फ़िरदौस ख़ान
देश के बारह राज्यों में सूखे का क़हर बरपा है, जिनमें उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. सूखे की वजह से इन राज्यों के 33 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. लोग पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं. खेत सूख चुके हैं. पेड़ों पर पतझड़ छाया है. नदियां सूख चुकी हैं. कुओं का पानी भी नदारद है, तालाब सूखे पड़े हैं, बावड़ियां भी सूखी हैं. नल भी सूने हैं. भूमिगत पानी भी बहुत नीचे चला गया है. किसानों की हालत तो और भी ज़्यादा बुरी है. किसान सूखे से हल्कान हैं. सूखे की वजह से उनकी खेतों में खड़ी फ़सलें सूख गई हैं. सूखे ने खेत तबाह कर दिए और किसानों को बर्बाद कर दिया. हालात इतने बदतर हो गए कि अन्नदाता किसान ख़ुद दाने-दाने को मोहताज हो गए. क़र्ज़ के बोझ तले दबे किसान अपने घरबार छोड़कर दूर-दराज के शहरों में काम की तलाश में निकल रहे हैं. सूखे से बर्बाद हुए किसानों की ख़ुदकुशी करने की ख़बरें भी आ रही हैं. 

बीती 14 मई को उत्तर प्रदेश के हमीरपुर ज़िले के गांव बिदोखर के देवकी नंदन ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. भूमिहीन देवकी नंदन ने कुछ ज़मीन बटाई पर लेकर फ़सल बोई थी, लेकिन सूखा पड़ जाने की वजह से खेत में कुछ पैदा नहीं हुआ. उसके पास जो थोड़ी बहुत रक़म थी वह भी बुआई में ख़र्च हो गई. फ़सल बर्बाद होने से परेशान वह ड्राइवरी शुरू कर दी. लेकिन इससे उसे कोई ख़ास आमदनी नहीं और माली हालत से परेशान देवकी नंदन ने फांसी लगा ली.
महाराष्ट्र के बुलढाणा ज़िले के गांव मलथाना में बीती 12 मई को एक किसान परिवार के चार लोगों ने ज़हर खा लिया. इनमें से तीन की मौत हो गई, वहीं एक की हालत नाज़ुक बताई जा रही थी. ग्रामीणों का कहना है कि सूखे से फ़सल बर्बाद होने की वजह से किसान परिवार बहुत परेशान था. उन्हें बैंक का क़र्ज़ भी चुकाना था. इसी तनाव की वजह से परिवार के चार लोगों ने ज़हर खाकर आत्महत्या करनी चाही. इनमें से दिनेश सनयंसिंह मसाने, लक्ष्मीबाई दयानसिंह मसाने और सुरेश दयानसिंह मसाने की मौत हो गई, जबकि चौथा दयानसिंह सानू मसाने ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा था.

 पिछले  20 सालों तक़रीबन तीन लाख किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं. दरअसल, सूखे की देर से घोषणा और राहत राशि में देरी भी किसानों की मौत की वजह बन रही है.  जब तक राज्य सरकार सूखे की घोषणा नहीं करतीं, तब तक केंद्र सरकार राहत राशि बांटने के लिए स्थिति की समीक्षा नहीं करती.  राज्य सरकारें भी सूखे की घोषणा करने में काफ़ी देर करती हैं, क्योंकि उन्हें अपने ख़ज़ाने में से किसानों को आर्थिक मदद देनी पड़ती है. सूखे के मामले में केंद्र और राज्य सरकार की टीमें अलग-अलग निरीक्षण करती हैं. अगर उनके आकलन में फ़र्क़ आ जाए, तो इससे राज्यों को नुक़सान होता है. मसलन राज्य ने तो अपने इलाक़े को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया, लेकिन केंद्र की रिपोर्ट में राज्य की हालत बेहतर पाई गई, तो फ़ौरन उसे केंद्र से मिलने वाली राहत की रक़म में कटौती कर ली जाएगी. ऐसे में राज्य को किसानों को अपने पास से आर्थिक मदद देनी होगी. सूखे के निरीक्षण में देरी की वजह से किसानों को सबसे ज़्यादा नुक़सान होता है. उन्हें वक़्त पर मदद नहीं मिल पाती, जिससे वे अगली फ़सल की बुआई की तैयारी नहीं कर पाते. इस तरह उन्हें एक साथ दो फ़सलों का नुक़सान होता है.

फ़सलों के नुक़सान को लेकर भी सरकार और किसान आमने-सामने होते हैं. किसानों के पूरे के पूरे खेत तबाह हो जाते हैं, लेकिन निरीक्षक इसे मानने को तैयार नहीं होते. वे अपने हिसाब से रिपोर्ट बनाते हैं और किसानों को मनमाने तरीक़े से मुआवज़ा दिया जाता है. इस बार भी ऐसा ही हुआ है. किसानों का आरोप है कि सरकारी अधिकारी फ़सलों को हुए नुक़सान को बहुत कम बता रहे हैं. किसान सूखे की मार से पहले ही परेशान हैं और अब फ़सल बीमा कंपनियां उनकी बर्बादी का मज़ाक़ उड़ा रही हैं. पिछले साल मध्य प्रदेश के विदिशा ज़िले में किसानों को फ़सल बीमे के नाम पर 3 रुपये, 5 रुपये और 13 रुपये का मुआवज़ा दिया गया. यह इलाक़ा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का संसदीय क्षेत्र और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का गृह क्षेत्र है. गांव साकलखेड़ा में सूखे से सोयाबीन और उड़द की फ़सल ख़राब हो गई थी. गांव को फ़सल बीमा के मुआवज़े के लिए सिर्फ़ 68 हज़ार रुपये मिले, जो 259 किसानों को दिए जाने हैं.  मुआवज़े के तौर पर 13 रुपये पाने वाले किसान जालम सिंह का कहना है कि उसकी पूरी फ़सल तबाह हो गई और इतने में तो ज़हर भी नहीं मिलेगा. गांव की सहकारी समिति के अध्यक्ष सौदान सिंह के मुताबिक़ मुख्यमंत्री जिस खेत में ख़राब फ़सल देखने थे, उसे भी कोई मुआवज़ा नहीं मिला है.

बारिश न होने की वजह से नहरें सूखी पड़ी हैं. अगर नहरों में पर्याप्त पानी आए, तो किसानों को सूखे की मार न झेलनी पड़े. कुछ सूखा प्राक्रूतिक होता है और कुछ इंसानों का ख़ुद पैदा किया हुआ है. बिजली के बिना ट्यूबवैल भी सूखे पड़े हैं. किसानों का कहना है कि बिजली भी नहीं आती कि वे ट्यूबवेल या अन्य साधनों से अपने खेतों को पाने दे सकें. सिंचाई के लिए किसान महंगे डीज़ल का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं. अगर किसी वजह से उनकी फ़सल ख़राब हो जाए, तो वे क़र्ज़ के बोझ तले दब जाते हैं. किसानों का कहना है कि अगर वक़्त पर मुआवज़ा मिल जाए, तो किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर न होना पड़े. उनका कहना भी सही है. किसान उधार-क़र्ज़ करके बुआई करते हैं. वे न दिन देखते हैं, न रात. न सर्दी देखते हैं, न गर्मी. बस दिन-रात कड़ी मेहनत करके फ़सल उगाते हैं. अनाज के हर दाने में उनकी मेहनत की महक होती है. किसान अपने ज़्यादातर बड़े काम फ़सल कटने के बाद ही करते हैं, जैसे किसी की शादी, घर बनवाना, कोई ज़रूरी महंगी चीज़ ख़रीदना आदि. लेकिन जब किसी वजह से उनकी फ़सल बर्बाद हो जाती है, तो वो क़र्ज़ के बोझ तले और भी ज़्यादा दब जाते हैं.

किसानों की हालत इतनी बदतर है कि उन्हें क़र्ज़ के लिए अपने बच्चों तक को गिरवी तक रख देते हैं. पिछले साल मार्च में मध्य प्रदेश के गांव मोहनपुरा के किसान लाल सिंह ने सूखे से फ़सल बचाने के लिए अपने तीन बच्चों को साहूकार के पास गिरवी रख दिया था, ताकि वह क़र्ज़ लेकर उससे ट्यूबवैल खुदवा सके.  बेमौसम बारिश और ओलों से उसकी फ़सल तबाह हो गई और वह अपने बच्चों को नहीं छुड़वा पाया. साहूकार ने पैसे वसूलने के लिए बच्चों को राजस्थान से गाडर चराने आए भूरा गड़रिया को बेच दिया.

ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने सूखा राहत को लेकर एक बार फिर केंद्र और कई राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए उन्हें लापरवाह कहा है. अदालत ने केंद्र और कई राज्य सरकारों को राष्ट्रीय आपदा राहत कोष बनाने जैसे कई निर्देश भी दिए हैं. हालांकि सूखा प्रबंधन संहिता और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन निर्देशिका जैसे कई प्रावधान मौजूद हैं, इसके बावजूद सूखे से निपटने के लिए सरकारें गंभीरता नहीं बरत रही हैं. हालांकि अदालत की फटकार के बाद केंद्र सरकार ने 14 राज्यों को सूखा घोषित कर दिया है.

ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि लाखों करोड़ रुपये के कृषि क़र्ज़ के बजटीय लक्ष्य के बावजूद आधे से ज़्यादा किसानों को साहूकारों और आढ़तियों से क़र्ज़ लेना पड़ता है. किसानों को घर या ज़मीन गिरवी रखकर मोटी ब्याज़ दर पर ये क़र्ज़ मिलता है. उनकी हालत यह हो जाती है कि असल तो दूर, वे ब्याज़ भी नहीं चुका पाते. अकसर यही क़र्ज़ उनके लिए जानलेवा साबित हो जाता है.  किसान हितैषी संगठन और सियासी दल क़र्ज़ माफ़ी की मांग तो अकसर उठाते हैं, लेकिन किसानों के असल मुद्दों पर ख़ामोशी अख़्तियार कर जाते हैं. किसान हित में कृषि लागत को कम करने के तरीक़े तलाशने होंगे. किसानों को उनकी फ़सल की सही क़ीमत मिले, इसकी व्यवस्था करनी होगी. प्राकृतिक आपदाओं आदि से फ़सलों को हुए नुक़सान की भरपाई के लिए देश के हर किसान तक को बीमा योजना के दायरे में लाना होगा.

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