कागज की नौका पर चढ़ कर
निकला सागर-सन्तरण-हेतु
घाटों से काम न चल पाया
गढ़ लिए नए आचरण-सेतु
दानवी-द्वंद्व में अपराजित
केवल अपनों से हारा हूँ
कितनी सदियाँ बीतीं मुझको
सागर-मंथन करते-करते
रीते हैं अनगिन सुधा-कलश
यह खालीपन भरते-भरते
मन से हूँ एक प्रबुद्ध-यती
तन से बिल्कुल आवारा हूँ
- डॉ. रामसनेहीलाल शार्मा यायावर