फ़िरदौस ख़ान
भारत एक ऐसा देश है, जो अपनी संस्कृति के लिए विश्व विख्यात है. यहां विभिन्न सम्प्रदायों और पंथों के लोग निवास करते हैं. पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैले इसके विशाल भूभाग पर जितनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक विविधताएं मिलती हैं, उतनी शायद ही दुनिया के किसी और देश में देखने को मिलती हों. भले ही लोगों के मज़हब अलग हों, उनकी अक़ीदत अलग हो, लेकिन उनमें कोई न कोई समानता देखने को मिल ही जाती है. अब मुहर्रम के जुलूस को ही लें. इसमें यहां के विभिन्न त्यौहारों पर निकलने वाली शोभा यात्राओं की झलक साफ़ नज़र आती है. 

मुहर्रम के महीने में शिया अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व कर्बला के दीगर शहीदों का ग़म मनाते हैं. वे कर्बला के वाक़िये की याद में जुलूस निकालते हैं. इस दौरान वे स्याह लिबास पहनते हैं. जुलूस में अलम भी होते हैं. अलम परचम को कहा जाता है. इसे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के उस परचम की याद में बनाया जाता है, जो कर्बला में उनकी फ़ौज का निशान था. जुलूस में जो परचम होता है, उस पर पंजे का निशान होता है. इस निशान का ताल्लुक़ पंजतन पाक से है यानी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, हज़रत अली अलैहिस्सलाम, हज़रत बीबी फ़ातिमा ज़हरा सलाम उल्लाह अलैहा, हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम. 

अलम बांस से बनाया जाता है. कई अलम बहुत बड़े होते हैं, जिसे कई लोग पकड़ते हैं. बहुत से अलम छोटे भी होते हैं, जिन्हें एक व्यक्ति आसानी से पकड़ लेता है. बड़ा अलम थामे लोग जुलूस में आगे चलते हैं.  
जुलूस में घोड़ा भी होता है. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के घोड़े का नाम ज़ुलजनाह था. इसलिए जुलूस के लिए बहुत ही अच्छे घोड़े का इंतख़ाब किया जाता है. घोड़े को सजाते हैं और उसकी पीठ पर एक साफ़ा रखा जाता है. चूंकि यह हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का घोड़ा माना जाता है, इसलिए इसका बहुत ही अच्छी तरह ख़्याल रखा जाता है. उसे दूध जलेबी भी खिलाई जाती है. मुहर्रम के दौरान किसी को इस पर सवारी करने की इजाज़त नहीं होती.  

जुलूस में तुर्बतें भी होती हैं. तुर्बत का मतलब है क़ब्र. कर्बला के शहीदों की याद में तुर्बतें बनाई जाती हैं. ताज़िये में दो तुर्बतें रखी जाती हैं. एक तुर्बत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की याद में होती है. इसका रंग सब्ज़ होता है, क्योंकि उन्हें ज़हर देकर शहीद किया गया था. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की तुर्बत सुर्ख़ रंग की होती है, क्योंकि उन्हें सजदे की हालत में शहीद किया गया था और उनका जिस्म ख़ून से सुर्ख़ हो गया था. जुलूस में एक गहवारा भी होता है. गहवारा पालने को कहा जाता है. यह हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के छह माह के बेटे अली असग़र की शहादत की याद में होता है, जिन्हें तीर मार कर शहीद कर दिया गया था. 
मुहर्रम में मेहंदी भी निकाली जाती है. कहा जाता है कि हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बेटे क़ासिम का एक दिन पहले ही निकाह हुआ था. इसकी याद में एक चौकी पर सजाकर मेहंदी निकाली जाती है. हज़रत अब्बास हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की लाडली बेटी सुकैना के लिए पानी लेने गए थे, तब उन्हें शहीद कर दिया गया था. इस शहादत की याद में मश्क निकाली जाती है. 

जुलूस में एक अम्मारी होता है. एक पहरेदार सवारी को अम्मारी कहा जाता है. यह कर्बला की जंग के वक़्त मौजूद महिलाओं की याद में मुहर्रम की आठ तारीख़ को निकाली जाती है. 
इसी तारीख़ को जुलूसे अज़ा निकाला जाता है. अज़ा का मतलब है तकलीफ़. इसमें अज़ादारी से वाबस्ता चीज़ें होती हैं. लोग इन चीज़ों को देख- देखकर रोते हैं. इनके सामने मरसिये और नौहे पढ़े जाते हैं. इस दौरान लोग अपने हाथों को सीने पर मारकर मातम करते हैं. बहुत से लोग ज़ंजीरों और तलवारों से ख़ुद को ज़ख़्मी करते हैं और ‘या हुसैन, या हुसैन’ कहते जाते हैं. बहुत जगहों पर लोग दहकते हुए अंगारों पर चलते हैं. ख़ास बात यह है कि उनके पैर ज़र्रा बराबर भी आग में नहीं झुलसते. ऐसा लगता है कि वह फ़र्श पर चल रहे हैं. कुछ लोग दहकते अंगारों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज़ भी अदा करते हैं. मजाल है कि मुसल्ले का एक भी धागा आग में जल जाए. मातम में ख़ुद को ज़ख़्मी करने वाले लोग कर्बला की मिट्टी अपने ज़ख़्मों पर लगा लेते हैं और ठीक हो जाते हैं. 
 
मुहर्रम की दस तारीख़ को ताज़िया निकाला जाता है. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रोज़े के प्रतीक को ताज़िया कहा जाता है. यह लकड़ी, अबरक और रंग-बिरंगे काग़ज़ से बनाया जाता है. इसका कोई एक आकार नहीं होता. कारीगर अपनी-अपनी कल्पना के हिसाब से इसे बनाते हैं. ज़्यादातर ताज़ियों में गुम्बद बनाया जाता है.   

दरअसल भारत में प्राचीन काल से ही अपने मृतजनों को स्मरण किए जाने की परम्परा है. श्राद्ध एक ऐसा कर्म है, जिसके माध्यम से पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त की जाती है. मान्यता है कि जिन पूर्वजों की वजह से हमारा अस्तित्व है, हम उनके ऋणी हैं. इसीलिए श्राद्ध के दिनों में लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति के लिए दान-पुण्य करते हैं. इस दौरान कोई शुभ एवं मंगल कार्य नहीं किया जाता. इसी तरह शिया और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बेपनाह मुहब्बत करने वाले दीगर मुसलमान भी मुहर्रम से चेहलुम तक कोई शादी-ब्याह जैसे ख़ुशी के काम नहीं करते. मुहर्रम के दस दिनों तक लोग नये कपड़े, ज़ेवर और ऐसी ही दूसरी चीज़ों की ख़रीददारी भी नहीं करते. बस रोज़मर्रा की ज़रूरत का सामान ही ख़रीदते हैं.   
  
भारत में देवी-देवताओं की शोभा यात्रा निकालने की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. उड़ीसा के जगन्नाथ पूरी की यात्रा विश्व प्रसिद्ध है. इसी तरह विजय दशमी पर देवी दुर्गा की शोभा यात्रा निकाली जाती है. राम, लक्ष्मण और सीता की शोभा यात्रा निकाली जाती है. जन्माष्टमी पर कृष्ण की शोभा यात्रा निकाली जाती है. शिवरात्रि पर शिव की शोभा यात्रा निकाली जाती है. गणेश चतुर्थी पर गणेश की शोभा यात्रा निकाली जाती है. इसके अलावा अन्य देवी-देवताओं की शोभा यात्राएं भी निकाली जाती हैं.  
फ़र्क़ इतना है कि मुहर्रम का जुलूस ग़म में निकाला जाता है और शोभा यात्राएं हर्षोल्लास से निकाली जाती हैं. मुहर्रम पर ताज़िये ज़मीन में दफ़न कर दिए जाते हैं, जबकि देवी दुर्गा और गणेश की प्रतिमाओं का पानी में विसर्जन किया जाता है.
 
मुहर्रम के जुलूस में हिन्दू भी शामिल होते हैं. मुहर्रम में तक़सीम होने वाले तबर्रुक को हिन्दू भी बहुत ही श्रद्धा से ग्रहण करते हैं. उत्तर प्रदेश के शिकारपुर की ताहिरा बताती हैं कि हिन्दू औरतें ख़ुद कहती हैं कि उन्हें तबर्रुक चाहिए. जब उनसे पूछा गया कि वे इसका क्या करती हैं, तो उन्होंने बताया कि वे तबर्रुक के चावलों को सुखाकर रख लेती हैं. जब उनका कोई बच्चा बीमार होता है, तो वे चावल के कुछ दाने उसे खिला देती हैं. इससे बच्चा ठीक हो जाता है. इसी को तो अक़ीदत कहा जाता है. 

वाक़ई अक़ीदत के मामले में भारत का कोई सानी नहीं है. यह वह देश है, जहां धरती को भी माता कहकर पुकारा जाता है. एक दूसरे के मज़हब और रीति-रिवाजों को मान-सम्मान देना ही तो इस देश की माटी की ख़ासियत है. इसे ही गंगा-जमुनी तहज़ीब कहा जाता है. 
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)
साभार आवाज़ 
तस्वीर गूगल से साभार  


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