फ़िरदौस ख़ान
किसान अब खेती के नित नये आधुनिक तरीक़े इस्तेमाल कर रहे हैं. इन्हीं में से एक है प्लास्टिक मल्चिंग. खेत में पौधों के आसपास की ज़मीन को प्लास्टिक की शीट से ढकने को प्लास्टिक मल्चिंग कहा जाता है. दरअसल, मल्च प्लास्टिक की शीट है. प्लास्टिक मल्चिंग कई रंगों की होती है, जैसे काली, नीली और पारदर्शी. इसके अलावा कभी-कभी दो रंगों की शीट भी इस्तेमाल में लाई जाती है, जैसे सफ़ेद/काली, सिल्वर/काली, लाल/काली या फिर पीली/भूरी. इस शीट को फ़सल बुआई से पहले खेत में ड्रिप सिंचाई के लिए बनाए मिट्टी के बैड या क्यारियों में बिछाया जाता है. इसके कई फ़ायदे हैं. इससे उत्पादन में 30 फ़ीसद तक बढ़ोतरी देखी गई है. पहली बार मेहनत तो लगती है, लेकिन उसके बाद किसानों को बहुत से फ़ायदे मिलते हैं. प्लास्टिक के ऊपर से सफ़ेद, सिल्वर या गोल्डन कलर का होने की वजह से वाष्पीकरण कम होता है और मिट्टी में ज़्यादा वक़्त तक नमी बनी रहती है. यह मिट्टी के कटाव को भी रोकती है. ड्रिप सिंचाई से मिट्टी पर परत नहीं जमती. मिट्टी भुरभूरी होने से पौधा अच्छी तरह पनपता है. किसानों को निंदाई-गुड़ाई और कीटनाशक छिड़काव से भी निजात मिल जाती है. खाद और रसायनों का कम इस्तेमाल करना पड़ता है, जिससे लागत में कमी आती है. प्लास्टिक कवर की वजह से खरपतवार नहीं उगता, जिससे किसान को ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती. कीटनाशक भी एक ही जगह से ड्रिप के ज़रिये सीधे पौधों तक पहुंच जाता है. मिट्टी में उर्वरक लंबे अरसे तक सुरक्षित रहते हैं. इतना ही नहीं हानिकारक कीटों की आशंका भी कम होती है. सबसे ख़ास बात इससे पानी की बचत होती है. देश में 60 फ़ीसद कृषि भूमि सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर है. ऐसे में भारत के लिए यह पद्धति किसी वरदान से कम नहीं है.

किसानों का रुझान खेती की उन्नत पद्धतियों की तरफ़ बढ़ा है, जिससे उन्हें ख़ासा फ़ायदा हुआ है. इज़राइल की तर्ज़ पर जल संकट से जूझ रहे किसानों ने खेती में ड्रिप प्लास्टिक मल्चिंग पद्धति अपनानी शुरू कर दी है. मध्य प्रदेश के रतलाम ज़िले के गांव रियावन में प्लास्टिक मल्चिंग से लहसुन की खेती की जा रही है. गांव के किसान अरविंद धाकड़ के मुताबिक़ उन्होंने दो एकड़ में प्लास्टिक मल्चिंग पद्धति से लहसुन की फ़सल उगाई है. इससे उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है. अब 55 से 60 क्विंटल लहसुन का उत्पादन हो रहा रहा है, जबकि पहले 40-45 क्विंटल ही लहसुन का उत्पादन होता था.
बिहार के गांव चम्पारण के किसान शोभाराम साहू भी अपने खेत में मल्चिंग पद्धति का इस्तेमाल कर ज़्यादा उत्पादन ले रहे हैं. उनका कहना है कि इससे जहां उन्हें ज़्यादा उत्पादन मिल रहा है, वहीं पानी भी कम लग रहा है. वह धान के अलावा गन्ना, करेला, भाटा, सेम, मिर्ची, टमाटर, तरोई, पपीता, नारियल, केले की फ़सल ले चुके हैं. इतना ही नहीं, उन्होंने अपने खेत में गेंदा और गुलाब की भी खेती की, जिससे उन्हें ख़ासी आमदनी हुई. मल्चिंग पद्धति से खेती करने वाले किसानों का कहना है कि इस पद्धति से खेती करने पर 75 फ़ीसद तक पानी की बचत की जा सकती है. इससे फल अच्छे मिलते हैं, जिससे मंडी में उनकी सही क़ीमत मिल जाती है. 

कॄषि विशेषज्ञों का कहना है कि खेत में प्लास्टिक मल्चिंग करते वक़्त बहुत ही एहतियात बरतना चाहिए. प्लास्टिक शीट ठंडे वक़्त यानी सुबह या शाम को बिछानी चाहिए. शीट को ज़्यादा खींचना नहीं चाहिए. सिंचाई नली को ध्यान में रखते हुए इसमें छेद करना चाहिए. एक बार इस्तेमाल करने के बाद इसे सही तरीक़े से लपेट कर रख देना चाहिए, ताकि इसे बाद में भी काम में लिया जा सके. मल्चिंग पद्धति से खेती के लिए सबसे पहले खेत को बखरनी कर तैयार किया जाता है. फिर एक-एक फ़ीट दूर ज़मीन से छह इंच ऊंचे मिट्टी के पौने तीन-तीन फ़ीट चौड़े बेड बनाए जाते हैं.  एक बेड पर ड्रिप की दो नलियां लगाई जाती हैं. ऊपर चार फ़ीट चौड़ी प्लास्टिक शीट बिछा दी जाती है. इसके दोनों छोर मिट्टी से दबा दिए जाते हैं. फिर प्लास्टिक पर आठ इंच दूर छोटे-छोटे छेद कर दिए जाते हैं. इन छेदों में बीज बोये जाते हैं.

कॄषि विशेषज्ञों का कहना है कि सब्ज़ियों और फलों की खेती में प्लास्टिक मल्चिंग का इस्तेमाल सावधानी से करना चाहिए. जो किसान सब्ज़ियों की खेती कर रहे हैं. वे पहले खेत की जुताई करें, उसमें खाद आदि डाल दें. फिर खेत में क्यारियां बना लें. खेत में ड्रिप सिंचाई की पाइप  बिछा लें. फिर इसके ऊपर प्लास्टिक की शीट बिछा दें. सब्ज़ियों की खेती के लिए  25-30 माईक्रोन मोटाई वाली प्लास्टिक शीट सही रहती है. ध्यान रहे कि शीट के दोनों किनारों को अच्छी तरह से दबा दें, ताकि ये अपनी जगह से हटे नहीं. इसके बाद पौधों की दूरी के हिसाब से इसमें छेद कर दें. इन छेदों में बीज या पौधे लगा दें. बाग़वानी के लिए  अमूमन 100 माईक्रोन मोटाई वाली प्लास्टिक शीट इस्तेमाल करनी चाहिए. फलदार पौधों में इसका इस्तेमाल उनकी छाया के मुताबिक़ किया जाता है. शीट को पौधों के चारों तरफ़ बिछाना चाहिए. सबसे पहले पौधे के चारों तरफ़ की जगह को  साफ़ किया जाना चाहिए. फिर पौधे के चारों तरफ़ एक छोटी नाली बनानी चाहिए, जिससे शीट को आसपास की मिट्टी में दबाया जा सके. शीट को हाथों से पौधों के तने के आसपास अच्छी तरह से लगाना चाहिए. फिर उसके चारों कोनों को सात से आठ इंच तक मिट्टी की परत से दबा देना चाहिए, ताकि वह अपनी जगह से सरके नहीं.

प्लास्टिक मल्चिंग की सही लागत बताना मुश्किल है, क्योंकि फ़सल के हिसाब से क्यारियां पतली और चौड़ी होती हैं. इसके अलावा प्लास्टिक शीट का बाज़ार भाव भी घटता-बढ़ता रहता है. फिर भी एक अनुमान के मुताबिक़ 80 फ़ीसद क्षेत्र के आवरण के आधार पर सब्ज़ी के खेत में प्लास्टिक शीट को बिछाने पर प्रति हेक्टेयर  30 हज़ार रुपये की लागत आती है. इसी तरह 40 फ़ीसद क्षेत्र के आवरण के आधार पर फल वाली फ़सलों में प्लास्टिक शीट बिछाने पर प्रति हेक्टेयर 18 हज़ार रुपये ख़र्च होते हैं. इसमें यंत्रों का इस्तेमाल करने पर ख़र्च बढ़ जाता है. मल्चिंग पद्धति से खेती करने पर उद्यान विभाग द्वारा 50 फ़ीसद अनुदान दिया जाता है. जिन किसानों के पास मशीन नहीं हैं, उन्हें चार हज़ार रुपये अतिरिक्त किराये के रूप में देने होते हैं.

ग़ौरतलब है कि ड्रिप प्लॉस्टिक मल्चिंग पद्धति की शुरुआत सबसे पहले इज़राइल में हुई. इज़राइल में पानी की बहुत कमी है. इसलिए वहां के किसान मल्चिंग पद्धति से खेती करते हैं, ताकि कम पानी की ज़रूरत पड़े.  भारत के किसान इज़राइल जाकर उन्नत खेती का प्रशिक्षण लेते हैं और फिर यहां आकर ख़ुद तो इस पद्धति से खेती करते हैं, साथ ही अन्य किसानों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं. 
क़ाबिले-ग़ौर है कि मल्चिंग पद्धति से खेती करने पर सब्ज़ियों के उत्पादन में 35 से 60 फ़ीसद तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है, जबकि फलों में यह दर 60-65 फ़ीसद है. फलों में सबसे अच्छे नतीजे पपीते में देखे गए हैं. इसकी की उपज में 60 से 65 फ़ीसद तक इज़ाफ़ा हुआ है.
भारत जैसे देश में मल्चिंग पद्धति के प्रचार-प्रसार की बेहद ज़रूरत है, ताकि कम पानी वाले इलाक़ों के किसान खेती से ज़्यादा उत्पादन ले सकें.

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