शारिक़ अदीब अंसारी
भारत सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना कराने का निर्णय, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लिया गया एक ऐतिहासिक और बहुप्रतीक्षित कदम है। यह केवल आंकड़ों का संग्रह नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समावेशी शासन की ओर बढ़ाया गया एक ठोस और नैतिक कदम है, जो भारत के जटिल सामाजिक ढांचे को स्वीकार करता है और नीतियों को वास्तविकता पर आधारित बनाने की दिशा में अग्रसर है।
भारत की सामाजिक संरचना जाति व्यवस्था से गहराई तक प्रभावित रही है। संविधान द्वारा प्रदत्त समानता और आरक्षण जैसे प्रयासों के बावजूद, दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), और पसमांदा मुसलमान जैसे समुदाय आज भी शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में पीछे हैं। इन समुदायों की वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति का समुचित और अद्यतन आंकड़ा न होने के कारण नीतियां प्रभावी नहीं बन पातीं।
1931 के बाद से अब तक कोई व्यापक जातीय जनगणना नहीं हुई। तब से भारत ने अनेक सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन देखे, लेकिन नीतियों के लिए अभी भी पुरानी और अधूरी जानकारी का उपयोग किया जाता रहा है। यह नई जनगणना इस आंकड़ा शून्यता को भरने का अवसर है, जो देश को यह जानने में मदद करेगी कि सबसे ज़्यादा सहायता किसे और कहाँ चाहिए।
यह कदम विशेष रूप से दलितों और ओबीसी समुदायों के लिए आशा की किरण है। वर्षों की उपेक्षा के बाद अब उनकी आवाज़ सुनी जाएगी। सही आंकड़े सामने आने से न केवल कल्याणकारी योजनाएं और आरक्षण की नीतियां बेहतर होंगी, बल्कि समाज के सबसे हाशिये पर खड़े लोगों तक उनका लाभ भी पहुँचेगा।
इसी प्रकार, मुस्लिम समाज के भीतर पसमांदा समूह—जैसे अंसारी, कुरैशी, मंसूरी आदि—जो बहुसंख्यक होते हुए भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े रहे हैं, उन्हें भी यह जनगणना पहचान और न्याय दिलाने में सहायक होगी। अब तक अल्पसंख्यक योजनाओं और नेतृत्व का लाभ मुख्यतः उच्च जाति के मुसलमानों को मिला है, लेकिन यह जनगणना उन असमानताओं को उजागर करेगी और पसमांदा समुदाय के लिए लक्षित योजनाओं का मार्ग प्रशस्त करेगी।
यह केवल नीतियों का विषय नहीं है—यह सामाजिक परिवर्तन का आधार बन सकता है। यह जनगणना हाशिए पर खड़े समुदायों को अपनी बात कहने का अवसर देती है, उनके संघर्ष को मान्यता देती है और उन्हें राजनीतिक रूप से सशक्त करने का माध्यम बन सकती है। दलितों, ओबीसी और पसमांदा मुसलमानों के भीतर से नए नेतृत्व का उभरना भारतीय लोकतंत्र को और अधिक सशक्त और समावेशी बनाएगा।
सामाजिक स्तर पर यह जनगणना धार्मिक सीमाओं से परे हाशिए के समुदायों के बीच एकता का भाव भी जगा सकती है। दलित, ओबीसी और पसमांदा मुसलमानों का संघर्ष, आकांक्षाएं और आत्म-सम्मान की लड़ाई एक जैसी है। यह साझा अनुभव एक व्यापक और समरस भारत के निर्माण में सहायक हो सकते हैं।
कुछ लोग आशंका व्यक्त करते हैं कि जातिगत जनगणना सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देगी। लेकिन सच्चाई यह है कि जाति पहले से ही हमारे सामाजिक जीवन के हर पहलू में मौजूद है। उसकी अनदेखी करना समस्या को मिटाना नहीं है, बल्कि उसे और गहराना है। इसके विपरीत, इस जनगणना के माध्यम से हम असमानताओं को स्वीकार करके उन्हें दूर करने का साहस दिखा रहे हैं। यह कदम भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों—समानता, न्याय और बंधुत्व—की पुन: पुष्टि है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लिया गया यह निर्णय इस बात का प्रतीक है कि भारत अब सच का सामना करने और सभी नागरिकों के लिए एक न्यायपूर्ण भविष्य बनाने को तैयार है। यह न केवल नीति में परिवर्तन लाएगा, बल्कि भारत को एक ऐसे राष्ट्र की ओर अग्रसर करेगा जहाँ हर नागरिक को समान अधिकार और अवसर प्राप्त हों।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था—"हम सबसे पहले और अंत में भारतीय हैं।" यह जनगणना उसी विचार की ओर एक ठोस कदम है—एक ऐसे भारत की ओर जहाँ विविधता एक शक्ति है, और न्याय केवल एक आदर्श नहीं, बल्कि एक सच्चाई है।
(लेखक ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं)
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