फ़िरदौस ख़ान
रानी लक्ष्मीबाई ने आख़िरी सांस तक झांसी को बचाने के लिए अंग्रेज़ों से लोहा लिया. बहुत कम उम्र में ही अपने वतन के लिए शहीद होकर वह दुनिया के लिए एक मिसाल बन गईं, उन्होंने जनमानस के मन में क्रांति की जो ज्वाला भड़काई, वह स्वतंत्रता संग्राम के हवन की आहुति बन गई. नतीजतन, 15 अगस्त 1947 को हिंदुस्तान आज़ाद हो गया.  
लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835  को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था.  उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी बाई था. उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका रखा गया, लेकिन सब स्नेह से उन्हें मनु कहकर पुकारते थे. जब वह चार-पांच साल की थीं, तभी उनकी मां का साया उनके सर से उठ गया.  पत्नी की मौत के बाद उनके पिता ने उन्हें माता का लाड-प्यार भी दिया.  मोरोपंत तांबे आख़िरी पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे. दरअसल, वह सिर्फ़ नाम के पेशवा थे. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी उन्हें हर साल आठ लाख रुपये बतौर पेंशन दे रही थी और उन्हें बिठूर की जागीर दी गई थी. मां की मौत के बाद मनु पिता के साथ बिठूर आ गई. वह अपने पिता के साथ दरबार जाती थीं, क्योंकि घर में उनकी देखभाल के लिए कोई नहीं था. अपनी कुशाग्र बुद्धि और चंचलता से उन्होंने सभी का मन मोह लिया.  पेशवा बाजीराव भी मनु से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके. वह उन्हें प्यार से छबीली कहते थे. उन्होंने अपने बच्चों के  साथ ही मनु को भी शिक्षा दिलाई. महज़ सात साल की छोटी उम्र में ही वह घुड़सवारी भी सीखने लगीं. यहीं पर उन्होंने मल्ल युद्ध और अस्त्र-शस्त्र चलाने की विद्या भी सीखी. जिस उम्र में बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, उस उम्र में वह अस्त्र-शस्त्र से खेला करती थीं.

युवा होने पर 1842 में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ. विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया और इस तरह मणिकर्णिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गईं. 1838 में अंग्रेजों ने गंगाधर राव को झांसी का राजा नियुक्त किया था. पूर्व राजा रघुनाथराव के शासनकाल में राजकोष ख़ाली हो चुका था. प्रशासनिक व्यवस्था भी बदहाल थी. गंगाधर राव ने शासन की बागडोर संभालते ही राज्य को सुस्थिर किया. महल में अब गोधन, हाथी और घोड़े अच्छी संख्या में आ गए. शस्त्रागार में शस्त्रों और गोला–बारूद का ख़ासा भंडार हो गया. सेना में पांच हज़ार सैनिक और पांच सौ घुड़सवार थे. इनके साथ ही तोपख़ाना भी था, लेकिन राज्य में ब्रिटिश सेना भी मौजूद थी. सेना पर ख़ज़ाने से 22 लाख सात हज़ार रुपये ख़र्च किए जाते थे. अंग्रेजों और झांसी के राजा के बीच एक संधि हुई थी, जिसके मुताबिक़ जब कभी अंग्रेज़ों को मदद की ज़रूरत होगी, तब झांसी का शासक उनकी मदद करेगा और झांसी का शासक कौन हो, यह तय करने के लिए अंग्रेज़ों की मंज़ूरी लेना ज़रूरी है.

रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था, जो उन्हें पसंद नहीं था. इसलिए उन्होंने क़िले के अंदर ही एक व्यायामशाला बनवाई, जहां घुड़सवारी और शस्त्रादि चलाने के पुख्ता इंतज़ाम थे. यहीं उन्होंने महिलाओं की एक सेना भी तैयार की. राजा गंगाधर राव उनसे बहुत ख़ुश थे. उनकी ज़िंदगी में ख़ुशियों की बहार थी. 1851 में उनका एक बेटा हुआ. राजमहल ही नहीं, पूरे नगर में ख़ुशियां मनाई गईं, लेकिन यह उल्लास ज़्यादा दिन तक नहीं रह पाया, क्योंकि जन्म के कुछ दिन बाद से बच्चा बीमार रहने लगा और चार महीने बाद उसकी मौत हो गई. राजमहल के साथ ही पूरी झांसी शोक के सागर में डूब गई. राजा को झांसी के भविष्य की फ़िक्र सताने लगी और इस चिंता में उनकी सेहत भी ख़राब रहने लगी. उस वक़्त लार्ड डलहौजी का शासन था. जब कुछ राजाओं ने अंग्रेज़ों की मदद लेना मंज़ूर कर लिया, तो बदले में उन पर यह शर्त लगा दी गई कि अगर  संतानहीन रहते हुए राजा की मौत हो जाएगी, तब उस राज्य पर ब्रिटिश शासन लागू हो जाएगा. यहां तक कि अगर कोई राजा लड़के को गोद लेता है, तो उस लड़के को भी शासन करने का अधिकार नहीं होगा. आश्रितों के लिए सालाना पेंशन मुक़र्रर की जाएगी. इस नियम को लागू करके अंग्रेज़ों ने कई राज्यों पर क़ब्ज़ा कर लिया था. अब झांसी की बारी थी.

गंगाधर राव के शुभचिंतकों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी. इस पर राजा ने अपने ही परिवार के पांच साल के एक बच्चे को गोद ले लिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया. अभी झांसी अपना युवराज मिलने की ख़ुशियां भी पूरी तरह नहीं मना पाई थी कि बेटा गोद लेने के दूसरे ही दिन 21 नवंबर 1853 को राजा की मौत हो गई. लक्ष्मीबाई पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. पहले बेटे की मौत हुई, बाद में पति की मौत होने के बाद वह अकेली पड़ गईं. वह एक साहसी महिला थीं, इसलिए उन्होंने अपने दुख को भूलकर ख़ुद को शासन के कामकाज में मसरूफ़ कर लिया.

वह अपनी संतान की तरह ही प्रजा का ख्याल रखती थीं. एक बार की बात है कि रानी लक्ष्मीबाई कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, तभी कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया. ये लोग बहुत ही ग़रीब थे. उनकी हालत को देखकर रानी का मन पसीज गया और उन्होंने  नगर में एक निश्चित दिन ग़रीबों में अनाज और वस्त्र वितरित कराने का ऐलान करा दिया.  ऐसी थीं रानी लक्ष्मीबाई. उनके शासनकाल में प्रजा सुखी थी.  
उस वक़्त हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से पर अंग्रेज़ों का शासन था. झांसी पर अंग्रेज़ों की पहले से ही नज़र थी. राजा गंगाधर राव की मौत के बाद वे मौक़ा तलाश रहे थे.  इसलिए उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया. इतना ही नहीं उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को पत्र भेजा, जिसमें लिखा था कि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसलिए झांसी पर अब ब्रिटिश हुकूमत का अधिकार होगा. पत्र पाकर वह क्रोधित हो गईं और उन्होंने कहा कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी. रानी लक्ष्मीबाई का जवाब पाकर  अंग्रेज़ आगबबूला हो उठे और 23 मार्च 1858 को सर ह्यूरोज़ की सेना ने जंग का ऐलान कर दिया. रानी लक्ष्मीबाई ने भी जंग की पूरी तैयारी की. उनके विश्वसनीय तोपची गौस खां और ख़ुदा बक्श थे.  उन्होंने मज़बूत क़िला बंदी की. अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे, लेकिन क़िला न जीत सके. अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज़ को लगा कि सैन्य-बल से क़िला जीतना मुमकिन  नहीं है, इसलिए उसने कूटनीति अपनाई. उसने झांसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को धन और पद का लालच देकर अपनी तरफ़ कर लिया. उसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया. अंग्रेज़ सेना क़िले में दाख़िल हो गई और लूटपाट और नरसंहार शुरू हो गया. जब हालात क़ाबू से बाहर हो गए, तो शुभचिंतकों की सलाह पर उन्होंने एक नई सेना का गठन करके पुनः हमला करने का फ़ैसला किया. उन्होंने अपने साथियों के साथ क़िला छोड़ दिया. बोकर नामक एक ब्रिटिश अधिकारी एक सैनिक टुकड़ी के साथ उनके पीछे चला. लड़ाई में जब वह ज़ख्मी हो गया था तो पीछे हट गया. रानी के घोड़े की भी मौत हो गई. इसके बाद भी वह मायूस नहीं हुईं और कालपी जाकर तात्या टोपे और रावसाहेब से मिल गईं. इस दौरान लॉर्ड डलहौज़ी ने ज़ब्ती का सिद्धांत लागू करके झांसी पर क़ब्ज़ा कर लिया. यहां भी उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध जारी रखा. मगर जब कालपी छिन गई, तो रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे की मदद से शिंदे की राजधानी ग्वालियर पर हमला किया. शिंदे अंग्रेज़ों का वफ़ादार बना हुआ था और उसने अपनी सेना भी अंग्रेज़ों को दे राखी थी. लक्ष्मीबाई के हमला करने पर वह अपनी जान बचाने के लिए आगरा भाग गया और वहां उसने अंग्रेज़ों से मदद मांगी. लक्ष्मीबाई की देशभक्ति और वीरता से प्रभावित होकर शिंदे की सेना विद्रोहियों से मिल गई. रानी लक्ष्मीबाई और उनके सहयोगियों ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया. रानी लक्ष्मीबाई मराठों में भी विद्रोह की ज्वाला फैलाना चाहती थीं. सर ह्यूरोज़ उनकी इस रणनीति को समझ चुका था, इसलिए उसने रानी लक्ष्मीबाई के ख़िलाफ़ जमकर युद्ध किया. उसने ग्वालियर पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया और मुरार तथा कोटा की दो लड़ाइयों में लक्ष्मीबाई को शिकस्त दी. लेकिन लक्ष्मीबाई ने हार नहीं मानी. 17 जून, 1858 को लड़ाई फिर लड़ाई शुरू हुई. रानी लक्ष्मीबाई की सेना के मुक़ाबले अंग्रेज़ी सेना काफ़ी बड़ी थी. चारों तरफ़ से अंग्रेज़ी सेना से घिरी रानी लक्ष्मीबाई ने बेटे को पीठ से बांधा और फिर घोड़े पर सवार होकर अंग्रेज़ों से लोहा लेने लगीं.  अंग्रेज़ सैनिकों ने उनका पीछा किया और इसी दौरान उनकी दाहिनी जांघ में एक गोली लग गई. उनकी रफ़्तार थोड़ी धीमी हो गई और अंग्रेज़ सैनिक उनके क़रीब आ गए. लेकिन उन्होंने जितना हो सका,  घोड़ा दौड़ाया, लेकिन रास्ते में  एक नाला आ गया, जिसे घोड़ा पार नहीं कर सका. तभी दो अंग्रेज़ सैनिकों ने उन पर प्रहार कर दिया, जिससे उनके सिर का दाहिना हिस्सा कट गया और सीने पर भी गहरा ज़ख्म हो गया. ज़ख़्मी होने पर भी उन्होंने ख़ुद पर हमला करने वाले दोनों सैनिकों को मार गिराया. फिर वह ख़ुद भी ज़मीन पर गिर पड़ीं. इस दौरान गौस खां, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख भी उनके साथ थे. गौस खां ने भी अंग्रेज़ सैनिकों से मुक़ाबला किया और उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया.  रामचंद्र राव देशमुख ने रानी लक्ष्मीबाई को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुंचाया.  बाबा गंगादास ने रानी लक्ष्मीबाई को जल पिलाया. इसके बाद उन्होंने एक बार अपने बेटे को देखा और फिर हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं. उसी कुटिया में उनकी चिता बनाई गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी. यह जगह थी ग्वालियर और तारीख़ थी 18 जून, 1858. शायद रानी लक्ष्मीबाई को अपनी मौत का आभास हो गया थ, तभी उन्होंने रामचंद्र राव देशमुख से कहा था कि आज जंग का आख़िरी दिन दिखाई देता है. अगर मेरी मौत हो जाए, तो मेरे पुत्र दामोदर के जीवन को मेरे जीवन से अधिक मूल्यवान समझा जाए और उसकी देखभाल की जाए. साथ ही मेरी मौत हो,  तो इस बात का ध्यान रहे कि मेरा शव उन लोगों के हाथ में न पड़े, जो मेरे धर्म के नहीं हैं.

ब्रिटिश जनरल सर ह्यूरोज़ ने रानी लक्ष्मीबाई की महानता के बारे में कहा था- विप्लवकारियों की सबसे बहादुर और सबसे महान सेनापति रानी थी.
फ़िलहाल रानी लक्ष्मीबाई की एकमात्र तस्वीर मौजूद है, जो कोलकाता में रहने वाले अंग्रेज़ फोटोग्राफर जॉन स्टोन एंड हॉटमैन ने 1850 में खींची थी. रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में भारतीय डाक-तार विभाग ने डाक टिकट जारी किए.
कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी लक्ष्मीबाई पर एक कविता लिखी-
ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी...
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में आई फिर से नई जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी
दूर फ़िरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी...



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