फ़िरदौस ख़ान
भारतीय साहित्यकार संघ के अध्यक्ष डॉ. वेद व्यथित का खंड काव्य न्याय याचना एक अनुपम कृति है. जैसा नाम से ही ज़ाहिर है कि इसमें न्याय पर सवाल उठाए गए हैं. वह कहते हैं, यह ठीक है कि जानबूझ कर किया गया अपराध अनजाने में हुए अपराध से कहीं भयावह है, लेकिन लापरवाही में किया गया अपराध भी कम भयावह नहीं है. ज़रूर कहीं उसके अवचेतन में व्यवस्था और अनुशासन की अवहेलना है. ठीक है, गंधर्व ने जानबूझ कर ऋषि की अंजलि में नहीं थूका, लेकिन क्या कहीं भी थूक देना उचित है? क्या यह अनुशासनहीनता नहीं है? यह उसकी मदमत्तता और अभिमान नहीं तो क्या है? दूसरा सवाल पश्चाताप का उठाया गया है. गंधर्व चित्रसेन ने ख़ूब पश्चाताप किया है. इसलिए उसे क्षमा कर देना चाहिए. क्यों कर देना चाहिए? पश्चाताप करना उसका व्यक्तिगत मामला है. अपराधी को पश्चाताप तो करना ही चाहिए, लेकिन मात्र पश्चाताप के बाद वह क्षम्य है तो व्यक्ति कुछ भी अपराध करके पश्चाताप कर लेगा. ऐसे में न्यायालय या व्यवस्था का क्या महत्व रह जाएगा? इन्हीं सवालों को इस पौराणिक कथा के ज़रिये उठाने की कोशिश की गई है. विषय तो इसका उत्कृष्ट है ही, भाषा शैली भी सौंदर्य से परिपूर्ण है.

खंड काव्य के प्रथम सर्ग में वह लिखते हैं:-
कब होती है तृप्त देह यह
राग रंग भोगों से
जितना करते यत्न शांत
करने का इस तृष्णा को
वह तो और सुलग जाती,
ऐसी ही प्रतिपल ज्वाला सी
धधक रही थी उनमें
उसी आग को लेकर दोनों
उड़े चले जाते हैं.

द्वितीय सर्ग में भी सुंदर शब्दों से वह वातावरण का मनोहारी वर्णन करते हैं:-
पूरब रंगा सुहाग सूर्य की
सिंदूरी आभा लेकर
विकसे कमल हुआ हर्षित मन
ऊषा का रूपवरण,
अनुकंपा हे ईश! तुम्हारी
तुमको है शत-शत बार नमन
प्रकटो अनंत ज्योति के स्वामी
अंजलि करो स्वीकार प्रवर.

डॉ. वेद व्यथित की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनमें मधुरिमा (काव्य नाटक), आ़िखर वह क्या करें (उपन्यास), बीत गए वे पल (संस्मरण), आधुनिक हिंदी साहित्य में नार्गाजुन (आलोचना), भारत में जातीय सांप्रदायिकता (उपन्यास) और अंतर्मन (काव्य संग्रह) शामिल हैं. उन्होंने व्यक्ति चित्र नामक नवीन विधा का सृजन किया है. इसके अलावा त्रिपदी काव्य की नवीन विधा के सृजन का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. पंजाबी और जापानी भाषा में उनकी कई रचनाओं का अनुवाद हो चुका है.

बक़ौल डॉ. मनोहर लाल शर्मा, यह युग प्रबंध काव्यों का युग नहीं रह गया है. निराला जी की पंचवटी प्रसंग, राम की शक्ति पूजा और अज्ञेय की असाध्य वीणा जैसी लंबी कविताएं उक्त विवशता के स्वीकरण का पूर्वाभास देती हैं. ऐसी कविताओं में कवि जीवन के समग्रत्व का समावेश करने की केवल चेष्टा कर सकता है. लंबी कविताओं में फिर भी वह बात नहीं आ पाती, जो प्रबंध काव्यों में जीवन के अनेक विषयों, नानाविध मनोभावों, क्रिया-व्यापारों, दृश्यों एवं प्रसंगों की उपस्थिति द्वारा सहज देखने को मिल जाती है. इसी बिंदू से प्रबंध काव्यों की अपरिहार्यता सिद्ध हो जाती है. युग की बेबसियां चाहे कितना ही दबाव रचनाकारों और सहृदयों के मानस पटल पर बनाती रहें, यदि हमें अपने समशील मानव प्राणियों, मानवेतर प्राणियों के मनोभावों, क्रियाकलापों और नानाविध प्रकरणों में अपनी दिलचस्पी को व्याहत नहीं होने देना है तो हमें अंतत: ऐसे प्रबंधों की प्रयोजनीयता को हृदयंगम करना होगा. डॉ. वेद व्यथित का खंड काव्य न्याय याचना इसी मांग की पूर्ति और प्रतिपूर्ति का साहसपूर्ण उपक्रम है. वह जानते होंगे कि धारा के विपरीत किश्ती को तैरा देना कितना विवेकसम्मत है, पर हिम्मती लोग ऐसा कर दिखाते हैं. प्रस्तुत खंड काव्य आज के प्रतिकूल वातावरण, परिवेश और विषम प्रतिक्रियाओं के होते हुए भी एक स्वागत योग्य क़दम है. यह खंड काव्य नए रचनाकारों के लिए भी प्रेरणादायी है.

डॉ. व्यथित कहते हैं:-
तुम न्याय के मंदिर की कहानी लिखना
सूली पे चढ़ू उसकी ज़ुबानी लिखना,
तुम ख़ून को मेरे ही बनाना स्याही
अस्थि को क़लम मेरी बनाकर लिखना.

निस्संदेह, यह खंड काव्य अपने विषय और प्रस्तुति की रोचकता के कारण पठनीय है.

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