विनोद बंसल
बालक सिध्दार्थ अपने चचेरे भाई के साथ जंगल की ओर निकले। भाई देवदत्ता के
हाथ में धनुष बाण था। ऊपर उड़ते एक पक्षी को देख देवदत्ता ने बांण साधा और उस पक्षी
को घायल कर दिया। पक्षी जैसे ही नीचे गिरा,
दोनों भाई उसकी ओर दौड़े। सिध्दार्थ पहले पहुंचे और उसे अपनी हथेली
में रखकर बांण को बड़े प्यार से निकाला। किसी जड़ी-बूटी का रस उसके घाव पर लगाकर पानी
आदि पिला उसे मृत्यु से बचा लिया। देवदत्ता पक्षी पर अपना अधिकार जमाना चाहता था।
उसका कहना था कि मैने इसे नीचे गिराया है अत: इस पर मेरा अधिकार है। सिध्दार्थ का
कथन था कि यह केवल घायल हुआ है। यदि मर जाता तो तुम्हारा होता। पर, क्याेंकि मै इसकी सेवा सुश्रुषा कर रहा हूं अत:, यह
मेरा हुआ। दोनों में जब विवाद बढ़ा तो मामला न्यायालय तक जा पहुंचा। न्यायालय ने
दोनों के तर्कों को ध्यान से सुन कर निर्णय दिया कि जीवन उसका होता है जो उसको
बचाने का प्रयत्न करता है। अत: पक्षी सिध्दार्थ का हुआ। बस, यहीं से हुआ बालक सिध्दार्थ का महात्मा बुध्द बनने का कार्य प्रारम्भ।
राजसी ठाट-बाट,
नौकर-चाकर, घोड़ा-बग्गी, गर्मी, जाडे व वर्षात के लिए अलग-अलग प्रकार के
महल, बडे-बडे उद्यान व सरोवरों में सुन्दर मछलियां पाली
गयीं, कमल खिलाये गये। सभी अनुचर व अनुचरी भी युवा व सुन्दर
रखे गये। किसी भी बूढ़े, बीमार, सन्यासी
व मृतक से उन्हें कोषों दूर रखा गया। यशोधरा नामक एक सुन्दर व आकर्षक युवती से उनका
विवाह हुआ। चारों ओर आनन्द ही आनन्द। किन्तु, सारी सुविधाओं
से युक्त सिध्दार्थ के मन में तो कुछ और ही पल रहा
था।
एक दिन वे अपने रथ वाहक के साथ
बाहर निकल पड़े। बाहर आने पर उन्होंने पहली बार एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जिसके बाल
सफेद थे,
त्वचा मुरझायी और शुष्क थी, दांत टूटे हुए
थे, कमर मुड़ी हुई थी और पसलियां साफ दिखाई दे रहीं थी,
आंखे अन्दर धंसी हुई थीं और लाठी के सहारे चल रहा था। शरीर की
जीर्ण-शीर्ण अवस्था देख सिध्दार्थ कुछ विचलित हुए। उनके मस्तिष्क में हलचल मची और
महल की तरफ वापस चल दिये। दूसरे दिन एक बीमार आदमी तथा तीसरे दिन शव यात्रा तथा
चौथे दिन एक सन्यासी को देख सिध्दार्थ के मन का दबा हुआ गूढ़ ज्ञान जाग उठा। वे
सोचने लगे ''..तो बुढ़ापे का दुख, बीमारी
का कष्ट, फिर मृत्यु का दुख, यही मनुष्य
का प्राप्य हैं और यही उसकी नित्य गति है। जीवन दु:ख ही दु:ख है। क्या इस दुख से
बचने का कोई उपाय नहीं है? क्या मुझे और उन सबको,
जिन्हें मैं प्यार करता हूं, बुढ़ापे,
बीमारी और मृत्यु का कष्ट भोगना ही पड़ेगा?''
इस सबका उत्तार सोचते-सोचते
उन्हें लगा कि 'एक सन्यासी का जीवन ही शांत व निर्द्वंन्द है। लगता है इस संसार के दुख व
सुख उसे छू नहीं सकते !' उसी क्षण उन्होंने निश्चय किया कि
मैं भी सन्यास ग्रहण करूंगा तथा संसार त्याग कर दुख से मुक्ति पाने का मार्ग
ढूढ़ूंगा। यह तय करने के तुरन्त बाद ही महल से उनके पिता राजा शूध्दोधन ने संदेश भिजवाया कि उन्हें
(सिध्दार्थ) को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। पुत्र प्राप्ति का मोह भी उन्हें
उनके मार्ग से डिगा न सका।
वे सब कुछ छोड़कर कपिलवस्तु से विदा हो लिए। उन्होंने सत्य,
अहिंसा, त्याग, बलिदान, करूणा और देश सेवा का जो पाठ पढ़ाया वह जग
जाहिर है। पूरे विश्व की रग-रग में महात्मा बुध्द की शिक्षाएं समायी हुई हैं। ऐसे
महान संत महात्मा बुध्द को उनकी जयन्ती पर शत-शत
नमन्।