अतुल मिश्र
हिंदी का पहला अखब़ार '
उत्तंग मार्तंड '
जब निकाला गया,
तब लोगों ने यह सोचा भी नहीं होगा कि आगे चलकर हिंदी-पत्रकारिता का हश्र
क्या होगा ?
उन्होंने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि इसकी आड़ में '
प्रेस-कार्ड '
भी धड़ल्ले से चल निकलेंगे और उन लोगों को ज़ारी करने के काम
आयेंगे,
जो उन्हें अपनी दवाओं के विज्ञापन दे रहे हैं और समाचार लिखना तो
अलग,
उनको पढ़ पाना भी वे सही ढंग से नहीं जानते होंगे. हिंदी अखबारों के
रिपोर्टर या एडीटर पत्रकारिता के स्तम्भ नहीं माने जायेंगे,
बल्कि ये वे लोग होंगे,
जो मर्दाना ताक़त की दवाइयों के विज्ञापन देकर देश को भरपूर सुखी और ताक़तवर बनाने में लगे हैं. हिंदी-पत्रकारिता को एक नयी दिशा देकर वे आज भी उसकी दशा सुधार रहे हैं और जब तक उनके पास
'
प्रेस कार्ड '
हैं,
वे अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे कि हिंदी-पत्रकारिता की जो दशा
है,
वो सुधरी रहे.
हमसे कल कहा गया कि '
हिंदी-पत्रकारिता दिवस '
पर '
पोज़ीशन ऑफ हिंदी जर्नलिज्म '
विषय पर बोलने के लिए इंग्लिश में एक स्पीच तैयार कर लीजियेगा और उसे कल एक भव्य
समारोह में पढ़ना है आपको,
तो हम खुद को बिना अचंभित दिखाए,
अचंभित रह गए. हम समझ गए कि ये लोग इंग्लिश जर्नलिस्ट हैं और हिंदी
जर्नालिस्म की ख़राब हो चुकी पोज़ीशन पर मातमपुर्सी की रस्म अदा करना चाहते हैं. हिंदी-पत्रकारिता में चाटुकारिता का बहुत महत्त्व है और
इसी की माबदौलत बहुत से लोग तो उन स्थानों पर पहुंच जाते हैं,
जहां कि उन्हें नहीं होना चाहिए था और जिन्हें वहाँ बैठना चाहिए
था,
वे वहाँ बैठे होते हैं,
जहां कोई शरीफ आदमी बैठना पसंद नहीं करेगा. लेकिन क्या करें,
मज़बूरी है. हिंदी के अखब़ार में काम करना है तो इतना तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा. हिंदी के
पत्रकार को पैदा होने से पूर्व ही यह ज्ञान मिल जाता है कि बेटे, हिंदी से प्यार करना है
तो इतना तो झेलना ही पड़ेगा.
हिंदी के किसी पत्रकार को अगर आप ध्यान से देखें, तो ऐसा लगेगा जैसे उसके अन्दर कुछ ऐसे भाव चल रहे हों कि " मैं इस दुनिया में क्यों आया या आ ही गया तो इस आने का मकसद क्या है या ऐसा आख़िर कब तक चलता रहेगा ? " यह एक कड़वा सच है जिस शोषण के ख़िलाफ अक्सर हिंदी के अखब़ार निकलने शुरू हुए, वही अखब़ार प्रतिभाओं का आर्थिक शोषण करने लग जाता है और फिर वे प्रतिभाएं अपनी वेब साइटें बनाकर अपने घर की इनकम में इज़ाफा करती हैं. क्या करें, हिंदी को इस हिंदुस्तान में पढ़ना ही कितने लोग चाहते हैं ? जो पढ़ना चाहते हैं, उनकी वो पोज़ीशन नहीं कि वे पढ़ सकें. इसलिए हिंदी की दुर्दशा के लिए ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ़ हिंदी ही दोषी हो, विज्ञापन देकर ' प्रेस कार्ड ' हासिल करवाने वालों से लेकर सब वे लोग दोषी हैं, जो हमें हिंदी-पत्रकारिता पर अंग्रेजी में स्पीच देने के लिए निमंत्रित करने आये थे.