प्रज्ञा पालीवाल गौड़
 सम्पूर्ण भारतवर्ष की तरह राजस्थान में भी दासता से मुक्ति के प्रयास 19वीं शताब्दी से ही प्रारम्भ हो गये थे. यहां की जनता पर अंग्रेजों की हुकूमत की बेड़ियां तो थी ही, साथ ही उन्हें यहां के शासकों एवं जागीरदारों के दमनकारी कृत्यों से भी जूझना पड़ता था. इस दोहरी मार के फलस्वरूप ऐसे अनेक आंदोलन हुए जिनका प्रभाव स्वतंत्रता की अंतिम लड़ाई पर भी स्पष्ट दिखाई दिया.
किसान आंदोलन
राजस्थान में अहिंसक असहयोग आंदोलन की शुरुआत बिजोलिया के किसान आंदोलन से हुई. राजस्थान के शासकों ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में अंग्रेजों से संधि कर ली थी, जिससे उन्हें बाहरी आक्रमणों एवं मराठों के आतंक से मुक्ति मिल गई थी. निर्भय हो जाने के कारण इन राजाओं ने आम जनता पर नए-नए करों का बोझ डालना प्रारम्भ कर दिया. इससे जनता में असंतोष बढ़ता गया और पहला विस्फोट हुआ सन 1997 में मेवाड़ की जागीर क्षेत्र बिजोलिया में. विभिन्न लगानों के विरूद्ध बिजोलिया के किसानों ने 2-3 छोटे आंदोलन किए. वर्ष 1916 में राजस्थान के महान सपूत श्री विजय सिंह पथिक ने आंदोलन की बागडोर संभाली और असहयोग आंदोलन प्रांरभ किया. उनके आह्वान पर जनता ने लगान तथा अन्य प्रकार के कर देना बंद कर दिया. इसके कारण बड़ी संख्या में किसान दमन के शिकार हुए और जेल गए. अधिकांश बड़े नेता या तो निर्वासित किए गए या जेल भेजे गए. यह आंदोलन 1941 में किसानों की जीत के साथ समाप्त हुआ.

बजोलिया के किसान आंदोलन का प्रभाव मेवाड तथा आसपास की रियासतों पर भी पड़ा. बेगूं के किसानों ने भी लगान के विरुद्ध एक संगठित आंदोलन शुरू किया. इसके लिए सरकार ने बल प्रयोग किया जिसमें रूपाजी और करमाजी नामक दो किसान शहीद हुए. इसके साथ ही बूंदी, सिरोही,अलवर, भोमठ, सीकर और दुधवारिया में भी किसान आंदोलन हुए जिसमें अन्ततः विजय किसानों की हुई.

भोमठ और सिरोही के भील बहुल क्षेत्र में किसानों पर की गई गोलीबारी में लगभग 2 हजार किसान मारे गए. इस आंदोलन का नेतृत्व ”मेवाड के गांधी” के नाम से प्रसिद्ध श्री मोती लाल तेजावत ने किया.

राजस्थान में 1857 की लड़ाई
हालांकि राजस्थान के कई राजाओं ने 1857 की क्रान्ति में अंग्रेजों की मदद की थी लेकिन, कुछ क्षेत्रों मं् बगावत भी हुई. 21 अगस्त, 1857 में जोधपुर राज्य में स्थित एरिनपुरा छावनी में ब्रिटिश फौज के कुछ भारतीयों ने बगावत कर दिल्ली की ओर कूच किया. रास्ते में वे बागी सैनिक आउवा पर ठहरे जहां के ठाकुर कुशलसिंह चापावत उनके नेता बने. आसपास के अन्य ठाकुर भी अपनी सेना लेकर उनके साथ हो गए.

अजमेर के चीफ कमिश्नर सर पैट्रिक लारेन्स ने जोधपुर के महाराजा से सेना भेजने की प्रार्थना की. उन्होंने जो सेना भेजी वह बागी सैनिकों से हार गई. उसके बाद सर पैट्रिक लारेन्स और जोधपुर का राजनीतिक एजेंट मेसन सशैत्य आउवा पहुंचे. दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई.

गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को जब पता चला तो उसने जनवरी 1858 को पालनपुर और नसीराबाद से एक बड़ी सेना आउवा भेजी. क्रांतिकारी इस सेना का सामना नहीं कर पाए और उन्हें जानमाल की भारी क्षति हुई.

इस प्रकार कोटा एवं अजमेर-मेरवाडा की नसीराबाद स्थित सेना के सैनिकों ने भी मेरठ में सैनिक विद्रोह के समाचार सुनकर विद्रोह कर दिया.

 राजस्थान में सशस्त्र क्रान्ति का प्रारम्भ शाहपुरा के सरी सिंह बारहठ ने किया. उन्होंने अर्जुनलाल सेठी एवं खरवा राव गोपालसिंह के साथ एक क्रान्तिकारी संगठन ”अभिनव भारत समिति” की स्थापना की. उन्होंने एक विद्यालय भी खोला जहां युवकों को प्रशिक्षण दिया जाता था. इनमें से कुछ युवकों को प्रशिक्षण के लिए रास बिहारी बोस के साथी मास्टर अमीचन्द के पास दिल्ली भेजा जाता था. दिल्ली में के सरी सिंह बारहठ के भाई जोरावरसिंह एवं पुत्र प्रतापसिंह रास बिहारी बोस के  नेतृत्व में गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिग्स पर फैंके गए बम की घटना में सम्मिलित हुए.
प्रजा मण्डल
राज्यों के  प्रति कांग्रेस की नीति महात्मा गांधी द्वारा 1920 में बनाई गई. 1938 में हरिपुरा कांग्रेस ने राज्यों को भारत का अभिन्न अंग मानते हुए इन राज्यों में अपने-अपने संगठन स्थापित करने तथा स्वतंत्रता आंदोलन चलाने का प्रस्ताव पारित किया. इसके बाद प्रजा मण्डलों की स्थापना हुई .

अप्रैल 1938 में श्री माणिक्यलाल वर्मा ने अपने कुछ साथियों के  सहयोग से उदयपुर के  मेवाड़ प्रजा मण्डल की स्थापना की. इसके  अध्यक्ष श्री बलवन्त सिंह मेहता थे. संस्था को प्रारम्भ से ही गैर कानूनी घोषित कर दिया गया. सरकार ने प्रजा मण्डल पर जो पाबन्दी लगाई हुई थी उसको हटाने की मांग करते हुए 4 अक्टूबर, 1938 को सत्याग्रह आंदोलन किया गया. मेवाड़ सरकार द्वारा सितम्बर 1941 में प्रजा मण्डल पर से पाबन्दी हटा दी गई.

हालांकि जयपुर में प्रजा मण्डल की स्थापना 1931 में हो गई थी, लेकिन इसकी गतिविधियां1938 में सेठ जमना लाल बजाज के नेतृत्व सम्भालने के बाद ही शुरू हो पाई. सरकार ने सेठ जमना लाल बजाज के जयपुर प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया, लेकिन उन्होंने इन आदेशों की अवहेलना कर, उन्होंने एक फरवरी 1939 को जयपुर में प्रवेश किया. उनकी गिरफ्तारी हुई और राज्य में सत्याग्रह शुरू हुआ. यह सत्याग्रह 18 मार्च, 1939 तक चला और इसी वर्ष अगस्त में एक समझौते के बाद श्री जमना लाल बजाज व उनके साथियों को रिहा किया गया.

कोटा प्रजा मण्डल की स्थापना 1936 में की गई. इस संस्था द्वारा साक्षरता, दवाईयों की आपूर्ति, सिंचाई के लिए जल की आपूर्ति आदि कुछ अन्य प्रस्ताव भी पारित किए गए. कोटा प्रजा मण्डल ने उत्तरदायी शासन के लिए हड़ताल व सत्याग्रह भी किए. अलवर एवं भरतपुर में 1938 में प्रजा मण्डलों की स्थापना की गई. बीकानेर में 1936 और 1942 में प्रजामण्डलों की स्थापना के प्रयास किए गए लेकिन वे राज्य की नीतियों के कारण असफल हो गए.

जैसलमेर में महारावल की दमनकारी नीतियों के  कारण वहां तो कोई संगठन बनाना अत्यन्त कठिन कार्य था. सागर मल गोपा ने अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए आवाज उठाई. जब 1939में प्रजामण्डल की स्थापना हुई तो उस पर पाबन्दी लगाई गई. 1941 में सागर मल गोपा को गिरफ्तार किया गया. जेल में जुल्मों को सहन करते हुए उनकी 3 अप्रैल, 1946 को मृत्यु हो गई. राज्य के कोने-कोने में स्थापित प्रजा मण्डलों ने राजस्थान में स्वाधीनता आंदोलन को सही दिशा प्रदान की.
(लेखिका पत्र सूचना कार्यालय, जयपुर में निदेशक हैं)

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