फ़िरदौस ख़ान
भूमि अधिग्रहण मामले में सरकार का रवैया और आला अफ़सरों का लालच किसानों, बिल्डरों और अपने घर का सपना संजोने वाले लोगों के लिए मुसीबत का सबब बन गया है. सरकार की कोताही यह है कि भूमि अधिग्रहण संशोधित विधेयक को अब तक क़ानून का रूप नहीं दिया गया. अंग्रेज़ी शासनकाल के क़ानून आज भी लागू हैं, जिसके कारण अक्सर जनता और सरकार के बीच टकराव के हालात पैदा हो जाते हैं. मौजूदा भूमि अधिग्रहण क़ानून 1894 में लागू किया गया था. उस वक़्त सरकार ने इस क़ानून के ज़रिये सार्वजनिक विकास कार्यों के अलावा पूंजीपतियों को फ़ायदा पहुंचाने का काम किया था. आज़ादी के बाद ख़ासकर 1990 के दशक में उदारीकरण और निजीकरण को बढ़ावा मिलने के दौर में इसी क़ानून का सहारा लेकर पूंजीपतियों ने लोगों की ज़मीनें हथियाना शुरू कर दिया. साल 2005 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) अधिनियम पास होने के साथ ही पूंजीपतियों को और ज़्यादा भूमि अधिग्रहण के मौक़े मिल गए. हालांकि स़ेज का काफ़ी विरोध भी किया गया. कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक लाने का वायदा किया है. ग़ौरतलब है कि 6 दिसंबर, 2007 को तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद लोकसभा में भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक-2007 पेश कर चुके हैं. उस वक़्त यह विधेयक विचार-विमर्श के लिए ग्रामीण विकास समिति को दिया गया था. क़रीब आठ माह बाद समिति ने अक्टूबर 2008 में संसद में अपनी रिपोर्ट पेश की थी. फिर दिसंबर 2008 में मंत्री समूह ने समिति द्वारा सुझाए गए संशोधनों पर सहमति जताई थी और इसे भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक-2009 का नाम देते हुए 25 फ़रवरी, 2009 को लोकसभा में पेश कर दिया गया था, मगर इसके बाद इस विधेयक को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.
भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ ग्रेटर नोएडा के गांव भट्टा-पारसौल में किसानों और पुलिस के बीच हुए ख़ूनी संघर्ष के बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने बीते जून माह में नई भूमि अधिग्रहण नीति का ऐलान कर किसानों को मनाने की कोशिश की. इस नई भूमि अधिग्रहण नीति के मुताबिक़ निजी कंपनियों को किसानों से सीधे ज़मीन ख़रीदनी होगी. राज्य सरकार सिर्फ़ मध्यस्थ की भूमिका में होगी और वह सिर्फ़ भूमि अधिग्रहण की अधिसूचना जारी करेगी. निजी कंपनियां उस वक़्त तक किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण नहीं कर पाएंगी, जब तक उस इलाक़े के 70 फ़ीसद किसान इसके लिए सहमत नहीं हो जाते. नीति में यह भी साफ़ किया गया है कि अधिग्रहीत भूमि का 16 फ़ीसद हिस्सा विकसित कर संबंधित किसान को निशुल्क देना होगा, जिस पर स्टांप शुल्क नहीं लगेगा. भूमि अधिग्रहण की एवज में किसान को 33 साल के लिए 23 हज़ार रुपये प्रति एकड़ की दर से सालाना भुगतान किया जाना है, जो भूमि प्रतिकर के अतिरिक्त होगा. इस भुगतान पर सालाना 800 रुपये की बढ़ोतरी होगी. अगर किसान सालाना भुगतान नहीं लेना चाहेगा, तो उसे एकमुश्त 2,76,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से पुनर्वास अनुदान दिया जाएगा. अगर मुआवज़े की राशि से एक साल के भीतर प्रदेश में कहीं भी कृषि भूमि ख़रीदी जाती है तो उसमें भी स्टांप ड्यूटी से पूरी छूट मिलेगी. इसके अलावा निजी कंपनियों को भूमि अधिग्रहण से भूमिहीन हो रहे परिवार के एक सदस्य को नौकरी देनी होगी. भूमि अधिग्रहण से प्रभावित प्रत्येक ग्राम में विकासकर्ता संस्था द्वारा एक किसान भवन का निर्माण अपने ख़र्च पर कराना होगा. इसके अलावा परियोजना क्षेत्र में कक्षा आठ तक एक मॉडल स्कूल खेल के मैदान सहित संचालित करना होगा. इस नीति में राजमार्ग एवं नहर जैसी बुनियादी ज़रूरतों के लिए भूमि अधिग्रहण का कार्य क़रार नियमावली के तहत आपसी सहमति से तय किया जाना भी शामिल है. ग़ौरतलब है कि 165 किलोमीटर यमुना एक्सप्रेस-वे की 2500 करोड़ की इस योजना के तहत नोएडा, ग्रेटर नोएडा, बुलंदशहर, अलीगढ़, हाथरस, मथुरा और आगरा के क़रीब 334 गांवों की ज़मीन अधिग्रहीत की जानी है. इस हाइवे के क़रीब पांच स्थानों पर टाउनशिप और स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन बनाए जाने हैं. ये परियोजनाएं जेपी ग्रुप, मोंटी चड्ढा और अन्य बिल्डरों की हैं. सुप्रीम कोर्ट ने बीते जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में ग्रेटर नोएडा ज़मीन अधिग्रहण मामले की सुनवाई करते हुए राज्य सरकार को जमकर फटकार लगाई और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले को सही बताते हुए ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण पर 10 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया. जस्टिस जीएस सिंघवी और जस्टिस एके गांगुली की खंडपीठ ने कहा कि राज्य सरकारों ने भूमि अधिग्रहण क़ानून को दमन का क़ानून बना दिया है. देश भर में एक ख़तरनाक अभियान चलाया जा रहा है और अंग्रेज़ों के ज़माने के क़ानून के ज़रिये ग़रीबों का दमन किया जा रहा है. अदालत ने टिप्पणी करते हुए कहा कि इससे कुछ बिल्डर फ़ायदा उठाते हैं और ग़रीब किसान बर्बाद हो जाते हैं. अदालत ने पूछा कि मॉल और ऊंची इमारतें बनाना क्या जनहित में है? जजों को बेवक़ू़फ़ न समझा जाए. इससे पहले की सुनवाई में भी अदालत ने सख्त टिप्पणियां करते हुए कहा था कि वह राज्यों में नंदीग्राम जैसी घटनाएं नहीं चाहती है. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में तब आया, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के ग्रेटर नोएडा में 400 हेक्टेयर ज़मीन के अधिग्रहण को ग़ैरक़ानूनी ठहराते हुए रद्द कर दिया था. हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के बाद ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण और कुछ डेवलपर्स ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.
ग्रेटर नोएडा की इस अधिग्रहीत भूमि पर 50 से ज़्यादा डेवलपर्स अपने प्रोजेक्ट्स प्लान कर रहे थे. इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने अर्जेंसी कलॉज़ के तहत ज़मीन का अधिग्रहण किया था. इस क्लॉज़ के तहत सरकार किसानों से उनकी आपत्तियां सुने बिना ही ज़मीन अधिग्रहीत कर सकती है. इससे पहले 18 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने गौतमबुद्ध नगर में ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण द्वारा व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिए किसानों की 205 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को रद्द करते हुए कहा था कि संपत्ति का अधिकार संवैधानिक अधिकार है और सरकार मनमाने तरीक़े से किसी व्यक्ति को उसकी ज़मीन से वंचित नहीं कर सकती. न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी और न्यायमूर्ति एके गांगुली की खंडपीठ ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 300-ए के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता. ज़मीन के मालिकों राधेश्याम और अन्य ने अदालत में एक याचिका दायर करके मार्च 2008 में किए गए भूमि अधिग्रहण को चुनौती दी थी. उत्तर प्रदेश सरकार ने सितंबर 2007 में भूमि अधिग्रहण के लिए नोटिफिकेशन जारी किया और इसके बाद किसानों से 850 रुपये प्रति वर्गमीटर की दर से ज़मीन ली गई थी. किसानों का आरोप है कि ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण ने औद्योगिकीकरण के लिए भूमि का अधिग्रहण किया था, लेकिन उसे ज़्यादा क़ीमत पर बिल्डरों को बेच दिया गया. नोएडा और ग्रेटर नोएडा में भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ याचिकाओं पर सुनवाई कर रही इलाहाबाद हाईकोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने किसानों, नोएडा अथॉरिटी और बिल्डरों से मामला आपसी बातचीत के ज़रिये सुलझाने को कहा है. न्यायमूर्ति अमिताव लाला और अशोक श्रीवास्तव की खंडपीठ ने गौतमबुद्ध नगर के दर्जनों गांवों के सैकड़ों किसानों की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि जो किसान भूमि अधिग्रण के बदले मुआवज़ा लेना चाहते हैं, वे 12 अगस्त तक ले सकते हैं. साथ ही अदालत ने यह मामला बड़ी बेंच को सौंप दिया है. अगली सुनवाई 17 अगस्त को होगी. इन किसानों ने राज्य सरकार द्वारा क़रीब 3000 हेक्टेयर भूमि के अधिग्रहण को चुनौती दी थी. अदालत ने निवेशकर्ताओं और बिल्डरों की याचिका पर कोई आदेश पारित नहीं किया. निवेशकर्ताओं ने नोएडा एक्सटेंशन फ्लैट बायर्स एसोसिएशन के बैनर तले, बिल्डरों के साथ ख़ुद को इस मामले में पार्टी बनाने की अपील की थी. अदालत को बिसरख, रोजा याक़ूबपुर और हैबतपुर की कुल 3251 एकड़ ज़मीन के अधिग्रहण पर फ़ैसला सुनाना है. इसके साथ ही नोएडा एक्सटेंशन के क़रीब एक लाख फ्लैटों का भविष्य तय हो जाएगा. 12 मई को अदालत ने शाहबेरी गांव की 388 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण रद्द कर दिया था. इससे क़रीब साढ़े आठ हज़ार फ्लैट अधर में लटक गए थे. इसके बाद अदालत ने 21 जुलाई को गांव पतवाड़ी की 450 एक़ड ज़मीन का अधिग्रहण रद्द कर दिया था. अदालत के इस फ़ैसले से क़रीब 20 हज़ार फ्लैट खटाई में पड़ गए. अगर अदालत ने इन तीनों गांवों की ज़मीन का अधिग्रहण रद्द कर दिया तो ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण को नोएडा एक्सटेंशन की कुल 4089 एकड़ ज़मीन किसानों को वापस करनी पड़ेगी. नोएडा एक्सटेंशन कुल 13 गांवों की 8607 एकड़ ज़मीन को मिलाकर बना है. अगर इसमें से 4089 एकड़ ज़मीन घटा दी जाए, तो नोएडा एक्सटेंशन के नाम पर महज़ 4518 एकड़ ज़मीन बचेगी यानी आधा नोएडा एक्सटेंशन ख़त्म हो जाएगा. ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने गांव शाहबेरी और पतवाड़ी में अधिग्रहण रद्द किए जाने के बाद यहां लगे बिल्डरों के होर्डिंग्स हटवा दिए. इसके अलावा किसानों ने भी कार्यस्थलों पर जाकर वहां चले रहे निर्माण कार्यों को रुकवा दिया. किसानों के विरोध के कारण नोएडा एक्सटेंशन के फ्लैटों का निर्माण ख़तरे में पड़ गया है. नोएडा में अब तक बिल्डरों ने एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा धनराशि का निवेश कर रखा है. नोएडा में यूनिटेक, लोटस, अजनारा, सुपरटेक और ओमैक्स समेत क़रीब 26 बिल्डरों के प्रोजेक्ट बन रहे हैं. इसके साथ ही नोएडा में फ्लैट बुक कराने वाले लोगों पर भी मुसीबत का पहाड़ टूट प़डा है. असंख्य लोगों ने यहां घर ख़रीदने के लिए अपनी जमा पूंजी लगाने के अलावा बैंकों से भी क़र्ज़ लिया था. इन परियोजनाओं में क़रीब 25 हज़ार करो़ड रुपये के निवेश का अनुमान है. अदालतों द्वारा भूमि अधिग्रहण रद्द किए जाने से उनके आशियाने के सपने पर बिजली गिर पड़ी है.
किसानों के बाद निवेशकों ने भी अदालत की शरण ली है. 20 जुलाई को नोएडा एक्सटेंशन फ्लैट बायर्स एसोसिएशन (एनईएफबीडब्ल्यूए) ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर आग्रह किया है कि भूमि अधिग्रहण मामले पर फ़ैसला करने से पहले उनका पक्ष भी सुना जाए. बीती 23 जुलाई को एनईएफबीडब्ल्यूए के बैनर तले निवेशकों ने पैदल मार्च निकाल कर विरोध जताया. उनका कहना था कि हमें पैसा नहीं घर चाहिए, हमें भी न्याय चाहिए. उनका कहना था कि सरकार किसानों को वाजिब मुआवज़ा दिलाकर उनके घर के सपने को टूटने से बचाए. हालांकि बिल्डरों का कहना है कि अदालत का आदेश कुछ फ्लैटों के लिए है, पूरे एक्सटेंशन को लेकर परेशानी की कोई बात नहीं है. बिल्डरों को यह खौ़फ़ ज़रूर है कि अगर सभी किसान अदालत चले गए, तो उनका भारी नुक़सान हो सकता है. बिल्डरों ने भी सरकार से इस मामले को जल्द से जल्द सुलझाने की मांग की है. कंफेडरेशन ऑफ रीयल एस्टेट डेवलपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (क्रेडाई) के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पदाधिकारियों गीतांबर आनंद, अनिल शर्मा, आरके अरोड़ा एवं मनोज गौड़ का कहना है कि सरकार और अथॉरिटी को ऐसा तरीक़ा अपनाना चाहिए, जिससे फ्लैट बुक कराने वालों के साथ-साथ उनके नुक़सान की भी भरपाई हो सके. एक अनुमान के मुताबिक़, विभिन्न बैंकों के क़रीब 1200 करो़ड रुपये फंस गए हैं. हालांकि बैंकों ने इस मामले में अभी तक खामोशी अख्तियार कर रखी है. बताया जा रहा है कि इस मामले में बैंक खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के अलावा बिल्डरों और निवेशकों को भी क़र्ज़ दिया है यानी एक ही संपत्ति के लिए तीन-तीन क़र्ज़ दिए गए. इन परियोजनाओं में सबसे ज़्यादा पैसा भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, एक्सिस बैंक, एचडीएफसी बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, कारपोरेशन बैंक और आईसीआईसीआई का लगा हुआ है. फिलहाल बैंकों ने नोएडा एक्सटेंशन के फ्लैटों के लिए क़र्ज़ देने पर पाबंदी लगा दी है. नोएडा एक्सटेंशन में निर्माण कार्य में लगे कॉन्ट्रेक्टरों ने भी कार्य रोके जाने पर रोष जताते हुए प्रदर्शन किया. उनका कहना है कि अदालत के आदेश से उनका कामकाज ठप हो गया है. साथ ही निर्माण कार्यों में लगे हज़ारों लोग बेरोज़गार हो गए हैं.
उधर, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने ग्रेटर नोएडा में भूमि अधिग्रहण से पैदा हुए हालात में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करने से इंकार किया है. उधर, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने ग्रेटर नोएडा में भूमि अधिग्रहण से पैदा हुए हालात में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करने से इंकार किया है. उनका कहना है कि यह राज्य सरकार का दायित्व है कि वह इस मामले का समाधान कराए. अब सरकार, ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण, बिल्डरों और निवेशकों को 17 अगस्त के फैसले का इंतज़ार है. बहरहाल, सभी की कोशिश है कि मामला आपसी सहमति से ही सुलझा लिया जाए.
क्या है भूमि अधिग्रहण क़ानून
संपत्ति का अधिग्रहण और मांग भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची द्वारा समवर्ती सूची में सूचीबद्ध विषय है. ऐसे अनेक स्थानीय और विशिष्ट क़ानून हैं, जो भूमि अधिग्रहण के लिए हैं, लेकिन मुख्य क़ानून जो भूमि के अधिग्रहण से संबंध रखता है, वह है भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894. ग्रामीण विकास मंत्रालय केंद्रीय सरकार का नोडल मंत्रालय है, जो भूमि अधिग्रहण पर केंद्रीय विधान का प्रशासन करता है, जबकि शहरी विकास मंत्रालय शहरी भूमि (उच्चतम सीमा और विनियमन) अधिनियम 1976 और शहरी भूमि (उच्चतम सीमा और विनियमन) निरसन अधिनियम 1999 का प्रशासन करता है. राज्यों में शहरी संपदाओं के समग्र विकास के लिए अनेक शहरी विकास प्राधिकरण होते हैं. साथ ही ऐसे विभिन्न विभाग हैं, जो भूमि अधिग्रहण, आवास, मूल संरचना, शहर की योजना आदि से संबंधित मामले निपटाते हैं, जैसे ग्रामीण विकास विभाग, योजना विभाग एवं भूमि विभाग.