फ़िरदौस ख़ान
ग़ज़ल अरबी साहित्य की मशहूर काव्य विधा है. पहले ग़ज़ल अरबी से फ़ारसी में आई और फिर फ़ारसी से उर्दू में. वैसे, उर्दू के बाद यह विधा हिंदी में भी ख़ूब सराही जा रही है. ग़ज़ल में एक ही बहर और वज़न के कई शेअर होते हैं. इसके पहले शेअर को मत्तला कहते हैं. जिस शेअर में शायर अपना नाम रखता है, उसे म़खता कहा जाता है. ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेअर को शाहे वैत कहते हैं. एक ग़ज़ल में पांच से लेकर 25 शेअर हो सकते हैं. ग़ज़लों के संग्रह को दीवान कहा जाता है. उर्दू का पहला दीवान शायर कुली क़ुतुबशाह है. इसके बाद तो अनगिनत दीवान आते रहे हैं और आते भी रहेंगे.

अमूमन अरबी और फ़ारसी ग़ज़लें रवायती हुआ करती थीं. इनमें इश्क़ और महबूब से वाबस्ता बातें होती थीं. शुरू में उर्दू ग़ज़ल भी माशूक़ और आशिक़ी तक ही सिमटी हुई थी, लेकिन जैसे-जैसे व़क्त गुज़रता रहा, इसमें बदलाव आता गया और ग़ज़ल में समाज और उसके मसले भी शामिल होने लगे. हिंदी ग़ज़ल ने सामाजिक विषयों को भी बख़ूबी पेश किया. हिंदी के अनेक रचनाकारों ने ग़ज़ल विधा को अपनाया. इन्हीं में से एक हैं कुलदीप सलिल. हाल में उनका ग़ज़ल संग्रह धूप के साये में आया है, जिसे प्रकाशित किया है हिन्द पॉकेट बुक्स ने. इस ग़ज़ल संग्रह की ख़ास बात यह है कि इसमें फ़ारसी लिपी और देवनागरी दोनों ही भाषाओं में ग़ज़लों को प्रकाशित किया गया है. इससे पहले उनके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें बीस साल का सफ़र, हवस के शहर में, जो कह न सके और आवाज़ का रिश्ता शामिल हैं. कुलदीप सलिल हिंदी के अलावा, अंग्रेज़ी में भी कविताएं लिखते हैं. उन्होंने ग़ालिब, इक़बाल, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अहमद फ़राज़ की रचनाओं का हिंदी अनुवाद भी किया है, जिसे साहित्य अकादमी और डीएवी ने पुरस्कृत किया. वे अर्थशास्त्र और अंग्रेज़ी में एमए हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवामुक्त हो चुके हैं.

उनकी शायरी में ज़िंदगी के तमाम रंग देखने को मिलते हैं. आज की भागदौड़ वाली ज़िंदगी और संचार क्रांति के दौर में भी इंसान कहीं न कहीं बेहद अकेला है. हालांकि संचार क्रांति ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है, क्योंकि आप पल भर में सात समंदर पार बैठे व्यक्ति से कभी भी बात कर सकते हैं, लेकिन बावजूद इसके व्यक्ति तन्हा होता गया. तन्हाई के इसी रंग को शब्दों में पिरोते हुए वे कहते हैं-
हंसी हंसी में दर्द कितने, जिनको लोग छिपा लेते हैं
रात-बिरात में दीवारों को दिल का हाल सुना लेते हैं

दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. सादिक़ कहते हैं कि कुलदीप सलिल की ग़ज़लों का एक मिज़ाज है. उनकी ग़ज़लें हिंदी जगत में न केवल पसंद की गईं, बल्कि क़द्र की निगाहों से देखी भी गईं. बाल स्वरूप राही ने अपने एक लेख में हिंदी ग़ज़ल की तीन धाराओं का ज़िक्र किया है. इनमें पहली धारा उर्दू-परक, दूसरी आम-फ़हम और तीसरी हिंदी-निष्ठ बताई गई है. पहली में उर्दू शब्दों का ज़्यादा इस्तेमाल होता है. दूसरी में हिंदी-उर्दू मिश्रित ऐसे शब्दों का इस्तेमाल होता है, जो दोनों भाषाओं में सहर्ष स्वीकार्य हैं. तीसरी धारा में हिंदी संस्कृत के कठिन शब्दों का इस्तेमाल मिलता है. दरअसल, कुलदीप सलिल की भाषा आम फ़हम है, जिसे उर्दू और संस्कृत न जानने वाला हिंदी का आम पाठक बहुत ही आसानी से समझ लेता है. बानगी देखिए-
खेतियां जलती रहीं, झुलसा किए इंसां मगर
एक दरिया बे़खबर जाने किधर बहता रहा 

कुलदीप सलिल खुद कहते हैं कि ग़ज़ल लिखना शायद सबसे आसान और सबसे मुश्किल काम है. आसान, अगर कवि का काम केवल क़ाफिया पैमाई करना है और मुश्किल अगर वह हर शेअर में कोई बात पैदा करना चाहता है. अगर वह चाहता है कि शेअर व्यक्ति और समाज, जीवन और जगत के किसी अन्चीन्हे पहलू को उजागर करे या कुछ नया न भी कहे, तो बात ऐसे कहे कि नई-सी लगे.
कहा बात कर तू ऐसा, कहा इस तरह से कर तू 
कि लगे नई-नई-सी, कोई छोड़े वो असर भी 

क्योंकि नई बातें दुनिया में बहुत कम हैं, इसलिए ग़ज़ल में कहने के ढंग के नयेपन, उसकी ताज़गी और कवि के अंदाज़-ए-बयां की ख़ास अहमियत है. विषय कुछ भी हो, शेअर ढला हुआ होना चाहिए. ग़ज़ल की ख़ास बात यह है कि इसका हर शेअर दिल-दिमाग़ को छूता हुआ, दो मिस्रों में पूरी बात कहता है.
इस क़दर कोई बड़ा हो, मुझे मंज़ूर नहीं 
कोई बंदों में ख़ुदा हो, मुझे मंज़ूर नहीं 
रोशनी छीन के घर-घर से चराग़ों की 
अगर चांद बस्ती में उगा हो, मुझे म़ंजूर नहीं 

दरअसल, ग़ज़ल के इतिहास में एक वक़्त ऐसा भी आया, जब यह धारणा आम होने लगी थी कि आज के जीवन की मुश्किलों से इंसा़फ करने के लिए ग़ज़ल बेहतर विधा नहीं है, लेकिन खास बात यह है कि न सिर्फ़ उर्दू में ग़ज़ल का वर्चस्व क़ायम रहा, बल्कि हिंदी, पंजाबी, गुजराती आदि भाषाओं में भी ग़ज़ल ख़ूब लोकप्रिय हो रही है. इसकी एक वजह यह है कि ग़ज़ल लोगों से सीधे बात करने में यक़ीन करती है. जनमानस के दुख-दर्द और उनकी भावनाओं को ग़ज़ल के ज़रिये पेश करने पर फ़ौरन प्रतिक्रिया मिलती है. ग़ज़ल का शेअर सीधा दिल में उतर जाता है. चंद शेअर देखिए-
कभी दीवार गिरी है, कभी दर होता है 
हर बरस ये मकां बारिश की नज़र होता है 
ज़ुबां कहने से जो डरती रही है 
क़लम ख़ामोश सब लिखती रही है 

कुलदीप सलिल, हिंदी के प्रसिद्ध ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार से काफ़ी मुतासिर हैं, तभी तो उनकी कई ग़ज़लें पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार याद आ जाते हैं, मिसाल के तौर पर कुलदीप सलिल की ग़ज़ल नहर कोई पत्थरों से अब निकलनी चाहिए, दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल हो गई है पीर पर्वत-सी अब पिघलनी चाहिए, की याद दिलाती है. बहरहाल, यह काव्य संग्रह हिंदी और उर्दू भाषी दोनों ही तरह के पाठकों को पसंद आएगा, क्योंकि इसके एक पेज पर देवनागरी में ग़ज़ल है, तो सामने वाले दूसरे पेज पर वही ग़ज़ल फ़ारसी लिपी में भी मौजूद है. किताब का जामुनी रंग का बेहद ख़ूबसूरत आवरण भी फूलों से सजा हुआ है, जो बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है. कुल मिलाकर यह एक बेहतर ग़ज़ल संग्रह है, जिसे पढ़कर ताज़गी का अहसास होता है.

समीक्ष्य कृति : धूप के साये में
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स

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