फ़िरदौस ख़ान
धान का उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार इसकी खेती को ख़ासा प्रोत्साहित कर रही है. हाईब्रिड क़िस्मों को बढ़ावा दिया जा रहा है. इन किस्मों के अपने नफ़े-नुक़सान होते हैं. इसलिए किसानों को चाहिए कि वे सोच-समझ कर ही धान की क़िस्मों और बुआई की पद्धति का चुनाव करें, ताकि उनके खेत धान से लहला उठें और वे धान से धन-धान्य हो सकें. देश में बड़े पैमाने पर बासमती और औषधीय धान की खेती भी की जा रही है. छत्तीसगढ़ में औषधीय धान की गठुअन, भेजरी, आल्वा, लाइचा, रेसारी, नागकेसर, काली मूंछ, महाराजी, बायसुर आदि क़िस्में उगाई जा रही हैं, लेकिन अभी इसकी खेती सीमित ही है. फ़िलहाल किसान धान की बुआई की तैयारियों में जुटे हैं.

धान ख़रीफ़ की मुख्य फ़सल है. बर्फ़ीले अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीपों में धान की खेती की जाती है, यानी मक्का के बाद सबसे ज़्यादा धान की खेती की जाती है. एशिया में दुनिया भर का 90 फ़ीसद धान का उत्पादन होता है. एशिया के प्रमुख धान उत्पादक देशों में चीन, भारत, जापान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, ताइवान, म्यांमार, मलेशिया, फ़िलिपींस, वियतनाम और कोरिया आदि शामिल हैं. ग़ैर एशियाई देश मिस्र, ब्राज़ील, अर्जेंटीना, संयुक्त राज्य अमेरिका, इटली, स्पेन, तुर्की गिनीकोस्ट और मलागासी आदि में भी धान उगाया जाता है. भारत में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा,  कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडु और असम आदि राज्यों में धान की खेती की जाती है. दुनिया में चीन के बाद भारत में सबसे ज़्यादा धान का उत्पादन होता है. यहां दुनिया के कुल धान उत्पादन का 20 फ़ीसद धान पैदा होता है.

धान ज़्यादा तापमान, नमी और लंबे वक़्त तक धूप और ज़्यादा पानी वाले इलाक़ों में होता है. इसकी अच्छी बढ़वार के लिए तापमान 20 से 37 डिग्री सैल्सियस होना चाहिए. उत्तर भारत में धान का मौसम मई से मध्य नवंबर तक का होता है. चिकनी दोमट मिट्टी धान के लिए अच्छी रहती है.  कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक़ धान की बुआई के लिए खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए. उसके बाद देसी हल या हैरो से जुताई की जानी चाहिए.  पौधारोपण से पहले खेत में पानी भर देना चाहिए. खड़े पानी में एक-दो जुताइयां करके सुहागा लगाकर गारा बना लेना चाहिए. धान की अच्छी फ़सल के लिए अच्छे बीजों का चुनाव करना बेहद ज़रूरी है. धान की अनेक क़िस्में हैं. धान की अति शीघ्र पकने वाली क़िस्मों में जेआर-35, पूर्वा, कलिंगा-3 और जवाहर-75 शामिल हैं. इन क़िस्मों का धान 70 से 90 दिन में पक जाता है और उपज  6 से 10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है. शीघ्र पकने वाली क़िस्मों में जेआर-201, जेआर-345, पूर्णिमा, जेआर-253, अनंदा और तुलसी शामिल हैं. धान की ये क़िस्में  00 से 115 दिन में पक जाती हैं और उपज 10 से 14 क्विंटल प्रति एकड़ देती हैं. धान की मध्यम अवधि में पकने वाली क़िस्मों में आईआर-36, आईआर-64, महामाया, क्रांति, माधुरी, पूसा बासमती 1, पूसा सुगंधा 2 और पूसा सुगंधा 3 शामिल हैं. इन क़िस्मों का धान 120 से 135 दिन में पक जाता है और उत्पादन 16 से 24 क्विंटल प्रति एकड़ होता है. धान की देर से पकने वाली क़िस्मों में स्वर्णा, मासुरी और महामाया आती हैं. ये क़िस्में 140 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं और उपज 18 से 24 क्विंटल प्रति एकड़ होती है. धान की संकर क़िस्मों में एपीएचआर-1, एपीएचआर-2, एमजीआर-1, सीएनआरएच-3, डीआरआरएच-1, पंत संकर धान-1, सीओआरएच-2, एडीटीआरएच-2, सह्याद्री, केएनएच-2, केआरएच-1, केआरएच-2 आदि शामिल हैं. इन क़िस्मों का धान 110 से 135 दिन में पक जाता है और उत्पादन 22 से 28 क्विंटल प्रति एकड़ होता है.  क्षेत्र विशेष के हिसाब से ही इनके चयन की सिफ़ारिश की जाती है.

बिजाई से पहले बीजोपचार बहुत ज़रूरी है. इसके लिए एक एकड़ भूमि के लिए एक किलो नमक को 10 लीटर पानी में अच्छे से मिला लें. नमक के इस पानी में दो से तीन किलो बीज डालें और पानी में तैरने वाले बीजों को निकाल दें. इसी तरह बारी-बारी सभी बीजों के साथ ऐसा करें, ताकि ख़राब बीज हट जाएं. 10 दस लीटर पानी में 5 ग्राम एमिसान और 2.5 ग्राम पौसामाईसिन या एक ग्राम स्ट्रैप्टोसाईक्लिन गोल लें. इस पानी में 10 किलो बीज 24 घंटे तक भिगोयें. फिर इन्हें पानी से बाहर निकालकर छाया में सुखा लें. नर्सरी के लिए धान की कम अवधि वाली बौनी क़िस्में 15 मई से 30 जून तक बोई जा सकती हैं, जबकि मध्यम अवधि वाली बौनी क़िस्मों की बिजाई 15 मई से 30 मई तक की जा सकती है. नर्सरी की बिजाई के लिए खेत में प्रति एकड़ 10 गाड़ी कम्पोस्ट खाद डालकर दो-तीन जुताई करके मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें. खेत में पानी भरें और हल चलाकर गारा बना लें. प्रति एकड़ 10 किलो नाइट्रोजन, 10 किलो फ़ास्फ़ोरस और 10 किलो ज़िंक सल्फ़ेट डालकर सुहागा चलाकर समतल कर दें. अब नर्सरी की जगह को क्यारियों में बांट लें और सुहागा लगा लें. फिर अंकुरित उपचारित बीज को 40 से 50 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से बोयें. बिजाई के बाद शाम के वक़्त हल्की सिंचाई ज़रूर करें. 

धान को बोने की कई पद्धतियां हैं. छिटकवां विधि में अच्छी तरह से तैयार खेत में निर्धारित बीज की मात्रा छिटक कर हल्की बखरनी द्वारा बीज को मिट्टी से ढंक दिया जाता है. कतारों की बोनी विधि के तहत खेत में निर्धारित बीज की मात्रा नारी हल, दुफन या सीडड्रिल द्वारा 20 सेंटीमीटर की दूरी वाली कतारों में बोयी जाती है. वियासी विधि में छिटकवां या कतारों की बोनी के मुताबिक़ निर्धारित बीज की सवा गुना मात्रा बोयी जाती है. फिर तक़रीबन एक महीने बाद खड़ी फ़सल में हल्का पानी भरकर जुताई कर देते हैं. जहां पौधे घने उगे हों, जुताई के बाद उखड़े हुए घने पौधों को उन ख़ाली जगहों पर पर लगा दिया जाता है, जहां पौधे नहीं हैं या फिर कम हैं. बियासी विधि बेहद कारगर है. इससे खेत में खरपतवार कम हो उगती है और मिट्टी की जल धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है. इससे फ़सल की बढ़वार भी अच्छी होती है. लेही विधि में खेत में पानी भरकर मचौआ किया जाता है. फिर समतल खेत में निर्धारित बीज की मात्रा छिटक दी जाती है. रोपा विधि के तहत तीन से चार हफ़्ते के पौध रोपाई के लिए अच्छे होते हैं. एक जगह दो से तीन पौधे लगाए जाते हैं. रोपाई में देर होने पर एक जगह पर चार से पांच पौधे लगाए जाते हैं. धान के बीज की मात्रा बुआई की पद्धति के मुताबिक़ अलग-अलग रखी जाती है, जैसे छिटकवां विधि से बोने के लिए 40 से 48 किलो प्रति एकड़ धान की ज़रूरत होती है, जबकि कतार में बीज बोने के लिए 36 से 40 किलो, लेही विधि में 28 से 32 किलो, रोपा विधि में 12 से 16 किलो और बियासी विधि में 48 से 60 किलो प्रति एकड़ धान का इस्तेमाल होता है.

कृषि वैज्ञानिक कहते हैं कि बारिश होते ही धान की बुआई का काम शुरू कर देना चाहिए. जून माह के मध्य से जुलाई के पहले हफ़्ते तक बुआई का समय सबसे उपयुक्त होता है. बुआई में देर होने पर उपज पर बुरा असर पड़ता है. रोपाई के बीजों की बुआई रोपणी में जून के पहले हफ़्ते से ही सिंचाई के उपलब्ध स्थानों पर कर देनी चाहिए. जून के तीसरे हफ़्ते से जुलाई माह के मध्य तक की रोपाई से अच्छी उपज मिलती है. लेही विधि से धान के अंकुरण के लिए 6 से 7 दिन का वक़्त बच जाता है. इसलिए देर होने पर लेही विधि से धान की बुआई करनी चाहिए.  धान को बहुत ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है. पानी की कमी होने पर पैदावार घट जाती है. धान की फ़सल के वृद्धिकाल में खेत में पानी भरा रहना चाहिए. हर हफ़्ते खेत का पानी निकाल कर ताज़ा पानी भरना चाहिए. रोपाई से लेकर फ़सल पकने तक 15 से 20 सिंचाइयां काफ़ी हैं, जो बारिश पर निर्भर करती हैं. खेत में पांच से छ्ह सेंटीमीटर से ज़्यादा पानी नहीं भरना चाहिए. रोपाई के बाद जब पौधे ठीक से जड़ पकड़ लें, तो पानी रोक देना चाहिए, ताकि पौधों की जड़े विकसित हो सकें. खाद डालने, निराई-गुड़ाई करने के लिए खेत से पानी निकाल देना चाहिए. इन कामों के बाद फिर से खेत में पानी लगाना चाहिए. इससे जहां खरपतवार कम उगते हैं, वहीं उपज भी अच्छी होती है. अन्य फ़सलों की तरह धान पर भी कीटों के हमले और रोगों के प्रकोप की आशंका बनी रहती है, इसलिए फ़सल की देखभाल करते रहना चाहिए. फ़सल पर कीट या किसी रोग के लक्षण नज़र आने पर नज़दीकी कृषि परामर्श केंद्र से संपर्क करके उचित पौध संरक्षण उपाय अपनाने चाहिए, क्योंकि ज़रा-सी भी लापरवाही फ़सल के लिए बेहद नुक़सानदेह साबित हो सकती है. 

पिछले कुछ सालों से धान की बुआई की श्री पद्धति पर ख़ासा ज़ोर दिया जा रहा है. भारत में  2002-03 में इसकी खेती शुरू की गई. आज कई राज्यों में किसान इस पद्धति को अपनाकर अच्छा मुनाफ़ा कमा रहे हैं. ग़ौरतलब है कि साल 1983 में कैरिबियन देश मेडागास्कर में फ़ादर हेनरी डी लाउलेनी ने सघन धान प्रणाली (System of Rice Intensification-SRI) यानी श्री पद्धति ईजाद की थी.  इस विधि के ज़रिये बहुत कम पानी में धान की अच्छी फ़सल ली जा सकती है. जहां पारंपरिक पद्धति में धान के पौधों को पानी से भरे खेतों में उगाया जाता है, वहीं श्री पद्धति में पौधों की जड़ों में नमी बरक़रार रखना ही काफ़ी होता है. लेकिन यह विधि उन्हीं इलाक़ों में कारगर होती है, जहां पानी उपलब्ध रहता है. जैसे ही ज़मीन की परत सूखने लगे, फ़ौरन खेत की सिंचाई कर दी जाती है. इसकी ख़ासियत यह है कि इसमें कम लागत, कम मेहनत और कम पानी में  ज़्यादा पैदावार ली जा सकती है. इसके लिए धान की ख़ास क़िस्मों की बुआई की जाती है.

खाद्य सुरक्षा मिशन के मद्देनज़र सरकार धान की खेती को ख़ूब प्रोत्साहित कर रही है. कृषि विभाग द्वारा धान की हाईब्रिड क़िस्मों के बीज किसानों को कम दाम पर मुहैया कराए जाते हैं. इसके साथ ही किसानों को खाद, कीटनाशक और अन्य सामग्री अनुदान पर दी जाती है.  दरअसल, सरकार हाईबिड क़िस्मों के ज़रिये धान उत्पादन में क्रांति लाना चाहती है. लेकिन सरकार द्वारा किसानों को अप्रमाणित हाईब्रिड क़िस्मों का धान की बुआई न करने की चेतावनी भी दी जाती है, क्योंकि सरकार और केंद्रीय ख़रीद एजेंसियां इन क़िस्मों की ख़रीद नहीं करतीं. इसलिए किसानों को इनसे बचना चाहिए. देखने में आया है कि अकसर किसान अधिक उत्पादन के लालच में अप्रमाणित हाईब्रिड क़िस्मों की बुआई कर लेते हैं, जो आगे चलकर उनके लिए घाटे का सौदा साबित होती है. हाईब्रिड क़िस्मों के बीजों की वजह से भूमि की उपजाऊ शक्ति घट रही है और उर्वरकों पर ज़्यादा ख़र्च हो रहा है. इसके कारण किसानों की धान के बीज की आत्मनिर्भरता ख़त्म हो रही है.वे हाईब्रिड क़िस्मों पर ही आश्रित हो रहे हैं, जो उनके लिए महंगा पड़ रहा है.

प्रगतिशील किसान प्रेम कुमार का मानना है कि हाईब्रिड क़िस्में सिर्फ़ छलावा भर हैं. किसान देसी क़िस्मों को अपनाकर भी अच्छी आमदनी हासिल कर सकते हैं. देसी क़िस्मों में अगर पैदावार कम होती है, तो लागत और मेहनत भी बहुत कम लगती है, जबकि हाईब्रिड क़िस्मों में बहुत ज़्यादा मेहनत और लागत लगती है, जिससे मुनाफ़ा कम हो जाता है. हाईब्रिड धान की फ़सल का इंतज़ाम ठीक से न होने से कभी फ़सल रोगों की चपेट में आकर बर्बाद हो जाती है, तो कभी वक़्त पर खाद और पानी न मिल पाने से पैदावार घट जाती है.  पारंपरिक देसी क़िस्मों की खेती के बारे में किसानों को अच्छी जानकारी होती है, इसलिए उन्हें किसी तरह की कोई परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ता. इतना ही नहीं, हाईब्रिड क़िस्मों का धान ज़ायक़ेदार भी नहीं होता. 

बहरहाल, किसानों को अपनी सुविधा के हिसाब से ही धान की क़िस्मों और विधि का चयन करना चाहिए, ताकि उन्हें खेती में ज़्यादा परेशानी का सामना न करना पड़े. जो किसान नई क़िस्म या नई पद्धति अपनाना चाहते हैं, तो उन्हें लगातार कृषि परामर्श केंद्रों के संपर्क में रहना चाहिए. कृषि संबंधित जानकारी देने के लिए टोल फ़्री नंबर भी उपलब्ध हैं. किसान इसका फ़ायदा उठा सकते हैं. किसानों को यह बात याद रखनी चाहिए कि लागत जितनी कम होगी, उनका मुनाफ़ा उतना ही ज़्यादा होगा.  

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