उत्सर्जन व्यापार

Posted Star News Agency Friday, October 15, 2010


कल्पना पालखीवाला
उत्सर्जन व्यापार, यानी उत्सर्जन की अंतिम सीमा निर्धारित करना और व्यापार प्रदूषण को नियंत्रित करने का बाजार आधारित दृष्टिकोण है जिसके तहत उत्सर्जन में कटौती करने वालों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जाती है। कोई केंद्रीय प्राधिकरण या नियामक वह सीमा/हद तय करता है जितनी मात्रा तक कोई प्रदूषक उर्त्सजन कर सकता है, लेकिन वह यह निर्णय नहीं करता कि कोई स्रोत विशेष क्या उत्सर्जित करेगा। यह अंतिम सीमा फर्मों को उत्सर्जन परमिट के रूप में बेची जाती है, जो विशिष्ट प्रदूषक के विशेष मात्रा में उत्सर्जन या निस्सरण के अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है। फर्मों को अपनी उत्सर्जन सीमा के बराबर कई परमिट या ऋणों की जरूरत पड़ती है। परमिटों की कुल संख्या अंतिम सीमा को पार नहीं कर सकती और कुल उर्त्सजन उस सीमा तक सीमित रखा जाता है। जिन फर्मों को उत्सर्जन परमिट की संख्या बढ़ाने की जरूरत होती है, उन्हें ये परमिट ऐसी फर्मों से खरीदने पड़ते हैं, जिन्हें इनकी ज्यादा जरूरत नहीं होती। परमिटों का यह हस्तांतरण ही व्यापार कहलाता है। इस तरह खरीददार प्रदूषण फैलाने की कीमत चुका रहा है, जबकि विक्रेता उत्सर्जन में कटौती के लिए पुरस्कृत हो रहा है।

दो मुख्य सक्रिय व्यापार कार्यक्रम हैं: ग्रीनहाउस गैसों के लिए यूरोपीय यूनियन इमिशन ट्रेडिंग स्कीम सबसे बड़ा कार्यक्रम है और अमरीका में अम्लीय वर्षा में कमी लाने के लिए नेशनल मार्केट है।

उत्सर्जन व्यापार योजनाओं में उद्योगों की लागत में कमी लाने के साथ-साथ प्रदूषण घटाने की व्यापक क्षमता है। इन योजनाओं से लाभ दो स्रोतों से होता है। उद्योग क्षेत्र में, कोई ईकाई प्रदूषण में कमी लाने के लिए अपने लिए सबसे किफायती तरीकों का चयन कर सकती हैं। इसकी तुलना में, परंपरागत आदेश-एवं-नियंत्रण नियम उद्योगों में भेदभाव की इजाजत नहीं देते। हर जगह समान मानक का आदेश देने से कटौती के उत्कृष्ट अवसरों का लाभ नहीं मिल सकेगा। नियामक क्षेत्र में, कोई उत्सर्जन व्यापार योजना स्थापित होते ही वह आत्म-विनियमन प्रणाली अर्थात अपने स्तर पर प्रदूषण को नियंत्रण करने की प्रणाली मुहैया कराएगी। इससे प्रदूषण ज्यादा कारगर ढंग से नियंत्रित होगा। सुदूर भविष्य में, लागत कम होने से नए नियम लागू करना भी आसान हो जाएगा जिनसे पर्यावरणीय गुणवत्ता बढ़ेगी। उत्सर्जन व्यापार के साथ पिछला अनुभव दर्शाता है कि अंतिम सीमा-और-व्यापार, उत्सर्जन की निर्धारित कटौती का लक्ष्य कम लागत पर हासिल करने का सशक्त तरीका है।

किसी उत्सर्जन व्यापार योजना के सफल कार्यान्वयन के लिए चार क्षेत्र विशेष तौर पर महत्वपूर्ण हैं।
अंतिम सीमा तय करना-जिस क्षेत्र में व्यापार शुरू किया जा रहा है वहां समग्र उत्सर्जन के लिए किफायती दाम और उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य अवश्य प्रदर्शित होना चाहिए।
परमिट आवंटन- योजना के लिए समर्थन तैयार करने के वास्ते उत्सर्जन के परमिट न्यायसंगत ढंग से बांटे जाने चाहिए। अनेक सफल मामलों में यह आवंटन उद्योगों के लिए अनुपालन की लागत काफी हद तक कम करते हुए आधार रेखा उत्सर्जन की तुलना में स्वतंत्र रखा गया है।
निगरानी-प्रत्येक औद्योगिक संयंत्र से होने वाले उत्सर्जनों की मात्रा की निगरानी निरंतर और विश्वसनीय तरीके से होनी चाहिए। यह सभी पक्षों को मान्य और पारदर्शी होनी चाहिए।
अनुपालन-नियामक संरचना द्वारा उद्योगों को भरोसा दिलाया जाना चाहिए कि परमिट खरीदना पर्यावरणीय दायित्वों को निभाने का एकमात्र विश्वसनीय तरीका है।

उत्सर्जन व्यापार से वृहद लाभ
उत्सर्जन व्यापार की शुरूआत उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में भारत को पर्यावरणीय नियमों के मामले में स्पष्ट नेतृत्व प्रदान करेगी। व्यापार योजना के लाभ समाज को कम लागत पर अनुपालन संबंधी तात्कालिक लक्ष्य के बजाय दीर्घकालिक लक्ष्य की उपलब्धि के रूप में सामने आएंगे। व्यापार योजना से पर्यावरणीय लक्ष्यों के बदलाव के रूप में नियमन को अनुकूल बनाना आसान होगा।

अंतिम सीमा स्तर से कम प्रदूषण फैलाने से कड़े पर्यावरणीय मानक हासिल किए जा सकते हैं, जो कुछ खास क्षेत्रों और स्रोतों को एकाएक अनुपालन से अलग करने की बजाए उत्सर्जन परमिट की कीमत बढ़ा देंगे इससे कम प्रदूषण फैलाने वाले लाभान्वित होंगे।

भारत अपनी स्थानीय उत्सर्जन व्यापार योजना को कार्बन डाई आक्साइड संबंधी वैश्विक उत्सर्जन व्यापार योजना के अनुरूप बनाकर भी लाभ उठा सकता है। अंतिम सीमा-एवं व्यापार की सफल प्रणाली, कार्बन डाई ऑक्साइड और साथ ही साथ स्थानीय प्रदूषकों की कीमत तय करने के लिए जरूरी अधोसंरचना की स्थापना करेगी। ऐसी प्रणाली देश को उस स्थिति तक पहुंचाएगी जहां ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने को प्रोत्साहन मिलेगा।

यूरोपीयन यूनियन इमिशन ट्रेडिंग स्कीम, क्योटो संधि और कोपेनहेगन समझौते के तहत निर्धारित कार्बन में कटौती की भावी नीतियों से उत्सर्जन में कमी लाने की, मांग को बल मिलेगा। इस मांग को पूरा करने के लिए एक उत्सर्जन व्यापार प्रणाली से विदेशी निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा और इससे दीर्घकाल में पर्यावरण के अनुकूल विकास के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को भी फायदा होगा।

भारत में बाजार आधारित नियामक उपकरणों के साथ हाल ही के अनुभव सकारात्मक रहे हैं। ऊर्जा दक्षता के लिए कार्य निष्पादन, उपार्जन एवं व्यापार (पीएटी) तंत्र कार्यान्वित किया जा रहा है, जिसमें देश के 50 फीसदी से ज्यादा जीवाश्म ईंधनों से संबद्ध ऐसी सुविधाएं शामिल होंगी, जिनसे 2014-15 तक कार्बन डाई ऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में प्रतिवर्ष दो करोड़ 50 लाख टन की कमी लाने में मदद मिलेगी।

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