फ़िरदौस ख़ान
कालेधन पर रोक लगाने के केंद्र सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सबकी नज़र सियासी दलों के चंदे पर है.  देश की अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता के लिए सामाजिक अंकेक्षण की मांग उठ रही है. जब नोटबंदी, कैश लेस ट्रांजेक्शन, सोना, रियल स्टेट में कैश लेस ख़रीद-बिक्री को लेकर आम जनता प्रभावित है, तो फिर जनता द्वारा भरे गए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से मिली रक़म का इस्तेमाल करने वाले नेताओं और सियासी दलों को भी पारदर्शिता बरतनी होगी.

इस बाबत चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को क़ानून में संशोधन की सिफ़ारिश की है. इसके लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को तीन सुझाव भी दिए हैं. पहला सियासी दलों के दो हज़ार रुपये से ज़्यादा गुप्त चंदा लेने पर रोक लगाई जाए, दूसरा चुनाव न लड़ने वाले सियासी दलों को आयकर से छूट नहीं दी जाए और तीसरा सियासी दल कूपन के ज़रिये चंदा देने वाले लोगों की भी पूरी जानकारी रखें. क़ाबिले-ग़ौर है कि फ़िलहाल गुप्त चंदे पर क़ानूनी रोक नहीं है. जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 29(सी) के तहत 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा के चंदे की सूचना चुनाव आयोग को देनी होती है. इससे नीचे की रक़म का कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता. आमदनी के मामले में कांग्रेस ने चुनाव आयोग को बताया कि एक दशक में उसे दो-तिहाई रकम 20 हज़ार रुपये से नीचे के चंदे के ज़रिये हुई है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी 44 फ़ीसद आमदनी को 20 हज़ार रुपये से नीचे की मदद को बताया है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुताबिक़  उन्हें 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा चंदा देने वाला कोई नहीं है, इसलिए उनमें यह दर 100 फ़ीसद है. ऐसे में नियामक एजेंसियां यह पता लगाने में नाकाम रहती हैं कि सियासी दलों के पास आख़िर इतनी बड़ी रक़म कहां से आई है. सियासी दलों को आयकर भरने से भी छूट है. आयकर क़ानून की धारा 13ए के तहत  संपत्ति, चंदा, या दूसरे स्रोतों से हुई आमदनी पर कोई कर नहीं देना पड़ता. कूपन या रसीद के ज़रिये चंदा देने वालों का ब्यौरा देना भी ज़रूरी नहीं है. इस तरह छोटी-छोटी रक़म के कूपनों के ज़रिये कितनी भी रक़म दिखाई जा सकती है. सियासी दल चुनाव आयोग को जिस रक़म का ब्यौरा देते हैं, वह पैसा कॊरपोरेट घरानों से चंदे के तौर पर आता है, जो पूरी तरह आयकर से मुक्त है. इसके अलावा सियासी आरटीआई के दायरे में नहीं आते. सियासी दलों की आमदनी और ख़र्च दोनों ही में पारदर्शिता नहीं होती. चुनाव आयोग भी अपने लेखा विभाग से इसकी जांच नहीं करा सकता. ऐसी हालत में कालेधन को बहुत ही आसानी से सफ़ेद किया जा सकता है. सियासी दलों पर आरोप लग रहे हैं कि नोटबंदी के बाद उनके खातों में एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा के पुराने नोट जमा हुए हैं. यह भी आरोप है कि बहुत से छोटे सियासी दल 25 फ़ीसद कमीशन पर कालेधन को सफ़ेद बनाने में लगे हैं. साथ ही सियासी गलियारे में चर्चा थी कि नोटबंदी के बाद सियासी दलों के खातों में जमा हुए पुराने नोटों की जांच नहीं होगी. हालांकि विवाद बढ़ने पर राजस्व सचिव हंसमुख अढिया को सफ़ाई देनी पड़ी कि नोटबंदी के बाद कोई भी सियासी दल 500 और 1000 रूपये में चंदा स्वीकार नहीं कर सकता. अगर उन्होंने ऐसा किया, तो उन पर भी कार्रवाई होगी.

ग़ौरतलब है कि चुनावों में कालेधन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली एजेंसियों का भी यही कहना है कि काला धन सबसे ज़्यादा चुनावों में ही खपता है. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सियासी दलों को मिली रियायत का ग़लत फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला रहता है. बड़ी रक़म को ज़्यादा हिस्सों में बांटकर कालेधन को सफ़ेद बनाया जा सकता है. आयकर में छूट हासिल करने के मक़सद से ही ज़्यादतर सियासी दलों का गठन हुआ है. फ़िलहाल देश में 1900 से ज़्यादा सियासी दल हैं, जिनमें से तक़रीबन 1400 सियासी दलों ने किसी भी चुनाव में अपना एक उम्मीदवार भी मैदान में नहीं उतारा. हालत यह है कि पिछले आम चुनाव में महज़ 45 दलों ने ही चुनाव लड़ा. चंदे के कूपन का भी कोई नियम नहीं है. कितने भी कूपन छपवाकर कितनी भी रक़म का चंदा दिखाया जा सकता है.

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफ़ॊर्म्स (एडीआर) की साल 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक़ सियासी दलों को 75 फ़ीसद से ज़्यादा चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला. पिछले दस सालों में सियासी दलों के चंदे में 478 की बढ़ोतरी हुई. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में 38 दलों को 253.46 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जो साल 2014 में बढ़कर 1463.63 करोड़ रुपये तक पहुंच गया. पिछले तीन लोकसभा चुनावों में 44 फ़ीसद चंदा नक़दी के तौर पर था. लोकसभा चुनावों के अलावा इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों में भी सियासी दलों ने चंदे के तौर पर करोड़ों रुपये जुटाये.  साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों को 3368.06 करोड़ रुपये मिले. इसमें से 63 फ़ीसद रक़म नक़दी के तौर पर मिली. चुनाव आयोग में जमा किए गए चुनावी ख़र्च के विवरण के मुताबिक़ पिछले तीन लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और शिरोमणि अकाली दल को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा रक़म खर्च भी की है. साल 2004 और 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा पैसे ख़र्च किए हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2014-15 में चुनावी ट्रस्टों ने 177.55 करोड़ चंदे के तौर पर जुटाये हैं और उनमें से 177.40 करोड़ अलग-अलग सियासी दलों को चंदे के रूप में दिए गए.

अफ़सोस की बात है कि अपनी आमदनी के मामले में सियासी दल पारदर्शिता नहीं चाहते. सनद रहे कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने जब साल 2013 में पार्टियों को सार्वजनिक संस्था घोषित करते हुए उन्हें सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का आदेश दिया था, तब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा और वामदलों से लेकर तक़रीबन सभी बड़े-छोटे दलों ने एक सुर में इसका विरोध किया था. पिछले सरकार केंद्र की भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा था कि सियासी दलों को आरटीआई के दायरे में लाने से उनके संचालन पर असर पड़ेगा और सियासी विरोधी भी इसका फ़ायदा उठा सकते हैं. सियासी दल भी इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि चुनाव के दौरान कालाधन बाहर आ जाता है. कालेधन के मामले में सख़्ती होने से उनकी आमदनी पर भी इसका असर पड़ेगा. सियासी दलों के इसी विरोध की वजह से ही चुनाव आयोग और लॊ कमीशन के सुझावों की तमाम फ़ाइलें दफ़्तरों में पड़ी धूल फांक रही हैं. चुनाव आयोग ने सियासी दलों के लिए कई और भी सिफ़ारिशें की थीं, जिनमें सियासी दलों को आरटीआई का जवाब देने, उनके दान खातों का ऒडिट करने, एक उम्मीदवार के एक ज़्यादा सीटों से चुनाव लड़ने और निर्दलीय उम्मीदवार के चुनाव लड़ने आदि पर रोक लगाना शामिल है.

दरअसल, कालेधन से जुड़ा मुद्दा चुनावी सुधारों से भी जुड़ा हुआ है. अगर सरकार कालेधन के मामले में वाक़ई गंभीर है, तो उसे चुनाव सुधारों की दिशा में भी सख़्त फ़ैसले लेने होंगे. उसे चुनाव में धन-बल के अत्यधिक इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगानी होगी. सियासी दलों को चाहिए कि वे भी कैश लेस चंदा लेना शुरू करें और साथ ही अपनी आमदनी को सार्वजनिक करें. विदेशों की तर्ज़ पर भारत को भी इस दिशा में कारगर क़दम उठाने होंगे. अमेरिका, ब्रिटेन्, जर्मनी, फ़्रांस, ऒस्ट्रेलिया और आयरलैंड आदि देशों ने सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर सख़्त नियम बनाए हुए हैं. सियासी दलों को अपनी आमदनी का ब्यौरा देना होता है. फ़्रांस में चुनाव का सारा ख़र्च सरकार ही वहन करती है.

बहरहाल, कालेधन पर पारदर्शिता बरतने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ जनता की ही नहीं है, सरकार और सियासी दलों को भी अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने के अपने दायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना होगा.

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