वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के निर्वाचित प्रधानमंत्री से देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाने के साथ भारत से अच्छे संबंध कायम रखने की उम्मीद। नवाज शरीफ एक साहसी नेता हैं। यह पाकिस्तान का सौभाग्य है कि उसे अब ऐसा नेतृत्व मिला है, जो न तो फौज से डरता है और न फौज की निंदा करता है। अब पाकिस्तान के राजनेताओं और फौज के बीच स्वस्थ संबंध बने रहने की आशा जगी है।

मेरी राय में नवाज शरीफ की जीत पाकिस्तान ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के लिए शुभंकर सिद्ध होगी। यदि 1999 में उनका फौजी तख्ता-पलट नहीं हुआ होता तो अभी तक भारत और पाकिस्तान आपसी रिश्तों के बहुत ऊंचे पायदान पर पहुंच जाते।

मुझे याद है कि 1998 के चुनाव में मतदान के दो दिन पहले उन्होंने रायविंड के अपने फार्म हाउस में एक विशाल प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत से संबंध-सुधार की घोषणा की थी और कश्मीर मसले को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने का वादा किया था। रायविंड की प्रेस-कॉन्फ्रेंस में नवाज शरीफ ने मुझे अपने साथ बैठा रखा था। उनकी भारत-संबंधी घोषणा के बाद पाकिस्तानी पत्रकारों ने मुझसे आकर कहा कि आपने आज मियां साहब को मरवा दिया। अब वे अपनी सीट भी नहीं जीत पाएंगे।

अगले दिन क्या हुआ? नवाज साहब और मैं उनके लाहौर के मॉडल टाउन वाले बंगले में रात भर चुनाव-परिणामों का जायजा लेते रहे। नवाज शरीफ को उस चुनाव में इतनी ज्यादा सीटें मिलीं, जितनी कि पूरे दक्षिण एशिया के किसी भी नेता को अपने चुनाव में कभी नहीं मिलीं। यानी भारत से संबंध-सुधार पर पाकिस्तान की जनता ने मुहर लगा दी। इस बार भी यही हुआ।

अपने घोषणा-पत्र में तो भारत से संबंध-सुधारने की बात उन्होंने कही ही, उसके अलावा अखबारों को ऐन मतदान के पहले साफ-साफ कहा कि भारत से संबंध सुधारना उनकी प्राथमिकता रहेगी। वे कश्मीर मसले का शांतिपूर्ण तरीके से हल निकालेंगे और भारत को पाकिस्तान होकर मध्य एशिया तक आने-जाने का रास्ता देंगे। भारत से व्यापार भी बढ़ाएंगे।

हालांकि सभी प्रमुख दलों ने भारत से संबंध-सुधार की बात कही है, लेकिन मियां साहब ने जिस जोर-शोर से अपनी बात कही है, उसका महत्व असाधारण है। असाधारण इसलिए कि वे एक बड़े नेता हैं और उनकी मुस्लिम लीग के सत्तारूढ़ होने की पूरी संभावना थी। इसके अलावा उनका सिपह-ए-साहबा जैसे संगठनों से भी घनिष्ठ संबंध रहा है। पाकिस्तान में कट्टरवादी तालिबान का भी प्रभाव कम नहीं है।

इतना ही नहीं, भारत से संबंध-सुधार की बात सबसे ज्यादा जहरीली लगती है, पाकिस्तानी फौज को। हालांकि अब फौजी तानाशाह पस्त हो चुके हैं और जनरल कयानी की फौज ने बहुत ही संयम का परिचय दिया है, लेकिन यह चरम सत्य है कि यदि भारत से पाकिस्तान के संबंध सुधर गए तो पाकिस्तानी समाज में फौज का दबदबा निश्चित रूप से घट जाएगा।

नवाज शरीफ एक साहसी नेता हैं। दब्बू नहीं हैं। वे चुनाव जीते या हारें, वे अपने दिल की बात कहे बिना नहीं रहेंगे। उनके पुराने तजुर्बो ने उन्हें नया आत्मबल दिया है। यह पाकिस्तान का सौभाग्य है कि उसे अब ऐसा नेतृत्व मिला है, जो न तो फौज से डरता है और न ही फौज की निंदा करता है। जीतने के बाद नवाज शरीफ ने ठीक ही कहा है कि उन्हें मुशर्रफ से शिकायत थी, फौज से नहीं।

यानी अब पाकिस्तान के राजनेताओं और फौज के बीच स्वस्थ संबंध बने रहने की आशा जगी है। दूसरे शब्दों में, यह पाकिस्तानी लोकतंत्र के मजबूत होने की वेला है। यदि इमरान खान आगे हो जाते तो यह माना जाता कि इस्लामाबाद के सिंहासन पर फौज दूसरे दरवाजे से आ बैठी है। इमरान खान को सच्चे अर्थो में नेता बनने का मौका अब मिला है। आशा है, वे अपने आप को पख्तूनों के नेतृत्व तक सीमित नहीं रखेंगे, बल्कि पूरे पाकिस्तान की आवाज को संसद में गुंजाएंगे।

जहां तक आसिफ अली जरदारी की ‘पीपुल्स पार्टी’ का सवाल है, उसे तो हारना ही था। वह उनकी नहीं, बेनजीर की पार्टी थी। पाकिस्तान की जनता ने पिछले चुनाव में उन्हें नहीं चुना था, शहीद बेनजीर को चुना था, जैसे कि 1984 में भारत की जनता ने राजीव गांधी को नहीं, शहीद इंदिरा गांधी को वोट दिया था। राजीव ने जब अपने दम पर चुनाव लड़ा तो उनकी सीटें आधी रह गईं और जरदारी की तो एक-चौथाई हो गईं।सिर्फ सिंध में सिमट गए, वे! अब राष्ट्रपति पद पर भी उनके दिन गिने-चुने हैं। अब उन्हें और बिलावल को असली राजनीति के मैदान में उतरना होगा।

नवाज शरीफ के लिए इस चुनाव के परिणाम सिरदर्द भी सिद्ध हो सकते हैं। पाकिस्तान के चार प्रांत हैं। उन चारों प्रांतों में चार तरह की अलग-अलग पार्टियों की सरकारें होंगी। बलूचिस्तान तो अलगाव का अलाव सुलगाए हुए है। नवाज ने सर्व-सहमति की बात कहकर पाकिस्तानी एकता को मजबूती दी है, लेकिन यह कटु सत्य है कि पाकिस्तान की सभी पार्टियां अब क्षेत्रीय पार्टियां बन गई हैं। राष्ट्रीय पार्टी आखिर किसे कहें? सबसे बड़े प्रांत यानी पंजाब की पार्टी होने के कारण ही नवाज की मुस्लिम लीग इतनी सीटें जीत सकी है। नवाज को अब सिर्फ पंजाब ही नहीं, पूरे पाकिस्तान की अस्मिता का प्रवक्ता बनना होगा।

यह कहने की जरूरत नहीं है कि 14 साल का वनवास भुगतने के बाद नवाज साहब अपनी भूलों से सबक जरूर लेंगे। उनके 1998 के चमत्कारी चुनाव परिणामों ने उनका माथा फिरा दिया था। उन्होंने अदालतों से पंगा लेना शुरू कर दिया था। फौज के ऊंचे-ऊंचे जनरलों को ताश के पत्तों की तरह वे फेंटने लगे थे। उन्होंने मुशर्रफ को भी उल्टा टांगने की कोशिश की थी।

वे भारत से संबंध सुधार के हामी थे लेकिन उन्होंने कारगिल युद्ध होने दिया, तालिबान को सिर चढ़ाया। जाहिर है कि इस बार वे पूरा संतुलन बनाए रखेंगे। वे अपना अधूरा काम पूरा करेंगे और कुछ ऐसा कर दिखाएंगे कि उनका नाम जिन्ना और नेहरू से भी बड़ा हो जाए। नवाज शरीफ के पिताजी मुझसे अक्सर पूछा करते थे कि ऐसा कैसे हो सकता है? उसका जवाब यही था कि भारत-पाक महासंघ बन जाए और इस द्विराष्ट्रीय संघ-राज्य के राष्ट्रपति नवाज शरीफ चुने जाएं।

और फिर अराकान (बर्मा) से खुरासान (ईरान) तक एक ‘अखंड-आर्याना’ बनाया जाए, जो यूरोपीय संघ से भी बेहतर हो। हमारे इस महान स्वप्न का शुभारंभ भारत का कोई नेता नहीं कर सकता। इसे तो पाकिस्तान का ही कोई नेता कर सकता है, क्योंकि पाकिस्तान दक्षिण एशिया के बीचों-बीच अवस्थित है। यदि वह अपने द्वार खोल दे तो दक्षिण एशिया के दर्जन भर देशों के द्वार एक-दूसरे के लिए अपने आप खुल जाएंगे। युद्धों और गरीबी के दिन लद जाएंगे। देखना है कि नवाज शरीफ कोरे प्रधानमंत्री पद से संतुष्ट हो जाते हैं या इतिहास की दीवार पर कोई लंबी लकीर खींचते हैं?वेदप्रताप वैदिक

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