फ़िरदौस ख़ान
भारत गांवों का देश है. गांवों में ही हमारी लोक कला और लोक संस्कृति की पैठ है. लेकिन गांवों के शहरों में तब्दील होने के साथ-साथ हमारी लोककलाएं भी लुप्त होती जा रही हैं. इन्हीं में से एक है लोक संगीत. संगीत हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है. संगीत के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर करना भी बेमानी लगता है. संगीत को इस शिखर तक पहुंचाने का श्रेय बोलती फ़िल्मों को जाता है. इससे पहले फ़िल्मों में संगीत का इस्तेमाल तो होता था, लेकिन तकनीकी तौर पर रिकॉर्ड नहीं बनाए जा सकते थे. फ़िल्मों में संगीत की शुरुआत 1931 में बनी फ़िल्म आलम आरा से हुई. यह देश की पहली बोलती फ़िल्म थी. फ़िल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुए पहली बार रिकॉर्ड मशीन का इस्तेमाल किया. यह फ़िल्म 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई. फ़िल्म इतनी लोकप्रिय हुई कि पुलिस को भीड़ पर क़ाबू पाने के लिए मदद बुलानी पड़ी थी. इसका संगीत फ़िरोज़ मिस्त्री ने दिया था. इसमें आवाज़ देने के लिए उस वक़्त तरन ध्वनि तकनीक का इस्तेमाल किया गया. फ़िल्म के गीतों के बारे में कहा जाता है कि उनकी धुनों का चुनाव अर्देशिर ईरानी ने किया था. गीतों के चुनाव के बाद उनके फ़िल्मांकन की समस्या रही होगी. उसकी कोई मिसाल ईरानी के सामने नहीं थी और न ही बूम जैसा कोई ध्वनि उपकरण था. सारे गाने टैनार सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फ़िल्म पर ही रिकॉर्ड होने थे और यह काम काफ़ी मुश्किल था. इस फ़िल्म में स्वर देकर डब्ल्यूए ख़ान पहले स्वर देने वाले गायक बने. अफ़सोस की बात है कि इस फ़िल्म के गाने रिकॉर्ड नहीं किए जा सके. फ़िल्म में कुल सात गाने थे. इनमें से एक गीत फ़क़ीर का किरदार निभाने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था. गीत के बोल थे- ’दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त है अगर देने की’. यह हिंदी सिनेमा का पहला गाना था. एक और गाने के बारे में एलवी प्रसाद ने अपने संस्मरण में लिखा है- वह गीत सितारा की बहन अलकनंदा ने गाया था. इसके बोल थे-’बलमा कहीं होंगे’.

फ़िल्म के संगीत में सिर्फ़ तीन वाद्य यंत्रों तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया था. फ़िल्म के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम मंगवाया गया. उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफ़ोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे. अर्देशिर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे रिकॉर्डिंग की बारीकियां सीखीं और फ़िल्म की रिकॉर्डिंग की. इस फ़िल्म के साथ ही भारतीय फ़िल्म जगत में पार्श्व गायिकी और पार्श्व संगीत का एक ऐसा दौर शुरू हुआ, जो आज तक भारतीय फ़िल्म की जान है. यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फ़िल्म संगीत की पहचान बना हुआ है. फ़िल्मों में ज़्यादा से ज़्यादा गाने देने की होड़ लग गई. अयूब ए ख़ान और मास्टर निसार जैसे संगीतकारों का मुक़द्दर चमक उठा. फ़िल्म ’लैला मजनूं’ में 22 गाने थे और फ़िल्म ’शकुंतला’ में 42 गाने रखे गए थे. फ़िल्म ’इंद्रसभा’ में 71 गाने थे, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. दरअसल, फ़िल्में संगीत से ही चलती थीं. इन फ़िल्मों की कहानी महज़ दो गीतों के बीच की जगह भरने के लिए होती थी. ’इंद्रसभा’ के संगीतकार नागरदास बहुत प्रसिद्ध हुए थे. बक़ौल सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक श्याम बेनेगल, आलम आरा सिर्फ़ एक सवाक फ़िल्म नहीं थी, बल्कि यह बोलने और गाने वाली फ़िल्म थी, जिसमें बोलना कम और गाना ज़्यादा था. इस फ़िल्म में कई गीत थे और इसने फ़िल्मों में गाने के ज़रिये कहानी को कहे जाने या बढ़ाए जाने की परंपरा शुरू की.

फ़िल्मों में पार्श्व गायन की शुरुआत संगीतकार आरसी बोराल की फ़िल्म ’धूप छांव’ से हुई. इस फ़िल्म के पार्श्व गायक केसीडे थे, जिन्होंने ’आज मेरे घर मोहन आया’ गाना गाया था. 1934 में केदारनाथ शर्मा की फ़िल्म ’देवदास’ आई, जो अपने मधुर संगीत की वजह से बहुत लोकप्रिय हुई. इसमें केएल सहगल ने पार्श्व गायन के साथ-साथ देवदास का किरदार निभाया था. फ़िल्म ’क़िस्मत’ का गाना- ’दूर हटो ऐ दुनिया वालों ! हिंदुस्तान हमारा है’, बहुत लोकप्रिय हुआ. संगीतकार नौशाद ने अपनी फ़िल्मों में शास्त्रीय संगीत का बखू़बी इस्तेमाल किया. इसके साथ ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का बेहतरीन इस्तेमाल कर कर्णप्रिय धुनें तैयार कीं. बाद में कई संगीतकारों ने इसे आगे बढ़ाते हुए देश के विभिन्न हिस्सों के लोक संगीत पर आधारित धुनें बनाईं. नौशाद की फ़िल्म ’रतन’ के गाने ’अंखिया मिला के, जिया भरमा के चले नहीं जाना’ ने तो धूम मचा दी थी. 1945 के बाद के दौर में प्रेमकथा पर आधारित फ़िल्में बनीं. संगीत की धुनों में भी बदलाव आया. साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया जाने लगा कि पार्श्व में नायक-नायिका की आवाज़ मिलती-जुलती गायक-गायिकाओं की ली जाए. उस वक़्त के गायकों में केएल सहगल, मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत महमूद और गायिकाओं में नूरजहां और सुरैया थीं. 1950 से 1960 तक का दशक न केवल शास्त्रीय संगीत पर आधारित धुनों के लिए मशहूर हुआ, बल्कि इस दौर में फ़िल्मों में ग़ज़लों और लोकगीतों का भी इस्तेमाल हुआ. नौशाद की फ़िल्म ’मुग़ले-आज़म’ ने तो अपने मधुर सगीत के लिए सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए. इसके सभी गाने शास्त्रीय संगीत पर आधारित थे.

अनिल विश्वास की फ़िल्म तराना में तलत महमूद द्वारा गाई ग़ज़ल ’सीने में सुलगते हैं अरमां, आंखों में उदासी छाई है’, राग यमन में थी. लोकगीतों का इस्तेमाल भी फ़िल्मों में एक नई शैली की शुरुआत थी. एसडी बर्मन ने पहली बार फ़िल्म ’तलाश’ में बंगाल के भटियाली लोकगीत का इस्तेमाल किया. उन्होंने फ़िल्म ’गाईड’ में यहां कौन है तेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहां’ और फ़िल्म ’सुजाता’ के गीत ’सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मीत’, में लोकधुनों को अपनाया. संगीतकार ओपी नैयर ने अपनी फ़िल्मों में पंजाबी धुनों का खू़ब इस्तेमाल किया. फ़िल्म ’फागुन’ में आशा भोंसले की आवाज़ में गाया गया गाना ’एक परदेसी मेरा दिल ले गया’, बहुत लोकप्रिय हुआ. 1975 में बनी फ़िल्म ’प्रतिज्ञा’ का मुहम्मद रफ़ी का गाया गाना ’मैं जट यमला पगला दीवाना’ आज भी पसंद किया जाता है. फ़िल्म ’नया दौर’  का गाना ’ ये देश है वीर जवानों का’ भी ख़ासा मशहूर हुआ.
इस फ़िल्म की हीर ’उठ नींद से मिर्ज़ेया जाग जा’ भी बहुत मशहूर हुई. फ़िल्म ’मिलन’ के गीत ’सावन का महीना, पवन करे सोर’ से भी माटी की महक आती है. संगीतकार शंकर जयकिशन का संगीतबद्ध फ़िल्म ’तीसरी क़सम’ का गाना ’ पान खाय सैंया हमार भी’ लोकप्रिय गीत है.
 संगीत में बदलाव के इस दौर में संगीतकारों ने पश्चिमी संगीत की धुनों का भी इस्तेमाल किया. संगीतकार ओपी नैयर ने ये है ’बॉम्बे मेरी जान’, सी रामचंद्र ने ’गोरे-गोरे ओ बांके छोरे, शोला जो भड़के’ और ’ईना मीना डीका’ जैसे गानों को संगीत दिया.

किशन धवन की मुंशी प्रेमचंद की दो बैलों की कथा पर आधारित फ़िल्म ’हीरा मोती’ का गीत ’कौन रंग हीरा, कौन रंग मोती’ भी प्रचलित लोकगीत है. फ़िल्म ’गोदान’ का गीत ’पुरबा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा’ भी लोक संगीत पर आधारित है.
फ़िल्म ’लावारिस’ का गीत ’मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ और फ़िल्म ’सिलसिला’ का होली का गीत ’रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे’ भी लोकगीतों से ही प्रभावित हैं. पहले दोनों ही फ़िल्मों में इन गीतों के गीतकार के तौर पर हरिवंश राय बच्चन का नाम दिया गया था, लेकिन बाद में हटा लिया गया. जेपी दत्ता की फ़िल्म ’उमराव जान’ में जावेद अख़्तर द्वारा पेश किया गया गीत ’अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजौ’ भी मशहूर लोकगीत है, जिसके रचयिता अमीर खु़सरो हैं. इसी तरह फ़िल्म ’ग़ुलामी’ का गीत ’ज़िहाले मस्ती मक़म बरंजिश’ भी फ़ारसी के गीत से प्रेरित है. फ़िल्म ’लम्हे’ का गीत ’मोरनी बागा में बोले आधी रात मा’ राजस्थानी लोक संगीत से प्रभावित है. इसके अलावा शम्मी कपूर और ओपी नैयर ने फ़िल्मों में याहू नामक नई शैली का इस्तेमाल किया. फ़िल्म ’जंगली’ में शंकर जयकिशन द्वारा निर्देशित मुहम्मद रफ़ी का गाया गाना ’चाहे कोई मुझे जंगली कहे याहू’ बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद आया दौर किशोर कुमार की नई शैली यूडली का. फ़िल्म ’आराधना’ और ’अमर प्रेम’ आदि के गानों में यूडली का इस्तेमाल किया गया. इन फ़िल्मों का संगीत एसडी बर्मन ने दिया. वक़्त के साथ-साथ फ़िल्म संगीत में भी बदलाव आता गया. फ़िल्मों से शास्त्रीय संगीत लुप्त होता गया और इसकी जगह पर चोली और खंडाला जैसे गाने आ गए. लेकिन कई संगीतकारों ने अच्छी धुनें तैयार कीं. फिल्म ’लेकिन’, ’रुदाली’, ’दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ’दिल तो पागल है’, ’दिल से’, ’साजन’ और ’कुछ-कुछ होता है’ ’फ़ना’ आदि फ़िल्मों का संगीत सुमधुर और कर्णप्रिय रहा. फ़िल्म ’दिल्ली छह’ के गीत ’सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल’ छत्तीसगढ़ का लोकगीत है. इस लोकगीत को सबसे पहले 1972 में रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था. गंगाराम शिवारे के लिखे इस गीत को भुलवाराम यादव ने अपनी आवाज़ दी थी. फ़िल्म ’पीपली लाइव’ का महंगाई डायन खाय जात है, भी लोक संगीत पर आधारित है. अनुराग कश्यप की फ़िल्म ’गैंग्स ऑफ वासेपुर-2’ का लोकगीत ’तार बिजली से पतले हमारे पिया’ बिहार और झारखंड में विवाह के मौक़े पर गाया जाता है. इस गीत को गाने वाली वाली बिहार की जानी मानी लोक गायिका पदमश्री शारदा सिन्हा का कहना है कि फ़िल्मों से लोक संगीत को बड़ा मंच मिलता है और जिन फ़िल्मों में मूल लोक संगीत को अपनाया गया है, उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में कामयाब रही हैं. सोहेल ख़ान की फ़िल्म ’मैंने प्यार किया’ के गीत ’कहे तोसे सजना’ के ज़रिये हिंदी सिनेमा में प्रवेश करने वाली लोक गायिका शारदा सिन्हा के गीतों में लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का सम्मिश्रण है. उनका गाया फ़िल्म ’हम आपके हैं कौन’ का गीत ’बाबुल जो तुमने सिखाया’ भी ख़ासा लोकप्रिय हुआ था. मौजूदा संगीत का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि नए लोग प्रतिभावान हैं, लेकिन उनमें से ज़्यादातर की गायिकी पर बाज़ार हावी है. नए गीतों के बोल उन्हें अच्छे नहीं लगते और लोक संगीत के नाम पर भी रीमिक्स परोसा जा रहा है. उनमें शुद्धता का अभाव है. हालांकि स्थानीय स्तर पर लोक संगीत की कई अल्बम आए दिन रिलीज़ होती रहती हैं. लोकगायकों की अल्बमों में ठेठ लोक संगीत की महक बरक़रार रहती है, लेकिन नए गायकों की अल्बमों में लोक संगीत की शुद्धता की कमी खलती है.

गांवों और क़स्बों में आज भी लोक संगीत का बड़ा महत्व है. मांगलिक कार्यों में महिलाएं आंचलिक गीत गाती हैं. लोक संगीत के बिना कोई भी उत्सव पूरा नहीं हो पाता है. आज भी सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जनसंपर्क विभाग लोक गायकों की मदद लेता है. मगर शहरों में लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गीत लेते जा रहे हैं. लेकिन यह कहना ग़लत न होगा कि फ़िल्में लोक संगीत के प्रचार-प्रसार का बेहतर ज़रिया साबित हो सकती हैं. इन गीतों में ही हमारी संस्कृति की आत्मा बसी है.

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