उपाध्याय
देश में 14 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में खेती होती है, जिसमें से 9 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र बारानी (शुष्क या असिंचित) है, जो पूरी तरह बरसात पर निर्भर है। बरसात पर निर्भरता की मार सबसे अधिक छोटे और मझोले किसानों को झेलनी पड़ती है। वर्षा पर निर्भर क्षेत्र अनिश्चित वर्षा और सूखे से प्रभावित रहते हैं, जिससे उत्पादकता कम होती है। अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में वर्षा की अनिश्चितता और असमान वितरण की समस्या तो रहती ही है, सूखे की संभावना से उबर पाना भी ऐसे क्षेत्रों के किसानों के लिए आसान नहीं होता। अब बारानी खेती से दूसरी हरित क्रांति की नींव मजबूत की जा रही है, ताकि आने वाले दशकों में बढ़ती हुई आबादी की खाद्यान्न समस्या को हल किया जा सकें।
वर्षा आधारित क्षेत्रों की समस्याओं को हल करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के कई संस्थानों में कार्य चल रहा है। हैदराबाद स्थित केन्द्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान (क्रीडा) में सस्य विज्ञान, मृदा भौतिकी, मृदा रसायन विज्ञान, जल विज्ञान, सूक्ष्म जीव विज्ञान, पादप सुरक्षा, पादप कार्यिकी, आणविक जीव विज्ञान, पशु विज्ञान एवम् कृषि वानिकी से संबंधित प्रयोगशालाएं है, जिनमें तमाम आधुनिकतम सुविधाएं उपलब्ध है। संस्थान के अधीन हयातनगर में 280 हेक्टेयर क्षेत्र और गुनेगल में 80 हेक्टेयर का अनुसंधान फार्म है, जहां तैयार ढांचागत और क्षेत्रीय प्रयोगों व प्रदर्शनों में सहायक सुविधाएं उपलब्ध हैं। इन फार्मों की सबसे बड़ी विशेषता है कि इनकी मिट्टी मुख्य रूप से एल्फीसाल हैं, जो कि देश के अधिकांश वर्षा निर्भर कृषि क्षेत्रों में आमतौर पर मिलती है। इन दोनों अनुसंधान फार्मों की औसतन वार्षिक वर्षा 750 मिमी (हयातनगर) और 690 मिमी (गुनेगल) आंकी गई है।
संस्थान के संसाधन प्रबंध डिवीजन के प्रमुख डॉ. जी. आर. कोरवार के अनुसार संस्थान में देश भर में फैले अपने 25 केन्द्रों के लिए स्थानीय स्थिति के अनुसार भूमि एवम् फसल को लेकर कार्यक्रम निर्धारित किये जाते हैं। उसके बाद हर केन्द्र में प्रौद्योगिकी विकसित की जाती है और संबंधित राज्य सरकार के सहयोग से उसका प्रसार किया जाता है। देश भर में फैले 610 कृषि विज्ञान केन्द्रों में से 100 को संस्थान से जोड़ा गया है, जिनमें जलवायु परिवर्तन के बारे में किसानों को सप्ताह भर पूर्व जानकारी देने की योजना को संचालित किया जाएगा। अब तक ऐसे 90 स्वचालित मौसम केन्द्र स्थापित हो चुके हैं। वर्तमान वित्तीय वर्ष से 100 स्वचालित मौसम केन्द्र आपस में जुड़कर और कार्य करना शुरू कर देंगे।
समूचे विश्व में कृषि पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है, लेकिन भारत जैसे देशों के लिए यह अधिक हानिकारक हो सकता है, जहां अधिकांश आबादी खेती पर निर्भर है। हाल के वर्षो में यह प्रभाव और गहरा हुआ है। एक ही क्षेत्र में जहां बाढ़ का प्रकोप होता है, वहीं दूसरी ओर भयंकर सूखे की मार पड़ती है। जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों और पशु संपदा पर तो प्रभाव पड़ ही रहा है, पानी का संकट भी गहराता जा रहा है। मिट्टी के स्तर में गिरावट, जैव विविधता की क्षति, उत्पादन और उत्पादकता में कमी जैसी अनेक समस्याएं खेती के लिए चुनौती बनकर उभर रही हैं। इन चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने फरवरी 2011 में जलवायु प्रतिरोधक कृषि पर राष्ट्रीय पहल (एनआईसीआरए) की शुरूआत की। परिषद के 21 संस्थानों को इन पर रणनीतिक अनुसंधान का दायित्व सौंपा गया है। इस पूरी परियोजना को क्रीडा संचालित कर रहा है, जिसका सम्पूर्ण निरीक्षण आईसीएआर का प्राकृतिक संसाधन प्रबंध डिवीजन करता है। 11वीं योजना में इसके लिए 350 करोड़ रूपये का बजट प्रावधान था, जिसमें से 200 करोड़ रूपये 2010-11 में तथा 150 करोड़ रूपये 2011-12 में आवंटित किये गये। पिछले आठ महीने में परियोजना के अंतर्गत अनुसंधान, प्रौद्योगिकी प्रदर्शन, क्षमता निर्माण एवम् प्रायोजक/प्रतियोगी अनुसंधान में कार्य किया गया।
कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से करीब 1 लाख तथा अखिल भारतीय बारानी कृषि अनुसंधान परियोजना के नेटवर्क के माध्यम से 20 हजार किसानों को इसकी गतिविधियों से जोड़ा गया। फरवरी-मार्च 2011 में आयोजित आठ क्षेत्रीय कार्यशालाओं में सभी 100 कृषि विज्ञान केन्द्र शामिल हुए। पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू-कश्मीर में जलवायु परिवर्तन अनुसंधान के ढ़ांचागत एवम् क्षमता में सुधार, औद्योगिक प्रदर्शन का 200 जिलों में विस्तार, राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के माध्यम से महत्वपूर्ण क्षेत्र के विशिष्ट मुदृों पर कार्य और कुछ अधिक महत्वपूर्ण फसलों को शामिल करने आदि का लक्ष्य 12वीं योजना के लिए निर्धारित किया गया है।
वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. वी. यू. एम. राव के अनुसार मौसम आधारित कृषि मौसम सलाह सेवाएं (एएएस) तथा स्वचालित मौसम स्टेशन (एडब्ल्यूएस) नेटवर्क के लिए देश भर में 100 कृषि विज्ञान केन्द्र चुने गये। 20 फरवरी, 2012 तक 91 स्थानों पर निर्माण कार्य पूरा हो चुका है, इनमें से 86 केन्द्रों (स्थानों) में उपकरण लगाने का कार्य भी पूरा हो चुका है। इस पूरे नेटवर्क को क्रीड़ा, हैदराबाद के सेन्ट्रल सर्वर से जोड़ा जा चुका है। इनसे संबंधित आंकड़े एनआईसीआरए की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।
जल संग्रहण और पुनर्उपयोग : राष्ट्रीय कृ्षि नवोन्मेष परियोजना (एनएआईपी) के अंतर्गत फार्म तालाब परियोजना को बढ़ावा दिया गया है। वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एम. उस्मान के अनुसार गोंडवाना क्षेत्र और दक्षिण भारत में इसके अंतर्गत 30 लाख तालाब बनाये गये, जिनसे 50 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई हुई। कई किसानों को प्रति एकड़ 10,500 रूपये की अतिरिक्त आय हुई। क्रीडा ने फसल कटाई के बाद उसके अवशेष की कटाई के लिए उपकरण तैयार किया है। इससे 2 से 3 टन बायोमास को प्रति हेक्टेयर रि-साइकिल कर 10 से 20 किलो तक नाइट्रोजन की बचत हो सकती है।
ग्रामीण पशु पालन :- राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेष परियोजना के अंतर्गत बरसात पर निर्भर क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता में वृद्धि के जरिये ग्रामीण पशुपालन का कार्य 2007 में शुरू किया गया था। क्रीडा ने आन्ध्रप्रदेश के आठ पिछड़े जिलों में 10 संगठनों के समूह के माध्यम से इसे लागू किया। इससे नई कृषि तकनीक का इस्तेमाल करने से फसलों से मुनाफे में 20 प्रतिशत वृद्धि हुई, जिसमें मक्का में जीरो टिल का प्रयोग किया गया। करीब 250 तालाब बनाये गये या उनकी मरम्मत की गई, जिससे औसत फसल वृद्धि 152 प्रतिशत तक हुई। पानी की बचत करते हुए सिंचाई तकनीक, भू-जल साझीदारी तथा नवीनीकृत ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दिया गया। कार्यक्रमों के माध्यम से करीब 15 लाख रूपये की अतिरिक्त आमदनी अर्जित की गई तथा मौसम आधारित बीमा का लाभ 240 कपास किसानों ने उठाया, जबकि कस्टम-हायरिंग केन्द्रों की स्थापना और जरूरत पर आधारित कृषि उपकरण एवम् मशीनरी का लाभ करीब 11 हजार किसानों ने उठाया।
ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन :- सामुदायिक स्तर पर ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन में कमी के लिए वारंगल जिले के तीन गांवों में 1945 परिवारों को परियोजना के दायरे में लाया गया। पेड़ों पर आधारित प्रणाली को सबसे अच्छा पाया गया और इससे मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट को रोकने में मदद मिली। ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन कम करने के लिए पेड़ों पर आधारित, कृषि आधारित, ऊर्जा आधारित और घरेलू स्तर पर काम किये गये।
किसान हितैषी उपकरण :- क्रीडा ने अनेक किसान हितैषी उपकरण तैयार किए हैं जो वर्षा आश्रित खेती के लिए बहुत उपयोगी हैं। क्रीडा इन उपकरणों को किराये पर किसानों को उपलब्ध कराने की योजना भी चला रही हैा रो राइजर प्लांटर, खेत में बीज और खाद की मात्रा को सही तरीके से पहुंचाने के साथ बरसाती पानी को संरक्षित करने में सहायक है। डॉ. कोरवार ने बताया कि इसकी मार्केटिंग के लिए 28 समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर हुए हैं। चुने हुए कृषि विज्ञान केन्द्र भी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश सरकार ने 140 कस्टम हायरिंग सेंटर खोले हैं और ओडिशा में 1500 की बिक्री हुई है। इसकी लागत करीब 60 हजार रूपये है। मांग अधिक होने पर कीमत और कम हो सकती हैा मिट्टी और जल संरक्षण के लिए यह बहुत उपयुक्त है। इसके उपयोग से किसानों को 30-35 दिन का अधिक समय मिल जाता है और लागत भी कम आती है।
डॉ. कोरवार के अनुसार कर्नाटक में वैदर एडवाइजरी से कीटनाशकों के उपयोग में 30 प्रतिशत बचत हुई है और उत्पादन में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इनमें बागवानी फसलें अधिक हैं। अगले चार वर्षो के भीतर गेंहू की कम अवधि वाली और ताप सहन पांच किस्में किसानों तक पहुंच जायेंगी। उन्होंने बताया कि क्रीडा ने हरबीसाइड एप्लीकेटर सह-प्लांटर तैयार किया है। यह किसानों के लिए फायदेमंद है, क्योंकि इसमें एक साथ बुआई, खाद का छिड़काव तथा स्प्रे करने की सुविधा है। दो फसलों के लिए भी यह उपयुक्त है।
कृषि विज्ञान केन्द्र(केवीके) की उपलब्धियां :- केन्द्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान के साथ रंगारेड्डी जि़ले में स्थित कृषि विज्ञान केन्द्र पिछले 35 वर्ष में किसानों को कृषि तथा इससे संबंधित क्षेत्रों में सहायता एवं मार्गदर्शन प्रदान कर रहा हैं। डॉ. बी.एम.के. रेड्डी ने केवीके की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए बताया कि 2000 से अधिक प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं कौशल आधारित व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर 55,000 से अधिक लोगों को लाभान्वित किया। कृषि, पशुपालन एवम् गृह विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न प्रौद्योगिकयों के 6000 फ्रंटलाइन प्रदर्शन किसानों के खेतों में किये गये, जिसके अंतर्गत 2400 हेक्टेयर खेती में लाभ पहुंचा। पिछले एक वर्ष में विस्तार गतिविधियों में 35 प्रशिक्षण कार्यक्रमों का 750 किसानों ने लाभ उठाया।
केन्द्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान (क्रीडा) जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करते हुए भविष्य के लिए अनेक अनुसंधान कार्यक्रमों पर कार्य कर रहा है। इनमें कस्टम हायरिंग सेवा केन्द्रों को प्रोत्साहन एवं ग्रामीण युवाओं के प्रशिक्षण द्वारा छोटे फार्म यांत्रिकीकरण को बढ़ावा, वर्षा आधारित फसलों में अकाल सहिष्णुता को प्रोत्साहित करने के लिए जैव-प्रौद्योगिकी उपकरणों का प्रयोग, जैविक कृषि को प्रोत्साहन, फार्मस्तर पर कृषि उत्पादों का मूल्य संवर्धन और समेकित कृषि प्रणाली का विकास प्रमुख हैं।
संस्थान बारानी कृषि को बढ़ावा देने के लिए उपलब्ध जल संसाधनों के सही उपयोग एवं प्रभावी सूखा प्रबंधन पर विशेष ध्यान दे रहा है। राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेष परियोजना के माध्यम से बारानी भूमि को हरित भूमि में बदलने और किसानों तक प्रौद्योगिकी को पहुंचाने का कार्य कर रहा है। अतिरिक्त सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में 1.40 लाख तालाबों का निर्माण किया गया, जिससे 50 से 60 लाख हेक्टेयर बारानी क्षेत्र को फायदा पहुंचा और इसके साकारात्मक परिणाम सामने आ रहे है। देश भर में बारानी धरती का चेहरा बदलने की दिशा में सतत प्रयास जारी है।