ऑड्री डी मेलो
क्रियान्वयन
14 नवम्बर, 2012 को यौन उत्पीड़न से बच्चों की सुरक्षा (पॉसको) अधिनियम लागू किया गया था, जिसके कारण 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों के विरूद्ध यौन हिंसा संबंधी कानूनों में आमूल परिवर्तन हुआ था।
अधिनियम के उद्देश्य इस प्रकार हैं-
· यौन उत्पीड़न से सुरक्षा और बचाव संबंधी बच्चों के अधिकार को सुनिश्चित करना
· यौन गतिविधि के लिए लालच या दबाव के प्रति बच्चों की सुरक्षा
· बच्चों को वेश्यावृत्ति और अश्लील चित्रण के लिए उत्पीडि़त करने से बचाना
· बच्चों के हितों को ऐसे मामलों में गवाही को दर्ज करने, मामले की जांच करने, मुकदमा
चलाने और उसकी रिकॉर्डिंग के दौरान कानूनी सुरक्षा प्रदान करना
· संवेदनशील और मुकदमे जल्द तय करने के लिए विशेष न्यायालयों का गठन
उपरोक्त अधिनियम के तहत 18 साल से कम आयु के लड़कों और लड़कियों को यौन उत्पीड़न के दायरे में रखा गया है। इस अधिनियम में लिंग भेद न करते हुए इसके दायरे में 18 वर्ष से कम आयु के लड़कों और लड़कियों के विरूद्ध होने वाले यौन उत्पीड़न को रखा गया है और इसके दायरे को मात्र शील-भंग तक सीमित न रखकर ऐसे अपराधों में भी शामिल किया गया है जो भारतीय दंड संहिता के तहत दुष्कर्म के दायरे में नहीं आते। अधिनियम में जांच और मुकदमे के दौरान बच्चों की रक्षा के लिए कड़ी सजा और कई प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का भी प्रावधान किया गया है।
परन्तु, मीडिया में इसकी कम ही चर्चा हुई और पुलिस भी बच्चों के विरूद्ध यौन आक्रमण के मामलों में भारतीय दंड संहिता की धाराओं का ही लगातार इस्तेमाल करती रही। परिस्थितियों में बदलाव उसी समय आया जब जनवरी, 2013 में दिल्ली में एक 23 वर्षीय पैरा-मेडिक के साथ जघन्य सामूहिक दुष्कर्म हुआ और उसकी हत्या कर दी गई। इस घटना के विरूद्ध भारी विरोध और रोष पैदा हुआ तथा भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा के प्रति पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित हुआ। उस दौरान मीडिया में इन सवाल पर बहस भी उठी कि क्या ऐसे मामलों के खिलाफ हमारे पास कारगर और कड़े कानूनी प्रावधान हैं। इसके जवाब में, सरकार ने न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा (अब स्वर्गीय) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया, जिसने यौन हिंसा से निपटने के लिए आवश्यक कानूनी प्रावधान और सिफारिशें सरकार को सौंपी। इन सिफारिशों के आधार पर सरकार ने संसद में विधेयक का मसौदा रखा, और बिना किसी विलम्ब के तीन अप्रैल, 2013 को एक संशोधित कानून प्रभावी हुआ, जिसने भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की प्रासंगिक धाराओं में आमूल परिवर्तन की दिशा दी। इन बदलावों के बाद यौन हिंसा की परिभाषा और महिलाओं तथा बच्चों के सुरक्षा संबंधी कानूनी पहलू कमोबेश समान हैं। आसानी के लिए इन्हें तालिका रूप में नीचे दिया जा रहा है:-
पॉसको अधिनियम, 2012 के महत्वपूर्ण प्रावधान
अधिनियम के तहत उत्पीडि़त : 18 वर्ष की आयु के नीचे कोई भी व्यक्ति, चाहे वह नर हो या नारी।
अधिनियम के तहत अभियुक्त : कोई भी व्यक्ति, नर और नारी, व्यस्क या बच्चा।
नोट:- जहां तक बच्चों के विरूद्ध यौन हिंसा का प्रश्न है, कानून लिंग आधारित नहीं है। उल्लेखनीय है कि पॉसको अधिनियम में 'बलात्कार' की जगह 'यौन आक्रमण' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इसकी परिभाषा बहुत विस्तृत है और इसके तहत गैर शील-भंग क्रिया सहित मुख और गुदा यौन तथा योनि, गुदा और शरीर के अन्य छिद्रों में किसी वस्तु के जबरन प्रवेश संबंधी अपराधों को भी रखा गया है। यदि पीडि़त को गंभीर चोट पहुंचे या अपराध किसी अधिकार सम्पन्न व्यक्ति द्वारा किया गया है तब इन अपराधों में 'गंभीर' अपराध की श्रेणी में रखा गया है।
धारा प्रावधान
धारा 3 शील-भंग आधारित यौन आक्रमण : बच्चे की योनि,
मुख, मूत्र मार्ग या गुदा में लिंग, शरीर के अन्य अंगों या किसी पदार्थ को घुसेड़ना या लिंग दाखिल करना।
धारा 5 गंभीर यौनि-भंग आधारित यौन आक्रमण : 'अधिकार सम्पन्न व्यक्ति' और/या अतिरिक्त चोट और घाव पैदा किया जाये।
धारा 7 यौन आक्रमण : यौन इरादे से बच्चे को स्पर्श करना (गैर यौनि-भंग) । बच्चे की योनि, लिंग, गुदा, स्तन या किसी अन्य अंग का स्पर्श करना।
धारा 11 यौन उत्पीड़न : यौन इरादे से कोई शब्द कहना, ध्वनि करना, इशारा करना, शरीर का कोई अंग दिखाना, अश्लील सामग्री दिखाना। बच्चे को उसका कोई अंग दिखाने पर मजबूर करना, बच्चे का पीछा करना, उसका अश्लील चित्रण करने की धमकी देना।
धारा 13 और अश्लील चित्रण : अश्लील चित्रण के लिए बच्चे का
धारा 15 इस्तेमाल। बिक्री के लिए बच्चे के अश्लील चित्रण को जमा करना।
धारा 19-21 अनिवार्य सूचना :
धारा 19(1) कोई भी व्यक्ति जिसे यौन अपराध किये जाने की जानकारी हो या किसी बच्चे पर अपराध होने वाला है, इसकी जानकारी हो।
धारा 20(1) मीडिया, होटलों, लॉजों, अस्पतालों, क्लबों, स्टूडियो और फोटोग्राफी सुविधाओं में प्रबंधन और स्टाफ
धारा 21 सूचना देने या रिकॉर्ड करने में बरती गई कोताही दंडनीय है
धारा 21(3), बहरहाल, सूचना देने में यदि बच्चे से चूक होती है तो वह दंडनीय नहीं है।
पॉसको अधिनियम के तहत सभी अपराधों को गंभीर अपराध माना जाता है। ऐसे अपराध गैर-जमानती और संज्ञेय हैं और सुनवाई सत्र न्यायालय में की जाती है।
भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत संशोधित प्रावधान
एस 376
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एस 376 (2)
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विशिष्ट परिस्थितियां
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एस 376 ए
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आघात जिससे मृत्यु अथवा स्थाई लैंगिक निष्क्रियता हो
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एस 376 बी
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संबंध विच्छेद के दौरान पति द्वारा उसकी पत्नी पर
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एस 376 सी
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अधिकार संपन्न किसी व्यक्ति द्वारा
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एस 376 डी
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सामूहिक बलात्कार
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एस 376 ई
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निरंतर अपराध करने वाले
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एस 354
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मारपीट या शील भंग करने की इच्छा से आपराधिक बल प्रयोग: यदि कोई व्यक्ति मारपीट करता है या किसी महिला का शील भंग करने के लिए आपराधिक बल का प्रयोग करता है
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एस 354 ए
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यौन उत्पीड़न: यदि कोई व्यक्ति शारीरिक संपर्क बनाता है और आगे बढ़ता है या यौन इच्छा पूर्ण करने के लिए अनुरोध करता है, महिला की इच्छा के विपरीत अश्लील तस्वीरें दिखाता है या अश्लील टिप्पणियां करता है
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एस 354 बी
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निर्वस्त्र करने की इच्छा से मारपीट या आपराधिक बल प्रयोग: यदि कोई व्यक्ति किसी महिला को कपड़े उतारने के लिए पीटता है या आपराधिक बल का प्रयोग करता है
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एस 354 सी
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ताक झांक करना : यदि कोई व्यक्ति किसी महिला को अंतरंग अथवा निजी कार्यों के दौरान देखता है या तस्वीर खींचता है या ऐसी तस्वीरों को प्रसारित करता है
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एस 376 डी
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पीछा करना: यदि कोई व्यक्ति किसी महिला का पीछा करता है या महिला द्वारा मना किए जाने के बावजूद उससे संपर्क करता है
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एस 509
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किसी महिला को अपमानित करने के लिए शब्द, भावभंगिमा या अन्य कोई क्रिया कलाप: यदि कोई व्यक्ति इस इच्छा से कि इससे अमुक की निजता भंग होगी या सुना जाएगा, कोई शब्द बोलता है, आवाज़ निकालता है, कोई वस्तु प्रदर्शित करता है
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यह सभी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं, अंत: यह गैर ज़मानती तथा संज्ञेय हैं और ऐसे मामलों की सुनवाई सत्र अदालतों द्वारा किया जाना है।
उपरोक्त कम गंभीर अपराध माने गए हैं अंत: ऐसे मामलों की सुनवाई संबंधित क्षेत्र के प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट (जेएमएफसी) या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा की जाएगी। इनमें से कुछ ज़मानती जबकि कुछ गैरज़मानती अपराध हैं।
प्रक्रियागत सुरक्षा उपाय: महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा के वर्तमान क़ानून के मुताबिक प्राथमिकी दर्ज़ किए जाने से लेकर मुकदमे की सुनवाई तक पीडि़त के संरक्षण हेतु सुरक्षा के अनेक उपाय किए जाते हैं। इनमें से कुछ का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किए जाने के दौरान:
प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए पीडि़त को थाने पर आना अनिवार्य नहीं है। प्राथमिकी पीडि़त के रिश्तेदार या मित्र के द्वारा दर्ज कराई जा सकती है, जो कि शिकायतकर्ता होगा।
प्राथमिकी लिखित में होनी चाहिए और इसे शिकायतकर्ता को पढ़कर सुनाया जाना चाहिए और प्राथमिकी की एक प्रति बिना किसी शुल्क के शिकायतकर्ता को उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
प्राथमिकी दर्ज करने में असफलता एक संज्ञेय अपराध माना जाएगा।
पीडि़त का बयान दर्ज किए जाने के दौरान:
प्राथमिकी दर्ज किए जाने के बाद पुलिस अपराध के संबंध में पीडि़त का विस्तृत बयान दर्ज करेगी, जो कि सामान्य भाषा में लिया जाना चाहिए।
पुलिस को पीडि़त की पहचान मीडिया या जनता के बीच सार्वजनिक नहीं करना चाहिए।
किसी महिला या बच्चे को रात भर के लिए हवालात में नहीं रखा जाना चाहिए।
यदि पीडि़त को अनुवादक की जरूरत हो तो, उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
प्राथमिकी दर्ज किए जाने के 24 घंटे के अंदर देखभाल और चिकित्सकीय परीक्षण हेतु पीडि़त को नज़दीकी अस्पताल में पहुंचाया जाना चाहिए।
यदि पीडि़त की कोई विशेष मांग है, तो उसे पूरा किया जाना चाहिए।
यदि पीडि़त बच्चा है:
· बच्चे का बयान बच्चे के घर पर दर्ज किया जाए या जहां उसे सुविधा हो वहां दर्ज किया जाए।
· बयान दर्ज करने वाला अधिकारी सब इंस्पेक्टर से नीचे के पद का ना हो और महिला अधिकारी हो तो बेहतर है।
· पुलिस अधिकारी वर्दी में ना हो।
· अभियुक्त से बच्चे का संपर्क किसी भी तौर पर ना हो।
· बच्चा जिस पर विश्वास करता हो वह साथ में रहे।
· मानसिक या शारीरिक (अस्थाई या स्थाई) रूप से अक्षम बच्चे के मामले में विशेष शिक्षक/विशेषज्ञ को बुलाया जाए।
· यदि संभव हो बच्चे का बयान आडिया-वीडियो माध्यम से दर्ज किया जाए।
· यदि आवश्यक हो तो पुलिस बच्चे को आपात स्थिति में नजदीकी आश्रय स्थल पर ले जाए और उसे बाल कल्याण समिति के सामने पेश करे।
· पुलिस बाल यौन अपराध के सभी मामलों को 24 घंटे के अंदर बाल कल्याण समिति और विशेष अदालत को बताए।
मेडिकल और फोरेंसिक जांच:
मेडिकल जांच के समय वह व्यक्ति मौजूद रहे जिस पर बच्चे को भरोसा है।
एक महिला पीडि़ता की जांच केवल एक महिला चिकित्सक ही करेगी।
पुलिस यह सुनिश्चित करे कि अस्पताल से इकट्ठा किए गए नमूनों को जल्द से जल्द फारेंसिक प्रयोगशाला भेजे।
चिकित्सक बच्चे के घाव, खरोंच और गुप्तांगों की चोटों का इलाज करेंगे। चिकित्सक पीडि़त बच्चे या बच्चे के अभिभावकों के साथ संभावित गर्भावस्था और आपात गर्भनिरोधकों पर चर्चा करेंगे। नियम 5 (4)
पीडि़त बच्चों को मनोवैज्ञानिक और अन्य परामर्श के लिए भेजा जा सकता है।
अस्पताल द्वारा पीडि़त का इलाज नहीं करना एक दंडनीय अपराध है जिसमें सीआरपीसी की धारा 166 बी के तहत एक वर्ष की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकता है।
चिकित्सा और फोरेंसिक जांच केंद्रीय दिशा निर्देशों या संबंधित राज्य द्वारा जारी दिशा निर्देशों के तहत ही की जायेगी।
घटना के कारण शारीरिक और मनोवैज्ञानिक आघात से उबरने के लिए वित्तीय मदद की योजना:
कई राज्यों ने पीडि़तों को मुआवजा देने या वित्तीय मदद उपलब्ध कराने के लिए कई योजनाएं शुरू की है। ये योजनाएं विभिन्न प्रकार की हैं।
महाराष्ट्र सरकार ने बलात्कार और तेजाब हमलों की शिकार महिलाओं के लिए ‘’मनोधैर्य योजना’’ शुरू की है जिसके तहत प्राथमिकी दर्ज होने के कुछ ही सप्ताह के भीतर मुआवजा दे दिया जाता है। इस योजना के तहत सुनवाई के दौरान कानूनी मदद भी उपलब्ध कराई जाती है।
सुनवाई के दौरान
पोस्को अधिनियम के तहत सुनवाई के लिए बच्चों के अनुकूल विशेष अदालतों की स्थापना करने का प्रावधान है।
कई राज्यों ने महिलाओं और बच्चों के यौन उत्पीड़न के सभी मामलों के लिए विशेष अदालतें गठित की हैं।
यौन उत्पीड़न के सभी मामलों की सुनवाई बंद कमरों में होनी चाहिए।
पीडि़त के अदालती बयान और जिरह के दौरान अदालत के भीतर अपने करीबी एक व्यक्ति को साथ रखने की अनुमति दी जानी चाहिए।
जिरह के दौरान पीडि़त या पीडि़ता या बच्चे से घटना से पहले की उसकी यौनिक पृष्ठभूमि संबंधी सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए ताकि उन्हें मानसिक आघात न पहुंचे।
सात से कम उम्र के पीडि़त बच्चों से प्रत्यक्ष रूप से जिरह नहीं की जा सकती। वकील को अपने सवालों की सूची को न्यायाधीश को लिखित में देनी चाहिए।
निष्कर्ष
यदि इन सभी रक्षात्मक उपायों का कड़ाई से पालन किया जाता है तो पीडि़त या पीडि़ता के लिए जांच और सुनवाई एक डरावना अनुभव नहीं होगी और इससे पीडि़त या पीडि़ता की गरिमा को भी कायम रखा जा सकता है।
सुश्री एयुड्रेइ डी मेलो मजलिस लीगल सेंटर की कार्यक्रम निदेशक है। मजलिस लीगल सेंटर महाराष्ट्र में घरेलू और यौन हिंसा के पीडि़तों को सामाजिक कानूनी मदद उपलब्ध कराता है।
यह सेंटर महाराष्ट्र सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग के सहयोग से महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित कानूनों का प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन सुनिश्चित कराता है।