वासुदेव बलवंत फड़के

Posted Star News Agency Friday, August 05, 2016

प्रियदर्शी दत्ता
1870 के दशक के मध्य में तकरीबन 30 की आयु के आसपास एक सुगठित डील डौल वाले गौर वर्ण के व्यक्ति को पुणे की गलियों में एक थाली और चम्मच हाथों में लेकर दौड़ते हुए देखा जा सकता था. चम्मच से थाली को बजाते हुए वह अपने अगले भाषण के बारे में घोषणा करता रहता था. वह अनुरोध करता था, "सभी को शाम को शनिवार-वाड़ा मैदान में आना है. हमारे देश को आज़ाद होना ही चाहिये. अंग्रेज़ों को भगाया जाना चाहिये. मैं अपने भाषण में बताऊंगा कि यह कैसे किया जाना है."

इस व्यक्ति का नाम था- वासुदेव बलवंत फड़के- पुणे में सैन्य वित्त विभाग का कर्मचारी. ठाणे जनपद के शिर्दों में 4 नवम्बर, 1845 को जन्मने वाले वासुदेव का परिवार कोंकण के एक गांव केल्शी का था. सन् 1862 में वह बंबई विश्वविद्यालय के शुरुआती स्नातकों में थे. वर्ष 1865 में पुणे आने से पहले उन्होंने ग्रांट मेडिकल कॉलेज एवं मुंबई के सेना रसद विभाग कार्यालय जैसी कई सरकारी संस्थाओं में कार्य किया था. वह एक पारिवारिक व्यक्ति थे. यह लगभग असंभव था कि उनके जैसा व्यक्ति सरकार के प्रति अलगाव को प्रचारित करे. किंतु वह दिन दहाड़े ऐसा कर रहे थे. उन दिनों वह स्पष्टतः एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो अंग्रेज़ों को बाहर का रास्ता दिखाने की बात कर रहे थे. पश्चिम भारत में बॉम्बे प्रेसिडेंसी एसोसिएशन एवं पूना सार्वजनिक सभा आदि से प्रगट होता नया-नया सार्वजनिक जीवन केवल संवैधानिक राजनीति तक ही सीमित था.

पुणे में उनके भाषणों ने असर दिखाया. लोग उनको सुनने के लिये जुटने लगे. जनता को संबोधित करने के लिये उन्होंने पनवेल, पलास्पे, तासगांव और नरसोबची वाड़ी में रविवार के दिनों का उपयोग किया. राजनीतिक प्रचार प्रसार के लिये दौरे करने वाले वह स्वष्ट रूप से पहले भारतीय थे. हालांकि उनके भाषणों से इच्छित परिणाम नहीं मिले. उनकी आशा के विपरीत लोग विद्रोह के लिये खड़े नहीं हुए. इसके पश्चात उन्होंने सार्वजनिक रूप से भाषण देना बंद कर दिया. उन्होंने गुप्त संस्था बनाने के बारे में सोचना शुरू किया. स्वयं को मज़बूत बनाने के लिये अखाड़ों में जाना शुरू कर दिया. पुणे में मराठा इतिहास से संबंधित स्थानों की भरमार थी. शिवाजी द्वारा सर्वप्रथम जीते गये किलों में से एक तोरना या प्रचंडगढ़ शहर से अधिक दूर स्थित नहीं था. फड़के ने पुणे के निकट गुलटेकड़ी पहाड़ी पर शारीरिक प्रशिक्षण शुरू कर दिया.

भली प्रकार से गठित क्रांतिकारी संस्था फड़के की प्राथमिकता थी. उन्होंने चार समूह बनाए. पहले समूह ने विद्यालयों से बाहर गुप्त स्थानों पर अध्यापकों को बताए बगैर स्कूली छात्रों की बैठकें आयोजित की. फड़के की संस्था के एक प्रवक्ता ने छात्रों के बीच आज़ादी का संदेश प्रचारित किया. दूसरे समूह में घूमने फिरने वाले जत्थे थे जो सुबह-सुबह देशभक्ति के गीत गाते हुए शहर भर में घूमते थे. तीसरा समूह शाम के समय घूमने वाली गायक-मण्डली का था जो ब्रिटिश राज पर तंज़ कर भारत के दर्द को उभारने वाले गीत गाता था. चौथे और सबसे अहम समूह में क्रांतिकारी गतिविधियां तय करने वाले सदस्य थे. फड़के ने जनता से संवाद का एक नया तरीक़ा ईजाद किया. उन्होंने लोगों में अंतर्निहित देशभक्ति की भावना उभारने के लिये भावनात्मक और आध्यात्मिक संयोजन पर ध्यान दिया.

इस समय तक फड़के ने स्वयं को एक पथ-प्रदर्शक साबित कर दिया था. उन्होंने तिलक, लाला लाजपतराय एवं बिपिन चंद्र पाल से काफी पहले देशभक्ति की एक सार्वजनिक संस्कृति विकसित कर ली थी. तत्पश्चात 1876-77 में महाराष्ट्र भारी दुर्भिक्ष का शिकार हुआ. फड़के ने अपनी आंखों से विनाश का मंज़र देखने के लिये गुप्त रूप से प्रभावित जनपदों की यात्राएं की. उन्होंने लोगों की कठिनाइयों के लिये ग़लत ब्रिटिश नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराया, और क्रांति का रास्ता अपनाने का निर्णय भी लिया.

यहां भी वह पथ-प्रदर्शक साबित हुए- भारतीय क्रांति के जनक. 20 फरवरी 1879 को फड़के ने अपने साथियों विष्णु गदरे, गोपाल साठे, गणेश देवधर एवं गोपाल हरी कर्वे के साथ पुणे से आठ मील उत्तर लोनी के बाहर 200 मज़बूत योद्धाओं वाली फौज की घोषणा कर दी. यह संभवतः भारत की पहली क्रांतिकारी सेना थी. फड़के ने स्वीकार किया कि अपने विद्रोह को जारी रखने के लिये डकैती को एक आवश्यक बुराई के तौर पर अपनाना होगा. उन्होंने कहा कि संघर्ष में शामिल होने के लिये अपने घरों को छोड़ने का उनका समय आ गया है. इस अवसर पर उन्होंने कहा, "हम अपने पहले हमले से और अधिक हथियार एवं ज़्यादा धन एकत्रित करेंगे. हम पुलिस एवं सरकार के विरुद्ध संघर्ष करेंगे."

इस दौरान उन्होंने लगातार बहुत ख़तरा उठाया. धन एवं हथियार एकत्रित करने के लिये फड़के के दल ने मुंबई और बाद में कोंकण क्षेत्र के निकट लूट की कुछ ख़तरनाक कार्रवाइयों को अंजाम दिया. इससे अंग्रेज़ थर्रा उठे. पूरे क्षेत्र में फड़के के नाम की धाक फैल गई. मई 1879 में फड़के ने चेतावनी देते हुए सरकार की शोषण करने वाली आर्थिक नीतियों की सुप्रसिद्ध भर्त्सना की. उनकी इस घोषणा की प्रतियां गवर्नर, ज़िलाधीश एवं अन्य सरकारी अधिकारियों को भेजी गईं. इससे संपूर्ण भारत में सनसनी फैल गई. उनके विद्रोह ने बंकिम चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ (1882) के कथानक को तर्क-साध्य और अप्रत्य़क्ष तौर पर प्रभावित किया.

फड़के पर 3 जून 1879 को लंदन से प्रकाशित होने वाले 'द टाइम्स' ने एक लंबा सम्पादकीय प्रकाशित किया. इसने कृषि-क्षेत्र में फैलती बेचैनी के समाधान के लिये सरकार को अपनी भू-निर्धारण नीतियां संशोधित करने की सलाह दी. अंग्रेज़, हालांकि अपनी पकड़ मज़बूत बना रहे थे. फड़के का अल्पकालिक कैरियर लगभग पूरा हो चुका था. वह आंध्रप्रदेश के कुरनूल जनपद में स्थित ज्योतिर्लिंग श्री शैल मल्लिकार्जुन महादेव मंदिर जाने के लिये महाराष्ट्र से भाग गए. 25 अप्रेल 1879 को समाप्त अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग में उन्होंने अपनी असफलता के लिये समस्त भारतीयों से क्षमा याचना की. फड़के इस पवित्र स्थान में, जहां उनके आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज भी एक बार आए थे, अपने जीवन का बलिदान करना चाहते थे लेकिन पुजारी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया.

उन्होंने रोहिल्ला, सिक्खों और निज़ाम की सेना में कार्यरत अरबों के साथ मिलकर एक नई क्रांति का पुनर्गठन करने की कोशिश की. उन्होंने भारत के विभिन्न भागों में अपने संदेशवाहक भेजे. किंतु भाग्य को उनकी योजनाओं की सफलता स्वीकार नहीं थी. देवार नवदगी नामक गांव में 20 जुलाई 1879 को उनकी गिरफ़्तारी के साथ यह समाप्त हुआ.

पुणे की अदालत में चले मुकदमे के बाद उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा मिली. इस अवसर पर उनके समर्थन में आए लोगों ने विषाद एवं गर्व से भरे कर्णभेदी नारे लगाए. बंदीगृह में उको तपेदिक से पीड़ित पाया गया जिसका उन दिनों कोई इलाज नहीं था. फड़के ने आजीवन कारावास की बजाय मृत्यु को चुना. एक स्वतंत्रता सेनानी से इससे अधिक और क्या अपेक्षा की जा सकती है? 17 फरवरी 1883 को 37 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई. बाद में महाराष्ट्र में इसी वर्ष वीर सावरकर का जन्म हुआ.

फड़के का क्रांतिकारी जीवन भले ही अल्पकालिक रहा हो. किंतु उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिये हथियारबंद आंदोलन की आधारशिला रखी.

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