फ़िरदौस ख़ान
जिनके बच्चे गुम हो जाते हैं, उनके दर्द को शब्दों में बयां
नहीं किया जा सकता. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर ज़िले के क़स्बा बुढ़ाना के 10 साल
के मोहम्मद हसन की गुमशुदगी को सात साल होने वाले हैं. उसकी मां आयशा का रो-रोकर
बुरा हाल है. उन्होंने अपने लाल को हर जगह तलाशा, मगर वह कहीं नहीं मिला. सुबह सूरज
की पहली किरण से ही पूरा घर अपने लाडले के इंतज़ार में पलकें बिछा लेता है. उम्मीद
की एक लौ क़ायम रहती है कि कभी तो कोई आएगा, उनके बेटे की ख़बर लेकर, लेकिन जब रात
ढलती है और हसन की कोई ख़बर नहीं आती, तो उम्मीद काफ़ूर हो जाती है. मोहम्मद हसन के
पिता मोहम्मद फ़ुरक़ान का कहना है कि उन्हें नहीं पता था कि उनका बेटा उनसे बिछड़
जाएगा. वह तो बस इतना चाहते थे कि मदरसे से आने के बाद हसन यहां-वहां खेलकर वक़्त
बर्बाद करने की बजाय उनके काम में हाथ बटाए, ताकि उसे काम करने की आदत पड़ जाए. बस,
खेत में काम करने की बात को लेकर ही बेटे पर उनका हाथ उठ गया और वह कहीं चला गया.
अपनी इस ग़लती के लिए वह आज तक पछता रहे हैं. काश, उन्होंने अपने बेटे को मारने की
बजाय प्यार से समझाया होता, तो आज वह उनके साथ होता. उन्होंने अपने बेटे को आसपास
ही नहीं, दूरदराज तक के इलाक़ों में ढूंढा, मगर वह कहीं भी नहीं मिला. उत्तराखंड के
पौ़ढी ग़ढवाल का दस वर्षीय राकेश रावत कुछ दिनों पहले एक शादी में शामिल होने के
लिए अपने परिवार के साथ ग़ाज़ियाबाद आया था. बीती 16 अप्रैल की शाम को अचानक वह
ग़ायब हो गया. चाचा सुरेंद्र सिंह बताते हैं कि उन्होंने अपने भतीजे की गुमशुदगी की
रिपोर्ट पुलिस में दर्ज कराई और अपने सभी रिश्तेदारों के यहां भी उसे तलाशा, लेकिन
वह कहीं भी नहीं मिला.
इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर लोग अपने आसपास होने वाली गतिविधियों को लेकर सतर्क रहें, तो अपराधों पर काफ़ी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है. पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में एक ऑटो चालक की समझदारी और बहादुरी से एक दर्जन बच्चों को तस्करों के चंगुल से आज़ाद करा लिया गया. हुआ यूं कि बीती 19 अप्रैल को आनंद विहार बस अड्डे के पास खड़े चार लोगों ने दो ऑटो बुक किए. तरुण नामक ऑटो चालक के ऑटो में चार बच्चों के साथ तीन युवक सवार हुए, बाक़ी बच्चे और एक युवक दूसरे ऑटो में बैठे. युवकों की बातचीत से ऑटो चालक को शक हुआ और उसने 100 नंबर पर फ़ोन करके पुलिस को सूचना दे दी. इस पर ऑटो में सवार युवकों ने चालक के साथ मारपीट शुरू कर दी, लेकिन उसने हार नहीं मानी और दो युवकों को कसकर पकड़ लिया. तीसरा युवक फ़रार हो गया. इतने में पुलिस भी मौक़े पर पहुंच गई और युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया. तस्करों की निशानदेही पर पुलिस ने कांति नगर इलाक़े से दूसरे ऑटो में सवार बच्चों को बरामद करते हुए अन्य दो तस्करों को भी गिरफ्तार कर लिया. इनमें से छह बच्चे नेपाल और बाक़ी छह बच्चे बिहार के थे. बच्चों की उम्र 8 से 14 साल के बीच है. तरुण की जागरूकता से एक दर्जन बच्चे तस्करों के ज़ुल्म का शिकार होने से बच गए. तरुण का कहना है कि वे सभी बच्चों को बचाना चाहता था, इसलिए उसने युवकों को कसकर पकड़े रखा. यह बेहद दुख की बात है कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद देश में बच्चों की ख़रीद-फ़रोख्त का सिलसिला जारी है. कई ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जिनमें माता-पिता को पैसे देकर उन्हीं से बच्चे ख़रीद कर बाद में इन बच्चों को देश के अलग-अलग हिस्सों में पहुंचा दिया जाता है. यहां से बड़ी तादाद में बच्चों, ख़ासकर लड़कियों को विदेश में बेचा जाता है. यह सब उन्हें काम दिलाने के नाम पर किया जाता है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, देश में हर साल 45 हज़ार से ज़्यादा बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज होती है. इनमें से तक़रीबन 11 हज़ार बच्चों का कोई नामोनिशान तक नहीं मिल पाता. बताया जाता है कि इनमें से तक़रीबन 50 फ़ीसद बच्चों को जबरन देह व्यापार में धकेल दिया जाता है, बाक़ी बच्चों से बंधुआ मज़दूरी कराई जाती है या फिर उन्हें भीख मांगने पर मजबूर किया जाता है. तक़रीबन डेढ़ लाख बच्चों को उनके ग़रीब माता-पिता ही बंधुआ मज़दूरी के लिए बेच देते हैं. दो लाख बच्चे तस्करी के ज़रिये विदेशों में पहुंचा दिए जाते हैं, जिनसे वहां दिन-रात काम कराया जाता है. दुनिया भर में हर साल 10 लाख 20 हज़ार बच्चे तस्करी का शिकार होते हैं. सालाना सात हज़ार बच्चे नेपाल और तक़रीबन चार हज़ार बच्चे बांग्लादेश से भारत लाए जाते हैं, जिनमें लड़कियों की संख्या ज़्यादा होती है. उन्हें यहां देह व्यापार के लिए बेच दिया जाता है. आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर पूर्वी राज्यों, उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में इन बच्चों की काफ़ी मांग है. नेपाल और देश के उत्तर पूर्वी राज्यों से लाई गई लड़कियों को 20 हज़ार से लेकर एक लाख रुपये तक में बेच दिया जाता है. बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों से लाए गए बच्चों को 10 से 25 हज़ार रुपये में बेचा जाता है.
एनएचआरसी और यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट को मानें, तो 70 फ़ीसद बच्चों को जबरन देह
व्यापार में धकेल दिया जाता है. 20 फ़ीसद बच्चों से बंधुआ मज़दूर के तौर पर काम
कराया जाता है. पांच फ़ी द बच्चे माफ़िया के चंगुल में फंसकर भीख मांगने के लिए मजबूर
हो जाते हैं. बाक़ी पांच फ़ीसद बच्चों की हत्या करके उनके अंगों का व्यापार किया
जाता है. इनमें से 20 फ़ीसद बच्चे विरोध और प्रतिरोध के कारण मार दिए जाते हैं.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट की मानें, तो बच्चों के गुमशुदा होने के
मामले में दिल्ली अव्वल है. पिछले तीन सालों में दिल्ली से तक़रीबन 18 हज़ार से
ज़्यादा बच्चे ग़ायब हुए हैं, हालांकि इनमें से तक़रीबन 85 फ़ीसद मिल गए. हैरानी की
बात यह है कि बच्चों की गुमशुदगी के ज़्यादातर मामलों में उनके परिचित ही शामिल
होते हैं. हक़ीक़त यह है कि बेघर बच्चे तस्करों के जाल में आसानी से फंस जाते हैं.
इन बेघर बच्चों में वे बच्चे भी शामिल हैं, जो किसी वजह से अपने घर से भागकर आए
हैं, जिनके माता-पिता मर चुके हैं और उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है या फिर वे
बच्चे, जिन्हें जन्म के बाद यहां-वहां फेंक दिया जाता है. इनमें लड़कियां ही
ज़्यादा होती हैं. ऐसे बच्चों को मानव तस्कर उठा लेते हैं और फिर उन्हें बेच दिया
जाता है. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़, दिल्ली की सड़कों पर ज़िंदगी गुज़ार रहे
तक़रीबन 20 फ़ीसद बच्चे अवसाद का शिकार हैं. ये बच्चे अपनी ज़िंदगी से इतने नाउम्मीद
हो चुके हैं कि इनमें से तीन फ़ीसद बच्चे आत्महत्या की कोशिश भी कर चुके हैं. 70
फ़ीसद बच्चे ऐसे हैं, जिनका व्यवहार सामान्य नहीं है. आधे से ज़्यादा बच्चे उत्तर
प्रदेश और बिहार से हैं, जबकि बाक़ी बच्चे अन्य राज्यों के हैं. क़रीब 70 फ़ीसद
बच्चे ऐसे हैं, जिनके माता-पिता जीवित हैं. तक़रीबन 15 फ़ीसद बच्चे ऐसे हैं, जिनके
माता-पिता में से कोई एक ही जीवित है, जबकि सात फ़ीसद बच्चों में उनकी माता या पिता
सौतेले हैं. बाक़ी बच्चे ऐसे हैं, जो अपने किसी रिश्तेदार के यहां रह रहे थे और फिर
वहां से भागकर दिल्ली आ गए. इनमें 15 फ़ीसद बच्चे ऐसे हैं, जो किसी न किसी तरह से
यौन शोषण का शिकार रहे हैं. शर्म की बात तो यह है कि इनमें 95 फ़ीसद बच्चों का अपने
ही परिजनों द्वारा यौन शोषण हुआ है. इनमें से आधे बच्चे किसी न किसी नशे का सेवन
करते हैं. ज़्यादातर बच्चे तंबाक़ू या गुटखा खाते हैं. तक़रीबन चार फ़ीसद बच्चे ग्लू
नामक रसायन सूंघते हैं. ग्लू का इस्तेमाल जूतों के सोल चिपकाने के लिए किया जाता
है. तक़रीबन एक फ़ीसद बच्चे गांजा पीते हैं.
ग़ौरतलब है कि 28 दिसंबर, 2006 को सामने आए नोएडा के निठारी कांड ने दहशत फैला
दी थी. यहां 24 बच्चों का ग़ायब होना और फिर नौ बच्चों के कंकाल मिलना बेहद दर्दनाक
और देश के लिए शर्मनाक घटना थी. बच्चों के शोषण और हत्या के मामले पूरी दुनिया के
लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं. अमेरिका में अपराधियों को दस श्रेणियों में बांटा
गया है. उन्हें उनके हाव-भाव से पहचाना जा सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक़, ऐसे लोग न
तो पागल होते हैं और न ही मानसिक रूप से विक्षिप्त. ये आम लोगों की तरह ही ज़िंदगी
जीते हैं, लेकिन अक्सर गुमसुम रहते हैं. विपरीत सेक्स का सामना होते ही ये लोग
चौकन्ने हो जाते हैं. अपने आसपास के बच्चों से ज़्यादा बात नहीं करते, लेकिन उन्हें
घूरते रहते हैं. बच्चों को आकर्षित करने के लिए रंगीन कपड़े पहनते हैं. आसपास के
बच्चों की आदतें जानने की कोशिश करते हैं. लालच देकर बच्चों को सुरक्षित एकांत
स्थान पर ले जाकर उनका यौन शोषण करते हैं. इस दौरान बच्चों के साथ क्रूरता बरतते
हैं और प्रतिरोध करने पर उग्र हो उठते हैं. कभी-कभी अपना काम निकलने पर उनकी हत्या
कर शव को ठिकाने लगाने से भी नहीं चूकते! फिर कुछ घंटों के बाद सामान्य हो जाते
हैं. ये यौन शोषण के वक़्त किसी के देख लेने पर उसे भी साझीदार बनाने की कोशिश करते
हैं. क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि दो साल पहले अमेरिका ने भारत को मानव तस्करी की निगरानी
सूची से हटा दिया था. ऐसा मानव तस्करी से निपटने की दिशा में भारत की कोशिशों को
देखते हुए किया गया था. अमेरिका की इस रिपोर्ट में 184 देशों के हालात का जायज़ा
लेकर मानव तस्करी से निपटने की उनकी कोशिशों के आधार पर उन्हें विभिन्न स्तरों पर
रखा गया है. इस सूची में 23 देशों की पहचान ऐसे देशों के तौर पर की गई है, जो इससे
निपटने के लिए न्यूनतम अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन नहीं कर रहे हैं. 2010 में ऐसे
देशों की संख्या 13 थी, जबकि 41 देशों को निगरानी सूची में रखा गया था. ये वे देश
हैं, जो अपना रिकॉर्ड नहीं सुधारते. इनमें भारत भी एक था. रिपोर्ट में कहा गया था
कि सभी देशों को मानव तस्करी से निपटने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे. भारत सरकार
द्वारा की जा रही कोशिशों के बारे में कहा गया कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने
कांप्रिहेन्सिव स्कीम फॉर स्ट्रेंथनिंग लॉ एनफोर्समेंट रेस्पांस इन इंडिया शुरू की
है, जो हर तरह की बंधुआ मज़दूरी के मामले में क़ानून नियमन में सुधार के लिए है.
इसके अलावा सरकार ने 2000 के यूएनटीआईपी प्रोटोकॉल का अनुमोदन भी किया है. बंधुआ
मज़दूरी कराने के मामले में कई दोषियों को पांच से 14 साल तक की क़ैद की सज़ा भी
हुई है. बंधुआ मज़दूरी को रोकने और मुक्त कराए बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के
प्रयास भी किए गए हैं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में बच्चियों की
तस्करी देह व्यापार के लिए की जाती है. धार्मिक और पर्यटन की दृष्टि से लोकप्रिय
शहरों में सबसे ज़्यादा बाल शोषण होता है. शहरों में यौन शोषण के लिए तस्करी रेड
लाइट क्षेत्रों से सड़क किनारे बने होटलों और मकानों तक पहुंच गई है. माओवादी
सशस्त्र गिरोह भी बच्चों को शामिल कर रहे हैं. ग़ौरतलब है कि विदेश मंत्रालय ने
श्रीलंका और फिजी को भी निगरानी सूची से बाहर कर दिया. काली सूची में क्यूबा, ईरान,
म्यांमार, उत्तरी कोरिया, सूडान इरीट्रिया, लीबिया, जिम्बॉब्वे, क़ुवैत और सऊदी अरब
को डाला गया है. दिल्ली में चौराहों पर भीख मांगते बच्चे देखे जा सकते हैं. सिग्नल
पर गाड़ियों के रुकते ही वे हाथ बढ़ाकर पैसे मांगना शुरू कर देते हैं. कुछ लोग,
खासकर महिलाएं इन पर तरस खाकर इन्हें एक-दो सिक्के थमा देती हैं, लेकिन अक्सर
इन्हें लोगों की झिड़कियां ही ज़्यादा मिलती हैं. पढ़ने और खेलने-कूदने की इस उम्र
में इन बच्चों को अपना पेट भरने के लिए स़डकों पर भीख मांगनी पड़ती है. चाय की
दुकानों, ढाबों, कारख़ानों में भी ब़डी तादाद में बच्चे काम करते हैं. ऐसे मामले भी
सामने आए हैं, जब कारख़ाने के मालिकों ने बच्चों को ख़रीद कर काम पर लगाया है. कई बार
माता-पिता भी अपने बच्चे इन कारख़ाने वालों के पास छोड़ जाते हैं. जब कभी छापेमारी
में ये बच्चे बरामद होते हैं, तो इनकी कई कहानियां सामने आती हैं. दरअसल, इस अपराध
की जड़ में ग़रीबी की सबसे बड़ी भूमिका सामने आती है. नारकीय जीवन बिता रहे इन बच्चों
में ज़्यादातर ग़रीब परिवारों के होते हैं, क्योंकि अमूमन अमीर परिवारों के बच्चों
को फ़िरौती या फिर आपसी रंजिश की वजह से ही अग़वा किया जाता है.
बंधुआ मुक्ति मोर्चा के प्रमुख स्वामी अग्निवेश का कहना है कि दिल्ली में आज
भी दूसरे प्रदेशों से लाए गए हज़ारों बच्चे हैं, जो 16 से 18 घंटों तक ग़ुलामों की
तरह काम करते हैं. उनके साथ हर तरह की ज़ोर ज़बरदस्ती होती है. बाल श्रम विरोधी
क़ानून होने के बावजूद आज भी घरों में बच्चों का शोषण हो रहा है. इसे रोकना हम सब
की सामूहिक ज़िम्मेदारी है. बहरहाल, बच्चों की तस्करी सभ्य समाज के माथे पर एक
बदनुमा दाग़ है. बच्चों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी न सिर्फ़ सरकार और प्रशासन की है,
बल्कि समूचे समाज की है. अगर हर व्यक्ति अपने आसपास की गतिविधियों पर पैनी नज़र रखे
और संदेह होने पर पुलिस और अन्य लोगों को सूचित करे, तो अपराधों पर क़ाबू पाया जा
सकता है.