दशहरे की आहट के साथ पूर्वी और उत्तर भारत के कई राज्यों में ग्रामीण मेलों की शुरुआत हो जाती है। आधुनिकता की तेज रफ्तार ने पिछले कुछ दशकों में इन मेलों का आकर्षण बहुत हद तक छीन लिया है, लेकिन ये मेले कभी देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ और हमारे गांवों की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। देश की प्रकृति और गंध को महसूस करने के बेहतरीन ज़रिए। आज के युवाओं में भले ही इन मेलों के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह गया हो, ऐसे मेलों को देखकर पुरानी पीढ़ी के लोगों के भीतर का बच्चा आज भी मचल उठता है। हाल के वर्षों में कई बार कुछ देर इन मेलों में घूम-घामकर बचपन वाले तिलिस्म को जगाने की कोशिश करता रहता हूं, मगर वह जादू अक्सर नदारद ही मिलता है। मेला देखने के लिए अब न वो बचपन वाली आंखें हैं और न उसे महसूस करने के लिए बच्चों वाला दिल। वैसे शहरीकरण की अंधी दौड़ में ग्रामीण मेलों की आत्मा भी कितनी बच गई है अब !
पिछली पीढ़ी के लोगों को अपने बचपन और किशोर वय में साल भर इन मेलों की प्रतीक्षा रहती थी। इन मेलों का सबसे बड़ा आकर्षण हुआ करता था खाने के लिए तीसी के तेल में बनी तेज गंध वाली लाल-पीली गरम जलेबी, रंग-बिरंगे बतासे, मूढ़ी-पकौड़ी और मुंह में रखते ही उड़ जाने वाली छलना-सी हवा मिठाई या बुढ़िया के बाल। देखने के लिए बाइस्कोप वाला क़ुतुब मीनार और ताजमहल, टेंट में चल रहे जादूघर, छोटे-मोटे सर्कस, सांप और संपेरे, कठपुतली का नाच और मौत का कुआं। खरीदने-पढ़ने के लिए ठाकुर प्रसाद एंड संस, कचौड़ी गली बनारस जैसे प्रकाशकों की किताबें जैसे वशीकरण मन्त्र, जीजा-साली विनोद, लैला-मजनू,शीरी-फरहाद,आल्हा-रूदल, सारंगा -बृजाभार और बिहुला-विषहरी के किस्से, प्रेमपत्र कैसे लिखें, आशिक-माशूक की शायरी, लता की तान, मुकेश और रफ़ी के दर्द भरे नग्मे, घर सजाने के लिए रंग-बिरंगे गुबारे,मिट्टी और लकड़ीके असंख्य खिलौने और नरगिस, मधुबाला, सुरैया, दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद जैसे फिल्मी सितारों की बहुरंगी तस्वीरें।
तब के ग्रामीण मेलों की सबसे बड़ी पहचान होती थी हर दिशा से उठती हुई फिनाइल की तीखी मगर जानी-पहचानी गंध। यह गंध आती थी ग्रामीण स्त्रियों के रंग-बिरंगे कपड़ों से। वे अपने धराऊ महंगे कपडे साल भर पेटियों में छुपाकर रखती थीं और कीड़ों से बचाने के लिए उनपर फिनाइल की गोलियां डाल देती थीं। मेले-ठेले के मौके पर वे कपडे बाहर निकलते थे और उनके निकलते ही घर से मेले तक का वातावरण फिनाइल की गंध से महमहा जाता था। उस दौर में मेले के बड़े हिस्सों पर औरतों का ही कब्ज़ा होता था। मंदिरों में पूजा करती औरतें, समूह में झूम-झूमकर गाती-गुनगुनाती औरतें, किसी पेड़ के नीचे मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाती-खिलाती औरतें, सस्ते श्रृंगार प्रसाधनों की दुकानों पर मोलभाव करती औरतें और मेले में बहुत दिनों बाद मिली माई-बहनों के गले मिल बुक्का फाड़कर रुदन करती औरतें। 'माई रे माई', 'बहिनी रे बहिनी' की संगीतमय टेक के साथ उनका लंबा चलने वाला विलाप और कुछ ही पलों बाद उनके हंसने-खिलखिलाने की आवाजें मेलों का कौतूहल हुआ करती थीं। घर-घर में मौजूद मोबाइल और वीडियो कॉल के इस जमाने में माई-बहनों का वह मेल-मिलाप और रुदन अब इतिहास की वस्तु हो चला है।
उस दौर में लोकगायकों और वादकों की आमदनी का एक बड़ा ज़रिया वे ग्रामीण मेले ही हुआ करते थे जहां उनकी कला से खुश होकर लोग उनपर पैसों की बारिश कर देते थे। उन लोक कलाकारों के पास धार्मिक, पौराणिक और लोकगीतों के अलावा मेला घूमने वाली औरतों को लेकर बनाए हुए दर्जनों गीत होते थे। उन मेलाघुमनी गीतों में मेलों में आवारागर्दी करने वाले मर्दों को कोई कुछ नहीं कहता था। मज़ाक की पात्र हमेशा वे भोली-भाली औरतें ही होती थीं जिन्हें ये मेले साल में एक-दो बार घर की चहारदीवारी से निकलकर दुनिया देखने के मौके देते थे। उनमें से ज्यादातर गीत अब भूल गए, लेकिन एक गीत की कुछ पंक्तियां आज भी याद है।
तीसी-तोरी बेच कर पईसा जुटावेली से, मेलावा में खाएके मिठाई मेलाघुमनी।
साड़ी लाल-पीली पर ओढ़के चदरिया से कर लेली सोरहो सिंगार मेलाघुमनी।
चारि जनि आगे भइली, चार जनि पीछे भइली, रस्ते में झूमर उठावे मेलाघुमनी।
मरद के कम भीड़, मउगी के ठेलाठेली, मेलवा में मारेली नजारा मेलाघुमनी।
अचरा में गुड़ चिउरा, झोरवा में लिट्टी-चोखा, गटकेलि गरम जिलेबी मेलाघुमनी।
नैहरा - ससुरवा के लोग से जे भेंट भईल , बीचे राहे रोदन पसारे मेलाघुमनी।
विकास की तेज रफ्तार में जिन चीजों की बलि चढ़ी है, उनमें लोकजीवन की खुशबू से भरे गांव-देहात के ये मेले भी हैं। मॉल संस्कृति में जी रही आज की पीढ़ी के लिए ये मेले अप्रासंगिक हो चुके हैं, लेकिन जिन लोगों ने इन मेलों में भारतीय गांवों की आत्मा की खुशबू, आत्मीयता महसूस की है, उनकी स्मृतियों में ये मेले हमेशा ही बने रहेंगे। और बनी रहेगी वह सरलता और भोलापन जो हमारे जीवन से धीरे-धीरे खारिज़ हो चला है।
पिछली पीढ़ी के लोगों को अपने बचपन और किशोर वय में साल भर इन मेलों की प्रतीक्षा रहती थी। इन मेलों का सबसे बड़ा आकर्षण हुआ करता था खाने के लिए तीसी के तेल में बनी तेज गंध वाली लाल-पीली गरम जलेबी, रंग-बिरंगे बतासे, मूढ़ी-पकौड़ी और मुंह में रखते ही उड़ जाने वाली छलना-सी हवा मिठाई या बुढ़िया के बाल। देखने के लिए बाइस्कोप वाला क़ुतुब मीनार और ताजमहल, टेंट में चल रहे जादूघर, छोटे-मोटे सर्कस, सांप और संपेरे, कठपुतली का नाच और मौत का कुआं। खरीदने-पढ़ने के लिए ठाकुर प्रसाद एंड संस, कचौड़ी गली बनारस जैसे प्रकाशकों की किताबें जैसे वशीकरण मन्त्र, जीजा-साली विनोद, लैला-मजनू,शीरी-फरहाद,आल्हा-रूदल, सारंगा -बृजाभार और बिहुला-विषहरी के किस्से, प्रेमपत्र कैसे लिखें, आशिक-माशूक की शायरी, लता की तान, मुकेश और रफ़ी के दर्द भरे नग्मे, घर सजाने के लिए रंग-बिरंगे गुबारे,मिट्टी और लकड़ीके असंख्य खिलौने और नरगिस, मधुबाला, सुरैया, दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद जैसे फिल्मी सितारों की बहुरंगी तस्वीरें।
तब के ग्रामीण मेलों की सबसे बड़ी पहचान होती थी हर दिशा से उठती हुई फिनाइल की तीखी मगर जानी-पहचानी गंध। यह गंध आती थी ग्रामीण स्त्रियों के रंग-बिरंगे कपड़ों से। वे अपने धराऊ महंगे कपडे साल भर पेटियों में छुपाकर रखती थीं और कीड़ों से बचाने के लिए उनपर फिनाइल की गोलियां डाल देती थीं। मेले-ठेले के मौके पर वे कपडे बाहर निकलते थे और उनके निकलते ही घर से मेले तक का वातावरण फिनाइल की गंध से महमहा जाता था। उस दौर में मेले के बड़े हिस्सों पर औरतों का ही कब्ज़ा होता था। मंदिरों में पूजा करती औरतें, समूह में झूम-झूमकर गाती-गुनगुनाती औरतें, किसी पेड़ के नीचे मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाती-खिलाती औरतें, सस्ते श्रृंगार प्रसाधनों की दुकानों पर मोलभाव करती औरतें और मेले में बहुत दिनों बाद मिली माई-बहनों के गले मिल बुक्का फाड़कर रुदन करती औरतें। 'माई रे माई', 'बहिनी रे बहिनी' की संगीतमय टेक के साथ उनका लंबा चलने वाला विलाप और कुछ ही पलों बाद उनके हंसने-खिलखिलाने की आवाजें मेलों का कौतूहल हुआ करती थीं। घर-घर में मौजूद मोबाइल और वीडियो कॉल के इस जमाने में माई-बहनों का वह मेल-मिलाप और रुदन अब इतिहास की वस्तु हो चला है।
उस दौर में लोकगायकों और वादकों की आमदनी का एक बड़ा ज़रिया वे ग्रामीण मेले ही हुआ करते थे जहां उनकी कला से खुश होकर लोग उनपर पैसों की बारिश कर देते थे। उन लोक कलाकारों के पास धार्मिक, पौराणिक और लोकगीतों के अलावा मेला घूमने वाली औरतों को लेकर बनाए हुए दर्जनों गीत होते थे। उन मेलाघुमनी गीतों में मेलों में आवारागर्दी करने वाले मर्दों को कोई कुछ नहीं कहता था। मज़ाक की पात्र हमेशा वे भोली-भाली औरतें ही होती थीं जिन्हें ये मेले साल में एक-दो बार घर की चहारदीवारी से निकलकर दुनिया देखने के मौके देते थे। उनमें से ज्यादातर गीत अब भूल गए, लेकिन एक गीत की कुछ पंक्तियां आज भी याद है।
तीसी-तोरी बेच कर पईसा जुटावेली से, मेलावा में खाएके मिठाई मेलाघुमनी।
साड़ी लाल-पीली पर ओढ़के चदरिया से कर लेली सोरहो सिंगार मेलाघुमनी।
चारि जनि आगे भइली, चार जनि पीछे भइली, रस्ते में झूमर उठावे मेलाघुमनी।
मरद के कम भीड़, मउगी के ठेलाठेली, मेलवा में मारेली नजारा मेलाघुमनी।
अचरा में गुड़ चिउरा, झोरवा में लिट्टी-चोखा, गटकेलि गरम जिलेबी मेलाघुमनी।
नैहरा - ससुरवा के लोग से जे भेंट भईल , बीचे राहे रोदन पसारे मेलाघुमनी।
विकास की तेज रफ्तार में जिन चीजों की बलि चढ़ी है, उनमें लोकजीवन की खुशबू से भरे गांव-देहात के ये मेले भी हैं। मॉल संस्कृति में जी रही आज की पीढ़ी के लिए ये मेले अप्रासंगिक हो चुके हैं, लेकिन जिन लोगों ने इन मेलों में भारतीय गांवों की आत्मा की खुशबू, आत्मीयता महसूस की है, उनकी स्मृतियों में ये मेले हमेशा ही बने रहेंगे। और बनी रहेगी वह सरलता और भोलापन जो हमारे जीवन से धीरे-धीरे खारिज़ हो चला है।