फ़िरदौस ख़ान
गंगा सिर्फ़ एक नदी नहीं है, बल्कि यह एक संस्कृति है, सभ्यता है और आस्था है, इसीलिए गंगा को गंगा मैया कहा जाता है. हिंदू धर्म के अनुयायी गंगा को देवी मानकर इसकी उपासना करते हैं. अनेक पवित्र तीर्थस्थल गंगा के किनारे पर बसे हुए हैं, जिनमें वाराणसी और हरिद्वार प्रमुख हैं. गंगा नदी को भारत की पवित्र नदियों में सबसे पवित्र माना जाता है. मान्यता यह है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाता है. मरने वाले व्यक्ति की राख और अस्थि कलश को गंगा में विसर्जित करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. इसीलिए इसे पतितपावनी भी कहा जाता है. कुछ लोग गंगा के किनारे अंतिम संस्कार की इच्छा भी रखते हैं. ग़ौरतलब है कि उत्तराखंड में 39 सौ मीटर ऊंची गंगोत्री से निकली गंगा 2510 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई बंगाल की खाड़ी में समा जाती है. अपनी लंबी यात्रा के दौरान गंगा तक़रीबन दस लाख वर्ग किलोमीटर उपजाऊ मैदान की रचना करती है.
हाल में पेंगुइन बुक्स ने गंगा पर आधारित किताब दर दर गंगे प्रकाशित की है. इसमें गंगा की यात्रा की कहानी है, जो गंगोत्री से शुरू होकर गंगा सागर तक पहुंचती है. इस किताब के लेखक अभय मिश्रा और पंकज रामेन्दु ने गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक यात्रा की. फिर गंगा की हालत और गंगा से जु़डे लोगों के बारे में अपने संस्मरण लिखे. लेखकों का कहना है कि तीन चरणों में की गई गंगा यात्रा वास्तव में गंगा के बहाने ख़ुद के भविष्य को जानने की यात्रा थी. गंगा किनारे चलते हुए हमारे भीतर भी एक यात्रा चल रही थी. यह यात्रा थी हमारी परंपराओं की, हमारी संस्कृति की, जो गंगा की लहरों की तरह ही कहीं-कहीं उत्ताल, तो कहीं-कहीं शांत नज़र आती थी. यह यात्रा ख़ुद की जिज्ञासा को शांत करने के लिए थी कि कैसे एक सभ्यता, समृद्ध संस्कृति, एक जीवन रेखा नदी मात्र में तब्दील हो गई? क्यों एक नदी निकलते, चलते, बहते करोड़ों लोगों को अपने साथ जोड़ लेती है? क्या वजह है कि कोई नदी मां कहलाने लगती है? इन्हीं सब सवालों के जवाब पाने के लिए हमने गंगा के दर दर को खोजने की कोशिश की. गंगोत्री से आगे बढ़ते हुए कब पहाड़ों पर ही गंगा का सौंदर्य पक्ष ख़त्म हो जाता है और गंगा चिंता का विषय बन जाती है, इसका अहसास पहाड़ी जीवन देखकर ही हो सकता है. इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जिस टिहरी में पूरी भागीरथी को बांध दिया गया है, वहां पीने का पानी टैंकरों से क्यों आता है. किताब की शुरुआत होती है गंगोत्री से. फिर अगला पड़ाव आता है उत्तरकाशी, इसके बाद टिहरी, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, नरौरा, गंगा नगहर, कन्नौज, बिठुर, कानपुर, कड़ा मानिकपुर, इलाहाबाद, विंध्याचल, बनारस, ग़ाज़ीपुर, बक्सर, पटना, बख्तियारपुर, मुंगेर, सुल्तानपुर, भागलपुर, कहलगांव, साहिबगंज, राजमहल, फरक्का, मायापुरी, कोलकाता और गंगासागर, जहां यह यात्रा ख़त्म हो जाती है.
दरअसल, लेखकों ने न केवल गंगा के धार्मिक पक्ष को सामने रखा है, बल्कि गंगा की मौजूदा हालत और इससे जुड़े लोगों के सुख-दुख को भी विभिन्न किरदारों के माध्यम से पेश किया है. मसलन, किताब के अध्याय ग़ढमुक्तेश्वर, पहचान का संकट को ही लीजिए-
जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े हरि राम... यही गाना गाते हुए अपनी नाव को साफ़ कर रहा है. वह जानता है कि अब यह गाना सिर्फ़ मन बहलाने के लिए ही रह गया है. आज अगर प्रभु आ जाएं, तो शायद केवट उन्हें पार करा पाने की असमर्थता प्रकट करते हुए हाथ जोड़ लेगा. अब तो यह गाना सिर्फ़ मल्लाह जाति के गौरवगान के रूप में ही रह गया है, क्योंकि अब न तो गंगा में इतना पानी बचा है और न ही मल्लाहों में इतना उत्साह.
दरअसल, गंगा की धारा अवरुद्ध होने से जहां गंगा में रहने वाले जीवों पर बुरा असर पड़ा है, वहीं गंगा से जुडे लोगों का रोज़गार भी प्रभावित हुआ है. इस किताब में गंगा से जुडी समस्याओं का भी ज़िक्र है, जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं.
पर्यावरणविद और गांधीवादी कार्यकर्ता अनुपम मिश्र का कहना है कि दर दर गंगे सचमुच पूरी गंगा दिखा देती है, पूरी गंगा घुमा देती है. यह गंगा की गहराई भी बताती है और हमारे आधुनिक विकास का उथलापन भी. गंगोत्री से गंगा सागर तक की ऐसी विचार-यात्रा अद्भुत आनंद देती है. साथ ही एक अजीब-सी उदासी भी. उदासी इसलिए कि पाठक इस यात्रा की समाप्ति को मन से स्वीकार नहीं कर पाता. बहरहाल, किताब बेहद रोचक और ज्ञानवर्धक है. यह कहना ग़लत न होगा कि यह पाठक को गंगा की संपूर्ण यात्रा करा देती है. किताब की भाषा शैली उत्कृष्ट है और यह पाठक को शुरू से आख़िर तक बांधे रखती है. उम्मीद है कि पाठकों को यह किताब बेहद पसंद आएगी.
समीक्ष्य कृति : दर दर गंगे
लेखक : अभय मिश्रा, पंकज रामेन्दु
प्रकाशक : पेंगुइन बुक्स