हृदयनारायण दीक्षित
भारतीय संस्कृति प्रार्थना मूलक है। समूचा ऋग्वेद प्रार्थना मूलक है, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और उपनिषद् प्रार्थना मंत्र हैं। प्रार्थना हृदय से हृदय का संवाद है, अंतर्भाव का निवेदन है। शून्य से विराट् की वार्ता है। प्रार्थना विचार रहित वाक्य है। निर्विचार वाणी है। हृदयतंत्री का स्वर है। मौन का संगीत है म्युजिस ऑफ साइलेंस। अकिंचनता की पुकार है, निधूर्म अग्नि है और आकांक्षा रहित मांग है। प्रार्थना एक विशिष्ट चित्तदशा है। यह लघुता की तरफ से महत्ता को नेह निमंत्रण है, यह रिक्त चित्त की पुकार है, महता के स्वागत और अभिनंदन की तत्परता है। ऊर्जा बड़े ऊर्जा पिण्ड से नीचे ऊर्जा की तरफ बहती है। विज्ञान के नियमानुसार ऊर्जा का निम्नतलीय प्रवाह तब तक चलता है जब तक दोनों ऊर्जा पिंडों का ऊर्जातल समान नहीं हो जाता। इसके लिए दोनों ऊर्जा पिण्डों के मध्य योजकता चाहिए। लेकिन प्रार्थना की योजकता से प्राणी की निम्न ऊर्जा परम् ऊर्जा के ही बराबर नहीं हो जाती, वस्तुतः एक ही हो जाती है। भक्त भगवान हो जाते हैं, ब्रह्मविद् ब्रह्म हो जाते है। प्रार्थना भी विराट अस्तित्व से भावपूर्ण योजकता (कनेक्शन) है। प्रार्थना अमावस्या से पूर्णिमा हो जाने की अभीप्सा है। – ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की प्यास है। प्रार्थना इकाई से अनंत की योजकता है। सभी प्राणी ऊर्जा के निम्न तल पर हैं। अस्तित्व परम ऊर्जा है। प्रार्थना परम ऊर्जा का प्रवाह प्राप्त करने का प्राचीन विज्ञान है। प्रार्थना तर्कातीत अनुभूति है। बेशक प्रार्थना के पूर्व तर्क उठते हैं। वाद प्रतिवाद संवाद की कार्यवाही चलती है। फिर प्रतीति आती हैं। प्रतीति के बाद अनुभूति आती है। अनुभूति अपना काम करती है। अनुभूति से दर्शन आता है। दर्शन की शक्ति द्रष्टा बनाती है। द्रष्टा निर्विचार बनता है। उसके चित्त में शून्य उभरता है। ऋचाएं इसी शून्य को भरने के लिए उतावली होती है। चित्त का शून्य विराट से भरता है। प्रार्थनाएं फूटती हैं, स्तुतियाँ उगती हैं। वैदिक ऋचाएं द्रष्टा ऋषियों के ‘आंखों देखे सत्य का काव्य सृजन है। विज्ञान और दर्शन में प्रार्थना की गुंजाइश नहीं होती। प्रार्थना के लिए दो की जरूरत होती है, एक प्रार्थी दूसरा आराध्य। दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रार्थी नहीं होते। वे सृष्टि रहस्यों के खोजी होते है। उनका कोई आराध्य नहीं होता। लेकिन भारतीय दर्शन और विज्ञान परंपरा के ऋषि प्रार्थना भाव से युक्त हैं। इसीलिए पश्चिम के तमाम विद्वान भारतीय दर्शन पर ‘भाववादी’ होने का आरोप लगाते है। वे भारतीय दर्शन के यथार्थवादी/भौतिकवादी तत्त्वों पर गौर नहीं करते। भाव जगत की अनुभूति भी यथार्थ का ही हिस्सा है। भौतिकवाद में माँ सिर्फ स्त्री है। भावजगत् में यही स्त्री पूज्य और आराध्य माँ है। माँ जननी है, पोषक है, सो दिव्य है, देवी भी है। भारत की प्रार्थना संस्कृति का विकास कोरे भाव से ही नहीं हुआ। वेद और उपनिषद विज्ञान व दर्शन से सराबोर हैं लेकिन उनमें भी प्रार्थनाएं हैं। ईशावास्योपनिषद में दर्शन है। पहले 14 मंत्रों तक कोई प्रार्थना नहीं है। सभी मंत्र दर्शन से ओतप्रोत हैं। 14 मंत्रों की ईमानदार यात्रा दृष्टि को दर्शनिक बनाती है। चित्त निर्विचार होता है, निष्कलुष होता है, निष्कंप होता है, एक विराट शून्य का जन्म होता है। सत्य की दीप्ति होती है। सत्य वाक् बनता है। वाक् प्रार्थना बनता हैं। ऋषि, पूषन सूर्य, वायु और अग्नि जैसे देवों से प्रार्थनाएं करते हैं। इन प्रार्थनाओं में सत्य प्राप्ति की महत्वाकांक्षा है। वैदिक ऋषि आंतरिक दृष्टि से समृद्ध हैं। वे व्यक्त संसार का ऐश्वर्य भी चाहते हैं और अव्यक्त/अप्रकट संसार का दर्शन भी। वेदों उपनिषदों के ऋषि इंद्र, मातरिश्वन अग्नि और वायु आदि में एक ही परमतत्त्व देख रहे हैं। सब तरफ ऊपर, नीचे, आगे पीछे, दांए बायें, भीतर बाहर, व्यक्त अव्यक्त एक ही आलोक, एक ही परम दीप्ति, एक ही अनहदनाद देखते सुनते हैं। सो प्रार्थना उगती हैं। यों ज्ञान यात्रा में ढेर सारे साधन है। लेकिन प्रार्थना ब्रह्मास्त्र है। भारतीय परंपरा ने प्रस्थानत्रयी की चर्चा की है। ज्ञान यात्रा की शुरूआत के लिए – प्रस्थान के समय तीन चीजें पास होनी चाहिए। उपनिषद््, ब्रह्मसूत्र और गीता प्रस्थानत्रयी है। बाकी चीजे सामान्य है। लेकिन इन सबके भी पहले चित्त में ‘प्रार्थी भाव’ चाहिए। ज्ञान यात्रा की प्रथम चेतना जिज्ञासा है। जानने की इच्छा ही ज्ञान यात्रा पर ले जाती है। लेकिन जिज्ञासा के साथ ‘मैं’ जुड़ता है, – मैं जानना चाहता हूँ। मैं ज्ञान यात्रा का बाधक भाव है। प्रार्थी भाव मैं को लघुतम करता है, सृष्टि को महत्तम देखता है। प्रार्थना याचना नहीं होती। वैदिक ऋषियों की प्रार्थनाएं जिज्ञासा और धन्यवाद भाव से फूटी हैं। ऋषियों की जिज्ञासा आक्रामक वैज्ञानिक की जिज्ञासा नहीं है। यह जिज्ञासा विनम्र है। लेकिन विनम्रता में याचना नहीं है। याचक भाव का चित्त संकोच और हीनता में सिकुड़कर जड़ होता है। यहां पहले दर्शन है। दर्शन से विश्वास उगा सो प्रार्थना अपरिहार्य हो गयी। गीता के पहले अध्याय से लेकर 11वें तक ज्ञान कर्म, भक्ति आदि के तत्त्व है। प्रार्थना नहीं है। लेकिन 11वें अध्याय (श्लोक 39 व 40) में अर्जुन ने विश्वरूप देखा प्रतीति हो गयी। वह गदगद था। आनंदमगन था। धन्यवाद भाव से लबालब था। तब प्रार्थना फूटी, तू वायु है, तू यम (नियम अनुशासन) है, अग्नि, वरूण (समुद्रादि) है, चंद्रमा है तुझे नमस्कार है। सामने से नमस्कार, पीछे से नमस्कार, सब तरफ से नमस्कार ङ्ढ ‘नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।’ यहां वायु अग्नि, जल और चंद्र भौतिक हैं। प्रत्यक्ष हैं। सबके पीछे एक परमऊर्जा है। जिसने देखा, जाना, उसने गाया। परमतत्त्व गाया ही जा सकता है। संयोग आश्चर्यजनक नहीं है। भारत के सभी तत्त्वदर्शी ऋषि कवि ही थे। लेकिन परम तत्व का गान सुनकर ही परमतत्त्व नहीं मिलता। वेदों, उपनिषद््ों और गीता की घोषणा है कि ‘वह’ प्रवचन या अध्ययन से नहीं मिलता। प्रार्थना में बड़ी ऊर्जा है। संसार विराट है। समाज बड़ा है। राष्ट्र आराध्य है। भारत में विराट ब्रह्म की प्रार्थना परंपरा है, समाज और राष्ट्र की भी आराधना की परंपरा है। राष्ट्र आराधन विश्व संस्कृति को भारत की ही देन है। राष्ट्रजीवन के लोकमंगल के लिये प्रार्थी भाव ही आनंददायी है। विद्यार्थी भाव संतोषजनक है लेकिन अर्थार्थी बुद्धि से उतरना व्यर्थ है। शब्दार्थ का मूल्य नहीं होता। शब्द स्वयं में किसी नाम का संकेत होते है। नाम स्वयं किसी पदार्थ का संकेत होता है। पदार्थ स्वयं किसी अरूप का रूप होता है। अरूप की यात्रा में बौद्धिक अर्थार्थ का कोई मतलब नहीं होता। भौतिकवादी प्रार्थना को बकवास मानते है लेकिन प्रार्थना भौतिक विज्ञान से आगे की यात्रा है। भौतिक विज्ञान ऊर्जा और पदार्थ के रिश्ते बताता है। रसायन विज्ञान ऊर्जा, तत्त्व और विभिन्न क्रियाओं के कारण परिवर्तित हुए रूप, गुण आदि का विश्लेषण करता है। प्रार्थना रसायन विज्ञान का पड़ोसी है। प्रार्थना चित्त और काया के मूल घटकों में रासायनिक परिवर्तन लाती है। विश्वास नहीं हो तो प्रयोग करना चाहिए। सुख या दुख की किसी विशेष परिस्थिति में रक्तचाप, रक्त विश्लेषण की रिपोर्ट लेने के बाद प्रगाढ़भाव से प्रार्थना करनी चाहिए। फिर रक्तचाप और रक्त के मूल संगठकों का रासायनिक विश्लेषण चौकाने वाले तथ्य देगा। बेशक, भौतिक विज्ञानी चौंकेंगे, प्रार्थना का रसायन विज्ञान जानने वाले इसे एक सहज रासायनिक परिवर्तन मानेंगे। लेकिन प्रार्थना सिर्फ रासायनिक परिवर्तन ही नहीं लाती। रासायनिक परिवर्तन बेशक भौतिक परिवर्तन से बड़ा है लेकिन सृष्टि रहस्यों के खोजी मुमुक्षुओं के लिए कोई बड़ी बात नहीं। यों भी एक छोटी सी दवा की गोली या गुड़ की ढेली भी रासायनिक परिवर्तन लाती है लेकिन प्रार्थना इससे भी बड़ा परिवर्तन लाती है। यह रासायनिक परिवर्तन से प्रारंभ होती है। बुद्धि को विवेक बनाती है। बुद्धि खंडित सूचनाओं का संग्रह होती है। विवेक सार, असार और संसार का निर्णायक है। प्रार्थना विवेक से भी आगे ले जाती है जहां सार संसार और असार का कोई मतलब नहीं। प्रार्थना द्वैत भाव से शुरू होती है, अद्वैत तक पहुंचा देती है। यह प्रार्थी को ही आराध्य बनाती है। तब कोई प्रार्थी नहीं होता, न कोई आराध्य। तब न ब्रह्म बचता है न माया। ऋषियों ने इसे ‘आनंद लोक’ कहा। और ‘आनंदलोक’/ब्रह्मलोक कोई भौगोलिक धारणा नहीं है। यह देश काल के परे है, इंद्रियगोचर नहीं है। इसीलिए इसकी व्याख्या नहीं पाती। प्रार्थना एक खास तकनीकी है। एक परिशुद्ध प्रगाढ़ भाव दशा। भारत प्रार्थना विज्ञान की प्रथमा भूमि है।
(लेखक उत्तर सरकार में मंत्री रह चुके हैं)

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