हमारे साहित्यकार यह मानकर चल
रहे हैं अमरीकी नव्य उदार आर्थिक नीतियां बाजार,अर्थव्यवस्था, राजनीति आदि को
प्रभावित कर रही हैं लेकिन हिन्दीसाहित्य और साहित्यकार उनसे अछूता है। असल में यह
उनका भ्रम है। इन दिनों हिन्दीसाहित्य और साहित्यकार पूरी तरह नव्य उदार नीतियों की
चपेट में आ गया है।
इन दिनों विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं,टीवी चैनलों आदि में जो साहित्य समीक्षा आ रही है उसका नव्य उदारतावाद से
गहरा संबंध है। वह मासकल्चर का हिस्सा
है।यह अचानक नहीं है कि साहित्य के हिन्दी में सबसे बड़े आलोचक के रूप में नामवर
सिंह जाने जाते हैं, वे ही
मासकल्चरीय पुस्तक समीक्षा के भी प्रमुख समीक्षक हैं। वे अब टीवी पर समीक्षा करते
हैं। वैसे उन्होंने पुस्तक समीक्षा नहीं लिखी है। यही कार्य अपने तरीके से अनेक
साहित्यिक पत्रिकाएं भी कर रही हैं। इस समीक्षा का मूल लक्ष्य है किताब का बाजार
तैयार करना,प्रकाशक का मुनाफा
बढ़ाना,लेखक की प्रतिष्ठा में
इजाफा करना। इसमें लेखक और किताब जनप्रिय बनाने,प्रशंसक पैदा करने का भाव प्रमुख है। इसका
आलोचना के धर्मनिरपेक्ष ज्ञानकांड से कोई संबंध नहीं है। एडवर्ड सईद के शब्दों में
आलोचना की भूमिका बुनियादी तौर पर मूलगामी, धर्मनिरपेक्ष,अन्वेषकीय और तुलनात्मक रूप से गतिशील होती
है। आलोचना
मूलत: बौद्धिक और विवेकपूर्ण (रेशनल) गतिविधि है। मासकल्चरजनित साहित्य समीक्षा ने
आलोचना का विभ्रम पैदा किया है। यह इरेशनल गतिविधि है। यह आलोचना नहीं मासकल्चर है।
इसने आलोचना में गतिरोध पैदा किया है।
नव्य उदार समीक्षा फंडा है कम लिखो ज्यादा कमाओ। कम पढ़ो ज्यादा बोलो।
कॉमनसेंस में सोचो और बोलो। कुछ लोग यह मानकर चल रहे हैं कि गंभीर आलोचना
तो फलां-फलां आलोचक ही कर सकता है, हम तो बेहतर सोच ही नहीं सकते। वहीं दूसरी ओर सोचने वाले आलोचकों की हालत
इस कदर पतली है कि वे कम सोच रहे हैं और कम पढ़ रहे हैं। वे दोहरा ज्यादा रहे हैं।
दोहराने वालों अथवा वाचाल किस्म के आलोचकों में आलोचनात्मक विनम्रता नहीं
है,वे अन्य को कम पढ़ते
हैं,जिसे पढ़ते हैं उसका नाम
,संदर्भ छिपाते हैं,
अन्य की बातों को अपने नाम
से,मौलिक समीक्षा के नाम से
चलाते हैं ।
आलोचना का कोई एक रूप,प्रकार,स्कूल आदि तय करना मुश्किल है,आलोचना अनेकरूपा है। आलोचना को किसी एक
स्थान,एक विचारधारा आदि में
सीमित करके देखना सही नहीं होगा। हम जब आलोचना का वर्गीकरण करते हैं तो यह एक
स्वाभाविक कार्य है,क्योंकि
प्रत्येक किस्म की आलोचना स्वयं की संरचनाओं की भी आलोचना होती है। अच्छी आलोचना वह
है जो आत्म-चेतस हो। चूंकि हिन्दी में आलोचना की आकांक्षा अभी भी बची
है,बिखरे हुए रूप में आलोचना
लिखी जा रही है अत: वह मौजूदा ठहराव से भी मुक्त होगी। आलोचना का स्वरूप बदलेगा।
आलोचना का नया बदला हुआ रूप बहुत कुछ सम-सामयिक विचार,संचार तकनीक,पद्धति और इण्टरडिसिपिलनरी एप्रोच पर निर्भर
है। आलोचना जितना एकांगी दायरों की कैद से मुक्त होगी वह ज्यादा जनतांत्रिक होगी।
नए दौर में आलोचना अपने को वर्चुअल बना चुकी है। आलोचना के वर्चुअल होने का
अर्थ है आलोचना का अकेलापन। पहले आलोचना साहित्य से जुड़ी थी,साहित्य के पाठक से जुड़ी थी,आलोचक,लेखक और कृति के बीच प्रत्यक्ष संबंध
था,किंतु लंबे समय से यह संबंध
टूट चुका है। लेखक और आलोचक के बीच अंतराल पैदा हो गया है।
नव्य उदार दौर में आलोचक और लेखक दोनों में अपना अस्तित्व बनाए रखने की
इच्छा तो है किंतु दोनों में एक साथ रहने,संवाद करने और एक-दूसरे से सीखने और सिखाने की आकांक्षा खत्म हो गयी है।
फलत: लेखक अकेला है और आलोचक भी अकेला है। दोनों में अलगाव पैदा हो गया है। अब ये
दोनों एक-दूसरे से सिर्फ प्रशंसा चाहते हैं,आलोचना नहीं चाहते। आलोचना रचना का स्पर्श
करके निकल जाती है जिसे हम पुस्तक समीक्षा के नाम से जानते है। पुस्तक समीक्षा
आलोचना का स्पर्श है, आलोचना
नहीं है। रचना से बड़ा लेखक का अहं हो गया है। लेखक आलोचक की कंपनी पसंद करता है
किंतु आलोचना पसंद नहीं करता,आलोचना करते ही नाराज हो जाता है। आलोचना वह है जिसमें विश्लेषण
हो,व्याख्या हो,गहराई में जाकर विवेचन किया गया
हो,शब्दों के
बाहुल्य,शब्दों के अभाव को
आलोचना नहीं कहते। रचना के मर्म का उद्धाटन किया जाय। आलोचना का काम यह भी है कि वह
रचना को उसके व्यक्त लक्ष्य के परे ले जाए,पाठक को अनुशासित करने की बजाय खास किस्म की
गतिविधि के लिए प्रेरित करे। आलोचना का बुनियादी कार्य है प्रतिरोध करना और
धर्मनिरपेक्ष बनाना।जो आलोचना कठमुल्लापन अथवा पोंगापंथीभाव पैदा करती है उसे
आलोचना नहीं कहते। आलोचना को जनतंत्र चाहिए। आलोचना और जनतंत्र की प्रक्रियाओं के
गर्भ से धर्मनिरपेक्ष समीक्षा विमर्श पैदा होता है।
नव्य उदार समीक्षा निष्पन्न यथार्थ या साहित्य में सच्चे की भक्त है। उसे
साहित्य में सत्य के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा। यह आलोचना का भ्रष्टीकरण है।
खासकर निष्पन्न अतीत के प्रति मोह बढ़ा है। अतीत कोई निष्पन्न या
कम्प्लीट,अपरिवर्तनीय तत्व नहीं
है।बल्कि उसे बार-बार निर्मित किया गया है। अतीत का जो भी बोध हमारे पास है उसका
अतीत से कम वर्तमान के नजरिए से ज्यादा संबंध है। अतीत को अतीत के नजरिए से नहीं
वर्तमान के नजरिए से देखा जाना चाहिए। वर्तमान के नजरिए से अतीत को देखने का अर्थ
है अतीत को परिवर्तनीय,गतिशील और
निरंतर अपडेटिंग की प्रक्रिया का हिस्सा बना देना। जिस तरह वर्तमान अपने को अपडेट
करता है,अतीत भी मूल्यांकन और
पुनर्मूल्यांकन के जरिए अपने को अपडेट करता है।यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। अतीत को
अपडेट करने का काम हिन्दी में बंद पड़ा है। अब हम अतीतपूजक मात्र होकर रह गए हैं।
नव्य उदार विचारों की साहित्यव्यवहार और आदतों में बाढ़ आ गयी है वे बता रहे
हैं सभ्यता और संस्कृति का प्रकाश भारत में तब आया जब अंग्रेजों का शासन आया था। वे
बता रहे हैं लिंगभेद स्वाभाविक है। जो जैसा है उसे वैसा ही मानो। वैसा ही बनाए रखो।
वे संस्कृति के विमर्श को लिंगभेद,राष्ट्रवाद,नस्ल,बॉयोलॉजी आदि के
साथ जोड़कर पेश कर रहे हैं। इसके बहाने वे हमारे ज्ञान को ही प्रदूषित करने
,विकृत करने, साधारण जनता को ज्ञान से वंचित करने का प्रयास
कर रहे हैं।
संस्कृति हमारे सांस्कृतिक रूपों का ही खजाना नहीं है,बल्कि ज्ञान का भी खजाना है, संस्कृति को जानने का अर्थ है नॉलेज सोसायटी
में दाखिल होना।संस्कृति के जरिए अवधारणा,वस्तु,विचार,मूल्य आदि के
निर्माण की प्रक्रिया का ज्ञान होता है। नव्यउदार विचारकों ने संस्कृति को
नस्ल,साम्प्रदायिकता,
धर्म, राष्ट्रवाद और जीवन शैली से जोड़ा है। हमें
संस्कृति को ज्ञान और प्रतिरोध से जोड़ना चाहिए। ज्ञान और प्रतिरोध हमारी अस्मिता
की धुरी हैं। नव्य उदार नजरिए में अस्मिता की धारणा में सब कुछ अनालोचनात्मक रूप से
स्वीकार कर लेने पर जोर है। हमें इसके प्रति आलोचनात्मक नजरिए पर जोर देना चाहिए।
अस्मिता के पीछे निहित निस्सारता का उदघाटन करना चाहिए। अनुमान की बजाय तर्क और
प्रमाण पर जोर देना चाहिए।
नव्य उदार नजरिया ‘भेद’ पर जोर देता है। ‘भिन्नता’ जोर दिया जा रहा है।
कायदे से साहित्य को ‘भेद’ के बाहर ले जाने की जरूरत है। भारत में 'जातिभेद' सबसे बड़ा 'भेद' है। इस 'भेद' का उल्लेख करने से कोई नहीं बचा है। सवाल यह
है क्या साहित्यिक कृति या इतिहास में 'जाति' का उल्लेख
'भेद' के औपनिवेशिक दायरे में ले जाता है ?
यहां यह देखना रोचक होगा कि आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल अपने इतिहास में लेखक के संदर्भ में 'जाति' का इस्तेमाल करते हैं,जबकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लेखक के
संदर्भ में 'जाति' का इस्तेमाल नहीं करते। 'जाति' हमारे यहां 'भेद' का हिस्सा है, द्विवेदीजी अपनी रचनाओं में 'भेद' के परे जाते हैं। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में
'जाति' को 'भेद' से
जोड़ा,'व्यवस्था' से जोड़ा,द्विवेदीजी इसके परे जाते हैं। भारत के
इतिहासकारों ने इतिहास लिखते समय 'जाति' को इतिहास का
हिस्सा बनाकर पेश किया,जाति के
इतिहास का हिस्सा बन जाने से समस्या और भी जटिल हुई है। जाति का जनगणना का हिस्सा
बन जाने से जाति व्यवस्था पहले से ज्यादा पुख्ता हुई है। औपनिवेशिकता ने
'जाति' को भारतीय संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बनाया
,संस्कृति का मर्म
बताया,आचार्य द्विवेदीजी ने
संस्कृति के विमर्श में जाति को कभी मर्म तो दूर की बात है, हाशिए पर भी जगह नहीं दी है।बल्कि उपन्यासों
में एथनिक पहचान का इस्तेमाल जरूर किया है। द्विवेदीजी के यहां 'जाति' प्रमुख नहीं है,पेशा प्रमुख है, व्यक्ति के गुण प्रमुख हैं। जबकि प्रेमचंद के
यहां जाति और गुण का चित्रण है साथ ही जाति वर्चस्व के रूपों का चित्रण है। इसका
अर्थ यह नहीं है कि प्रेमचंद 'जातिप्रथा' के समर्थक
थे,बल्कि इसका अर्थ यह है कि
प्रेमचंद औपनिवेशिक केटेगरी के परे जाकर सोच नहीं पाते,द्विवेदीजी इस दायरे का अतिक्रमण कर जाते हैं।
इसी से जुड़ी एक और समस्या है वह है 'जातिभेद' का उद्धाटन
क्या साम्राज्यवाद के पक्ष में जाता है या विपक्ष में ? रामचन्द्र शुक्ल और प्रेमचंद के पक्षधरों को
इस सवाल के पेंच खोलने चाहिए। 'जातिभेद' के प्रश्नों को
खोलने में देरिदा के 'डिफरेंस' से भी कोई मदद
नहीं मिलेगी। इसका प्रधान कारण यह है कि 'डिफरेंस' में निरंतर
स्थगन का भाव है। इसका अर्थ है ' डिफरेंस' का निरंतर बने
रहना। 'अदर' की संरचनात्मक अनुपस्थिति। 'अदर' या 'डिफरेंस' की धारणा
असंपूर्ण धारणा है। इससे 'अदर' की मुक्ति संभव
नहीं है।
नव्य उदारपंथी आलोचक 'सार्वभौम' की बजाय
स्थानीयता पर जोर दे रहे हैं,सांस्कृतिक बहुलतावाद पर जोर दे रहे हैं। सच यह है
यथार्थ के जिस सार्वभौम रूप की हम अभी तक
पूजा करते रहे हैं उसमें यथार्थ के वैविध्य का नकार छिपा है। सार्वभौम यथार्थ से
भिन्न यथार्थ का कैनवास काफी बड़ा है।यथार्थ का एक रूप सार्वभौम हो सकता है किंतु
यथार्थ का वही एकमात्र आदर्श मानक नहीं हो सकता। साहित्य में यथार्थ के उतने ही
मानक होंगे जितने व्यक्ति समाज में हैं,अत: यथार्थ की सार्वभौम केटेगरी बेकार और संकुचित केटेगरी है। इसी तरह
नैतिकता का कोई सार्वभौम मानक नहीं हो सकता, एक जैसी नैतिकता नहीं हो सकती है,
सार्वभौम के बहाने हमारे साहित्य में
औपनिवेशिकता ने जिस तरह स्वातंत्र्योत्तर आलोचना में प्रवेश किया है उससे मुक्त
होने का रास्ता खोजने की जरूरत है। 'सार्वभौम' की खोज के
आधार पर प्रेमचंद का टालस्टाय,लु
शुन आदि के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया गया,जो गलत है।कालान्तर में यथार्थवाद संबंधी बहस
के दौरान भी आलोचकों ने 'सार्वभौम' के तत्व के
आधार पर साहित्य की आलोचना की। इसके कारण समूची बहस बहुत ही संकुचित दायरे में
केन्द्रित होकर रह गयी। यथार्थ वही नहीं है जो किसी बड़े लेखक ने चुना है और बहस के
केन्द्र मे है,साहित्य वह भी है
जो सार्वभौम नहीं है ,अज्ञात है
और बहस के दायरे के बाहर है।