राहुल टंडन
भारत के कोलकाता शहर के बीचों-बीच स्थित ज्यूइश गर्ल्स स्कूल की छात्राओं के लिए ये एक व्यस्त समय है. इनमें से कई अपनी वार्षिक परीक्षा दे रही हैं.

उन सबने बड़े सलीके से स्कूल यूनिफॉर्म पहन रखी हैं. उनके स्कूल ड्रेस की ब्लाउज़ पर 'स्टार ऑफ़ डेविड' की निशानी बनी हुई है लेकिन 'सलवार कमीज़' या 'बुर्का' पहने हुईं उनकी माएँ स्कूल के बाहर घबराई हुई सी इंतज़ार कर रही हैं.
यहाँ पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे अब मुसलमान हैं और कुछ ही लोगों को शायद यह याद हो कि आखिरी बार कब इस स्कूल में कोई यहूदी छात्र पढ़ने के लिए आया था.
दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से गिने जाने वाले इस शहर के ज्यादातर लोगों की तरह वे भी कोलकाता के यहूदियों के बारे में बहुत कम जानते हैं. हालांकि ज़िंदगी के पाँच दशक देख चुकीं जाइल सिलिमन इसे बदलने की कोशिश कर रही हैं.
इससे पहले कि ये समुदाय पूरी तरह से लुप्त हो जाए, जाइल कोलकाता के यहूदियों के इतिहास को रिकॉर्ड कर उनका डिजिटल आर्काइव तैयार कर रही हैं.
जाइल इस समुदाय की नौजवान पीढ़ी का हिस्सा हैं. कोलकाता के यहूदी समाज के सदस्यों की ओर से भेजी गई तस्वीरों से उनका इनबॉक्स भर गया है. ये लोग अब दुनिया भर में बिखरे हुए हैं. एक वक्त था जब ये समुदाय फलता-फूलता हुआ था.
कोलकाता शहर
कोलकाता आने वाले पहले यहूदी शालोम कोहेन थे जो साल 1798 में सीरिया से आए थे.
उनकी आर्थिक सफलता ने इराक़ से दूसरे लोगों को यहाँ आने के लिए प्रेरित किया और दूसरे विश्व युद्ध के आते-आते यहाँ पाँच हज़ार से भी ज्यादा लोग रहने लगे थे लेकिन अब यहां 25 से भी कम यहूदी रह गए हैं जो कोलकाता शहर को अपना घर मानते हैं.
जाइल कहती हैं, "जब यह साफ हो गया कि ब्रितानी भारत से चले जाएंगे तो कई लोग चले गए. उन्हें इस बात की फिक्र थी कि भारत में कल क्या होगा? और जैसे ही कुछ लोगों ने जाना शुरू किया बाकी लोग उनके पीछे हो लिए."
भारत से चले गए यहूदियों ने अपने पीछे एशिया के सबसे बड़े उपासनागृहों में से एक को कोलकाता में छोड़ दिया है.
'दी मैगन डेविड' का निर्माण साल 1880 में कराया गया था. इसके डिजाइन पर उन ब्रितानी चर्चों का गहरा असर देखा जा सकता है जो उस दौर के कोलकाता में बनाए जा रहे थे. इसमें एक मीनार भी है जो यहूदी उपासनास्थलों के लिए एक असामान्य बात है.
जाइल सिलिमन कहती हैं, "यहूदी समुदाय को बगदाद में मौजूद अपने नेताओं से इसके बारे में लिख कर इजाज़त लेनी पड़ी थी. और ये इजाज़त दी गई तो इस शर्त के साथ दी गई कि ये मीनार आस-पास की सभी इमारतों से ऊँची होगी."
यह उपासना स्थल जो कभी कोलकाता के विविधता भरे यहूदी समाज की जिंदगी का एक प्रमुख हिस्सा हुआ करता था, अब खाली पड़ा हुआ है.

भारतीय होना
इसके गेट के बाहर सड़क पर दुकान लगाने वाले लोग सोचते हैं कि यह एक चर्च है.
जब मैंने उन्हें ये बताया कि ये वास्तव में यहूदियों के उपासना करने की जगह है तो वह चकराए हुए से दिखे. उनमें से एक ने मुझसे पूछा, "क्या तुम ये बात पक्के तौर पर कह सकते हो?"
लेकिन तभी उसका दोस्त कहता है, "वह सही है. यही वह इमारत है जिसकी देखभाल राबुल खान करते हैं."
जब आप इसके गेट से भीतर जाते हैं तो आपकी मुलाकात इस यहूदी उपासना स्थल के मुसलमान केयर टेकर से होती है. राबुल खान का परिवार पीढ़ियों से 'मैगन डेविड' की देखभाल कर रहा है.
मेरे हाथ में यहूदियों की टोपी 'किपाह' देते वक्त वह मुस्कुाए मानो उन दिनों को याद कर रहे हों जब यहाँ प्रार्थनाएँ पूरे तौर-तरीके के साथ की जाती थीं और जिसे राबुल 'नमाज़' कहते हैं.
और जब मैं वहाँ से निकल रहा था तो राबुल ने मुझे इशारे से रुकने के लिए कहा.उसने पूछा, "क्या आपको लगता है कि वे वापस आएंगे?"
मुझे समझ में नहीं आया कि किस तरह से इसका जवाब देना चाहिए. मैंने बस अपने कंधे झटक दिए. वह कहता है, "कोई बात नहीं, जब तक कि वह नहीं आते हैं मैं इस जगह की देखरेख उनके लिए करता रहूंगा."
कोलकाता वापस लौटने वालों में से एक जाइल की माँ फ्लावर सिलिमन भी हैं. उनकी उम्र 80 पार कर चुकी हैं लेकिन उनकी ऊर्जा 40 बरस के किसी व्यक्ति सरीखी है.
उन्होंने अमरीका और इसराइल में घर बनाने के लिए कोलकाता छोड़ा था लेकिन वह हमेशा अपने जन्म स्थान को याद करती रहीं. उनके लिए भारतीय होना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि एक यहूदी होना.

ऐतिहासिक विरासत
वह अपनी शुरुआती जिंदगी को एक ऐसे डरे-सहमे यहूदी के तौर बयान करती है जिन्होंने खुद को एक दायरे में कैद कर रखा हो.
नौकरों को छोड़ दें तो वह जितने लोगों को जानती थीं, वे सभी यहूदी थे क्योंकि उनके माँ-बाप इस बात को लेकर सशंकित रहते थे कि वे कहीं स्थानीय लोगों के साथ घुल मिल न जाएं. लेकिन फ्लावर को ये सब पसंद न था और उन्होंने इसका विरोध करना शुरू कर दिया.
उन्होंने हिंदी सीखने पर जोर दिया न कि फ्रेंच. और जब वह दिल्ली में कॉलेज की अपनी पढ़ाई कर रही थीं तो वह भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल हो गईं.
उन्होंने बड़ी संजीदगी के साथ याद किया कि हावड़ा रेलवे स्टेशन पर जब वह भारतीय पहनावे में पहुँची थीं. उन्होंने मुझसे कहा, "मेरी माँ घबरा गई थीं."
फ्लावर कहती हैं, "मेरी माँ के लिए तो यह कुछ ऐसा था कि उनकी बेटी मानो नर्क चली गई हो और उन्होंने मुझे साफ़ कह दिया कि जब तक कि मैं उनकी छत के नीचे रहूंगी, मैं ऐसे कपड़े हरगिज नहीं पहनूंगी."
फ्लावर और यहूदी समुदाय के छह अन्य सदस्य अपने उपासनास्थल, शमशान और स्कूलों के प्रबंधन के तौर तरीकों पर बात करने के लिए महीने में एक बार बैठक करती हैं.
यहाँ पैसे की दिक्कत नहीं है लेकिन समुदाय के इतने कम सदस्य बचे हैं कि यह सब कुछ इतना आसान नहीं रह गया है. वह लोग इस बात से भी वाकिफ हैं कि आने वाले 30 सालों में मुमकिन है कि इस शहर में एक भी यहूदी न बचे.
उन्हें लगता है कि उनके तीन उपासना स्थल और एक कब्रिस्तान इस शहर की ऐतिहासिक विरासत में उनका योगदान है.

ज़िंदा विरासत
लेकिन ज्यूइश गर्ल्स स्कूल को लेकर उन्हें भरोसा है कि उनकी यह विरासत देर तक जिंदा रहेगी.
स्कूल की सेक्रेट्री जोए कोहेन कहती हैं, "यह समुदाय दो सौ साल से भी ज्यादा पुराना है और इस शहर के लोग उनके साथ बहुत अच्छा बर्ताव करते हैं. लड़कियों के लिए स्कूल चलाकर हम कोलकाता शहर को कुछ वापस लौटा रहे हैं."
यहाँ स्कूल की फ़ीस बहुत कम रखी गई है ताकि स्थानीय मुस्लिम समुदाय के लोग अपनी लड़कियों को पढ़ा सकें. जोए कोहेन को उम्मीद है कि अगले ''दो सौ सालों'' में भी जूइश गर्ल्स स्कूल इसी मज़बूती से चलता रहेगा और कोलकाता के लिए उतना ही महत्वपूर्ण रहेगा जितना कि आज है.
आबिदा राज़ेक कभी इसी स्कूल की छात्रा हुआ करती थीं और अब वह यहीं पढ़ाती हैं.
वह कहती हैं, "मुस्लिम अभिभावक इस स्कूल को चलाने के लिए यहूदी समुदाय के बहुत आभारी है. बच्चे यहूदियों के त्यौहार मनाते हैं क्योंकि उनके लिए इसका मतलब स्कूल की एक और दिन छुट्टी होना होता है."
कोलकाता के यहूदी भले ही एक रोज़ गायब हो जाएं लेकिन इस शहर में कुछ वक्त तक ऐसे लोग मिलेंगे जो उनके त्योहार मनाते रहेंगे.
साभार बीबीसी

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