जगदीश्वर चतुर्वेदी
आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने उत्तर प्रदेश उच्चन्यायालय के फैसले के आने
के पहले ही अपनी राय जाहिर कर दी है वे अपने अनुरूप फैसला चाहते हैं । उन्हें बाबरी
मस्जिद गिराने का कोई दुख और अफसोस नहीं है। वे अपने मुँह से बाबरी मस्जिद के
पुनर्निर्माण की बात तक नहीं करना चाहते। उनके इस बयान ने अल्पसंख्यकों में आतंक और
भय के संदेश का काम किया है। इन दिनों उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक भावनाओं को लेकर
शांत है लेकिन अदालत के फैसले के बाद भी शांत रहेगा कहना मुश्किल है। राममंदिर को
लेकर संघ परिवार का जो जिद्दी रूख रहा है उसकी तुलना राजनीति में सिर्फ हिटलर के
जिद्दीभाव से कर सकते हैं।
आरएसएस ने राममंदिर आंदोलन के माध्यम से देश की जो हानि की है उसकी भरपाई शब्दों
से नहीं हो सकती। राम के नाम पर उन्होंने समस्त हिन्दुओं की सहिष्णुता को
साम्प्रदायिक राजनीति के हाथों गिरवी रख दिया। राम हमारे देवता हैं उनके मार्ग का
अनुसरण करने की बजाय संघ परिवार ने शैतान का मार्ग अपनाया । बाबरी मस्जिद तोड़कर
सारी दुनिया में भारत की धर्मनिरपेक्ष छबि को कलंकित किया।
राममंदिर आंदोलन ने धर्मनिरपेक्ष भारत को साम्प्रदायिक भारत का मुकुट पहनाया है।
भारत में सभी धर्मों के लोग शांति,सदभाव और सुरक्षा के वातावरण में रहते थे लेकिन
इस आंदोलन ने इन तीनों ही चीजों को सामाजिक अशांति,असुरक्षा और अविश्वास में बदल
दिया है। खासकर मुसलमानों के प्रति तीव्र घृणा को आम लोगों के जेहन में उतारा है।
राममंदिर आंदोलन के द्वारा पैदा की गई घृणा की तुलना सिर्फ दक्षिण अफ्रीका की गोरों
की नस्लभेदीय घृणा से की जा सकती है। आज भी समय है संघ अपना जिद्दी रूख त्याग दे।
संघ की जिद है हम मंदिर वहीं बनाएंगे। इस नारे का राजनीतिक और सांस्कृतिक रूपान्तरण
हो चुका है। भारत के दिल को इस नारे ने पीड़ा पहुँचायी है। भारत के दिल में गरीब
बसते हैं। मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा गरीब विरोधी साम्प्रदायिक नारा है।
राममंदिर की जिद करके मोहन भागवत ने भारत के गरीबों को एकबार फिर से आहत किया
है। वे हिन्दू होकर आज तक नहीं समझ पाए हैं कि धर्म गरीबों की आह है। वह राजनीति का
मुकुट नहीं है। वह मंदिर की अभिव्यक्ति नहीं है। वह कोई इमारत नहीं है। मूर्ति नहीं
है। वह तो गरीबों की आह है। हिन्दू धर्म का किसी भी अन्य धर्म के साथ कोई द्वेष
नहीं है,प्रतिस्पर्धा नहीं है। हिन्दू धर्म की आत्मा मूर्ति, इमारत, मंदिर, संघ
परिवार, भाजपा आदि में नहीं बसती। हिन्दू धर्म की आत्मा भारत के गरीबों की
झोपड़ियों में बसती है। राम मंदिर आंदोलन गरीबों का आंदोलन नहीं था बल्कि कारपोरेट
फंडिंग से चला कारपोरेट धर्म का आंदोलन था। यही वजह है कि कारपोरेट घरानों ने
करोड़ों रूपये का चंदा इस आंदोलन को दिया। राममंदिर के नाम पर चंदा वसूली का फायदा
हिन्दू धर्म को नहीं मिला, बल्कि संघ परिवार को मिला। संघ परिवार ने करोड़ों रूपये
का चंदा बाजार से उठाया है और इसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर देशी कारपोरेट
घरानों ने दिल खोलकर मदद की। लेकिन सारा पैसा कहां गया कोई नहीं जानता लेकिन
इन्कमटैक्स विभाग के पास इसके प्रमाण हैं कि विश्वहिन्दू परिषद ने राममंदिर आंदोलन
के नाम पर करोड़ों की वसूली की।
राममंदिर आंदोलन का उत्तर प्रदेश और देश के अन्य इलाकों में एक असर हुआ है भाजपा
अचानक कारपोरेट घरानों, धर्म के सिंडीकेट चलाने वालों, बाहुबलियों ,बमबाजों की
पार्टी बन गयी। अपराधियों और कारपोरेट धर्मगुरूओं की बड़ी -बड़ी टोलियां संघ परिवार
के विभिन्न संगठनों में घुस आयीं और संघ परिवार और उसकी राजनीति का उसने चरित्र ही
बदल दिया।
राममंदिर आंदोलन के पहले भाजपा का जनाधार छोटे दुकानदार,व्यापारी और मध्यवर्ग के
दब्बू और सभ्य किस्म के लोग हुआ करते थे,लेकिन राममंदिर आंदोलन ने भाजपा और संघ
परिवार के संगठनों के इस सामाजिक चरित्र को गुणात्मक तौर पर बदल दिया। अब भाजपा
बाहुबलियों और आक्रामक लोगों की पार्टी बन गयी। पहले भाजपा और संघ के लोग छिपकर
दंगे करते थे। लेकिन इस आंदोलन के बाद दंगा करना, समूह बनाकर हमले करना,आम बातचीत
में हिंसक और घृणा की भाषा बोलना। खासकर मुसलमानों के खिलाफ संघ परिवार ने अहर्निश
हिंसाचार का रूख अख्तियार कर लिया। मुसलमानों के खिलाफ वाचिक हिंसा के जरिए माहौल
बनाया और उन पर शारीरिक हमले किए।
राममंदिर आंदोलन के पहले भाजपा और संघ परिवार की जो राजनीतिक इमेज थी वही इमेज
इस आंदोलन के बाद नहीं रही। राममंदिर आंदोलन के पहले भाजपा ने भय की भाषा का
इस्तेमाल न्यूनतम किया था लेकिन राममंदिर आंदोलन के बाद भय और आतंक की भाषा ने
भाजपा के नेताओं और समूचे संगठन पर कब्जा जमा लिया।
संघ परिवार की ‘जी’ लगाकर बोलने की शैली खत्म हो गयी और अब संघ के नेता लगातार
आक्रामक भाषा, माफिया सरदारों की भाषा बोलने लगे। इनका नया बाहुबली नारा था
‘जयश्रीराम’। ‘जयश्रीराम’ के नारे और राममंदिर आंदोलन के बहाने संघ परिवार ने अपना
कायाकल्प किया। अपने को उग्र मुस्लिम विरोधी बनाया। इतिहास को विकृत किया। कानून की
अवमानना की। लोकतंत्र का अपमान किया। लोकतंत्र के अपमान की भाषा को राजनीति और
मीडिया की आमभाषा बना दिया।
आरएसएस प्रधान मोहन भागवत का ताजा बयान नए खतरे के संकेतों से भरा है। उन्होंने
कहा है कि वे उपलब्ध कानूनी विकल्पों का इस्तेमाल करेंगे। आश्चर्य की बात है कि संघ
परिवार का अभी तक यही मानता रहा है कि मंदिर के मसले पर अदालत की राय नहीं मानेंगे।
सिर्फ वही फैसला मानेंगे जो उनके पक्ष में आएगा। सवाल यह है कि कानून के प्रति यह
नजरिया क्या सभ्यता का प्रतीक है ?
(लेखक
वामपंथी चिंतक और कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी
विभाग में प्रोफेसर हैं)