जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
टेलीविजन ने समाज का मिजाज बदला है. सूचना और मनोरंजन की धारणा बदली है. किंतु इसके वैचारिक सरोकार नहीं बदले हैं. कार्यक्रम बदले हैं. चरित्र बदले हैं. तकनीकी प्रोन्नति हुई है. इसकी आमदनी बढ़ी है. चैनल बढ़े हैं. कलाकार, प्रस्तोता,एंकर,निर्देशक आदि सभी क्षेत्रों में तेजी से विकास हुआ है किंतु टेलीविजन का दकियानूसी स्वभाव नहीं बदला है. आरंभिक दिनों में टेलीविजन ‘सामाजिक हैसियत’ का प्रतीक था. किंतु आज वह ‘घरेलू वस्तु’ बन गया है. यह टीवी इमेज का रूपान्तरण है. आरंभ में कम लोग टीवी देखते थे. आज सबसे ज्यादा देखते हैं.इसने उपभोग के प्रति सक्रियता और मूल्यों के स्तर पर निष्क्रियता पैदा की है. राजनीति में दर्शकीय भावबोध पैदा किया है. राजनीति जागरूकता पैदा की है. किंतु राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए हतोत्साहित किया है. टेलीविजन बातें खूब करता है, परिवर्तन कम करता है. यह ठलुआगिरी का स्रोत है. बेकारों का सहाराहै. अकेलेपन का साथी है. इस अर्थ में टेलीविजन गतिशील भूमिका अदा कर रहा है.

टेलीविजन अपनी भूमिका कई स्तरों पर अदा कर रहा है. साथ ही परिवर्तन के क्षेत्र में भी दबे पैर दाखिल हो रहा है. किंतु इसका मुख्य जोर अभी भी प्रतिगामी विचारों, मूल्यों और संस्कारों के रूपायन पर है. यहां हम विगत 30 वर्षों में सारी दुनिया के धारावाहिकों खासकर प्राइम टाइम कार्यक्रम में प्रसारित कार्यक्रमों की अंतर्वस्तु का विश्लेषण करना चाहेंगे. नैंसी सिंगमोरिल्ली और एरोन बाबू ने ” रिकॉगिनीशन एंड रेस्पेक्ट: ए कंटेंट एनालिसिस ऑफ प्राइम टाइम टेलीविजन करेक्टर्स एक्रॉस थ्री डिकेड्स’ नामक शोधपरक मूल्यांकन इसका प्रस्थान बिंदु हो सकता है.

यह देखा गया है कि टेलीविजन के प्राइम टाइम कार्यक्रमों में स्त्रियां बार-बार आती रही हैं. विगत तीस वर्षों में इनकी स्टीरियोटाइप भूमिका भी बदली है. औरतें अब ऐसी भूमिकाओं में आ रही हैं जिनके बारे में पच्चीस साल पहले कल्पना करना संभव नहीं था. खासकर 1990 के बाद टेलीविजन पर पुरूषों की तुलना में स्त्री चरित्रों की तादाद तेजी से बढ़ी है. साथ ही स्त्री चरित्र ज्यादा वैविध्यपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं.इस सबके बावजूद स्त्री का स्टीरियोटाइप रूप दबाव बनाए हुए है. ज्यादातर स्त्री चरित्र कॉमेडी और पारिवारिक धारावाहिकों में आ रहे हैं. इन दोनों विधाओं को लोग खूब देखते हैं.जबकि घरेलू झगड़ों पर केन्द्रित कार्यक्रमों को कम देखते हैं. अपराध,एक्शन,एडवेंचर कार्यक्रमों में स्त्री चरित्र कम आ रहे हैं. प्राइम टाइम कार्यक्रमों में जो औरतें आ रही हैं वे मर्दों की तुलना में युवा हैं. ज्यादातर मर्दों की उम्र औरत से ज्यादा होती है.वे प्रौढ़ होते हैं. उल्लेखनीय है कि दृश्य में स्त्रियों की उम्र का काफी महत्व है. धारावाहिकों में 65 या उससे ज्यादा उम्र का बूढ़ा सक्रिय नजर आता है.जबकि स्त्रियों में ऐसी औरतें ज्यादा नजर आ रही हैं घर से बाहर काम करती हैं. स्त्री के लिए तय कार्यों जैसे सैकेट्री, नर्स, टीचर आदि में वे दिखेंगी. अधिकांश पुरुष चरित्र नौकरी देने वाले या स्त्री से बड़े ओहदे पर कार्यरत मिले हैं, जबकि अधिकांश स्त्रियों को घरेलू कार्यों में सक्रिय दिखाया गया है.नया फिनोमिना है स्त्री का छात्रा रूप में प्रस्तुतिकरण.

स्त्रियों की तुलना मे पुरुषों को मैनेजर, सेवा, सेना, कानूनभंजक, सार्वजनिक उद्यमों में कार्यरत (जैसे न्यायपालिका, पुलिस, वकील आदि) दिखाया गया, जबकि स्त्रियों को खुदरा बिक्री एवं सेवा कार्यों में ज्यादा दिखाया गया. टेलीविजन के मूल्यांकनकर्ताओं ने 40 पुरूष कार्य,10 स्त्री कार्य और 18 लिंगभेद रहित कार्य तय किए हैं.पुरूष कार्य हैं-पुलिस, वकील, न्यायपालिका, निर्माणकार्य आदि. स्त्री कार्य हैं-सचिव, गृहिणी, सामाजिक कार्यकर्ता, नर्स, टीचर, क्लर्क आदि. लिंगभेद मुक्त कार्य हैं- बेकार, कलाकार, पत्रकार, लेखक, एयरलाइन पर्सनल आदि.

सन् 1967 से 1998 तक के प्राइम टाइम कार्यक्रमों के कार्यक्रमों के मूल्यांकनों का निष्कर्ष है कि इनमें कुल 8,293 चरित्र टीवी पर आए. इनमें 34.5 फीसदी चरित्र महिलाओं के थे, जबकि 65.5 फीसदी चरित्र पुरूषों के थे. इन आंकड़ों को विस्तार से देखें तो पाएंगे कि सन 1960 और 1970 के दशक में मात्र 28 फीसदी महिला चरित्र थे. सन् 1980 के दशक में 34 फीसदी महिला चरित्र थे. सन् 1990 के दशक में 39 फीसदी महिला चरित्रों को प्राइम टाइम कार्यक्रमों में देखा गया. यानी प्रत्येक दशक में पुरुष चरित्रों का ही टेलीविजन प्राइम टाइम कार्यक्रमों में वर्चस्व था. किंतु क्रमश:स्त्री चरित्रों की तादाद में इजाफा हुआ है. एक अन्य अध्ययन में बताया गया है कि छोटे पर्दे पर सन् 1967 में 24 फीसदी महिला चरित्र नजर आए. जो 1996 में बढ़कर 43 फीसदी हो गए,  जबकि सन् 1998 में यह आंकड़ा गिरकर 38 फीसदी रह गया. यानी पुरूषों का ही वर्चस्व बना रहा. ज्यादातर स्त्री चरित्र कॉमेडी, धारावाहिक में ही दिखते हैं. एक्शन, एडवेंचर, अपराध आदि के कार्यक्रमों में स्त्री चरित्र कम दिखाई दिए. सन् 1960 और 1970 के दशक में 42.9 फीसदी,सन् 1990 के दशक में 48.9 फीसदी स्त्री चरित्र कॉमेडी कार्यक्रमों में आए, जबकि 1980 के दशक में 36.7 फीसदी स्त्री चरित्र कॉमेडी में दिखाए गए. इसी तरह एक्शन, एडवेंचर, अपराध कार्यक्रमों में सन् 1960 और 1970 के दशक में 37 फीसदी,1980 के दशक में 28.2 फीसदी, सन् 1990 के दशक में 21.7 फीसदी चरित्र नजर आए. आंकड़े बताते हैं कि प्राइम टाइम कार्यक्रमों में पारिवारिक कथानकों या सामाजिक कथानकों पर केन्द्रित कार्यक्रमों में 1990 के दशक में स्त्री का रूपायन बढ़ा है. साथ ही प्रौढ़ उम्र के स्त्री-पुरुष चरित्रों का फीसदी भी बढ़ा है. कार्यक्रमों के मूल्यांकन से निष्कर्ष निकलता है कि 40 फीसदी औरतें युवा दिखती हैं, जबकि 47.9 फीसदी प्रौढ़ दिखती हैं. एक अन्य शोध में यह पाया गया कि सन् 1967-98 के बीच 5236 चरित्र पुरूष और 2,827 महिला चरित्र प्राइम टाइम कार्यक्रमों में आए. इनमें सन् 1967-79 के बीच 1,771 पुरुष चरित्र,720 स्त्री चरित्र थे. सन् 1980-89 के बीच 1,285 पुरुष चरित्र, 684 स्त्री चरित्र दिखाए गए. सन् 1990-98 के बीच 2,100 पुरुष चरित्र और 1,423 स्त्री चरित्र दिखाई दिए.यह भी पाया गया कि बूढ़े चरित्र (स्त्री-पुरुष दोनों) मात्र 3 फीसदी दिखाए गए. सन् 1990 के दशक में 65 साल या उससे ज्यादा उम्र के चरित्रों में 34 फीसदी पुरुष और 16.1 फीसदी महिला चरित्रों का चित्रण मिलता है.


टेलीविजन में युवाओं का महत्व है. इसे जवानी से प्यार है. यही वजह है कि स्त्री चरित्रों की जवानी के रूपायन पर जोर दिया जाता है. मात्र तीन फीसदी बूढ़ी औरतों को चित्रित किया गया. इस तरह के रूपायन से यह नकारात्मक संदेश जाता है कि स्त्री मूल्य के तौर पर जवानी का महत्व है.स्त्री की जवानी पर जोर सिर्फ टेलीविजन में ही दिखाई नहीं देता, बल्कि फिल्मों में भी दिखाई देता है. 1940 से 1980 के बीच की फिल्मों में स्त्री की जवानी पर ही मुख्यत: जोर रहा है. इस दौर की फिल्मों में 35 साल से ज्यादा उम्र की महिलाएं कम पेश की गई हैं, जबकि बूढ़ी या प्रौढ़ औरतों को नकारात्मक भूमिका में ज्यादा पेश किया गया है. यही स्थिति टीवी में दिखने वाली बूढ़ी औरतों की है. यहां पर भी बूढ़ी औरतें कम हैं. इसके बावजूद टीवी ने औरत के सम्मान में इजाफा किया है. विगत 30 वर्षो में घर से बाहर जाकर काम करने वाली औरतों को आज सम्मान की नजर से देखा जाता है. पेशेवर कामों में औरतों की संख्या बढ़ी है. एक परिवर्तन यह भी हुआ है कि पेशेवर स्त्री चरित्रों की प्रस्तुतियों में कम से कम स्टीरियोटाइप दिखाई देता है. स्त्री चरित्रों को लिंगभेद रहित कामों में ज्यादा सक्रिय दिखाया गया है, जबकि मर्द अपने परंपरागत पेशों में सक्रिय दिखाए गए हैं. विगत तीस वर्षों में यह बुनियादी बदलाव आया है कि टेलीविजन के प्राइम टाइम कार्यक्रमों में स्त्री चरित्रों को लिंगभेद रहित पेशों में ज्यादा पेश किया गया हैं. इससे स्त्रियों के प्रति परंपरागत बोध, मूल्य और संस्कार को तोड़ने में मदद मिली है. सन् 70 के दशक की टेलीविजन प्रस्तुतियों में कामकाजी स्त्री-पुरुष के बीच 30 फीसदी का अंतर था. अस्सी के दशक में यह घटकर 20 फीसदी हो गया. सन् 1990 के दशक में यह अंतर घटकर 15 फीसदी रह गया. यानी प्रत्येक दशक में घर के बाहर निकलकर काम करने वाले स्त्री चरित्रों की संख्या में क्रमश: इजाफा हुआ है. मसलन सत्तर के दशक में कामकाजी महिलाओं चरित्रों का प्राइम टाइम कार्यक्रमों में 55.1फीसदी हिस्सा था.अस्सी के दशक में 60.2 फीसदी, जबकि नव्वे के दशक में यह 60.1 फीसदी था.सबसे कम कामकाजी स्त्री चरित्र 1973 में दिखाई दिए, इस साल 43.1 फीसदी स्त्री चरित्र दर्ज किए गए, जबकि 1985में सबसे ज्यादा 76 फीसदी स्त्री चरित्र दर्ज किए गए. सन् 1990 के दशक में स्त्री चरित्रों का आंकड़ा 55 से 66 फीसदी के बीच झूलता रहा है. इसी तरह प्रोफेशनल स्त्री चरित्र सन् 1970 के दशक में 21.3 फीसदी, अस्सी के दशक में 22.7 फीसदी, सन् 1990 के दशक में 29.6 फीसदी दर्ज किए गए.जबकि कानून लागू करने वाली एजेन्सियों से संबंधित चरित्रों के बारे में आंकड़ा स्थिर रहा है. इस पेशे में मात्र आठ फीसदी महिलाओं को दर्शाया गया है. इसके विपरीत कानून लागू करने वाली एजेन्सियों से जुड़े पुरुष चरित्रों की संख्या में कमी आई है.
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)

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