वीर विनोद छाबड़ा 
वहीदा रहमान को फ़िल्मी दुनिया के सबसे ऊँचे सम्मान से दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाज़ा गया है. ये बहुत अच्छी बात है. लेकिन 85 साल में उम्र में इस अवार्ड के मिलना थोड़ा विलंब है. बहरहाल, देर आये दुरुस्त आये. 

पचास और साठ के सालों में मीना कुमारी और नूतन के साथ-साथ वहीदा रहमान की प्रतिभा की बहुत क़द्र थी. उसके नैन-नक्श बहुत आकर्षक थे जैसे किसी शिल्पकार ने गढ़े हों. लेकिन उसकी विशेषता थी, बिना शब्दों के चेहरे के भावों से बात कहना और सादगी.  क्रिएटिव डायरेक्टर्स की पहली पसंद.  3 फरवरी, 1938 को तमिलनाडु के चिंगलपेट में जन्मी वहीदा का कैरीयर भारत नाट्यम की डांसर के रूप में शुरू हुआ. पिता बड़े सरकारी मुलाज़िम थे. कभी दकियानूस नहीं रहे. बेटियों को पूरी आज़ादी थी. वहीदा और बड़ी बहन ज़ाहिदा ने भरतनाट्यम सीखने की इच्छा ज़ाहिर की. उनके समाज में विरोध हुआ. मगर संगीत धर्म, जाति या समुदाय की हदों को नहीं मानता. आज़ादी के बाद पहले गवर्नर-जनरल सी.राजगोपालाचारी के सामने दोनों बहनों ने नृत्य की प्रस्तुति दी. राजा जी ने बहुत सराहा. लेकिन बड़ी ख़बर बनी, दो मुस्लिम बालिकाओं ने नृत्य किया. 

वहीदा अभी बालिका ही थी, जब पिता गुज़र गए. परिवार आर्थिक संकट से घिर गया. तब स्टेज पर दोनों बहनें नृत्य करने लगीं. तमिल और तेलगु फ़िल्मों में भी उनके नृत्य रखे गए. लेकिन असली पहचान तब बनी जब हैदराबाद में एक स्टेज प्रोग्राम में निर्माता-निर्देशक-अभिनेता गुरुदत्त ने वहीदा को देखा.  एक्सप्रेसिव चेहरा, मेड फॉर एक्टिंग, किरदार कोई भी हो. पारखी गुरुदत्त को वहीदा पसंद आ गयी. उन्हें 'सीआईडी' (1956) के लिए एक वैम्प की ज़रूरत थी. वहीदा ने सुना तो बिदक गयीं, वैम्प से कैरीयर की शुरुआत कोई अच्छा शगुन तो नहीं है. मां ने भी मना कर दिया, बम्बई बहुत दूर है. वहां की भाषा और संस्कृति भी अलग है. लेकिन उन्हें समझाया गया, कोई परेशानी नहीं होगी. रहने का बंदोबस्त हो जाएगा. ऊपर से आर्थिक संकट भी मंडरा रहा था. वहीदा परिवार संग चली बंबई चली आई. तब वहीदा सोलह साल की थी. लेकिन शूटिंग के दौरान डायरेक्टर राजखोसला से वहीदा की चिक-चिक हो गयी. विलेन को रिझाने और भटकाने वाला एक गाना फिल्माया जाना था. इसके लिए जिस्म का खुलासा करने वाला परिधान पहनना ज़रूरी था. लेकिन वहीदा ने साफ मना कर दिया, वो ऐसा परिधान नहीं पहनेगी.  राजखोसला बिगड़ गए. फ़िल्मों में करने क्या आई हो? बात गुरुदत्त तक पहुंची.  गुरू ने वहीदा का पक्ष लिया.  वैम्प दिखने के लिए बदन दिखाना ज़रूरी नहीं, चेहरे के एक्सप्रेशन ही काफ़ी हैं. तब फ़िल्माया गया - कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना...उस दौर का सबसे हॉटेस्ट गाना.  यहां ये ज़िक्र भी ज़रूरी है कि राजखोसला-वहीदा की बरसों चली खुन्नस 1984 में 'सनी' के साथ ख़त्म हुई. इसमें शर्मीला टैगोर भी थीं. सीआईडी के कड़वे अनुभव के बाद वहीदा जो भी फिल्म करती उसके कॉन्ट्रैक्ट में एक धारा ये ज़रूर जुड़ी रहने लगी कि परिधान उनकी पसंद के होंगे. 

सीआईडी सुपरहिट हुई. हीरो देवानंद की नायिका हालांकि शकीला थी, लेकिन चर्चा वहीदा की ज़्यादा हुई. गुरुदत्त ने 'प्यासा' (1957) में वहीदा को वेश्या गुलाबो के रोल के लिए कास्ट किया, फिर निगेटिव रोल. वहीदा को आपत्ति हुई. गुरुदत्त ने इसकी अहमियत को समझाया. जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बनी नहीं...क्लासिक में शुमार हुई ये फिल्म.  एक बार फिर नायिका माला सिन्हा से ज़्यादा चर्चे वहीदा के हुए. मोहब्बत अंधी होती है. जाने कब गुरुदत्त के दिल में बस गयी वहीदा. अगली फिल्म 'कागज़ के फूल' में वहीदा के लिए नायिका का रोल. भारतीय सिनेमा की पहली सिनेमास्कोप फिल्म.  क्रिटिक्स ने बहुत सराहा मगर दर्शकों ने नकार दिया. उधर वहीदा को लेकर गुरुदत्त के घर में भी तबाही मच गयी. गायिका पत्नी गीतादत्त ने घर छोड़ दिया.  क़सम खाई कि अब वहीदा को प्लेबैक को नहीं देंगी.  'चौदहवीं का चाँद' और 'साहिब बीवी और गुलाम' में वहीदा के लिए गीता ने आवाज़ नहीं दी. इस बीच वहीदा भी गुरुदत्त की ज़िंदगी से निकल गयी. प्रण किया कि किसी का घर तोड़ कर अपना घर नहीं बसाउंगी. उन्होंने ये आख़िरी दो फ़िल्में गुरुदत्त का आभार व्यक्त करने के लिए कीं. व्यथित गुरुदत्त ज़्यादा जी नहीं पाए. नींद की गोलियां के ओवरडोज़ से उनकी मृत्यु हो गयी. वैसे आम ख्याल था कि ये आत्महत्या थी.  

वहीदा का नाम भले गुरुदत्त कैंप से जुड़ा रहा लेकिन इससे अलग भी उन्होंने अपना मुक़ाम बनाया, जब सत्यजीत रे ने उन्हें 'अभिजान' में लिया.  देवानंद की वो फेवरिट रहीं. सीआईडी के बाद सोलवां सावन, काला बाज़ार, बात एक रात की, रूप की रानी चोरों का राजा और प्रेमपुजारी.  देव की 'गाइड' के रोज़ी के किरदार को वहीदा अपनी ऊंचाई मानती हैं. हालांकि ये नायक प्रधान फिल्म थी, लेकिन इसके बावजूद वहीदा ने अपनी छाप छोड़ी.  उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला.  राम माहेश्वरी की 'नीलकमल' में दो हीरो थे, राजकुमार और मनोज कुमार.  मगर वहीदा उनसे फिर आगे निकल गयी. एक और फिल्मफेयर अवार्ड मिला.  सुनील दत्त उनके पुराने मित्र रहे. 'मुझे जीने दो' की तवायफ़ चमेली जान बनीं वो. रात भी है कुछ भीगी भीगी...नदी नारे न जाऊं शाम पइयां पडूं...तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ...बरसों बाद सुनील दत्त ने 'रेशमा और शेरा' (1971) की रेशमा के लिए वहीदा को फिर याद किया. वहीदा ने यादगार परफॉरमेंस दी. बेस्ट एक्ट्रेस का नेशनल अवार्ड मिला उन्हें.  इस फिल्म के साथ एक दिलचस्प किस्सा जुड़ा है. शूटिंग राजस्थान के किसी रेतीले इलाके में चल रही थी. नरगिस को शक़ हुआ कि उनके पति और वहीदा का अफेयर है. वो चुपचाप वहां पहुंच गयीं.  छापा मारना ही समझिये.  लेकिन वहां सब कुछ सामान्य पाया.  इधर वहीदा सब समझ गयीं.  उन्होंने नरगिस को आश्वासन दिया, आपके पति को आपसे कोई नहीं छीन सकता.  दत्त साहब के साथ 'आम्रपाली' भी वहीदा के हिस्से में आयी होती, अगर परिधानों पर उनका प्रोड्यूसर एफसी मेहरा से समझौता हो गया होता. 

राजकपूर के साथ वहीदा की 'एक दिल सौ अफ़साने' किसी को याद नहीं होगी.  लेकिन 'तीसरी कसम' की हीराबाई ज़रूर याद होगी. पान खाएं सैंया हमारो...दिलीप कुमार के साथ वहीदा की चार फ़िल्में आयीं, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, आदमी और अस्सी के सालों में यश चोपड़ा की 'मशाल'. अब जहाँ दिलीप कुमार हों, वहां नायिका का कोई ख़ास काम नहीं होता.  लेकिन वहीदा के हिस्से में जितना भी आया, उसे खूब निभाया. 

वहीदा भले ही प्रतिभा का पर्याय रही हों, और खूबसूरत भी, लेकिन ग्लैमर का पर्याय कभी नहीं रहीं. राजेंद्र कुमार के साथ 'पालकी' में वो पर्दे में ही रहीं. मगर फिर भी खूबसूरत दिखने के मामले में गज़ब ढा दिया. उन्होंने राजेंद्र के साथ बाद में 'धरती' और 'शतरंज' भी कीं. इसमें उन्हें ग्लैमर गर्ल के रूप में पेश करने की कोशिश की गई, मगर बात बनी नहीं.  दरअसल, एक बार जो इमेज बन गयी तो उसे तोड़ना मुश्किल होता है. 
   
कलर फिल्मों के युग में ब्लैक एंड वाईट 'ख़ामोशी' (1970) की नर्स राधा को भुलाया जाना मुश्किल है, जो मानसिक रोगी राजेश खन्ना का ईलाज करते हुए खुद ही रोगी हो गयी. वहीदा को इस किरदार से बेहद संतोष मिला.  लेकिन अफ़सोस कि कोई अवार्ड नहीं मिला.  सिर्फ़ बेस्ट एक्ट्रेस के नॉमिनेशन से संतोष करना पड़ा. 1973 में राजेंद्र सिंह बेदी की 'फागुन' में वहीदा ने जया भादुड़ी की मां का रोल क्या अदा किया कि उन पर 'मां' ठप्पा ही लग गया. फिर 35 साल की उम्र भी हो चली थी. अदालत, त्रिशूल और कभी कभी में अमिताभ बच्चन की मां-पत्नी बनीं. 

इसी बीच वहीदा की ज़िंदगी में बिज़नेसमैन कमलजीत उर्फ़ शशि रेखी का पुनः आगमन हुआ. ये वही कमलजीत थे जो 1965 में बनी 'शगुन' में वहीदा के  हीरो थे. बताया जाता है शशि को वहीदा बहुत पसंद थीं. फिल्म में पैसा उन्होंने ही लगाया था. मगर बुरी तरह फ्लॉप हुई थी. लेकिन शशि और वहीदा की दोस्ती परवान चढ़ गयी थी. शशि ने प्रपोज़ भी किया, लेकिन वहीदा नहीं मानीं थीं. अभी तो उनका कैरीयर उठान पर था. दस साल बाद शशि ने फिर प्रोपोज़ किया तो वहीदा मना नहीं कर पायी.  उनकी उम्र भी 35 साल हो चुकी थी. उन्हें एक साथी की ज़रूरत थी. और शशि से अच्छा साथी हो ही नहीं सकता था जो पिछले दस साल से उनकी 'हां' का ही इंतज़ार कर रहा था. लेकिन उनका वैवाहिक जीवन 25 साल ही चला. शशि का लम्बी बीमारी के बाद 2000 में निधन हो गया. वहीदा तनहा हो गयी. बंगलौर से मुंबई लौट आयीं. 

वहीदा की दूसरी इंनिग की कुछ यादगार फ़िल्में हैं, नमक हलाल, नमकीन, धर्मकांटा, महान, कुली, सनी, चांदनी, लम्हे, मशाल, रंग दे बसंती, ओम जय जगदीश, वाटर, और दिल्ली-6. अब फ़िल्मों में वहीदा नज़र नहीं आती हैं. नंदा उनकी बहुत अच्छी सहेली थीं. दोनों 'कालाबाज़ार' में साथ-साथ रहीं। लेकिन आठ साल पहले नंदा गुज़र गयीं.  वहीदा अब 85 साल पार कर चुकी हैं. एक बेटा और एक बेटी, दोनों सेटल हैं. सौ से ज्यादा फ़िल्में कर चुकी वहीदा के टैलेंट को भारत सरकार ने 2011 में पद्मभूषण देकर सम्मानित किया है और अब दादा साहेब फाल्के अवार्ड से. 


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

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