फ़िरदौस ख़ान
सब मानते हैं कि देर से मिला इंसा़फ भी नाइंसा़फी के बराबर होता है. इसके बावजूद हमारे देश में म़ुकदमे कई पीढि़यों तक चलते हैं. हालत यह है कि लोग अपने दादा और परदादा के म़ुकदमे अब तक झेल रहे हैं. इंसान खत्म हो जाता है, लेकिन म़ुकदमा बरक़रार रहता है. इसकी वजह से बेगुनाह लोग अपनी ज़िंदगी जेल की सला़खों के पीछे गुज़ार देते हैं. कई बार पूरी ज़िंदगी क़ैद में बिताने या मौत के बाद फैसला आता है कि वह व्यक्ति बेक़सूर है. ऐसे में उसके साथ हुई नाइंसा़फी के लिए कौन ज़िम्मेदार है, कहने की ज़रूरत नहीं है. इस दुनिया की कोई भी ताक़त न तो उस व्यक्ति को उसकी ज़िंदगी दे सकती है और न उसकी ज़िंदगी के वे साल, जो उसने जेल में गुज़ारे. मुक़दमेबाज़ी में फंसे लोगों के परिवार वालों की ज़िंदगी भी दुश्वार हो जाती है. वे अदालतों और वकीलों के चक्कर काटते रहते हैं. हर फेरे में जहां वकील की मोटी कमाई होती है, वहीं लोगों की जेब कटती है. इस बेरोज़गारी और महंगाई के दौर में जहां रोज़गार मिलना दूभर है और फिर अपनी मेहनत की कमाई से दो व़क्त की रोटी जुटाना मुश्किल है, ऐसे में अपना पेट काटकर वकीलों की तिजोरियां भरना ही अपने आप में कम सज़ा नहीं है.

देश भर की अदालतों में तीन करोड़ से ज़्यादा मामले लंबित हैं. ग़ौर करने लायक़ बात यह भी है कि इनमें 60 फीसदी मामले सरकार से संबंधित हैं. कई मामलों में तो वादी-प्रतिवादी राज्य या केंद्र सरकार है. सबसे ज़्यादा मामले कर विभाग, गृह, वित्त, उद्योग, खदान-पेट्रोलियम, वन, पीएचईडी, शिक्षा, पंचायती राज, परिवहन और राजस्व सहित 19 विभागों के हैं. सरकार के खिला़फ सबसे ज़्यादा मामले टैक्स से जुड़े हैं. वित्त राज्यमंत्री एस एस पलानिमणिकम ने लोकसभा में बताया कि प्रत्यक्ष कर के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में 2707 करोड़ रुपये के कर से जुड़े 5,860 मामले हैं, वहीं उच्च न्यायालयों में 36,340 करोड़ रुपये कर की मांग से जुड़े 29,650 अन्य मामले लंबित हैं. उन्होंने कहा कि अप्रत्यक्ष कर के लिहाज़ से उच्चतम न्यायालय में 8,130 करोड़ रुपये के कर से जुड़े 2855 मामले और अलग-अलग उच्च न्यायालयों में 11,459 करोड़ रुपये के कर से संबंधित 14,626 मामले लंबित हैं. बक़ाया कर की वसूली न होने के बारे में उन्होंने कहा कि क़ानून में कुछ अपरिहार्य प्रक्रियाओं की वजह से बक़ाया कर की वसूली नहीं हो पाती. कर की वसूली न हो पाने के मुख्य कारणों में अपीली प्राधिकारों द्वारा स्थगन आवेदनों पर फैसले लंबित होना और अदालतों द्वारा स्थगन आदि भी शामिल हैं. कुल लंबित मामलों में तक़रीबन 74 फीसदी पांच साल के भीतर के हैं. विधि और न्याय मंत्री सलमान खुर्शीद ने राज्यसभा में बताया कि 30 जून, 2011 तक देश के सर्वोच्च न्यायालय में 57,179 मामले लंबित थे. उच्च न्यायालयों में 30 सितंबर, 2010 तक लंबित मामलों की संख्या 42,17,903 थी. निचली अदालतों में 2,69,86,307 मामले लंबित हैं. लचर क़ानून व्यवस्था के अलावा विभिन्न अदालतों में मामले लटकने की एक वजह न्यायाधीशों की कमी भी है. देश में आबादी के अनुपात में न्यायाधीशों की तादाद का़फी कम है. अमेरिका में दस लाख की आबादी पर 135 न्यायाधीश हैं. इसी तरह कनाडा में 75, ऑस्ट्रेलिया में 57 और ब्रिटेन में 50 न्यायाधीश हैं, जबकि भारत में इनकी संख्या महज़ 13 है. इस पर भी अदालतों में न्यायाधीशों के पद खाली प़डे हैं. पिछले साल अक्टूबर में देश भर के 21 उच्च न्यायालयों में 279 पद खाली पड़े थे. इन न्यायालयों में स्वीकृत पद 895 हैं. इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के 160 पद हैं, जबकि यहां स़िर्फ 69 न्यायाधीश हैं और 91 पद खाली हैं. पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में 68 न्यायाधीश होने चाहिए, लेकिन वहां स़िर्फ 20 न्यायाधीश हैं और 48 पद खाली हैं. कलकत्ता उच्च न्यायालय में स़िर्फ 17 न्यायाधीश हैं, जबकि वहां 58 न्यायाधीश होने चाहिए. यहां 41 पद खाली हैं. राजस्थान उच्च न्यायालय में 13 न्यायाधीश हैं, जबकि यहां 40 न्यायाधीशों की ज़रूरत है. यहां न्यायाधीशों के 27 पद खाली हैं. गुजरात उच्च न्यायालय में 22 न्यायाधीश हैं, जबकि 42 होने चाहिए. यहां न्यायाधीशों के 20 पद खाली प़डे हैं. इसी तरह सिक्किम उच्च न्यायालय में स़िर्फ एक न्यायाधीश है, जबकि वहां तीन न्यायाधीश होने चाहिए. ज़िला और अधीनस्थ अदालतों का भी कमोबेश यही हाल है. इन अदालतों में कुल 18,008 पद स्वीकृत हैं, जबकि 3,634 पद खाली पड़े हैं. गुजरात में न्यायाधीशों के 1679 पद हैं, जबकि यहां 863 न्यायाधीश हैं और 816 पद खाली प़डे हैं. बिहार में 681 न्यायाधीश हैं, जबकि यहां 1666 न्यायाधीशों की ज़रूरत है. उत्तर प्रदेश में 1,897 न्यायाधीश कार्यरत हैं और यहां 207 पद खाली हैं. पश्चिम बंगाल में 146 न्यायाधीशों की ज़रूरत है. महाराष्ट्र में न्यायाधीशों के 194 पद खाली हैं. देश के अन्य राज्यों की भी यही हालत है. ऐसे में अदालतों में मुक़दमों के ढेर लगना कोई अजूबा नहीं है. प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, मुख्य न्यायाधीश एस एच कपाडि़या और क़ानून मंत्री सलमान खुर्शीद यह स्वीकार कर चुके हैं कि भारत में म़ुकदमे लंबे समय तक चलते हैं और देर से फैसला आता है.

हालांकि सभी न्यायालयों में मामलों के जल्द निपटारे के लिए सरकार ने कई क़दम उठाए हैं. इसके तहत सरकार ने राष्ट्रीय न्याय परिदान और विधिक सुधार मिशन की स्थापना का अनुमोदन कर दिया है. इसके लिए वित्तीय वर्ष 2011-12 में अवसंरचनात्मक विकास के लिए केंद्रीय रूप से प्रायोजित योजना के लिए आवंटन में 100 करोड़ रुपये से 500 करोड़ रुपये तक की पांच गुना ब़ढोत्तरी की गई है. राज्यों के लिए वित्त पोषण पैटर्न में भी 50:50 से 75:25 तक की वृद्धि की गई है और उसे पूर्वोत्तर राज्यों के लिए 90:10 जारी रखा गया है. इसके अलावा सरकार ने पांच साल की अवधि 2010-2015 के दौरान देश में न्यायिक प्रणाली में सुधार करने के लिए राज्यों को पांच हज़ार करोड़ रुपये का अनुदान मुहैया कराने की खातिर तेरहवें वित्त आयोग की स़िफारिशों को मंज़ूर कर लिया है. 2010-11 के दौरान राज्यों को पहले ही एक हज़ार करोड़ रुपये का अनुदान जारी किया गया है. राज्य इन अनुदानों की मदद से लंबित मामलों को कम करने के लिए प्रात:कालीन/सायं:कालीन/पाली/विशेष मजिस्ट्रेट न्यायालय स्थापित कर सकते हैं. वे न्यायालय प्रबंधों की नियुक्ति, एडीआर केंद्रों की स्थापना कर सकते हैं और मध्यस्थों/परामर्शकों को प्रशिक्षण दे सकते हैं और अधिक लोक अदालतें आयोजित कर सकते हैं. न्यायिक अधिकारियों के प्रशिक्षण, राज्य न्यायिक अकादमियों को सशक्त बनाने, लोक अभियोजकों के प्रशिक्षण और हेरिटेज न्यायालय भवनों के रखरखाव के लिए भी अनुदान दिए जाते हैं. न्यायिक प्रणाली को कंप्यूटरीकृत करने के लिए सरकार 935 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत पर देश में ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों के लिए ई-न्यायालय परियोजना और उच्चतर न्यायालयों एवं आईसीई अवसंरचना के उन्नयन को कार्यान्वित कर रही है. यह काम 1997 से चल रहा है. 31 मार्च, 2012 तक 12 हज़ार न्यायालयों को कंप्यूटरीकृत करने का लक्ष्य था. 31 मार्च, 2014 तक 14,249 न्यायालयों को कंप्यूटरीकृत करने का लक्ष्य है. 13वें वित्त आयोग ने पांच हज़ार करोड़ रुपये के अनुदान की स़िफारिश करते व़क्त राज्य मुक़दमा नीति तैयार करने के बाद ही दूसरे साल की क़िस्त जारी किए जाने की शर्त बनाई है. राज्य मुक़दमा नीति तैयार की जानी है, जिसका मक़सद सरकार को दक्ष और ज़िम्मेदार बनाना है. अगर ऐसे मामलों, जिनमें सरकार शामिल है, कम हो जाते हैं तो न्यायालयों के पास लंबित मामलों के निपटारे के लिए ज़्यादा व़क्त होगा. नागरिकों को द्वार तक न्याय की पहुंच मुहैया कराने के लिए ज़मीनी स्तर पर ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए ग्राम न्यायालय अधिनियम-2008 बनाया गया. केंद्र सरकार ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए अनावर्ती खर्चों के लिए राज्यों को मदद दे रही है. इसमें मदद की सीमा 18 लाख रुपये प्रति ग्राम न्यायालय रखी गई है. केंद्र सरकार इन ग्राम न्यायालयों को चलाने के लिए आवर्ती खर्चों के लिए भी मदद देती है. इसमें पहले तीन वर्षों के लिए मदद की सीमा 3.20 लाख रुपये प्रति ग्राम न्यायालय प्रति वर्ष रखी गई है. ग्राम न्यायालय अधिनियम को लागू करते व़क्त अंदाज़ लगाया गया था कि देश भर में 5067 ग्राम न्यायालयों की स्थापना होगी, जिसके लिए केंद्र सरकार प्रस्तावित मानकों के अनुरूप राज्यों को पुनरावर्ती और ग़ैर-पुनरावर्ती व्ययों के संबंध में सहायता प्रदान करेगी. अ़फसोस की बात है कि ग्राम न्यायालय योजना बेहद धीमी रफ्तार से चल रही है. नतीजतन, अब तक विभिन्न राज्यों में स़िर्फ 151 ग्राम न्यायालय स्थापित हो पाए हैं. हालांकि इस साल इसके लिए आवंटित राशि 40 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 150 करोड़ रुपये कर दी गई है. ग्राम न्यायालयों के जल्द संचालन के लिए अधीनस्थ न्यायाधिकरणों के बुनियादी ढांचे की सुविधाओं के विकास की केंद्र प्रायोजित योजना को ग्राम न्यायालय के साथ मिलाने के व्यापक प्रस्ताव को तैयार किया गया है. पुनरावर्ती व्ययों के लिए केंद्रीय मदद में ब़ढोत्तरी करने का प्रस्ताव है. फिलहाल इस प्रस्ताव के संदर्भ में योजना आयोग और वित्त मंत्रालय की मंज़ूरी का इंतज़ार है.

अदालतों में लंबित मामलों के निपटारे के लिए सरकार ने जुलाई 2011 से दिसंबर 2011 तक एक मुहिम चलाई. विभिन्न उच्च न्यायालयों से मिली प्रतिक्रियाओं के मुताबिक़, छह लाख से भी ज़्यादा लंबित मामलों के निपटारे में कमी आई. इसमें से 1.36 लाख मामले वरिष्ठ नागरिकों, विकलांगों, नाबालिग़ों और समाज के कमज़ोर तबक़े के लोगों के थे. महाराष्ट्र में लंबित मामलों की संख्या में 1.72 फीसदी की कमी आई है. दिल्ली में 5.60 फीसदी, मिज़ोरम में 14.54 फीसदी, तमिलनाडु में 1.26 फीसदी और चंडीगढ़ में 2.68 फीसदी लंबित मामले घटे हैं. हालांकि देश के सभी ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मामलों की तादाद 0.44 फीसदी बढ़ी है. इस मुहिम का एक अहम घटक जेल से उन क़ैदियों की रिहाई से संबंधित है, जिनके मामले अदालतों में विचाराधीन थे. आपराधिक प्रक्रिया संहिता के मौजूदा प्रावधानों के संबंध में जिन विचाराधीन मामलों में विभिन्न अपराधों के तहत अधिकतम निर्धारित सज़ा की आधी अवधि व्यक्ति द्वारा तय की जा चुकी है, उसे निजी मुचलके पर छो़डा जाना चाहिए. इस मुहिम के दौरान इस तरह के मामलों में तक़रीबन 3.16 लाख विचाराधीन क़ैदियों को रिहा किया गया. क़ानून और न्याय मंत्रालय द्वारा इस साल भी जुलाई से दिसंबर 2012 तक के लिए ऐसी ही मुहिम चलाई जा रही है. हालांकि लोगों को जल्द इंसा़फ दिलाने और न्यायिक प्रणाली में सुधार के लिए सरकार ने पिछले साल जून में राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत की. चालू वित्तीय वर्ष 2012-13 में यह मिशन पूरी तरह से क्रियान्वित हो चुका है. इसके तहत कई क़दम उठाए गए हैं. न्यायिक मानक और उत्तरदायित्व विधेयक तैयार किया जा चुका है. लोकसभा द्वारा इसे पारित किया जा चुका है और यह राज्यसभा में विचाराधीन है. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु में वृद्धि संबंधी संवैधानिक संशोधन विधेयक भी संसद के समक्ष है. अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन के लिए एक व्यापक प्रस्ताव तैयार किया गया है और यह प्रस्ताव सचिवों की समिति के पास है. सरकारी अभियोग में कमी लाने के मद्देनज़र 25 राज्यों ने अपनी अभियोग नीतियां तैयार की हैं. राष्ट्रीय स्तर पर अभियोग नीति पर भी विचार चल रहा है. चेक बाउंस होने संबंधी लगातार बढ़ते मामलों पर नियंत्रण रखने के लिए अन्य नीतियों और प्रशासनिक उपायों सहित परक्राम्य लिखत अधिनियम में ज़रूरी संशोधनों का सुझाव देने के लिए एक अंतर-मंत्रालयी समूह का गठन किया गया है. इस समूह की पहली बैठक बीती 30 मई हुई, जिसमें लिए गए फैसलों के संबंध में वित्तीय सेवा विभाग, भारतीय रिज़र्व बैंक और भारतीय बैंकों के संघ के साथ मिलकर आगे की कार्ययोजना पर अमल किया जा रहा है, ताकि न्याय प्रणाली पर चेक बाउंस के  मामलों के बोझ को कम किया जा सके. हालांकि क़ानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने न्यायाधीशों से अनुरोध किया है कि वे लंबित मामलों के निपटारे के लिए अपने अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों के खाली पदों को भरने की मुहिम शुरू करें. देश के मुख्य न्यायाधीश एस एच कपाडि़या ने भी 5 साल से ज़्यादा के 26 फीसदी पुराने लंबित मामलों का निपटारा करके न्यायिक व्यवस्था को फाइव प्लस मुक्त बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है.

हमारे देश में ज़्यादातर मामले ज़मीन जायदाद के बंटवारे, खेत-खलिहान के झगड़े, पारिवारिक झगड़े एवं आपसी रंजिश आदि के होते हैं. हमारे यहां अब भी न्यायिक व्यवस्था अंग्रेजों के ज़माने की है. उलझाऊ जिरह और झूठी गवाही आदि मुक़दमों की नियति तय करते हैं. गवाहों को सुरक्षा न मिलना और पुलिस द्वारा दबंगों का साथ देना भी बड़ी समस्या है. ऊपर से वकीलों की मोटी फ़ीस भी इसमें बड़ी भूमिका निभाती है. पैसे वाले और प्रभावशाली लोग बड़े वकीलों के सहारे अपने मामले को मज़बूत कर लेते हैं. ग़रीब कम फ़ीस वाला वकील लेते हैं, ऐसे वकीलों को ज़्यादा अनुभव तो होता नहीं, बस वे तो अपनी रोज़ी-रोटी के लिए मामले को लटकाए रखना चाहते हैं. केंद्रीय मंत्री और जाने-माने अधिवक्ता कपिल सिब्बल का कहना है कि जजों की नियुक्ति में राज्य सरकारें सबसे बड़ी रुकावट हैं. वे हमेशा पैसे की कमी का रोना रोती रहती हैं. न्याय उनकी प्राथमिकता सूची में निचले पायदान पर है.

देश में हत्या, लूट, अपहरण और यौन प्रताड़ना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. नाकाम पुलिस व्यवस्था की वजह से अपराधी बेख़ौफ़ घूमते हैं. लोग उनके ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत करने से कतराते हैं. जो लोग इंसाफ़ के लिए पुलिस के पास जाते हैं, उन्हें भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है. पहले तो पुलिस मामला दर्ज ही नहीं करती, अगर मीडिया आदि के दबाव में मामला दर्ज कर भी ले तो उसकी भूमिका अपराधी को बचाने की ज़्यादा रहती है. ऐसे में शिकायतकर्ता को तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है. न्यायाधीश बी एन खरे भी मानते हैं कि कई बार पुलिस और अभियोजन पक्ष सही भूमिका नहीं निभाते हैं. इसलिए गुजरात दंगों के मामलों की सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और मामले महाराष्ट्र की अदालत में भेजने पड़े. कई बार राज्य पूर्वाग्रही रवैया अपनाते हैं.
पांच दशक बाद मिला इंसाफ़

पांच दशक पुराने एक मामले में अगस्त 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने किसान राजेंद्र के पक्ष में फ़ैसला सुनाया, जो कई साल पहले ही दुनिया छोड़कर जा चुके थे. ज़मीन विवाद का यह मामला 1957 में अदालत पहुंचा. 1964 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राजेंद्र सिंह को ज़मीन का मालिक क़रार दिया. उच्च न्यायालय की वृहद पीठ ने भी 1971 में इस फ़ैसले को सही ठहराया. ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने और मुक़दमा दायर करने वाली प्रेम माई और सुधा माई ने भी इसे चुनौती नहीं दी. ऐसे में राजेंद्र सिंह को ज़मीन का क़ब्ज़ा मिल जाना चाहिए था, लेकिन 1991 में उच्च न्यायालय ने फिर से दख़ल देते हुए अंतिम फ़ैसले को रद्द कर दिया. राजेंद्र सिंह ने 2001 में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया. इस पर अगस्त 2007 में राजेंद्र सिंह के पक्ष में फ़ैसला आया, मगर इससे कई साल पहले ही राजेंद्र सिंह की मौत हो चुकी थी. इस पर अदालत ने खेद जताते हुए सलाह दी कि अगर लोगों का विश्वास न्यायपालिका में बहाल करना है तो मामलों को तेज़ी से निपटाने की व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी.


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