फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं, बुरी घड़ी कहकर नहीं आती. बुरा वक़्त कभी भी आ जाता है. मौत या हादसों का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं होता. जब कोई हादसा होता है, जान या माल का नुक़सान होता है, तो किसी भी व्यक्ति को इसका सदमा लग सकता है. ऐसे में व्यक्ति के जिस्म में ताक़त नहीं रहती और शारीरिक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं. दिमाग़ रक्त वाहिनियों की पेशियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता, जिससे दिमाग़ और जिस्म का तालमेल गड़बड़ा जाता है. दिल की धड़कन भी धीमी हो जाती है. व्यक्ति क चक्कर आने लगते हैं, वह बेहोश हो जाता है, कई बार उसकी मौत भी हो जाती है. मौत कभी पूरा न होने वाला नुक़सान है. मौत के सदमे से उबरना आसान नहीं है. सदमे का ताल्लुक़ भावनाओं से है, संवेदनाओं से है. अगर कोई इन संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करे, तो उसे किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन सियासी हलक़े में मौत और सदमे पर भी सियासत की बिसात बिछा ली जाती है. फिर अपने फ़ायदे के लिए शह और मात का खेल खेला जाता है. इन दिनों तमिलनाडु में भी यही सब देखने को मिल रहा है.
तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी अन्नाद्र्मुक दावा कर रही है कि जयललिता की मौत के सदमे से 470 लोगों की मौत हो चुकी है. पार्टी ने मृतकों के परिवार को तीन लाख रुपये की मदद देने का ऐलान किया है. पार्टी ने ऐसे लोगों की फ़ेहरिस्त जारी की है, जिनकी मौत सदमे की वजह से हुई है. पार्टी का यह भी कहना है कि जयललिता के निधन के बाद अब तक छह लोग ख़ुदकुशी की कोशिश कर चुके हैं. ऐसे चार लोगों का ब्यौरा भी जारी किया गया है. जयललिता की मौत की ख़बर सुनने पर ख़ुदकुशी की कोशिश करने वाले एक व्यक्ति को पार्टी ने 50 हज़ार रुपये देने की घोषणा की है. इतना ही नहीं जयललिता की मौत की ख़बर सुनकर अपनी उंगली काटने वाले व्यक्ति को भी 50 हज़ार रुपये की मदद देने का ऐलान किया जा चुका है.

इसमें कोई शक नहीं है कि ’अम्मा’ के नाम से प्रसिद्ध जयललिता तमिलनाडु की लोकप्रिय नेत्री थीं. उन्होंने राज्य की ग़रीब जनता के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं. उन्होंने साल 2013 में चेन्नई में ‘अम्मा कैंटीन’ शुरू की, जहां बहुत कम दाम पर भोजन मुहैया कराया जाता है. अब पूरे राज्य में 300 से ज़्यादा ऐसी कैंटीन हैं, जिनमें एक रुपये में एक इडली और सांभर दिया जाता है, और पांच रुपये में चावल और सांभर परोसा जाता है. ग़रीब तबक़े के लोग इन कैंटीन में नाममात्र के दाम पर भरपेट भोजन करते और ’अम्मा’ के गुण गाते हैं. ये कैंटीन सरकारी अनुदान पर चलती हैं. इसके अलावा ग़रीबी रेखा के नीचे के परिवारों को हर महीने 25 किलो चावल, दालें, मसाले और खाने का अन्य सामान मुफ़्त दिया जाता है. सरकारी अस्पतालों में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता है. उन्होंने पालना बेबी योजना, अम्मा मिनरल वॉटर, अम्मा सब्ज़ी की दुकान, अम्मा फ़ार्मेसी, बेबी केयर किट, अम्मा मोबाइल जैसी कई योजनाएं भी चलाई. इतना ही नहीं उन्होंने मुफ़्त में भी कई सुविधाएं लोगों को दीं, जिनमें ग़रीब औरतों को मिक्सर ग्राइंडर, लड़कियों को साइकिलें, छात्रों को स्कूल बैग, किताबें, यूनिफॉर्म और मुफ़्त में मास्टर हेल्थ चेकअप आदि शामिल हैं. क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि चुनाव के वक़्त लोगों को लुभाने के लिए उन्हें  रोज़मर्रा के काम आने वाली चीज़ें ’तोहफ़े’ में दी जाती हैं, जिनमें टेलीविज़न, एफ़एम रेडियो,  इडली-डोसा बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली पिसाई मशीन, साइकिल, लैपटॉप वग़ैरह शामिल हैं. अपने इन्हीं ग़रीब हितैषी कार्यों की वजह से जयललिता जनप्रिय हो गईं. उनकी लोकप्रिय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बाक़ी राज्यों में भाजपा की लहर चल रही थी, उस वक़्त उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत का परचम लहराया था. वह अपने सियासी गुरु एमजी रामचंद्रन के बाद सत्ता में लगातार दूसरी बार आने वाली तमिलनाडु में पहली राजनीतिज्ञ थीं.

ग़ौरतलब है कि 68 वर्षीय जयललिता को 22 सितंबर को अस्पताल में दाख़िल कराया, तो बहुचर्चित सबरीमाला मंदिर ने उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना के साथ तक़रीबन 75 हज़ार श्रद्धालुओं को मुफ़्त भोजन कराना शुरू कर दिया था. लोग उनके लिए दुआएं कर रहे थे. 5 दिसंबर को उनकी मौत के बाद राज्य में शोक की लहर दौड़ गई. जन सैलाब उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुआ. सरकार ने पांच दिन का शोक घोषित कर दिया.  जगह-जगह शोक सभाओं का आयोजन कर उनकी आत्मिक शांति के लिए प्रार्थनाएं होने लगीं. फिर ख़बरें आने लगीं कि जयललिता की मौत के सदमे में फ़लां-फ़लां व्यक्ति की मौत हो गई. अन्नाद्रमुक ने मृतकों के लिए सहायता राशि देने की घोषणा कर डाली. इस काम में राज्य सरकार भी पीछे नहीं रही.  इन मरने वाले लोगों की मौत सदमे से हुई है या नहीं ? ये बात अलग है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ डालना सही है, क्या करदाताओं की मेहनत की कमाई, जिसका बड़ा हिस्सा करों के रूप में राज्य को मिलता है, उसका इस्तेमाल इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा देने में होना भी चाहिए था? जयललिता की लोकप्रियता के बाद भी इस सवाल का जवाब ’न’ ही है. तमिलनाडु सरकार को सरकारी ख़ज़ाने के पैसे का इस तरह से दुरुपयोग करने से बचना चाहिए था.

इससे बेहतर यह होता कि अन्नाद्रमुक जन कल्याण की कोई और योजना शुरू करती, जिससे ग़रीबों का भला होता ही, वह योजना जयललिता के प्रशंसकों-समर्थकों के मन में उनकी स्मृतियों को भी तरोताज़ा किए रहती. इसके साथ-साथ उन योजनाओं को जारी रखने का संकल्प भी लिया जाना चाहिए था, जो जयललिता ने अपने कार्यकाल में शुरू की थीं. अन्नाद्रमुक और पन्नीर सेल्वम की सरकार को समझना होगा कि हथकंडे अपनाकर कुछ वक़्त के लिए ही जनता का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जा सकता है, पर इस तरह खींचा गया ध्यान स्थाई नहीं होता है. यह तो तभी होता है, जब जन कल्याण के कार्य एक संकल्प के तौर पर किए जाएं. जयललिता यही करती थीं, इसीलिए उन्हें ’अम्मा’ कहा जाता है, जबकि पन्नीर सेल्वम सरकारी ख़ज़ाने का दुरुपयोग ही कर रहे हैं. यह उन मौतों को गरिमा प्रदान करनी भी है, जो जयललिता के निधन के बाद सदमा लगने से हुई बताई जा रही हैं. इंसान का जीवन अनमोल होता है. अलबत्ता अल्पकाल में होने वाली मौतों को महिमा-मंडित करना भी प्रकृति और उसके नियमों के ख़िलाफ़ है.

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