-फ़िरदौस ख़ान
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कर्बला की जंग में अपनी और अपने ख़ानदान की क़ुर्बानी देकर अल्लाह के उस दीन को ज़िन्दा रखा, जिसे उनके नाना लेकर आए थे. वे इस्लाम के पैरोकार थे और दीन के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करते थे. उन्होंने अपनी जान की क़ुर्बानी दे दी, लेकिन ज़ालिम की अधीनता क़ुबूल नहीं की.
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपनी बेटी फ़ातिमा ज़हरा, अपने दामाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम और अपने नातियों हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बहुत मुहब्बत थी. आपने फ़रमाया कि जिसका मैं मौला हूं, उसका अली मौला है. आपने यह भी फ़रमाया कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूं. अल्लाह तू उससे मुहब्बत कर, जो हुसैन से मुहब्बत करे.
कर्बला की जंग मुहर्रम में हुई थी, जो इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी का पहला महीना है. हिजरी साल का आग़ाज़ इसी महीने से होता है. इस माह को इस्लाम के चार पाक महीनों में शुमार किया जाता है. हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस माह को अल्लाह का महीना कहा है.
हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद नियमानुसार उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को ख़िलाफ़त मिलनी थी. मुआविया अब साम-दाम दंड भेद की नीति के तहत ख़ुद ख़लीफ़ा बनना चाहता था. वह नहीं चाहता था कि ख़िलाफ़त हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को मिले. अगर शूरा के तहत ख़िलाफ़त हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को मिल गई तो न वह ख़ुद ख़लीफ़ा बन पाएगा और न ही उसके बेटे यज़ीद को ख़िलाफ़त मिल पाएगी.
आख़िरकार इमाम हसन अलैहिस्सलाम से ईर्ष्या रखने वाले उनके दुश्मनों ने साज़िशन उन्हें ज़हर दिलवा दिया, जिससे उनकी शहादत हो गई. अब मुआविया पहले से ज़्यादा सतर्क होकर अपने बेटे यज़ीद को अपना वारिस घोषित करके नई साज़िशें करने में जुट गया, क्योंकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के छोटे बेटे हज़रत इमाम हुसैन अब एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आने वाले थे. कालांतर में हुआ भी कुछ इस तरह कि तत्कालीन गवर्नर मुआविया को गद्दी से हटाकर वलीअहद यज़ीद ख़ुद ख़लीफ़ा बन बैठा.
मुआविया से हुए समझौते के मुताबिक़ इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद उनके छोटे भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ख़लीफ़ा बनेंगे और दस साल तक ख़िलाफ़त करेंगे, लेकिन मुआविया ने वादाख़िलाफ़ी करते हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िलाफ़त देने से मना कर दिया. शर्त यह भी थी मुआविया की कोई औलाद ख़िलाफ़त की हक़दार नहीं होगी. इसके बावजूद मुआविया का बेटा यज़ीद खलीफ़ा बन बैठा. उसने इस्लाम में हराम जुआ, शराब और ब्याज़ जैसी तमाम बुराइयों को आम कर दिया. यज़ीद के अवाम पर ज़ुल्म भी लगातार बढ़ते जा रहे थे. इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उसके ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की. यज़ीद ने उन पर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए ज़ोर डाला, लेकिन उन्होंने इससे इनकार कर दिया. इस पर उसने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को क़त्ल करने का फ़रमान जारी कर दिया. इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना से अपने ख़ानदान के साथ कुफ़ा के लिए रवाना हो गए, जिसमें उनके ख़ानदान के 123 सदस्य यानी 72 मर्द व औरतें और 51 बच्चे शामिल थे. यज़ीद की फ़ौज ने उन्हें कर्बला के मैदान में ही रोक लिया. फ़ौज ने उन पर यज़ीद की बात मानने के लिए दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने ज़ालिम यज़ीद की अधीनता क़ुबूल करने से साफ़ इनकार कर दिया. इस पर यज़ीद ने नहर पर पहरा लगवा दिया और उनके पानी लेने पर रोक लगा दी गई.
तीन दिन गुज़र जाने के बाद जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ानदान के बच्चे प्यास से तड़पने लगे, तो उन्होंने यज़ीद की फ़ौज से पानी मांगा. फ़ौज ने पानी देने से मना कर दिया. फ़ौज ने सोचा कि बच्चों की भूख-प्यास देखकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम टूट जाएंगे और यज़ीद की अधीनता कुबूल कर लेंगे. जब उन्होंने यज़ीद की बात नहीं मानी, तो फ़ौज ने उनके ख़ेमों पर हमला कर दिया. इस हमले में इमाम हुसैन समेत उनके ख़ानदान के 72 लोग शहीद हो गए. इसमें छह महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। दुश्मनों ने छह महीने के मासूम अली असग़र के गले पर तीन नोक वाला तीर मारकर उन्हें शहीद कर दिया. दुश्मनों ने सात साल आठ महीने के औन-ओ-मुहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर उन्हें शहीद कर दिया. उन्होंने 13 साल के हज़रत कासिम घोड़ों की टापों कुचलवा कर शहीद कर दिया.
दरअसल यह एक जंग नहीं थी, एक सुनियोजित हमला था, एक क़त्ले-आम था. एक तरफ़ ज़ालिम यज़ीद की लाखों की फ़ौज थी, तो दूसरी तरह इमाम हुसैन के ख़ानदान के तीन दिन के भूखे-प्यासे लोग थे.
पूरी दुनिया में कर्बला के इन्हीं शहीदों की याद में मुहर्रम मनाया जाता है. दस मुहर्रम यानी आशूरा के दिन ताज़िये का जुलूस निकलता है. ताज़िया इराक़ की राजधानी बग़दाद से एक सौ किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में स्थित क़स्बे कर्बला में स्थित इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रौज़े जैसा होता है. लोग अपनी-अपनी अक़ीदत और हैसियत के हिसाब से ताज़िये बनाते हैं. जुलूस में काले कपड़े पहने शिया मुसलमान नंगे पैर चलते हैं और अपने सीने पर हाथ मारते हैं, जिसे मातम कहा जाता है. मातम के साथ वे हाय हुसैन की सदा लगाते हैं और साथ ही नौहा यानी शोक गीत भी पढ़ते हैं. पहले ताज़िये के साथ अलम भी होता है, जिसे हज़रत अब्बास की याद में निकाला जाता है.
मुहर्रम का महीना शुरू होते ही इमामबाड़ों में मजलिसों का सिलसिला शुरू हो जाता है. आशूरा के दिन जगह-जगह पानी के प्याऊ और शर्बत की छबीलें लगाई जाती हैं. हिन्दुस्तान में ताज़िये के जुलूस में शिया मुसलमानों के अलावा दूसरे मज़हबों के लोग भी शामिल होते हैं.
मुख़तलिफ़ हदीसों से मुहर्रम की हुरमत और इसकी अहमियत का पता चलता है. एक हदीस के मुताबिक़ अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि रमज़ान के अलावा सबसे अहम रोज़े वह हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं. यह फ़रमाते वक़्त हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह फ़र्ज़ नमाज़ों के बाद सबसे अहम नमाज़ तहज्जुद की है, उसी तरह रमज़ान के रोज़ों के बाद सबसे अहम रोज़े मुहर्रम के हैं.
मुहर्रम की 9 तारीख़ को की जाने वाली इबादत का भी बहुत सवाब बताया गया है. सहाबी इब्ने अब्बास के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि जिसने मुहर्रम की 9 तारीख़ का रोज़ा रखा, उसके दो साल के गुनाह माफ़ हो जाते हैं और मुहर्रम के एक रोज़े का सवाब 30 रोज़ों के बराबर है.
मुहर्रम हमें सच्चाई, नेकी और ईमानदारी के रास्ते पर चलने की हिदायत देता है.
क़त्ले-हुसैन असल में मर्ग़े-यज़ीद है
इस्लाम ज़िन्दा होता है हर कर्बला के बाद...
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते हुए ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं-
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीने-पनाह हुसैन
सरदाद न दाद दस्त, दर दस्ते-यज़ीद
हक़्क़ा के बिना, लाइलाह अस्त हुसैन...