लेखक : प्रो. बी. एन पाण्डेय इतिहासकार, भूतपूर्व राज्यपाल उडीसा, राज्यसभा के सदस्य, इलाहाबाद नगरपालिका के चेयरमैन
जब में इलाहाबाद नगरपालिका का चेयरमैन था (1948 ई. से 1953 ई. तक) तो मेरे सामने दाखिल-खारिज का एक मामला लाया गया। यह मामला सोमेश्वर नाथ महादेव मन्दिर से संबंधित जायदाद के बारे में था। मन्दिर के महंत की मृत्यु के बाद उस जायदाद के दो दावेदार खड़े हो गए थे। एक दावेदार ने कुछ दस्तावेज़ दाखिल किये जो उसके खानदान में बहुत दिनों से चले आ रहे थे। इन दस्तावेज़ों में शहंशाह औरंगज़ेब के फ़रमान भी थे। औरंगज़ेब ने इस मंदिर को जागीर और नक़द अनुदान दिया था। मैंने सोचा कि ये फ़रमान जाली होंगे।

मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हो सकता है कि औरंगज़ेब जो मन्दिरों को तोडने के लिए प्रसिद्ध है, वह एक मन्दिर को यह कह कर जागीर दे सकता हे यह जागीर पूजा और भोग के लिए दी जा रही है। आखि़र औरंगज़ेब कैसे बुतपरस्ती के साथ अपने को शरीक कर सकता था। मुझे यक़ीन था कि ये दस्तावेज़ जाली हैं, परन्तु कोई निर्णय लेने से पहले मैंने डा. सर तेज बहादुर सप्रु से राय लेना उचित समझा। वे अरबी और फ़ारसी के अच्छे जानकार थे। मैंने दस्तावेज़ें उनके सामने पेश करके उनकी राय मालूम की तो उन्होंने दस्तावेज़ों का अध्ययन करने के बाद कहा कि औरंगजे़ब के ये फ़रमान असली और वास्तविक हैं। इसके बाद उन्होंने अपने मुन्शी से बनारस के जंगमबाडी शिव मंदिर की फ़ाइल लाने को कहा। यह मुक़दमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में 15 साल से विचाराधीन था। जंगमबाड़ी मन्दिर के महंत के पास भी औरंगज़ेब के कई फ़रमान थे, जिनमें मन्दिर को जागीर दी गई थी। इन दस्तावेज़ों ने औरंगज़ेब की एक नई तस्वीर मेरे सामने पेश की, उससे मैं आश्चर्य में पड़ गया। डाक्टर सप्रू की सलाह पर मैंने भारत के पिभिन्न प्रमुख मन्दिरों के महंतो के पास पत्र भेजकर उनसे निवेदन किया कि यदि उनके पास औरंगज़ेब के कुछ फ़रमान हों जिनमें उन मन्दिरों को जागीरें दी गई हों तो वे कृपा करके उनकी फोटो-स्टेट कापियां मेरे पास भेज दें।

अब मेरे सामने एक और आश्चर्य की बात आई। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर, चित्रकूट के बालाजी मंदिर, गौहाटी के उमानन्द मंदिर, शत्रुन्जाई के जैन मंदिर और उत्तर भारत में फैले हुए अन्य प्रमुख मंदिरों एवं गुरूद्वारों से सम्बन्धित जागीरों के लिए औरंगज़ेब के फरमानों की नक़लें मुझे प्राप्त हुई। यह फ़रमान 1065 हि. से 1091 हि., अर्थात 1659 से 1685 ई. के बीच जारी किए गए थे। हालांकि हिन्दुओं और उनके मंदिरों के प्रति औरंगज़ेब के उदार रवैये की ये कुछ मिसालें हैं, फिर भी इनसे यह प्रमाण्ति हो जाता है कि इतिहासकारों ने उसके सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, वह पक्षपात पर आधारित है और इससे उसकी तस्वीर का एक ही रुख सामने लाया गया है। भारत एक विशाल देश है, जिसमें हज़ारों मन्दिर चारों ओर फैले हुए हैं। यदि सही ढ़ंग से खोजबीन की जाए तो मुझे विश्वास है कि और बहुत-से ऐसे उदाहरण मिल जाऐंगे जिनसे औरंगज़ेब का गै़र-मुस्लिमों के प्रति उदार व्यवहार का पता चलेगा। औरंगज़ेब के फरमानों की जांच-पड़ताल के सिलसिले में मेरा सम्पर्क श्री ज्ञानचंद और पटना म्यूजियम के भूतपूर्व क्यूरेटर डा. पी एल. गुप्ता से हुआ। ये महानुभाव भी औरंगज़ेब के विषय में ऐतिहासिक दृस्टि से अति महत्वपूर्ण रिसर्च कर रहे थे। मुझे खुशी हुई कि कुछ अन्य अनुसन्धानकर्ता भी सच्चाई को तलाश करने में व्यस्त हैं और काफ़ी बदनाम औरंगज़ेब की तस्वीर को साफ़ करने में अपना योगदान दे रहे हैं। औरंगज़ेब, जिसे पक्षपाती इतिहासकारों ने भारत में मुस्लिम हकूमत का प्रतीक मान रखा है। उसके बारें में वे क्या विचार रखते हैं इसके विषय में यहां तक कि ‘शिबली’ जैसे इतिहास गवेषी कवि को कहना पड़ा-
तुम्हें ले-दे के सारी दास्तां में याद है इतना
कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था

औरंगज़ेब पर हिन्दू-दुश्मनी के आरोप के संबंध में जिस फरमान को बहुत उछाला गया है, वह ‘फ़रमाने-बनारस’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह फ़रमान बनारस के मुहल्ला गौरी के एक ब्राहमण परिवार से संबंधित है। 1905 ई. में इसे गोपी उपाघ्याय के नवासे मंगल पाण्डेय ने सिटि मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया था। एसे पहली बार ‘एसियाटिक- सोसाइटी’ बंगाल के जर्नल (पत्रिका) ने 1911 ई. में प्रकाशित किया था। फलस्वरूप रिसर्च करनेवालों का ध्यान इधर गया। तब से इतिहासकार प्रायः इसका हवाला देते आ रहे हैं और वे इसके आधार पर औरंगज़ेब पर आरोप लगाते हैं कि उसने हिन्दू मंदिरों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था, जबकि इस फ़रमान का वास्तविक महत्व उनकी निगाहों से आझल रह जाता है। यह लिखित फ़रमान औरंगज़ेब ने 15 जुमादुल-अव्वल 1065 हि. (10 मार्च 1659 ई.) को बनारस के स्थानीय अधिकारी के नाम भेजा था जो एक ब्राहम्ण की शिकायत के सिलसिले में जारी किया गया था। वह ब्राहमण एक मंदिर का महंत था और कुछ लोग उसे परेशान कर रहे थे।

फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘अबुल हसन को हमारी शाही उदारता का क़ायल रहते हुए यह जानना चाहिए कि हमारी स्वाभाविक दयालुता और प्राकृतिक न्याय के अनुसार हमारा सारा अनथक संघर्ष और न्यायप्रिय इरादों का उद्देश्य जन-कल्याण को अढ़ावा देना है और प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्गों के हालात को बेहतर बनाना है। अपने पवित्र कानून के अनुसार हमने फैसला किया है कि प्राचीन मंदिरों को तबाह और बरबाद नहीं किया जाय, बलबत्ता नए मंदिर न बनए जाएँ। हमारे इस न्याय पर आधारित काल में हमारे प्रतिष्ठित एवं पवित्र दरबार में यह सूचना पहुंची है कि कुछ लोग बनारस शहर और उसके आस-पास के हिन्दू नागरिकों और मंदिरों के ब्राहम्णों-पुरोहितों को परेशान कर रहे हैं तथा उनके मामलों में दख़ल दे रहे हैं, जबकि ये प्राचीन मंदिर उन्हीं की देख-रेख में हैं। इसके अतिरिक्त वे चाहते हैं कि इन ब्राहम्णों को इनके पुराने पदों से हटा दें।

यह दखलंदाज़ी इस समुदाय के लिए परेशानी का कारण है। इसलिए यह हमारा फ़रमान है कि हमारा शाही हुक्म पहुंचते ही तुम हिदायत जारी कर दो कि कोई भी व्यक्ति ग़ैर-कानूनी रूप से दखलंदाजी न करे और न उन स्थानों के ब्राहम्णों एवं अन्य हिन्दु नागरिकों को परेशान करे। ताकि पहले की तरह उनका क़ब्ज़ा बरक़रार रहे और पूरे मनोयोग से वे हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के लिए प्रार्थना करते रहें। इस हुक्म को तुरन्त लागू किया जाये।’’ इस फरमान से बिल्कुल स्पष्ट हैं कि औरंगज़ेब ने नए मंदिरों के निर्माण के विरूद्ध कोई नया हुक्म जारी नहीं किया, बल्कि उसने केवल पहले से चली आ रही परम्परा का हवाला दिया और उस परम्परा की पाबन्दी पर ज़ोर दिया। पहले से मौजूद मंदिरों को ध्वस्त करने का उसने कठोरता से विरोध किया। इस फ़रमान से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह हिन्दू प्रजा को सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर देने का इच्छुक था। यह अपने जैसा केवल एक ही फरमान नहीं है। बनारस में ही एक और फरमान मिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगज़ेब वास्तव में चाहता था कि हिन्दू सुख-शांति के साथ जीवन व्यतीत कर सकें।

यह फरमान इस प्रकार हैः ‘‘रामनगर (बनारस) के महाराजाधिराज राजा रामसिंह ने हमारे दरबार में अर्ज़ी पेश की हैं कि उनके पिता ने गंगा नदी के किनारे अपने धार्मिक गुरु भगवत गोसाईं के निवास के लिए एक मकान बनवाया था। अब कुछ लोग गोसाईं को परेशान कर रहे हैं। अतः यह शाही फ़रमान जारी किया जाता है कि इस फरमान के पहुंचते ही सभी वर्तमान एवं आने वाले अधिकारी इस बात का पूरा ध्यान रखें कि कोई भी व्यक्ति गोसाईं को परेशान एवं डरा-धमका न सके, और न उनके मामलें में हस्तक्षेप करे, ताकि वे पूरे मनोयोग के साथ हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए प्रार्थना करते रहें। इस फरमान पर तुरं अमल गिया जाए।’’ (तीरीख-17 बबी उस्सानी 1091 हिजरी) जंगमबाड़ी मठ के महंत के पास मौजूद कुछ फरमानों से पता चलता है कि औरंगज़ैब कभी यह सहन नहीं करता था कि उसकी प्रजा के अधिकार किसी प्रकार से भी छीने जाएँ, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान। वह अपराधियों के साथ सख़्ती से पेश आता था।

इन फरमानों में एक जंगम लोंगों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) की ओर से एक मुसलमान नागरिक के दरबार में लाया गया, जिस पर शाही हुक्म दिया गया कि बनारस सूबा इलाहाबाद के अफ़सरों को सूचित किया जाता है कि पुराना बनारस के नागरिकों अर्जुनमल और जंगमियों ने शिकायत की है कि बनारस के एक नागरिक नज़ीर बेग ने क़स्बा बनारस में उनकी पांच हवेलियों पर क़ब्जा कर लिया है। उन्हें हुक्द दिया जाता है कि यदि शिकायत सच्ची पाई जाए और जायदा की मिल्कियत का अधिकार प्रमानिण हो जाए तो नज़ीर बेग को उन हवेलियों में दाखि़ल न होने दया जाए, ताकि जंगमियों को भविष्य में अपनी शिकायत दूर करवाने के लिएए हमारे दरबार में ने आना पडे। इस फ़रमान पर 11 शाबान, 13 जुलूस (1672 ई.) की तारीख़ दर्ज है। इसी मठ के पास मौजूद एक-दूसरे फ़रमान में जिस पर पहली नबीउल-अव्वल 1078 हि. की तारीख दर्ज़ है, यह उल्लेख है कि ज़मीन का क़ब्ज़ा जंगमियों को दया गया। फ़रमान में है- ‘‘परगना हवेली बनारस के सभी वर्तमान और भावी जागीरदारों एवं करोडियों को सूचित किया जाता है कि शहंशाह के हुक्म से 178 बीघा ज़मीन जंगमियों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) को दी गई। पुराने अफसरों ने इसकी पुष्टि की थी और उस समय के परगना के मालिक की मुहर के साथ यह सबूत पेश किया है कि ज़मीन पर उन्हीं का हक़ है। अतः शहंशाह की जान के सदक़े के रूप में यह ज़मीन उन्हें दे दी गई।

ख़रीफ की फसल के प्रारंभ से ज़मीन पर उनका क़ब्ज़ा बहाल किया जाय और फिर किसीप्रकार की दखलंदाज़ी न होने दी जाए, ताकि जंगमी लोग(शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) उसकी आमदनी से अपने देख-रेख कर सकें।’’ इस फ़रमान से केवल यही ता नहीं चलता कि औरंगज़ेब स्वभाव से न्यायप्रिय था, बल्कि यह भी साफ़ नज़र आता है कि वह इस तरह की जायदादों के बंटवारे में हिन्दू धार्मिक सेवकों के साथ कोई भेदभा नहीं बरता था। जंगमियों को 178 बीघा ज़मीन संभवतः स्वयं औरंगज़ेब ही ने प्रान की थी, क्योंकि एक दूसरे फ़रमान (तिथि 5 रमज़ान, 1071 हि.) में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि यह ज़मीन मालगुज़ारी मुक्त है। औरंगज़ेब ने एक दूसरे फरमान (1098 हि.) के द्वारा एक-दूसरी हिन्दू धार्मिक संस्था को भी जागीर प्रदान की। फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘बनारस में गंगा नदी के किनारे बेनी-माधो घाट पर दो प्लाट खाली हैं एक मर्क़जी मस्जिद के किनारे रामजीवन गोसाईं के घर के सामने और दूसरा उससे पहले। ये प्लाट बैतुल-माल की मिल्कियत है।

हमने यह प्लाट रामजीवन गोसाईं और उनके लड़के को ‘‘इनाम’ के रूप में प्रदान किया, ताकि उक्त प्लाटों पर बाहम्णें एवं फ़क़ीरों के लिए रिहायशी मकान बनाने के बाद वे खुदा की इबादत और हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए दूआ और प्रार्थना कने में लग जाएं। हमारे बेटों, वज़ीरों, अमीरों, उच्च पदाधिकारियों, दरोग़ा और वर्तमान एवं भावी कोतवालों के अनिवार्य है कि वे इस आदेश के पालन का ध्यान रखें और उक्त प्लाट, उपर्युक्त व्यक्ति और उसके वारिसों के क़ब्ज़े ही मे रहने दें और उनसे न कोई मालगुज़ारी या टैक्स लिया जसए और न उनसे हर साल नई सनद मांगी जाए।’’ लगता है औरंगज़ेब को अपनी प्रजा की धार्मिक भावनाओं के सम्मान का बहुत अधिक ध्यान रहता था। हमारे पास औरंगज़ेब का एक फ़रमान (2 सफ़र, 9 जुलूस) है जो असम के शह गोहाटी के उमानन्द मन्दिर के पुजारी सुदामन ब्राहम्ण के नाम है। असम के हिन्दू राजाओं की ओर से इस मन्दिर और उसके पुजारी को ज़मीन का एक टुकड़ा और कुछ जंगलों की आमदनी जागीर के रूप में दी गई थी, ताकि भोग का खर्च पूरा किया जा सके और पुजारी की आजीविका चल सके। जब यह प्रांत औरंगजेब के शासन-क्षेत्र में आया, तो उसने तुरंत ही एक फरमान के द्वारा इस जागीर को यथावत रखने का आदेश दिया।

हिन्दुओं और उनके धर्म के साथ औरंगज़ेब की सहिष्ण्ता और उदारता का एक और सबूत उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर के पुजारियों से मिलता है। यह शिवजी के प्रमुख मंदिरों में से एक है, जहां दिन-रात दीप प्रज्वलित रहता है। इसके लिए काफ़ी दिनों से पतिदिन चार सेर घी वहां की सरकार की ओर से उपलब्ध कराया जाथा था और पुजारी कहते हैं कि यह सिलसिला मुगल काल में भी जारी रहा। औरंगजेब ने भी इस परम्परा का सम्मान किया। इस सिलसिले में पुजारियों के पास दुर्भाग्य से कोई फ़रमान तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु एक आदेश की नक़ल ज़रूर है जो औरंगज़ब के काल में शहज़ादा मुराद बख़्श की तरफ से जारी किया गया था। (5 शव्वाल 1061 हि. को यह आदेश शहंशाह की ओर से शहज़ादा ने मन्दिर के पुजारी देव नारायण के एक आवेदन पर जारी किया था।

वास्तविकता की पुष्टि के बाद इस आदेश में कहा गया हैं कि मन्दिर के दीप के लिए चबूतरा कोतवाल के तहसीलदार चार सेर (अकबरी घी प्रतिदिन के हिसाब से उपल्ब्ध कराएं। इसकी नक़ल मूल आदेश के जारी होने के 93 साल बाद (1153 हिजरी) में मुहम्मद सअदुल्लाह ने पुनः जारी की। साधारण्तः इतिहासकार इसका बहुत उल्लेख करते हैं कि अहमदाबाद में नागर सेठ के बनवाए हुए चिन्तामणि मन्दिर को ध्वस्त किया गया, परन्तु इस वास्तविकता पर पर्दा डाल देते हैं कि उसी औरंगज़ेब ने उसी नागर सेठ के बनवाए हुए शत्रुन्जया और आबू मंदिरों को काफ़ी बड़ी जागीरें प्रदान कीं। निःसंदेह इतिहास से यह प्रमाण्ति होता हैं कि औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मंदिर और गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद को ढहा देने का आदेश दिया था, परन्तु इसका कारण कुछ और ही था। विश्वनाथ मंदिर के सिलसिले में घटनाक्रम यह बयान किया जाता है कि जब औरंगज़ेब बंगाल जाते हुए बनारस के पास से गुज़र रहा था, तो उसके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने बादशाह से निवेदन किया कि वहां क़ाफ़िला एक दिन ठहर जाए तो उनकी रानियां बनारस जा कर गंगा दनी में स्नान कर लेंगी और विश्वनाथ जी के मंदिर में श्रद्धा सुमन भी अर्पित कर आएंगी।

औरंगज़ेब ने तुरंत ही यह निवेदन स्वीकार कर लिया और क़ाफिले के पडाव से बनारस तक पांच मील के रास्ते पर फ़ौजी पहरा बैठा दिया। रानियां पालकियों में सवार होकर गईं और स्नान एवं पूजा के बाद वापस आ गईं, परन्तु एक रानी (कच्छ की महारानी) वापस नहीं आई, तो उनकी बडी तलाश हुई, लेकिन पता नहीं चल सका। जब औरंगजै़ब को मालूम हुआ तो उसे बहुत गुस्सा आया और उसने अपने फ़ौज के बड़े-बड़े अफ़सरों को तलाश के लिए भेजा। आखिर में उन अफ़सरों ने देखा कि गणेश की मूर्ति जो दीवार में जड़ी हुई है, हिलती है। उन्होंने मूर्ति हटवा कर देख तो तहखाने की सीढी मिली और गुमशुदा रानी उसी में पड़ी रो रही थी। उसकी इज़्ज़त भी लूटी गई थी और उसके आभूषण भी छीन लिए गए थे। यह तहखाना विश्वनाथ जी की मूर्ति के ठीक नीचे था। राजाओं ने इस हरकत पर अपनी नाराज़गी जताई और विरोघ प्रकट किया। चूंकि यह बहुत घिनौना अपराध था, इसलिए उन्होंने कड़ी से कड़ी कार्रवाई कने की मांग की। उनकी मांग पर औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि चूंकि पवित्र-स्थल को अपवित्र किया जा चुका है।

अतः विश्नाथ जी की मूर्ति को कहीं और लेजा कर स्थापित कर दिया जाए और मंदिर को गिरा कर ज़मीन को बराबर कर दिया जाए और महंत को मिरफतर कर लिया जाए। डाक्टर पट्ठाभि सीता रमैया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फ़ेदर्स एण्ड द स्टोन्स’ मे इस घटना को दस्तावेजों के आधार पर प्रमाणित किया है। पटना म्यूज़ियम के पूर्व क्यूरेटर डा. पी. एल. गुप्ता ने भी इस घटना की पुस्टि की है। गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद की घटना यह है कि वहां के राजा जो तानाशाह के नाम से प्रसिद्ध थे, रियासत की मालगुज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली के नाम से प्रसिद्ध थे, रियासत की मालुगज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली का हिस्सा नहीं भेजते थे। कुछ ही वर्षों में यह रक़म करोड़ों की हो गई। तानाशाह न यह ख़ज़ाना एक जगह ज़मीन में गाड़ कर उस पर मस्जिद बनवा दी। जब औरंज़ेब को इसका पता चला तो उसने आदेश दे दिया कि यह मस्जिद गिरा दी जाए। अतः गड़ा हुआ खज़ाना निकाल कर उसे जन-कल्याण के कामों मकें ख़र्च किया गया। ये दोनों मिसालें यह साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि औरंगज़ेब न्याय के मामले में मंदिर और मस्जिद में कोई फ़र्क़ नहीं समझता था।

‘‘दर्भाग्य से मध्यकाल और आधुनिक काल के भारतीय इतिहास की घटनाओं एवं चरित्रों को इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर मनगढंत अंदाज़ में पेश किया जाता रहा है कि झूठ ही ईश्वरीय आदेश की सच्चाई की तरह स्वीकार किया जाने लगा, और उन लोगों को दोषी ठहराया जाने लगा जो तथ्य और पनगढंत बातों में अन्तर करते हैं। आज भी सांप्रदायिक एवं स्वार्थी तत्व इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और उसे ग़लत रंग देने में लगे हुए हैं।

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