मैंने तो चाहा था
अचल में गंधा भरूं
तुमने ही रसभीने सम्बोधन मोड़ दिये
अनजाने अनचीन्हें
कागज की नाव हुआ
सम्मोहन निर्गन्धित
कागजी गुलाब हुआ
अन्तर के उध्दवाकों
भेजा था मैंने तो
तुमने ही भावों के वृन्दावन छोड़ दिये
चेहरे पर प्रतिबिम्बित
एक स्वर उदासी का
देह रोज पड़ती है
योग मंत्र काशी का
मैंने तो पारस दिया था
पर तुमने ही
पत्थर के रत्नों से संवेदन जोड़ दिये
-डॉ. रामस्नेही लाल शर्मा 'यायावर'