फ़िरदौस ख़ान
अयोध्या की बाबरी
मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि मंदिर के मुद्दे को लेकर एक बार फिर देश की सियासत
गरमाने लगी है। जहां भारतीय जनता पार्टी अपने इस 'प्रिय'
मुद्दे को भुनाने की कवायद में जुटी है, वहीं
उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार किसी अनिष्ट की आशंका को लेकर चिंतित हैं। अदालत का
फ़ैसला जो भी रहे, लेकिन इतना तय है कि उसके ख़िलाफ़ सुप्रीम
कोर्ट में अपील ज़रूर की जाएगी और इसका सीधा असर देश के सियासी और सामाजिक ढांचे पर
पड़ेगा। यह मुक़दमा देश के इतिहास में सबसे ज़्यादा सियासी उठक-पटक मचाने
वाला रहा है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो पहले ही कह दिया है कि राम जन्मभूमि
मंदिर के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। विहिप नेता आचार्य धर्मेन्द का
कहना है कि अगर अदालत का फ़ैसला हिन्दुओं के ख़िलाफ़ आता है तो उसे नहीं माना जाएगा, क्योंकि यह धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है। हर हिन्दू मानता
है कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ था। उन्होंने सवाल किया कि मुसलमानों ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला क्यों स्वीकार नहीं किया? ग़ौरतलब है कि शाहबानो मामले में मुसलमानों ने यह कहकर सुप्रीम
कोर्ट का फ़ैसला मानने से इंकार कर दिया था कि उनके लिए शरीयत ही 'सर्वोपरि' है।
संघ प्रमुख मोहन
भागवत ने कहा है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होकर रहेगा। राम मंदिर
करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का मामला है। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि राम मंदिर आम
सहमति से बने या फिर संघर्ष के ज़रिये बने। उन्होंने कहा कि आज़ादी के वक्त से ही
अधिकांश हिन्दुओं की मांग है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो। ऐतिहासिक और
पुरातात्विक साक्ष्य भी यह साबित करते हैं कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान
पर राम मंदिर था। उनका यह भी कहना है कि अदालत ऐसे मुद्दों को हल नहीं कर सकती।
वहीं, विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष
अशोक सिंघल ने कहा है कि राम मंदिर के ख़िलाफ़ अदालत का फ़ैसला उन्हें मंज़ूर नहीं
होगा। संघ के इशारे पर भाजपा ने भी कहा है कि पार्टी सबकुछ छोड़ सकती है, लेकिन राम को कभी नहीं छोड़ेगी। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह का
कहना है कि राम भारतीय राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति की पहचान हैं। इसलिए राम को
छोड़ने का तो सवाल ही नहीं। उन्होंने कहा कि राम के जन्म स्थान के बारे में कोई
विवाद नहीं है और भगवान राम का मंदिर राम जन्मभूमि पर ही बनना चाहिए। सनद रहे
भाजपा की सियासत राम जन्मभूमि जैसे सांप्रदायिक मुद्दों के बूते ही चलती है।
अयोध्या स्थित
राम जन्मभूमि मंदिर के प्रधान पुजारी आचार्य सतेंद्र दास का कहना है कि अदालत के
फ़ैसले को हिन्दू और मुसलमानों दोनों को ही स्वीकार कर लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि
जिस पक्ष के ख़िलाफ़ फ़ैसला होगा, वही सुप्रीम कोर्ट में अपील
दायर करेगा। हाईकोर्ट का फ़ैसला आने में 60 साल लग गए। इसी
तरह सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने में 40 साल लग जाएंगे। इसलिए
बेहतर है कि इस मुद्दे को आपसी सहमति से यहीं ख़त्म कर दिया जाए। उन्होंने अफ़सोस
जताते हुए कहा कि कुछ साधु और सियासी दल अपने निजी स्वार्थ के चलते नहीं चाहते कि
इस समस्या का समाधान निकले। उन्होंने कहा कि यह मुद्दा आस्था का नहीं, बल्कि स्वामित्व का है। फ़ैसले इस बात का होना है कि विवादित भूमि राम
मंदिर की है या बाबरी मस्जिद की। इसे आस्था से जोड़ने की बात करने वाले लोग जनता को
उकसाकर वोटों की राजनीति कर रहे हैं।
मजलिस-ए-इत्तेहादुल
मुस्लमीन (एमआईएम) के अध्यक्ष व सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि अगर बाबरी
मस्जिद मामले में फ़ैसला मुसलमानों के हक़ में नहीं आया तो वह शांति बनाए रखेंगे और
सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाएंगे। साथ ही उन्होंने कहा कि हमें यक़ीन है कि फ़ैसला
मस्जिद के हक़ में ही आएगा। अदालत का फ़ैसला आने पर ख़ुशियां मनाने की ज़रूरत नहीं है।
हमें आत्ममंथन करना होगा कि हम अपनी मस्जिदों की हिफ़ाज़त के लिए पुख्ता इंतज़ाम कर
रहे हैं या नहीं। उन्होंने कहा कि वहां कभी मंदिर था ही नहीं। वहां तो मस्जिद थी, इसके बावजूद संघ परिवार ने उसे सरेआम ध्वस्त कर दिया।
हालांकि हिन्दू
और मुस्लिम संगठनों ने फैसले से पहले ही माहौल बनाना शुरू कर दिया है। बाबरी एक्शन
कमेटी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर मदद की गुहार लगाई है। पत्र में
कमेटी के अध्यक्ष जावेद हबीब ने प्रधानमंत्री से सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम करने की
अपील की है, ताकि अदालत के फ़ैसले के बाद
कोई हिंसक वारदात न हो। देश के कई सियासी दलों और सामाजिक संगठनों ने हिन्दू और
मुसलमानों से अदालत के फ़ैसले का सम्मान करते हुए आपसी सौहार्द्र बनाए रखने की अपील
की है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव प्रकाश करात ने कहा है
कि दोनों पक्षों को अदालत के फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए। उन्होंने कहा कि उनकी
पार्टी शुरू से ही इस मसले का अदालत के ज़रिये किए जाने की बात करती रही है।
उधर, चारों पीठ के शंकराचार्यों ने कहा है कि मंदिर के पक्ष में
फ़ैसला आने पर वे ऐसा कोई काम नहीं करेंगे, जिससे मुसलमान आहत
हों। माना जा रहा है कि मंदिर के पक्ष में फ़ैसला आने पर हिन्दुत्ववादी संगठन इसे
अपनी बहुत बड़ी विजय के तौर पर प्रचारित करेंगे और देशभर समारोह आयोजित किए जाएंगे।
उनके इन आयोजनों से देश का चैन-अमन प्रभावित हो सकता है। ग़ौरतलब है कि बाबरी
मस्जिद की शहादत के दिन छह दिवस को हिन्दू संगठन शौर्य दिवस के रूप में मनाते हैं,
जबकि मुसलमान इस दिन काला कपड़ा बांधकर शोक प्रकट करते हैं।
अदालत का फ़ैसला आने से पहले ही मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए अयोध्या और फ़ैज़ाबद
में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई है। पिछली बार के अयोध्या दंगे से सबक़ लेते हुए
इस प्रशासन ने गांवों तक में सुरक्षा बलों को तैनात करने का फ़ैसला किया है। इस बार
हर ज़िले में संवेदनशील गांवों को चिन्हित करके वहां विशेष निगरानी करने के निर्देश
दिए गए हैं। हर गांव में कम्युनिटी पुलिसिंग कार्यक्रम शुरू करने और सभी स्तर के
सरकारी कर्मचारियों की मदद लेने का भी फ़ैसला किया गया है। इसके लिए कम्युनिकेशन
प्लान बनाकर गांवों को जोड़ा जा रहा है। प्रदेश के अपर पुलिस महानिदेशक (क़ानून एवं
व्यवस्था) बृजलाल के मुताबिक़ केंद्र सरकार ने फ़िलहाल प्रदेश को सीआरपीएफ़ की 40 कंपनियां आवंटित की हैं, जबकि राज्य
में पहले से ही पीएसी की 150 कंपनियां तैनात कर दी गई हैं।
सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने के लिए इस्तेमाल होने वाले ज़रूरी उपकरणों- रबड़ की
गोलियों, आंसू गैस के गोलों, लाठियों
और अंगरक्षक उपकरणों की सभी ज़िलों में समुचित उपलब्धता सुनिश्चित की जा रही है।
प्रदेश के 700 पुलिस थानों पर वायरलेस से जुड़े जनसंबोधन
प्रणाली स्थापित की जा रही है, ताकि पुलिस का जनता से सीधा
संवाद बना रहे। उन्होंने कहा कि शांति और सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाए रखने के लिए
जनता और समाज में प्रभाव रखने वाले लोगों की भी मदद ली जाएगी।
ग़ौरतलब है कि विवादित परिसर के आसपास रेड जोन में सीआरपीएफ़ की पांच कंपनियां
तैनात की गई हैं, जबकि दूसरे सुरक्षा चक्र यानी
येलो ज़ोन में पीएसपी की सात कंपनियां, ग्रीन ज़ोन यानी
फ़ैज़ाबाद में पीएसी की तीन और सीआरपीएफ़ की एक कंपनी को रिज़र्व रखा गया है। साथ ही
फ़ैज़ाबाद के 54 स्कूलों और कॉलेजों को अस्थाई जेलों के लिए
चुना गया है। इसके अलावा देश के क़रीब 300 शहरों व क़स्बों को
अति संवेदनशील मानते हुए वहां निगरानी की जा रही है।
हालांकि भाजपा
नेताओं ने सरकार के इस क़दम की आलोचना की है। उनका कहना है कि ऐसा करके सरकार हौवा
खड़ा कर रही है। ग़ौरतलब है कि हिन्दू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने अयोध्या में अपनी
सक्रियता बढ़ा दी है, जिससे अयोध्यावासी दहशत में
हैं। जैसे-जैसे अदालत के फैसले की तारीख़ क़रीब आती जा रही है, वैसे-वहां यहां के माहौल में तनाव बढ़ रहा है। लोगों ने अपने घरों में राशन
इकट्ठा करना शुरू कर दिया है। अयोध्या के बाशिंदे चैन-अमन से रहना चाहते हैं।
जमशेद का कहना है कि दिसंबर 1992 में मस्जिद शहीद करने
पहुंचे लाखों कारसेवकों की वजह से यहां का आम जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ था।
शहर के कई मुस्लिम परिवार अपने रिश्तदारों के पास दूसरे इलाक़ों में जा रहे हैं,
जबकि कुछ लोगों का कहना है कि जो भी हो वे अपना घरबार नहीं छोड़
सकते।
क़ाबिले-ग़ौर है कि
साल 1528 अयोध्या में बादशाह बाबर ने
इस मस्जिद को बनवाया था। बाबर के नाम पर ही इस मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद पड़ा।
कुछ हिन्दुओं का मानना था कि इस जगह राम का जन्म हुआ था। मस्जिद के निर्माण के
क़रीब तीन सौ साल बाद 1853 में यहां सांप्रदायिक दंगा हुआ। इस
विवाद को हल करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने 1859 में
मस्जिद के पास बाड़ लगा दी और मुसलमानों से मस्जिद के अन्दर नमाज़ पढने को कहा,
जबकि बाहरी हिस्से में हिन्दुओं से पूजा-पाठ करने को कहा गया। साल 1947
में देश के बंटवारे के वक्त माहौल काफ़ी खराब हो गया था। साल 1949
में अचानक मस्जिद में कथित तौर पर राम की मूर्तियां कथित तौर पाई
गईं। माना जाता है कि कुछ हिंदुओं ने ये मूर्तियां वहां रखवाईं थीं, क्योंकि अगर मूर्तियां वहां होती तो वो 1859 में जब
ब्रिटिश हुकूमत ने मामले को हल करने की पहल की थी, तब भी नज़र
आतीं। मुसलमानों ने इस बात का विरोध किया। उनका कहना था कि हिन्दू पहले से ही
मस्जिद के बाहरी हिस्से में पूजा-पाठ करते आ रहे हैं और अब वो साजिश रचकर उनकी
इबादतगाह पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं। विरोध बढ़ा और नतीजतन मामला अदालत में चला गया।
इसके बाद सरकार ने बाबरी मस्जिद को विवादित स्थल घोषित करते हुए इस पर ताला लगा
दिया।
इसके बाद
हिन्दुत्ववादी संगठनों ने इस मुद्दे को लेकर खूब सियासी रोटियां सेंकी। सबसे पहले 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने बाबरी मस्जिद की जगह पर राम
मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया। बाद में भाजपा के नेता
लालकृष्ण आडवाणी को इसका नेतृत्व सौंप दिया गया। इस मुद्दे के सहारे आडवाणी ने
अपने सियासी हित साधने शुरू कर दिए। 25 सितंबर 1992 को सुबह सोमनाथ के मंदिर से अपनी रथ यात्रा शुरू की, जो 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को तोड़ने के साथ ही
ख़त्म हुई। इस दिन भाजपा, विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना के
कार्यकर्ताओं ने देश की एक ऐतिहासिक इबादतगाह को शहीद कर दिया था। इसके बाद जिसके
बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे और इन दंगों ने दो हज़ार से भी ज्यादा
लोगों की जान ले ली। इतना कुछ होने के बाद भी हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपना रवैया
नहीं बदला। साल 2001 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर
पूरे देश में तनाव बढ़ गया और जिसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल पर राम
मंदिर निर्माण करने के अपना संकल्प दोहराया। हालांकि फ़रवरी 2002 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणा-पत्र में राम
मंदिर निर्माण के मुद्दे को शामिल करने से इनकार कर दिया। विश्व हिंदू परिषद ने 15
मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू करने की घोषणा कर दी। सैकड़ों
कार्यकर्ता अयोध्या में एकत्रित हुए. अयोध्या से लौट रहे कार्यकर्ता जिस रेलगाड़ी
में यात्रा कर रहे थे, उसमें आग लगने से 58 लोग मारे गए। इसके बाद गुजरात में हिंसा भड़क उठी और एक विशेष समुदाय के
लोगों को चुन-चुनकर मारा गया। इस मामले में गुजरात की भाजपा सरकार और पुलिस पर
सीधे आरोप लगे हैं और मामला अदालत में है।
इसके बाद 13 मार्च 2002 सुप्रीम कोर्ट ने अपने
फ़ैसले में अयोध्या में यथास्थिति बरक़रार रखने का आदेश देते हुए कहा कि किसी को भी
सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीन पर शिलापूजन की अनुमति नहीं दी जाएगी। दो दिन बाद 15
मार्च, 2002 को विश्व हिंदू परिषद और केंद्र
सरकार के बीच इस बात को लेकर समझौता हुआ कि विहिप के नेता सरकार को मंदिर परिसर से
बाहर शिलाएं सौंपेंगे। रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास और
विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल के नेतृत्व में लगभग आठ सौ कार्यकर्ताओं ने
सरकारी अधिकारी को अखाड़े में शिलाएं सौंपीं। 22 जून,
2002 विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि के
हस्तांतरण की मांग उठाकर इसे हवा दी। जनवरी 2003 में रेडियो
तरंगों के ज़रिए ये पता लगाने की कोशिश की गई कि क्या विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी
मस्जिद परिसर के नीचे किसी प्राचीन इमारत के अवशेष दबे हैं, मगर
कोई पक्का निष्कर्ष नहीं निकला। हालांकि इस मामले में कई तरह की अफवाहें फैलाई
गईं। मार्च 2003 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से
विवादित स्थल पर पूजा-पाठ की अनुमति देने का अनुरोध किया, जिसे
कोर्ट ने ठुकरा दिया। अप्रैल में इलाहाबाद हाइकोर्ट के निर्देश पर पुरातात्विक
सर्वेक्षण विभाग ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की। जून तक खुदाई चलने के बाद आई
रिपोर्ट में कोई नतीजा नहीं निकला। मई में सीबीआई ने 1992 में
अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी
सहित आठ लोगों के ख़िलाफ़ पूरक आरोप-पत्र दाखिल किए। जून में कांची पीठ के
शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की और उम्मीद
जताई कि जुलाई तक अयोध्या मुद्दे का हल निकाल लिया जाएगा, लेकिन
नतीजा वही 'ढाक के तीन पात' रहा। अगस्त
में भाजपा नेता और उप प्रधानमंत्री ने विहिप के इस अनुरोध को ठुकराया कि राम मंदिर
बनाने के लिए विशेष विधेयक लाया जाए। इसके एक साल बाद अप्रैल 2004 में आडवाणी ने अयोध्या में अस्थायी राममंदिर में पूजा की और मंदिर निर्माण
के अपने संकल्प को दोहराया। फिर जनवरी 2005 में आडवाणी को
बाबरी मस्जिद की शहादत में उनकी भूमिका के मामले में अदालत में तलब किया गया।
जुलाई में पांच हथियारबंद लोगों ने विवादित परिसर पर हमला किया। जवाबी कार्रवाई
में पांचों हमलावरों समेत छह लोग मारे गए। इसके कुछ दिन बाद 28 जुलाई को आडवाणी बाबरी मस्जिद की शहादत के मामले में रायबरेली की अदालत
में पेश हुए। अदालत में लालकृष्ण आडवाणी के ख़िलाफ़ आरोप तय किए। इसके एक साल बाद 20
अप्रैल 2006 में केंद्र में कांग्रेस के
नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने लिब्रहान आयोग के समक्ष लिखित बयान में आरोप लगाया कि
बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना सुनियोजित षडयंत्र का हिस्सा था और इसमें भाजपा,
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल और शिवसेना
के कार्यकर्ता शामिल थे। जुलाई में सरकार ने अयोध्या में विवादित स्थल पर बने
अस्थाई राम मंदिर की सुरक्षा के लिए बुलेटप्रूफ़ कांच का घेरा बनाए जाने का
प्रस्ताव रखा। 30 जून को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले की
जांच के लिए गठित लिब्रहान आयोग ने 17 वर्षों के बाद अपनी
रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी। 23 नवंबर 2009
को एक अंग्रेजी अख़बार में आयोग की रिपोर्ट लीक होने की ख़बर प्रकाशित
हुई जिस पर संसद में खूब हंगामा हुआ। गत 26 जुलाई 2010
को इस मामले की सुनवाई पूरी हो गई और अदालत ने इस मामले में संबध्द
सभी पक्षों को सुनने के बाद अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था। अब फ़ैसला 24 सितंबर को सुनाया जाएगा। मुक़दमे के दौरान दोनों पक्षों के क़रीब 88 गवाहों ने अपनी शहादतें दर्ज करवाईं। इसके अलावा कई क्विंटल दस्तावेज़ी
सबूत पेश हुए, जिनमें ज़रूरी काग़ज़ात, किताबें,
वीडियो सीडी आदि शामिल थीं। इस मामले को लेकर भारतीय जनता पार्टी
सहित संघ से संबध्द नेताओं पर गंभीर आरोप लगे हैं। साथ ही बाबरी मस्जिद की शहादत
को लेकर केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठ चुके हैं।
बहरहाल, अदालत का फ़ैसला कुछ भी हो, लेकिन इतना
ज़रूर है कि वह सियासी दलों के समीकरणों को ज़रूर प्रभावित करेगा। इस मुद्दे ने कई
राजनीतिज्ञों को कुछ वक्त क़े लिए अर्श पर पहुंचाया है तो बाद में फ़र्श पर भी ला
पटका है।