फ़िरदौस ख़ान
बहुत कम लोग जानते हैं कि सिने जगत की मशहूर अभिनेत्री व ट्रेजडी क्वीन के नाम से विख्यात मीना कुमारी शायरा भी थीं. मीना कुमारी का असली नाम महजबीं बानो था. एक अगस्त, 1932 को मुंबई में जन्मी मीना कुमारी के पिता अली बक़्श पारसी रंगमंच के जाने-माने कलाकार थे. उन्होंने कई फ़िल्मों में संगीत भी दिया था. उनकी मां इक़बाल बानो मशहूर नृत्यांगना थीं. उनका असली नाम प्रभावती देवी था. उनका संबंध टैगोर परिवार से था यानी मीना कुमारी की नानी रवींद्र नाथ टैगोर की भतीजी थीं, लेकिन अली बक़्श से विवाह के लिए प्रभावती ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था. मीना कुमारी ने छह साल की उम्र में एक फ़िल्म में बतौर बाल कलाकार काम किया था. 1952 में प्रदर्शित विजय भट्ट की लोकप्रिय फ़िल्म बैजू बावरा से वह मीना कुमारी के रूप में जानी गईं. 1953 तक मीना कुमारी की तीन हिट फ़िल्में आ चुकी थीं, जिनमें दायरा, दो बीघा ज़मीन एवं परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिए एक नया दौर शुरू हुआ. इसमें उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को ख़ासा प्रभावित किया था. इसके बाद उन्हें ऐसी फ़िल्में मिलने लगीं, जिनसे वह ट्रेजडी क्वीन के रूप में मशहूर हो गईं. उनकी ज़िंदगी परेशानियों के दौर से ग़ुजर रही थी. उन्हें मशहूर फ़िल्मकार कमाल अमरोही के रूप में एक हमदर्द इंसान मिला. उन्होंने कमाल से प्रभावित होकर उनसे विवाह कर लिया, लेकिन उनकी शादी कामयाब नहीं रही और दस साल के वैवाहिक जीवन के बाद 1964 में वह कमाल अमरोही से अलग हो गईं. कहा यह भी गया कि औलाद न होने की वजह से उनके रिश्ते में दरार पड़ने लगी थी.
1966 में बनी फ़िल्म फूल और पत्थर के नायक धर्मेंद्र से मीना कुमारी की नज़दीकियां बढ़ने लगी थीं. मीना कुमारी उस दौर की कामयाब अभिनेत्री थीं, जबकि धर्मेंद्र का करियर ठीक से नहीं चल रहा था. लिहाज़ा धर्मेंद्र ने मीना कुमारी का सहारा लेकर ख़ुद को आगे बढ़ाया. उनके क़िस्से पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे, जिसका असर उनकी शादीशुदा ज़िंदगी पर पड़ा. अमरोहा में एक मुशायरे के दौरान किसी युवक ने मीना कुमारी पर कटाक्ष करते हुए एक ऐसा शेअर पढ़ा, जिस पर मुशायरे की सदारत कर रहे कमाल अमरोही भड़क गए.

कमाल अमरोही ने मीना कुमारी की कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें पाकीज़ा भी शामिल है. पाकीज़ा के निर्माण में सत्रह साल लगे थे, जिसकी वजह मीना कुमारी से उनका अलगाव था. यह कला के प्रति मीना कुमारी का समर्पण ही था कि उन्होंने बीमारी की हालत में भी इस फ़िल्म को पूरा किया. पाकीज़ा में पहले धर्मेंद्र को लिया गया था, लेकिन कमाल अमरोही ने धर्मेंद्र को फ़िल्म से बाहर कर उनकी जगह राजकुमार को ले लिया. 1956 में शुरू हुई पाकीज़ा 4 फ़रवरी, 1972 को रिलीज़ हुई और उसी साल 31 मार्च को मीना कुमारी चल बसीं. फ़िल्म हिट रही, कमाल अमरोही अमर हो गए, लेकिन मीना कुमारी ग़ुरबत में मरीं. अस्पताल का बिल उनके प्रशंसक एक डॉक्टर ने चुकाया. मीना कुमारी ज़िंदगी भर सुर्ख़ियों और विवादों में रहीं. कभी शराब पीने की आदत को लेकर, तो कभी धर्मेंद्र के साथ संबंधों को लेकर. मीना कुमारी ने अपने अकेलेपन में शराब और शायरी को अपना साथी बना लिया था. वह नज़्में लिखती थीं, जो उनकी मौत के बाद नाज़ नाम से प्रकाशित हुईं :-
मेरे महबूब
जब दोपहर को
समुंदर की लहरें
मेरे दिल की धड़कनों से हमआहंग होकर उठती हैं तो
आफ़ताब की हयात आफ़री शुआओं से मुझे
तेरी जुदाई को बर्दाश्त करने की क़ुव्वत मिलती है…

मीना कुमारी की ग़ज़लों में मुहब्बत है, शोख़ी है. वह कहती हैं-
रूह का चेहरा किताबी होगा
जिस्म का रंग अनाबी होगा
शरबती रंग से लिखूं आंखें
और अहसास शराबी होगा
चश्मे-पैमाने से टपका आंसू
कोई बेचारा सवाबी होगा...

धर्मेंद्र ने भी करियर की बुलंदियों पर पहुंचने के बाद मीना को अकेला छोड़ दिया. कभी मुड़कर भी उनकी तरफ़ नहीं देखा. मीना उम्र भर मुहब्बत पाने के लिए तरसती रह गईं :-
मुहब्बत
बहार की फूलों की तरह मुझे
अपने जिस्म के रोएं-रोएं से
फूटती मालूम हो रही है
मुझे अपने आप पर एक
ऐसे बजरे का गुमान हो रहा है, जिसके
रेशमी बादबान
तने हुए हों और जिसे
पुरअसरार हवाओं के झोंके
आहिस्ता-आहिस्ता दूर-दूर
पुरसुकून झीलों
रौशन पहाड़ों और
फूलों से ढके हुए गुमनाम जज़ीरों
की तऱफ लिए जा रहे हों,
वह और मैं
जब ख़ामोश हो जाते हैं तो हमें
अपने अनकहे, अनसुने अल्फ़ाज़ में
जुगनुओं की मानिंद रह-रहकर चमकते दिखाई देते हैं,
हमारी गुफ़्तगू की ज़ुबान
वही है जो
दरख्तों, फूलों, सितारों और आबशारों की है,
ये घने जंगल
और तारीक रात की गुफ़्तगू है जो दिन निकलने पर
अपने पीछे
रौशनी और शबनम के आंसू छोड़ जाती है, महबूब
आह
मुहब्बत…

ज़िन्दगी में मुहब्बत हो, तो ज़िन्दगी सवाब होती है. और जब न हो, तो उसकी तलाश होती है... और इसी तलाश में इंसान उम्रभर भटकता रहता है. अपनी एक ग़ज़ल में मीना कुमारी उम्र भर मुहब्बत को तरसती हुई औरत की तड़प बयां करते हुए कहती हैं-
ज़र्रे-ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे
एक-एक बुत को ख़ुदा उसने बनाया होगा
प्यास जलते हुए कांटों की बुझाई होगी
रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा...

कमाल अमरोही से निकाह करके भी उनका अकेलापन दूर नहीं हुआ और वह शराब में डूब गईं. एक बार जब दादा मुनि अशोक कुमार उनके लिए दवा लेकर पहुंचे तो उन्होंने कहा, दवा खाकर भी मैं जीऊंगी नहीं, यह जानती हूं मैं. इसलिए कुछ तंबाक़ू खा लेने दो, शराब के कुछ घूंट गले के नीचे उतर जाने दो. मीना कुमारी का यह जवाब सुनकर दादा मुनि कांप उठे. मीना कुमारी की उदासी उनकी नज़्मों में भी उतर आई थी-
दिन गुज़रता नहीं
रात काटे से भी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसलसुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती
अकेलेपन के अंधेरे में दूर-दूर तलक
यह एक ख़ौफ़ जी पे धुआं बनके छाया है
फिसल के आंख से यह क्षण पिघल न जाए कहीं
पलक-पलक ने जिसे राह से उठाया है
शाम का उदास सन्नाटा
धुंधलका देख बढ़ जाता है
नहीं मालूम यह धुआं क्यों है
दिल तो ख़ुश है कि जलता जाता है
तेरी आवाज़ में तारे से क्यों चमकने लगे
किसकी आंखों की तरन्नुम को चुरा लाई है
किसकी आग़ोश की ठंडक पे है डाका डाला
किसकी बांहों से तू शबनम उठा लाई है…

बचपन से जवानी तक या यूं कहें कि ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे तक उन्होंने दुश्वारियों का सामना किया-
आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता,
जब ज़ुल्फ़ की कालिख में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता,
हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुनें टुकड़े
हर शख्स की क़िस्मत में ईनाम नहीं होता,
बहते हुए आंसू ने आंख से कहा थम कर
जो मय से पिघल जाए वो जाम नहीं होता,
दिन डूबे या डूबे बारात लिए कश्ती
साहिल पे मगर कोई कोहराम नहीं होता…

मीना कुमारी की ज़िंदगी एक सच्चे प्रेमी की तलाश में ही गुज़र गई. अकेलेपन का दर्द उनकी रचनाओं में समाया हुआ है-
चांद तन्हा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां-कहां तन्हा,
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुंआ तन्हा,
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा,
हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी
दोनों चलते रहे कहां तन्हा,
जलती-बुझती सी रोशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा,
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा…


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