जाती हैं. खाने में वेज बिरयानी भी शामिल होती है.  
 
मन्नतें 
मुहर्रम की आठ और नौ तारीख़ की रात में औरतें इमामबाड़ों में जाती हैं और वहां रखे अलम को छूकर अल्लाह तआला से हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के शहीदों के सदक़े में दुआएं मांगती हैं. जिन औरतों के बच्चे नहीं होते हैं, वे गोद भर जाने पर चांदी की ज़ंजीर या चांदी का कड़ा अलम को छुआकर अपने बच्चों को पहना देती हैं. जिनके बच्चे बीमार रहते हैं, वे भी मन्नतें मांगती हैं. वे जितने साल की मन्नत मांगती हैं, उतने बरस तक वे इमामबाड़े में अपने बच्चों को लेकर आती हैं और तबर्रुक भी तक़सीम करती हैं. 
अमरोहा की शाहीन बताती हैं कि शादी के कई बरस तक उनके यहां औलाद नहीं हुई तो उन्होंने मन्नत मानी थी. जब उनकी गोद भर गई तो वे यहां आने लगीं. चांदनी ने भी अपने बच्चों की सेहतयाबी की मन्नत मांगकर उन्हें चांदी की ज़ंजीरें पहनाई थीं.  

क़ाबिले ग़ौर यह भी है कि शियाओं के अलावा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से मुहब्बत करने वाले सुन्नी भी मुहर्रम में दस दिनों का एहतराम करते हैं. वे नियाज़ नज़र करते हैं. सूफ़ियों की ख़ानकाहों में भी मर्सिये और नौहे पढ़े जाते हैं.
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
तस्वीर गूगल से साभार 


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