सिद्धार्थ शंकर गौतम 
आखिरकार स्वयंभू संत आसाराम पुलिस की गिरफ्त में आ ही गए. 11 दिन देश की कानून व्यवस्था को धता बताने वाले आसाराम को इंदौर स्थित उनके आश्रम से जिस बेदर्दी से जोधपुर पुलिस की टीम ने रातों रात उठाया उससे देर-सवेर ही सही मगर यह तथ्य तो पुख्ता हुआ ही है कि कानून की नज़र में आम और ख़ास में कोई अंतर नहीं है. तमाम सियासी चालों तथा सामाजिक वर्जनाओं की कसौटी को धूर्ततापूर्वक स्वयं के पक्ष में भुनाने की कोशिश ने आसाराम की संतई पर निश्चित रूप से सवालिया निशान लगाया है. सवाल तो वे अनुयायी भी बन गए हैं, जो आसाराम को ईश्वर मान बैठे थे. मप्र के छिंदवाडा आश्रम की नाबालिग लड़की को राजस्थान के जोधपुर स्थित आश्रम में कथित तौर पर हवस का शिकार बनाने के मामले ने आसाराम को एक झटके में ईश्वर से शैतान में बदल दिया. थोड़ी बहुत कसर उनकी बेजा हरकतों ने पूरी कर दी. क्या भारत में इससे पूर्व किसी संत को इस कदर धूर्त होते देखा गया है? क्या देश का सनातन धर्म, मान्यताएं, परम्पराएं तथा संस्कार इस बात की इजाजत देते हैं कि संत अपनी संतई को सार्वजनिक रूप से उपहास का पात्र बनाए? जो आसाराम कभी अपने अनुयायियों को जीवन का मर्म समझाते थे, जिनके प्रवचन सुनने वालों की आंखें नम कर जाते थे और फिर जिनके लतीफों पर नम आंखें भी चमक उठती थीं, आज लाचार और बेबस नज़र आ रहे हैं. और कहीं हद तक इसके लिए उनका अभिमान भी जिम्मेदार है. ऐसा नहीं है कि आसाराम पर इससे पूर्व कोई आरोप न लगा हो. इनका इतिहास उठाकर देख लें, आरोपों के बोझ तले दबे नजर आते हैं आसाराम, पर इससे पहले कभी इनके खिलाफ किसी ने भी कार्रवाई करने की चेष्टा नहीं की. दरअसल इस मामले में हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था और आम आदमी के भीतर घर कर बैठा अंधविश्वास ही है, जिसने आसाराम को घमंडी बना दिया. अपने प्रभाव व समर्थकों की फ़ौज के सहारे किसी ने आसाराम पर शिकंजा नहीं कसा. धर्मभीरु जनता ने भी विवादों के बादशाह को सर आंखों पर बिठाया जिसने उनके अभिमान में बढ़ोतरी ही की. पर शायद आसाराम यह भूल बैठे थे कि जहां अभिमान तथा घमंड आता है, बर्बादी भी उसके पीछे-पीछे आती है; फिर भले ही उसका रूप कैसा भी हो? और देखिए, आसाराम पर बर्बादी आई तो ऐसी कि उनकी संतई पर ही सवालिया निशान लगा दिए? आसाराम के समर्थक लाख दुहाई दें कि उनका ईश्वर निर्दोष है, वह ऐसा पतित कर्म कर ही नहीं सकता, किन्तु संत पर दुष्कर्म का आरोप लगना ही उसके लिए मृत्यु समान है. संत की संतई किसी सफाई या सबूत की मोहताज नहीं होती, किन्तु आसाराम के विरुद्ध तो हवा भी ऐसी चल रही है कि अब उनकी सफाई भी उडती हुई दिखाई दे रही है. हालांकि यह भी सच है कि जब तक कानून किसी आरोपी पर लगे आरोप की साक्ष्यों द्वारा पुष्टि न कर दे उसे सार्वजनिक रूप से आरोपी नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह नैतिकता आम आदमी के लिए ही ठीक है, एक कथित संत के लिए नहीं. फिर कई बार आरोप की गंभीरता इतनी बड़ी होती है कि फिर उसके साबित होने या न होने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. याद कीजिए, बोफोर्स कांड. कानून कभी इससे जुड़े घोटाले को साबित नहीं कर पाया, किन्तु इसके दंश के भारत के एक ऐसे प्रधानमंत्री को इतिहास में दफ़न कर दिया जिसके वंश ने देश की नियति और राजनीति दोनों को बदल कर रख दिया था. वैसे भी सार्वजनिक जीवन में जिस नैतिकता व आचरण की उम्मीद की जाती है आसाराम ने उसकी मर्यादा को लांघा है और इस तरह आसाराम माफ़ी के तो कतई काबिल नहीं हैं.

एक सवाल यह भी है कि आसाराम जैसे कलयुगी संतों के पीछे देश का मनमानस जिस भीरुता से भाग रहा है क्या आसाराम का आचरण उस पर रोक लगा पाएगा? पूरे देश ने देखा कि किस तरह आसाराम के बेकाबू समर्थकों ने मीडियाकर्मियों को सरेआम पीटा, पुलिस पर उन्हें गिरफ्तार न करने का दवाब बनाया, क्या एक संत के अनुयायी इतने असंस्कारित हो सकते हैं. जिस संत के प्रवचन उन्हें जीवन में संयम का मार्ग दिखलाते थे, उसी कथित संत के शिष्य इतने असंयमित? आसाराम का विवादित इतिहास जानते हुए भी यदि सैकड़ों-करोड़ों लोग उनके पीछे हो जाते हैं, तो यकीन मानिए; हमें धर्म को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. एक संत की संतई को जितना आसाराम ने अपने अभिमान तले रौंदा है, ऐसा शायद ही कभी देखने को मिला हो। यह भारत में ही संभव है कि धर्म का आवरण ओढ़कर कोई भी स्वयंभू संत बन बैठे और जनता भी उसके पीछे पागलों की तरह दौड़ लगा दे. आसाराम यदि वाकई संत थे, तो उन्हें झांसाराम बनने की क्या ज़रूरत थी? कुल मिलाकर आसाराम ने संत की संतई पर ऐसा बदनुमा दाग लगाया है, जिसे चाह्कर भी नहीं मिटाया जा सकता.


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