-फ़िरदौस ख़ान
हिंदी फ़िल्में हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं. ये मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम होने के साथ-साथ विभिन्न दौर के सामाजिक परिवेश को भी ब़खूबी पेश करती हैं. ये ज़िन्दगी के कई रंगों को अपने में समेटे रहती हैं. ऐसी ही एक फिल्म है  'कभी-कभी'.  27 फ़रवरी, 1976 को प्रदर्शित इस फ़िल्म का निर्देशन यश चोपड़ा ने किया था. रूमानियत और सुमधुर गीतों से सजी यह फ़िल्म काफ़ी रही थी. सागर सरहदी की लिखी कहानी पर आधारित फ़िल्म की पटकथा पामेला चोपड़ा और यश चोपड़ा ने लिखी. फ़िल्म में अभिताभ बच्चन, शशिकपूर, वहीदा रहमान, राखी गुलज़ार, नीतू सिंह, ऋषि कपूर और परीक्षित साहनी साहनी की यादगार भूमिकायें थीं. कहा जाता है कि यह फ़िल्म राखी को ध्यान में रख कर ही बनी थी, लेकिन इसी बीच राखी ने गुलज़ार से विवाह कर लिया. गुलज़ार नहीं चाहते थे कि राखी फ़िल्मों में काम करें. मगर आख़िर में यश चोपड़ा के समझाने पर वह मान गए. इस फ़िल्म के लिए ख़्य्याम को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार मिला था. 'कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है'... गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का साहिर लुधियानवी और सर्वश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार मुकेश को मिला था. यह गीत उस साल रेडियो सीलोन पर आने वाले प्रोग्राम में शीर्ष पर रहा था. इसके अलावा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए अमिताभ, अभिनेत्री के लिए राखी, सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री के लिए वहीदा रहमान और सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता के लिए शशि कपूर और सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए सागर सरहदी को नामांकित किया गया था.

दरअसल, हिंदी फ़िल्में हमारी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं. ये मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम होने के साथ-साथ विभिन्न दौर के सामाजिक परिवेश को भी ब़खूबी पेश करती हैं. पिछले दिनों राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रहलाद अग्रवाल की किताब रेशमी ख्वाबों की धूप-छांव पढ़ी. इसमें फ़िल्म निर्देशक यश चोपड़ा की फ़िल्मों के विभिन्न पहलुओं को इतने रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि पाठक ख़ुद को इन फ़िल्मों के किरदारों के बेहद क़रीब पाता है. इसमें यश चोपड़ा की 1959 में आई फ़िल्म 'धूल का फूल' से लेकर 2004 में आई फ़िल्म 'वीर ज़ारा' तक के बारे में दिलचस्प जानकारी दी गई है. यश चोपड़ा ने हिंदी सिनेमा में निर्देशकों की तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है. जब उनकी पहली फ़िल्म 'धूल का फूल' प्रदर्शित हुई, तब महमूद, बिमल राय, राजकपूर, गुरुदत्त, विजय आनंद आदि का दौर था. 1973 में जब उन्होंने दाग़ के साथ यशराज फ़िल्म फिल्म्स की शुरुआत की, तब व्यापारिक परिदृश्य में मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, मनोज कुमार, श्याम बेनेगल, गुलज़ार, बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, गोविंद निहलानी और सई परांजपे आदि फिल्मकारों की बहुआयामी पीढ़ी थी, जो हिंदी सिनेमा को एक नया मोड़ देने की कोशिश कर रही थी.

अब वह सूरज बड़जात्या, करण जौहर, संजय लीला भंसाली, राम गोपाल वर्मा और आशुतोष गोवारिकर की पीढ़ी के साथ सृजनरत हैं. वह दर्शकों को रेशमी ख़्वाबों की दुनिया में ले जाते हैं. उनके प्रेम संबंध तर्क की सीमाओं से बाहर खड़े हैं. उनका कौशल यह है कि वह इस अतार्किकता को ग्राह्य बना देते हैं. वह समाज में हाशिये पर पड़े रिश्तों को गहन मानवीय संवेदना और जिजीविषा की अप्रतिम ऊर्जा से संचारित कर देते हैं. वह अपनी पहली फ़िल्म 'धूल का फूल' से लेकर 'वीर ज़ारा' तक अनाम रिश्तों की मादकता से अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे हैं. यश चोपड़ा संपूर्ण मानवीय चेतना के मुक़ाबले प्रेम की अनन्ता को अपने समूचे सिनेमा में स्थापित करते हैं. उन्होंने अपने लंबे निर्देशकीय रचनाकाल में विभिन्न भावभूमिकाओं पर आधारित कथानकों पर फ़िल्में बनाईं, तब भी वह मूल रूप से मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनके बीच गुंथी संवेदनाओं को उकेरने वाले फ़िल्मकार सबसे पहले हैं.

1976 में प्रदर्शित फ़िल्म 'कभी-कभी' यश चोपड़ा की शहद से मीठी फ़िल्म है. कहा गया कि इसके नायक के व्यक्तित्व का आधार साहिर लुधियानवी थे. यही बात गुरुदत्त की कालजयी कृति प्यासा के लिए भी कही गई थी, पर इन दोनों ही संदर्भों में सच्चाई यह है कि दोनों फ़िल्मों के नायक साहिर की तरह कवि और शायर थे. वे भी अपने प्यार को पाने में नाकाम रहे थे. इसके आगे साहिर की निजी ज़िंदगी और इन फ़िल्मों का शायद ही कोई संबंध हो. चूंकि इन दोनों फ़िल्मों के गीत भी साहिर ने ही लिखे थे और इनमें उनकी पहले से लिखी नज़्मों का बहुत ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया गया था, इसलिए इस तरह की संभावनाएं खोज लेना आम बात थी. साहिर का अस्तित्व सिर्फ़ सिनेमा में ही नहीं था, बल्कि वह उर्दू अदब की एक बड़ी शख्सियत थे. साहिर ज़िंदगी भर अविवाहित रहे और उन्होंने अपना दबदबा फ़िल्मी दुनिया में क़ायम रखा. उनका नाम जिस फ़िल्म से जुड़ता था, उसमें वह सर्वोपरि होते थे. वह सिनेमा स्टार की तरह रहे, कवि या शायर की तरह नहीं. साहिर ने कभी घुटने नहीं टेके, न कविता में और न सिनेमा के ऐर्श्व के बीच. पीढ़ियों को लांघने वाली इस प्रेमकथा में यश चोपड़ा ने अमिताभ बच्चन को उनकी स्थापित छवि एंग्री यंगमैन के बिल्कुल विरुद्ध एक संवेदनशील प्रेमी में तब्दील कर दिया था, उसे आमजन के बीच स्वीकार्य भी बना दिया था. 1975 से 1992 तक इस तरह की भूमिका में कोई अन्य निर्देशक जनमानस के बीच अमिताभ बच्चन को स्वीकार्य नहीं बना सका. यश चोपड़ा ख़ुद भी यह सिर्फ़ एक ही बार कर सके. अमिताभ और रेखा के अविस्मरणीय प्रणय दृश्यों के बावजूद सिलसिला को वह सहज लोकप्रिता नहीं मिली, जो कभी-कभी के हिस्से आई थी. सिलसिला का दिल को छू लेने वाला मधुर संगीत लोकप्रिय और श्रेष्ठ होने के बाद भी उस तरह जन-जन तक मन की हूक बनकर नहीं घुला-मिला, जैसे कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है...

फ़िल्म 'दिल' की कहानी में कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसे नया कहा जा सके. कॉलेज में लड़का-लड़की मिलते हैं, प्रेम होता है, शेर-ओ-शायरी चलती है, फिर लड़की के मां-बाप उसकी शादी कहीं और कर देते हैं. प्रेमी-प्रेमिका की अलग-अलग शादियां हो जाती हैं और उनके बच्चे आपस में प्यार करने लगते हैं. फ़िल्म की पूरी ताक़त उसके शुरुआती दस मिनट हैं. अगर उन्हें निकाल दिया जाए तो पूरी फ़िल्म नीरस हो जाएगी. इन दस मिनटों के सृजन में साहिर लुधियानवी, लता-मुकेश और खय्याम, अमिताभ बच्चन और राखी, यश चोपड़ा और सागर सरहदी के साथ ही सिनेमैटोग्राफर केजी की अप्रतिम प्रतिभाओं के समायोजन का कमाल देखा जा सकता है. नदी की कलकल धारा की तरह बहते हुए हंसते-खिलखिलाते-गुनगुनाते-मुस्कराते और मौन बनकर भी गूंजते दस मिनट ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के बीच से गुज़रता नायक और सुबह, दोपहर, शाम, रात को एक-दूसरे से मिलते और बाहर निकलते नज़ारे और गुनगुनाहटों में फूटता हुआ स्वर:-
कल नई कोपलें फूटेंगी
कल नए फूल मुस्कराएंगे
और नई घास के नए फ़र्श पर
नये पांव इठलाएंगे
वो मेरे बीच नहीं आए
मैं उनके बीच में क्यूं आऊं
उनकी सुबहों और शामों का
मैं एक भी लम्हा क्यूं पाऊं
मैं पल दो पल का शायर हूं
पल दो पल मेरी कहानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है
पल दो पल मेरी जवानी है...
इन गुनगुनाहटों में डूबा नायक अब कॉलेज की सोशल गैदरिंग के मंच पर पहुंच कर गीत गा रहा है. अमिताभ बच्चन की आवाज़ अब मुकेश की आवाज़ में घुल-मिल गई है. सामने नायिका बैठी हुई है और वाहवाहियों के बीच गीत जारी है.

नायिका नायक के गीत पर मुग्ध है और उससे ऑटोग्राफ मांगती है. नायक हतप्रभ है. शायद इसलिए कि ऐसा अवसर उसकी ज़िंदगी में पहली बार आया है कि कोई उससे ऑटोग्राफ मांगे. जब वह ऑटोग्राफ देते हुए उसका नाम पूछता है तो नायिका कहती है कि उसका नाम पूजा है. नायक का जवाब होता है, तो मुझे पुजारी समझिए. इसी तरह विवाह के बाद नायिका का पति भी कहता है कि क मेरा पुजारी नहीं हो सकता? नायिका के लिए एक नहीं, दो मुक़ाम हैं, जहां वह ईश्वरी पवित्रता का रूप रखती है. प्रेमी और पति दोनों के लिए वह पवित्रता और अपनत्व की पराकाष्ठा है. नायक आरंभ में कहता है:-
हम किए जाएंगे चुपचाप तुम्हारी पूजा
कोई कल दे के न दे हमको हमारी पूजा...

वे लगातार मिलते हैं और अनगिनत ख़्वाब बुन डालते हैं. प्रेमियों का इरादा है कि वे कभी नहीं बिछड़ेंगे. ज़िंदगी भर ऐसे ही हसीन मंज़र रहेंगे. इसी ख्वाहिश के बीच यह गीत गूंजता है:-

कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है...
के जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिये 
तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं 
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिये 
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
कभी कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
के ये बदन ये निगाहें मेरी अमानत हैं
ये गेसुओं की घनी छांव हैं मेरी ख़ातिर
ये होंठ और ये बाहें मेरी अमानत हैं
कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
कभी-कभी मेरे दिल में, ख़याल आता है
के जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूं ही 
उठेगी मेरी तरफ़ प्यार की नज़र यूं ही 
मैं जानता हूं के तू ग़ैर है मगर यूं ही
कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
कभी-कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
के जैसे बजती हैं शहनाइयां सी राहों में
सुहाग रात है घूंघट उठा रहा हूं मैं 
सिमट रही है तू शरमा के मेरी बाहों में
कभी-कभी मेरे दिल में,ख़्याल आता है...

इसके बाद हम देखते हैं कि राखी और शशि कपूर की शादी हो रही है और नायक दूर एक पेड़ से टिका हुआ दोनों हाथ अपनी जेब में डाले मानो आसमान से सवाल-जवाब कर रहा है. यह बिछड़ना उसका ख़ुद का चुना हुआ है. उसने तो लड़की के मां-बाप के सामने एक बार भी अपना पक्ष तक नहीं रखना चाहा. वह प्रेमिका से ही नहीं, उस काव्यात्मकता से भी दूर हो गया है, जो उसके जीवन का आधार थी. हम यह भी देखते हैं कि फ़िज़ां में शादी की ख़ुशियों के गीत गूंज रहे हैं:-
सुर्ख़ जोड़े की यह जगमगाहट
शोख़ बिंदिया की यह झिलमिलाहट
चूड़ियों का यह रंगीन तराना
धडकनों का यह सपना सुहाना
जागा-जागा कजरे का जादू
धीमी-धीमी सी गजरे की ख़ुशबू...
यह काव्यात्मकता ही पूरी फ़िल्म महक का आधार है. यह एक ऐसी फ़िल्म है, जिसे बार-बार देखने को जी चाहता है...

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