पवन कुमार सिन्हा और भुवन कुमार
 80 वर्ष की हड्डियों में, जगा जोश पुराना था,
सभी कहते हैं कुंवर सिंह, बड़ा वीर मरदाना था.

यह बात उस समय की है जब 1777 में भारत पर मुगलों का शासन था. यह वही दौरथा जब अंग्रेजी हुकूमत व्यवसाय की आड़ में हिंद की सरजमीं पर अपनी पकड़ धीरे-धीरेमजबूत कर रही थी. देखते ही देखते अंग्रेजी हुकूमत ने देश के तमाम राजकीय और शासकीयव्यवस्थाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया और 1857 तक आते-आते अंग्रेजी हुकूमत केपरचम हर जगह लहराने लगे. लेकिन अंग्रेजों की भू-राजस्व नीतियों, धार्मिक-सामाजिकहस्तक्षेप के साथ-साथ उनकी दमनकारी व अत्याचार की प्रवृत्ति ने अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्धस्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी को सुलगाने में मदद की. इसी समय बैरकपुर में वीर क्रांतिकारीसैनिक मंगल पाण्डे द्वारा किए गए विद्रोह और उसके बाद उन्हें दी गई फांसी तथा मेरठ मेंभारतीय सिपाहियों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह ने चिंगारी का काम किया और इसके बाद1857 के प्रसिद्ध सिपाही विद्रोह को आग बनते देर न लगी. यह विद्रोह सारे भारत में जंगल कीआग की तरह फैल गया. इस आग में कूदने वाले पहले संग्रामियों में से बिहार के एक ऐसे वीरभी थे जो अपनी उम्र के अंतिम ढलान पर होने के बावजूद अंग्रेजो से डटकर लोहा लिया - वे थेवीर कुंवर सिंह. आजादी की इस पहली लड़ाई के समय कुंवर सिंह की उम्र 80 वर्ष की थी.

बिहार के जगदीशपुर इलाके में जो अब भोजपुर कहलाता है, शाही राजपूताना परिवारके उज्जैनी भवन में कुंवर सिंह का जन्म हुआ था. कुंवर सिंह बचपन से ही दिलेर, नीडर औरफौलादी थे. घुड़सवारी और तलवारबाजी में वे निपुण तो थे ही, उम्र के साथ-साथ मार्शल आर्टमें भी कुंवर सिंह ने महारत हासिल कर ली थी. यही नहीं वीर शिवाजी के बाद कहते हैं कि एककुंवर सिंह ही थे, जिन्हें गुरिल्ला युद्ध की सभी तकनीकों की पूरी जानकारी थी, जिसके द्वाराउन्होंने अंग्रेजी फौज के छक्के छुड़ा दिए.

कुंवर सिंह उन गिने-चुने स्वतंत्रता सेनानियों में से थे जिन्होंने 1857 में दिल्ली,लखनऊ, कानपुर आदि पर अंग्रेजों का पुन: कब्जा हो जाने के बाद भी सन् 1858 की प्रथमतिमाही तक इस सशस्त्र क्रांति की मशाल को जलाए रखा था. आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिएकुंवर सिंह ने नोखा, बरांव, रोहतास, सासाराम, रामगढ़, मिर्जापुर, बनारस, अयोध्या, लखनऊ,फैजाबाद, रीवा, बांदा, कालपी, गाजीपुर, बांसडीह, सिकंदरपुर, मानियर और बलिया का दौराकिया और संगठन खड़ा किया था.

आजादी की इस पहली लड़ाई में कुंवर सिंह का वास्तविक पदार्पण उस वक्त होता हैजब 25 जुलाई, 1857 को दानापुर छावनी के कुछ क्रांतिकारी सैनिक उनके पास जगदीशपुरआते हैं और उनसे इस महासमर में नेतृत्व करने की गुजारिश करते हैं. कुंवर सिंह उनकी बातस्वीकार कर लेते हैं और उन्हें विद्रोही सैनिकों का नेता घोषित किया जाता है.

कुंवर सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी सैनिकों ने सबसे पहले आरा पर धावा बोला.उन्होंने आरा के अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया और जेलखाने पर धावा बोल कैदियों कोरिहा कराया. क्रांतिकारी सैनिकों ने अंग्रेजी हुकूमत के कार्यालयों को धवस्त कर आरा के किलेको पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया.

आरा पर कब्जे की इस घटना ने अंग्रेजों को सकते में डाल दिया. तब अंग्रेजी सरकारने कैप्टन डनवर के नेतृत्व में दानापुर छावनी से पांच सौ सैनिकों की टुकड़ी को आरा परआक्रमण करने के लिए भेजा. कुंवर सिंह ने इस टुकड़ी से जमकर लोहा लिया. आरा के इसयुद्ध में अंग्रेजों को भारी शिकस्त मिली और कैप्टन डनवर क्रांतिकारी सैनिकों के हाथों मारागया. कुंवर सिंह के लिए यह बड़ी जीत थी. इस जीत ने क्रांतिकारियों में नया जोश भर दिया.अब आरा किले और नगर पर कुंवर सिंह की क्रांतिकारी सेनाओं का एक बार फिर कब्जा होगया.

हालांकि आरा पर कुंवर सिंह का नेतृत्व लम्बे समय तक नहीं रह सका. अपनीपराजय से बौखलाए अंग्रेजी सरकार ने मेजर विंसेट की अगुवाई में आरा पर आक्रमण करनेका आदेश दिया. इस बार पूरी तैयारी और भारी फौज के साथ आए मेजर विंसेट के सामनेकुंवर सिंह की क्रांतिकारी सेना ज्यादा समय तक टिक न सकी. युद्ध में कुंवर सिंह और उसकीछोटी सी सेना पराजित हो गयी तथा अंग्रेजों ने आरा पर पुनः कब्जा कर लिया.

आरा के पतन के बाद कुंवर सिंह ने गुरिल्ला युद्ध पद्धति का अनुसरण करते हुए अपनीसेना के साथ जगदीशपुर की ओर बढ़ चले. लेकिन मेजर आयर उनका पीछा करते हुएजगदीशपुर पहुंच गया और वहां उसने महल पर कब्जा कर उसमें आग लगा दी. हालांकि,कुंवर सिंह यहां से बच निकलने में कामयाब रहें. वे सैकड़ों सैनिको और बच्चों व स्त्रियों केसाथ सासाराम होते हुए रोहतास चले गए. यहां कुंवर सिंह को रामगढ़ बटालियन के विद्रोहीसैनिकों का साथ मिला. इन सैनिकों को साथ लेकर वे लखनऊ की ओर बढ़ चले. लखनऊ केनवाब ने कुंवर सिंह को शाही पोशाक, हजारों रुपए तथा आजमगढ़ के किले का फरमान देकरविदा किया.

कुंवर सिंह ने नाना साहब के साथ मिलकर कानपुर की लड़ाई में हिस्सा लिया. 29नवंबर, 1857 को कानपुर में कब्जे के समय तांत्या टोपे, नाना साहब के साथ कुंवर सिंह भीडिवीजनल कमांडर थे. कानपुर की लड़ाई में कुंवर सिंह की भूमिका उल्लेखनीय रही औरउनकी वीरता ने सबको प्रभावित किया. कानपुर की विजय के बाद नाना साहब को यहांपदस्थापित कर कुंवर सिंह आजमगढ़ की तरफ बढ़ चले.

आजमगढ़ पर अधिकार करने के क्रम में अतरौलिया के मैदान में 22 मार्च, 1858 कोकर्नल मिलमैन के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना के साथ कुंवर सिंह का भीषण संघर्ष हुआ.अंग्रेजी कमांडर मिलमैन ने कुंवर सिंह की सेना पर हमला बोल दिया. हमला होते ही कुंवरसिंह की सेना ने पीछे हटने की रणनीति अपनाई. अंग्रेजी सेना कुंवर सिंह को खदेड़कर एकबगीचे में आ पहुंची. फिर जिस समय मिलमैन की सेना भोजन करने में जुटी थी, उसी समयकुंवर सिंह की सेना ने अचानक धावा बोल दिया. मिलमैन अपने बचे-खुचे सैनिकों को लेकरवहां से भाग खड़ा हुआ. इसके बाद आजमगढ़ के किले पर कुंवर सिंह का अधिकार हो गया.

आजमगढ़ पर कुंवर सिंह के अधिकार की खबर ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए.तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कैंनिंग ने जवाबी कार्रवाई करते हुए इलाहाबाद से लार्ड काकेतथा लखनऊ से लुगार्ड को आदेश दिया कि वे सेना की बड़ी फौज के साथ आजमगढ़ पर चढ़ाईकरे. भीषण संघर्ष के बाद अंग्रेजी सेना का आजमगढ़ किले पर पुनः अधिकार हो गया. लेकिनवे कुंवर सिंह को पकड़ नहीं पाए. डगलस के नेतृत्व में अंग्रेजी सैनिको ने कुंवर सिंह का पीछाकिया लेकिन वे भाग निकलने में कामयाब रहे.

आजमगढ़ से बच निकलने के बाद कुंवर सिंह 20 अप्रैल, 1858 को गाजीपुर केमन्नोहोर गांव पहुंचे. गांव की जनता ने उनका विजेता के रूप में स्वागत किया. गांववालों नेकुंवर सिंह और उनके सैनिकों को गंगा नदी पार कराने के लिए नौका की व्यवस्था की ताकि वेजगदीशपुर के लिए कूच कर सकें. इसी बीच डगलस के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने पुनःआक्रमण कर दिया. डगलस की सेना से लड़ते हुए कुंवर सिंह और उनके वीर सैनिक आगेबढ़ते रहे. अन्त में कुंवर सिंह की सेना गंगा के पार पहुंचने में सफल रही लेकिन अंतिम नावमें सवार हो नदी पार कर रहे कुंवर सिंह के दाहिने बांह में गोली लग गई. कुंवर सिंह नेलहुलुहान और बेजान पड़े हाथ को अपनी तलवार से काटकर गंगा नदी में प्रवाहित कर दियाऔर घाव पर कपड़ा लपेटकर गंगा पार कर गए.

इस वयोवृद्ध वीर योद्धा के इसी साहस और पराक्रम को किसी कवि ने निम्न पंक्तियों में उकेरा है–
सिंहन को सिंह शूरवीर कुंवर सिंह,
गिन गिन के मारे फिरंगी समर में.
कछुक तो मर गये, कछुक भाग घर गए,
बचे खुचे डर गए गंगा के भंवर में.

कटे हुए बाजू और घायल अवस्था में कुंवर सिंह अंग्रेजों से लोहा लेते हुए 22 अप्रैल, 1858 को अपने गांव जगदीशपुर पहुंचे. यहीं पर उनकी मुठेभड़ कैप्टन ली ग्रैंड के नेतृत्व मेंअंग्रेजी सेना से होती है. इस भीषण मुठभेड़ में अंग्रेजों को मुहं की खानी पड़ी. 22 अप्रैल कोजगदीशपुर और उसके किले पर कुंवर सिंह ने पुन: अधिकार कर लिया. लेकिन उनके कटेहाथ के घाव का जहर तेजी से बढ़ रहा था जिसके परिणामस्वरूप अपने जीवन के इस अंतिमयुद्ध में विजय प्राप्त करने के तीन दिन बाद ही 26 अप्रैल, 1858 को इस महान वयोवृद्ध पराक्रमीविजेता की मृत्यु हो गई.

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में प्रसिद्ध 1857 की क्रांति निश्चित तौर पर विभिन्नचुनौतियों के कारण अपने लक्ष्य को शत-प्रतिशत हासिल नहीं कर सकी लेकिन इस क्रांति मेंऐसे योद्धाओं की भूमिका ने साबित कर दिया कि तमाम अभावों के बावजूद भी अदम्यइच्छाशक्ति हमें सफलता दिला सकती है. कुंवर सिंह के इस पराक्रम ने जगदीशपुर से लेकरवर्तमान उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग के जनमानस को लंबे समय तक अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्धसंघर्षरत रहने को प्रेरित किया. समानांतर रूप से उनकी राष्ट्रीय भावना, त्याग व बलिदानतथा कूटनीतिक दूरदर्शिता ने भावी स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी प्रेरणास्त्रोत का कामकिया. यही कारण है कि उनके असीम उत्साह एवं लड़ाकू प्रवृति को देखते हुए किसी ने कहा है- “अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था, सब कहते हैं कुंवर सिंह वीर मर्दाना था.“

आजादी के 70 साल पर ऐसे महापुरुष, महावीर को सत्-सत् नमन है.
(लेखक पत्र सूचना कार्यालय, पटना में सूचना सहायक हैं)

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