जगदीश्वर चतुर्वेदी
कम्प्यूटर युग में भाषायी असंतुष्ट हाशिए पर हैं। अब हम भाषा बोलते
नहीं हैं बल्कि भाषा में खेलते हैं। ‘बोलने’ से ‘खेलने’ की अवस्था में प्रस्थान कब
और कैसे हो गया हम समझ ही नहीं पाए। यह हिन्दी में पैराडाइम शिफ्ट का संकेत है। इसे
भाषाखेल कहते हैं। इसमें भाषा के जरिए वैधता की तलाश पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा
है। पहले भाषा वक्तृता और संवाद का हिस्सा थी अब वैधता का हिस्सा है। पहले सृजन
कहते थे अब निर्मिति कहते हैं।
आज किताब पढ़ते हैं लेकिन किताब पढ़ते समय उसके लेखक से संवाद नहीं करते। आज हम
एसएमएस पढ़ते हैं, संवाद नहीं करते। आप उस समय सिर्फ संदेश पढ़ते हैं प्रेषक से
संवाद नहीं करते। किताब पढ़ते हैं लेकिन लेखक से संवाद नहीं करते। आज किताबों से
लेकर संदेश तक जो कुछ लिखा जा रहा हैं उसमें लेखक और पाठक न्यूट्रल हो गया है। इसका
अर्थ नहीं है कि आप लिखे पर बहस नहीं कर सकते आप बहस कर सकते हैं। लेकिन कुछ संवाद
ऐसे भी होते हैं जिनका समापन परेशानियों में होता है।
मसलन् ज्योंही कोई किताब छपकर आती है तो यह तय है कि अब इस किताब पर कैसी
प्रतिक्रियाएं आएंगी। ठीक उसी तरह की प्रतिक्रियाएं और समीक्षाएं धडाधड़ आने लगती
हैं। ऐसी अवस्था में संवाद संभव नहीं है। इसे संवाद नहीं कहते। इस बात को थोड़ा आगे
बढ़ाएं तो पाएंगे कि अब किताब पर चर्चा नहीं हो रही है बल्कि किताब को कुछ इस तरह
लिखा ही गया है कि उस पर सनसनीखेज ढ़ंग से बातें होंगी। किताब पर जब सनसनीखेज ढ़ंग
से आलोचकगण अपनी प्रतिक्रिया का इजहार रहे होते हैं तो वे अपनी राय जाहिर नहीं कर
रहे होते बल्कि वे रेहटोरिक बोल रहे होते हैं। रूढिबद्धभाषा बोल रहे होते हैं।
रेहटोरिक में बोलना राय जाहिर करना नहीं है। यह पर्सुएशन की भाषा है । फुसलाने वाली
भाषा है। अनेक मामलों में आलोचक अनियंत्रित रेहटोरिक का इस्तेमाल करते हैं। जैसाकि
इन दिनों नामवर सिंह और अशोक बाजपेयी अमूमन करते हैं। उनकी लिखी और बोली इन दिनों
की अधिकांश समीक्षा और टिप्पणियों में जो भाषा इस्तेमाल हो रही है वह रेहटोरिक की
भाषा है,संवाद की भाषा नहीं है। यह केलकुलेटेड भाषा है। यह काव्यात्मक और साहित्यिक
भाषा है। इस भाषा का संवाद पर कोई असर नहीं पड़ता।
अब लेखक जो लिखता है वह चाहता है उसके लिखे का पाठक पर प्रभाव पड़े लेकिन उस पर
कोई प्रभाव न पड़े। यही वजह है कि किताब आने के बाद पलटकर लेखक से पाठक सवाल नहीं
करता। बल्कि किताब में उठे सवालों से स्वयं जूझता रहता है। लेखक चाहता है कि उसकी
किताब का अन्य पर प्रभाव पड़े और उसे नियंत्रित न किया जाए। यदि आप संवाद के
परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो बात दूसरी होगी।तो पढ़ने वाले या संवाद में भाग लेने
वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपना कोई न कोई बयान देना होगा।
मसलन जब आप इंटरनेट पर ब्लॉग या फेसबुक पर कुछ लिखते हैं या कोई एसएमएस प्राप्त
करते हैं तो अधिकांश मामलों में कोई राय नहीं देते। वस्तु के एसएमएस तो इकतरफा
संदेश का संचार करते हैं जबकि फेसबुक या ब्लॉग लेखन संवाद में शिरकत को बढ़ावा नहीं
देता । अधिकतर लोग पढ़ते हैं और चलते बनते हैं अधिक से अधिक ‘पसंद है’ या ‘नापसंद
है’ के संकेत को दबाया और बात खत्म। यह संवाद नहीं है। यह संवाद की मौत है। संवाद
तब होता है जब आप बयान देते हैं और यह बयान पलटकर लेखक के पास जाता है बाद में उसका
प्रत्युत्तर दिया जाए उसके बाद पता चलेगा कि सचमुच में क्या बयान दिया गया था ?
इंटरनेट नियंत्रित अभिव्यक्ति का माध्यम है। आप चाहें तो किसी संदेश को खोलें या
न खोलें,पढ़ें या न पढ़ें। यहां सब नियंत्रण में है। नियंत्रण में होने के कारण ही
आप किसी भी संदेश के बारे में यह भी सोचते हैं कि क्या यह सही आदमी का संदेश है ?
क्या सचमुच उसी ने भेजा है ? संदेश है तो जरूरी नहीं है कि जेनुइन व्यक्ति ने भेजा
हो। इस पूरी प्रक्रिया में असल में संवाद का ही नियमन हो रहा है। संवाद का संचार
क्रांति के द्वारा नियमन अब आम साहित्यिक विमर्श में चला आया है ,अब स्वतःस्फूर्त्त
प्रतिक्रियाएं नहीं आतीं बल्कि नियोजित और प्रायोजित प्रतिक्रियाएं आती हैं। आप
हमेशा एक ही दुविधा में रहते है कि जो कहा गया वह सत्य है या नहीं ?
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर
हैं)